लोक
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
- लोकस्वरूप का तुलनात्मक अध्ययन
- लोकसामान्य निर्देश
- अलोकाकाश व लोकाकाश में द्रव्यों का अवगाह। - देखें आकाश - 1.3।
- लोक का लक्षण।
- लोक का आकार।
- लोक का विस्तार
- वातवलयों का परिचय।
- लोक के आठ रुचक प्रदेश।
- लोक विभाग निर्देश।
- त्रस व स्थावर लोक निर्देश।
- अधोलोक सामान्य परिचय।
- भावनलोक निर्देश।
- व्यंतरलोक निर्देश।
- मध्य लोक निर्देश।
- ज्योतिष लोक सामान्य निर्देश।
- ज्योतिष विमानों की संचारविधि। - देखें ज्योतिष - 2.7।
- अलोकाकाश व लोकाकाश में द्रव्यों का अवगाह। - देखें आकाश - 1.3।
- जंबूद्वीप निर्देश
- जंबूद्वीप सामान्य निर्देश।
- जंबूद्वीप में क्षेत्र, पर्वत, नदी, आदि का प्रमाण।
- क्षेत्र निर्देश।
- कुलाचल पर्वत निर्देश।
- विजयार्ध पर्वत निर्देश।
- सुमेरु पर्वत निर्देश।
- पांडुक शिला निर्देश।
- अन्य पर्वतों का निर्देश।
- द्रह निर्देश।
- कुंड निर्देश।
- नदी निर्देश।
- देवकुरु व उत्तरकुरु निर्देश।
- जंबू व शाल्मली वृक्षस्थल।
- विदेह के क्षेत्र निर्देश।
- लोकस्थित कल्पवृक्ष व कमलादि। - देखें वृक्ष । 1/4
- लोकस्थित चैत्यालय।- देखें चैत्य चैत्यालय - 3।
- जंबूद्वीप सामान्य निर्देश।
- अन्य द्वीप सागर निर्देश
- द्वीप पर्वतों आदि के नाम रस आदि
- द्वीप, समुद्रों के अधिपति देव - देखें व्यंतर - 4.7।
- द्वीप, समुद्रों आदि के नामों की अन्वर्थता। - देखें वह वह नाम ।
- जंबूद्वीप के पर्वतों के नाम
- जंबूद्वीप के पर्वतीय कूट व तन्निवासी देव।
- सुमेरु पर्वत के वनों में कूटों के नाम व देव।
- जंबूद्वीप के द्रहों व वापियों के नाम।
- महा द्रह के कूटों के नाम।
- जंबूद्वीप की नदियों के नाम।
- लवण सागर के पर्वत पाताल व तन्निवासी देव।
- मानुषोत्तर पर्वत के कूटों व देवों के नाम।
- नंदीश्वर द्वीप की वापियाँ व उनके देव।
- कुंडलवर पर्वत के कूटों व देवों के नाम।
- रुचक पर्वत के कूटों व देवों के नाम।
- पर्वतों आदि के वर्ण।
- द्वीप, समुद्रों के अधिपति देव - देखें व्यंतर - 4.7।
- द्वीप क्षेत्र पर्वत आदि का विस्तार
- द्वीप-सागरों का सामान्य विस्तार।
- लवणसागर व उसके पातालादि।
- अढाई द्वीप के क्षेत्रों का विस्तार।
- जंबूद्वीप के पर्वतों व कूटों का विस्तार
- शेष द्वीपों के पर्वतों व कूटों का विस्तार।
- अढाई द्वीप के वनखंडों का विस्तार।
- अढाई द्वीप की नदियों का विस्तार।
- मध्यलोक की वापियों व कुंडों का विस्तार।
- अढाई द्वीप के कमलों का विस्तार।
- द्वीप-सागरों का सामान्य विस्तार।
- लोक के चित्र
- वैदिक धर्माभिमत भूगोल
- बौद्ध धर्माभिमत भूगोल
- अधोलोक
- अधोलोक सामान्य
- प्रत्येक पटल में इंद्रक व श्रेणीबद्ध
- रत्नप्रभा पृथिवी
