ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 52
From जैनकोष
अणुव्रतं विकलव्रतम् । किं तत् ? व्यपुरमणं व्यावर्तनं यत् । केभ्य: इत्याह- प्राणेत्यादि प्राणानामिन्द्रियादीनामतिपातश्चातिपतनं वियोगकरणं विनाशनम् । वितथव्याहाराश्च वितथो असत्य: स चासौ व्याहारश्च शब्द:। स्तेयं च चौर्यम्। कामश्च मैथुनम्। मूर्च्छा च परिग्रह: मूर्च्छा च मूच्छ्र्यते लोभावेशात् परिग्रह्यते इति मूर्च्छा इति व्युत्पत्ते: । तेभ्य: । कथम्भूतेभ्य: ? स्थूलेभ्य: । अणुव्रतधारिणो हि सर्वसावद्यविरतेरसम्भवात् स्थूलेभ्य एव हिंसादिभ्यो व्यपुरमणं भवति । स हि त्रसप्राणातिपातात्रसप्राणातिपातान्निव्रत्तो न स्थावरप्राणातिपातात् । तथा पापादिभयात् परपीडादिकारणमिति मत्वा स्थूलादसत्यवचननिव्रत्तो न तदि्वपरीतात् । तथा उपात्ताया अनुपात्तायाश्च पराङ्गनाया: पापाभयादिना निव्रत्तो नान्यथा इति स्थूलरूपात् परिग्रहान्निव्रत्ति: । कथम्भूतेभ्य: प्राणातिपातादिभ्य: ? पापेभ्य: पापास्रणद्वारेभ्य: ॥५२॥
प्राणातिपातवितथ व्याहारस्तेय काम मूर्च्छाभ्यः
स्थूलेभ्य: पापेभ्यो व्युपरमणमणुव्रतं भवति ॥52॥
टीका:
अणुव्रतं विकलव्रतम् । किं तत् ? व्यपुरमणं व्यावर्तनं यत् । केभ्य: इत्याह- प्राणेत्यादि प्राणानामिन्द्रियादीनामतिपातश्चातिपतनं वियोगकरणं विनाशनम् । वितथव्याहाराश्च वितथो असत्य: स चासौ व्याहारश्च शब्द:। स्तेयं च चौर्यम्। कामश्च मैथुनम्। मूर्च्छा च परिग्रह: मूर्च्छा च मूच्छ्र्यते लोभावेशात् परिग्रह्यते इति मूर्च्छा इति व्युत्पत्ते: । तेभ्य: । कथम्भूतेभ्य: ? स्थूलेभ्य: । अणुव्रतधारिणो हि सर्वसावद्यविरतेरसम्भवात् स्थूलेभ्य एव हिंसादिभ्यो व्यपुरमणं भवति । स हि त्रसप्राणातिपातात्रसप्राणातिपातान्निव्रत्तो न स्थावरप्राणातिपातात् । तथा पापादिभयात् परपीडादिकारणमिति मत्वा स्थूलादसत्यवचननिव्रत्तो न तदि्वपरीतात् । तथा उपात्ताया अनुपात्तायाश्च पराङ्गनाया: पापाभयादिना निव्रत्तो नान्यथा इति स्थूलरूपात् परिग्रहान्निव्रत्ति: । कथम्भूतेभ्य: प्राणातिपातादिभ्य: ? पापेभ्य: पापास्रणद्वारेभ्य: ॥५२॥
अणुव्रत का लक्षण
प्राणातिपातवितथ व्याहारस्तेय काम मूर्च्छाभ्यः
स्थूलेभ्य: पापेभ्यो व्युपरमणमणुव्रतं भवति ॥52॥
टीकार्थ:
इन्द्रियादि प्राणों का वियोग करना प्राणातिपात है । असत्य वचन बोलना वितथ-व्यवहार है । स्वामी की आज्ञा के बिना किसी वस्तु को ग्रहण करना चोरी है । मैथुन-सेवन काम है और लोभ के वशीभूत होकर बाह्य परिग्रह को ग्रहण करना परिग्रह-मूच्र्छा है । ये पाँच पाप स्थूल और सूक्ष्म की अपेक्षा दो प्रकार के हैं । इनमें स्थूल पापों से विरक्त होना अणुव्रत कहलाता है । अणुव्रतधारी जीवों के सूक्ष्म सम्पूर्ण पापों का त्याग होना असम्भव है । इसलिए वे स्थूल हिंसादि पापों का ही त्याग कर अणुव्रत धारण कर सकते हैं । अहिंसाणुव्रतधारी पुरुष त्रसहिंसा से तो विरक्त होता है, परन्तु स्थावर हिंसा से निवृत्त नहीं होता । सत्याणुव्रत का धारक पापादिक के भय से पर-पीड़ाकारकादि स्थूल असत्य वचन से निवृत्त होता है, किन्तु सूक्ष्म असत्य वचन से नहीं । अचौर्याणुव्रत का धारी पुरुष राजादिक के भय से दूसरे के द्वारा छोड़ी गई अदत्तवस्तु का स्थूलरूप से त्यागी होता है, सूक्ष्मरूप से नहीं । ब्रह्मचर्याणुव्रत का धारक पाप के भय से दूसरे की गृहीत अथवा अगृहीत स्त्री से विरक्त होता है, स्वस्त्री से नहीं । इसी प्रकार परिग्रह परिमाणाणुव्रत का धारी पुरुष धन-धान्य तथा खेत आदि परिग्रह का अपनी इच्छानुसार परिमाण करता है, इसलिए स्थूल परिग्रह का ही त्यागी होता है, सूक्ष्म का नहीं । ये हिंसादि कार्य पापरूप हैं, क्योंकि पाप कर्मों के आस्रव के द्वारा हैं। इनके निमित्त से जीव के सदा पापकर्मों का आस्रव होता रहता है ।