- अब्बहुल भाग में नरकों के पटल
- भावन लोक
- रत्नप्रभा पृथिवी
- ज्योतिष लोक
- मध्यलोक में चरज्योतिष विमानों का अवस्थान।
- ज्योतिष विमानों का आकार।
- अचर ज्योतिष विमानों का अवस्थान।
- ज्योतिष विमानों की संचारविधि।
- मध्यलोक में चरज्योतिष विमानों का अवस्थान।
- ऊर्ध्व लोक
- पद्मद्रह।- देखें चित्र सं - 24।
- सुमेरु पर्वत
- नाभिगिरि पर्वत
- गजदंत पर्वत
- यमक व कांचन गिरि
- पद्म द्रह
- पद्म द्रह के मध्यवर्ती कमल
- देव कुरु व उत्तर कुरु
- विदेह का कच्छा क्षेत्र
- पूर्वापर विदेह - देखें चित्र सं - 13
- जंबू व शाल्मली वृक्ष स्थल
- लवण सागर
- अधोलोक सामान्य
- लोकस्वरूप का तुलनात्मक अध्ययन
- लोकनिर्देश का सामान्य परिचय
पृथिवी, इसके चारों ओर का वायुमंडल, इसके नीचे की रचना तथा इसके ऊपर आकाश में स्थित सौरमंडल का स्वरूप आदि, इनके ऊपर रहने वाली जीव राशि, इनमें उत्पन्न होने वाले पदार्थ, एक दूसरे के साथ इनका संबंध। ये सब कुछ वर्णन भूगोल का विषय है। प्रत्यक्ष होने से केवल इस पृथिवी मंडल की रचना तो सर्व सम्मत है, परंतु अन्य बातों का विस्तार जानने के लिए अनुमान ही एकमात्र आधार है। यद्यपि आधुनिक यंत्रों से इसके अतिरिक्त कुछ अन्य भूखंडों का भी प्रत्यक्ष करना संभव है पर असीम लोक की अपेक्षा वह किसी गणना में नहीं है। यंत्रों से भी अधिक विश्वस्त योगियों की सूक्ष्म दृष्टि है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखने पर लोकों की रचना के रूप में यह सब कथन व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति व अवनति का प्रदर्शन मात्र है। एक स्वतंत्र विषय होने के कारण उसका दिग्दर्शन यहाँ कराया जाना संभव नहीं है। आज तक भारत में भूगोल का आधार वह दृष्टि ही रही है। जैन, वैदिक व बौद्ध आदि सभी दर्शनकारों ने अपने-अपने ढंग से इस विषय का स्पर्श किया है और आज के आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी। सभी की मान्यताएँ भिन्न-भिन्न होती हुई भी कुछ अंशों में मिलती हैं। जैन व वैदिक भूगोल काफी अंशों में मिलता है। वर्तमान भूगोल के साथ किसी प्रकार भी मेल बैठता दिखाई नहीं देता, परंतु यदि विशेषज्ञ चाहें तो इस विषय की गहराइयों में प्रवेश करके आचार्यों के प्रतिपादन की सत्यता सिद्ध कर सकते हैं। इन्हीं सब दृष्टियों की संक्षिप्त तुलना इस अधिकार में की गयी है।
- जैनाभिमत भूगोल-परिचय
जैसा कि अगले अधिकारों पर से जाना जाता है, इस अनंत आकाश के मध्य का वह अनादि व अकृत्रिम भाग जिसमें कि जीव, पुद्गल आदि षट्द्रव्य समुदाय दिखाई देता है, वह लोक कहलाता है, जो इस समस्त आकाश की तुलना में ना के बराबर है। - लोक नाम से प्रसद्धि आकाश का यह खंड मनुष्याकार है तथा चारों ओर तीन प्रकार की वायुओं से वेष्ठित है। लोक के ऊपर से लेकर नीचे तक बीचों-बीच एक राजू प्रमाण विस्तार युक्त त्रसनाली है। त्रस जीव इससे बाहर नहीं रहते पर स्थावर जीव सर्वत्र रहते हैं। यह तीन भागों में विभक्त हैं - अधोलोक, मध्यलोक व ऊर्ध्वलोक। अधोलोक में नारकी जीवों के रहने के अति दु:खमय रौरव आदि सात नरक हैं, जहाँ पापी जीव मरकर जन्म लेते हैं, और ऊर्ध्वलोक में करोड़ों योजनों के अंतराल से एक के ऊपर एक करके 16स्वर्गों में कल्पवासी विमान हैं। जहाँ पुण्यात्मा जीव मरकर जन्मते हैं। उनसे भी ऊपर एक भवावतारी लौकांतिकों के रहने का स्थान है, तथा लोक के शीर्ष पर सिद्धलोक है जहाँ कि मुक्त जीव ज्ञानमात्र शरीर के साथ अवस्थित हैं। मध्यलोक में वलयाकार रूप से अवस्थित असंख्यातों द्वीप व समुद्र एक के पीछे एक को वेष्ठित करते हैं। जंबू, धातकी, पुष्कर आदि तो द्वीप हैं और लवणोद, कालोद, वारुणीवर, क्षीरवर, इक्षुवर, आदि समुद्र हैं। प्रत्येक द्वीप व समुद्र पूर्व-पूर्व की अपेक्षा दूने विस्तार युक्त हैं। सबके बीच में जंबू द्वीप है, जिसके बीचों-बीच सुमेरु पर्वत है। पुष्कर द्वीप के बीचों-बीच वलयाकार मानुषोत्तर पर्वत है, जिससे उसके दो भाग हो जाते हैं।
जंबू द्वीप, धातकी व पुष्कर का अभ्यंतर अर्धभाग, ये अढाई द्वीप हैं इनसे आगे मनुष्यों का निवास नहीं है। शेष द्वीपों में तिर्यंच व भूतप्रेत आदि व्यंतर देव निवास करते हैं। - जंबूद्वीप में सुमेरु के दक्षिण में हिमवान, महाहिमवान व निषध, तथा उत्तर में नील, रुक्मि व शिखरी ये छः कुलपर्वत हैं जो इस द्वीप को भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत व ऐरावत नामवाले सात क्षेत्रों में विभक्त करते हैं। प्रत्येक पर्वत पर एक महाह्रद है जिनमें से दो-दो नदियाँ निकलकर प्रत्येक क्षेत्र में पूर्व व पश्चिम दिशा मुख से बहती हुई लवण सागर में मिल जाती है। उस-उस क्षेत्र में वे नदियाँ अन्य सहस्रों परिवार नदियों को अपने में समा लेती हैं। भरत व ऐरावत क्षेत्रों में बीचों-बीच एक-एक विजयार्धपर्वत है। इन क्षेत्रों की दो-दो नदियों व इस पर्वत के कारण ये क्षेत्र छः-छः खंडों में विभाजित हो जाते हैं, जिनमें मध्यवर्ती एक खंड में आर्य जन रहते हैं और शेष पाँच में म्लेच्छ। इन दोनों क्षेत्रों में ही धर्म-कर्म व सुख-दु:ख आदि की हानि-वृद्धि होती है, शेष क्षेत्र सदा अवस्थित हैं। - विदेह क्षेत्र में सुमेरु के दक्षिण व उत्तर में निषध व नील पर्वतस्पर्शी सौमनस, विद्युत्प्रभ तथा गंधमादन व माल्यवान नाम के दो-दो गजदंताकार पर्वत हैं, जिनके मध्य देवकुरु व उत्तरकुरु नाम की दो उत्कृष्ट भोगभूमियाँ हैं, जहाँ के मनुष्य व तिर्यंच बिना कुछ कार्य करे अति सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं। उनकी आयु भी असंख्यातों वर्ष की होती है। इन दोनों क्षेत्रों में जंबू व शाल्मली नाम के दो वृक्ष हैं। जंबू वृक्ष के कारण ही इसका नाम जंबूद्वीप है। इसके पूर्व व पश्चिम भाग में से प्रत्येक में 16,16 क्षेत्र हैं जो 32 विदेह कहलाते हैं। इनका विभाग वहाँ स्थित पर्वत व नदियों के कारण से हुआ है। प्रत्येक क्षेत्र में भरतक्षेत्रवत् छह खंडों की रचना है। इन क्षेत्रों में कभी धर्म विच्छेद नहीं होता। - दूसरे व तीसरे आधे द्वीप में पूर्व व पश्चिम विस्तार के मध्य एक-एक सुमेरु है। प्रत्येक सुमेरु संबंधी छः पर्वत व सात क्षेत्र हैं जिनकी रचना उपरोक्तवत् है। - लवणोद के तलभाग में अनेकों पाताल हैं, जिनमें वायु की हानि-वृद्धि के कारण सागर के जल में भी हानि-वृद्धि होती रहती है। पृथिवीतल से 790 योजन ऊपर आकाश में क्रम से सितारे, सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, बुध, शुक्र, वृहस्पति, मंगल व शनीचर इन ज्योतिष ग्रहों के संचार क्षेत्र अवस्थित हैं, जिनका उल्लंघन न करते हुए वे सदा सुमेरु की प्रदक्षिणा देते हुए घूमा करते हैं। इसी के कारण दिन, रात, वर्षा ऋतु आदि की उत्पत्ति होती है। जैनाम्नाय में चंद्रमा की अपेक्षा सूर्य छोटा माना जाता है।
- वैदिक धर्माभिमत भूगोल-परिचय
-देखें आगे चित्र सं - 1 से 4।
(विष्णु पुराण/2/2-7 के आधार पर कथित भावार्थ) इस पृथिवी पर जंबू, प्लक्ष, शाल्मल, कुश, क्रौंच, शाक और पुष्कर ये सात द्वीप, तथा लवणोद, इक्षुरस, सुरोद, सर्पिस्सलिल, दधितोय, क्षीरोद और स्वादुसलिल ये सात समुद्र हैं (2/2-4) जो चूड़ी के आकार रूप से एक दूसरे को वेष्टित करके स्थित हैं। ये द्वीप पूर्व-पूर्व द्वीप की अपेक्षा दूने विस्तारवाले हैं। (2/4, 88)।
इन सबके बीच में जंबूद्वीप और उसके बीच में 84000 योजन ऊँचा सुमेरु पर्वत है। जो 16000 योजन पृथिवी में घुसा हुआ है। सुमेरु से दक्षिण में हिमवान, हेमकूट और निषध तथा उत्तर मे नील, श्वेत और शृंगी ये छः वर्ष पर्वत हैं। जो इसको भारतवर्ष, किंपुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्यक, हिरण्यमय और उत्तर कुरु, इन सात क्षेत्रों में विभक्त कर देते हैं। - नोट - जंबूद्वीप की चातुर्द्वीपिक भूगोल के साथ तुलना (देखें चातुर्द्विपिक भूगोल परिचय)। मेरु पर्वत की पूर्व व पश्चिम में इलावृत की मर्यादाभूत माल्यवान व गंधमादन नाम के दो पर्वत हैं जो निषध व नील तक फैले हुए हैं। मेरु के चारों ओर पूर्वादि दिशाओं में मंदर, गंधमादन, विपुल, और सुपार्श्व ये चार पर्वत हैं। इनके ऊपर क्रमश: कदंब, जंबू, पीपल व बट ये चार वृक्ष हैं। जंबूवृक्ष के नाम से ही यह द्वीप जन्बूद्वीप नाम से प्रसिद्ध है। वर्षों में भारतवर्ष कर्मभूमि है और शेष वर्ष भोगभूमियाँ हैं क्योंकि भारत में ही कृतयुग, त्रेतायुग, द्वापर और कलियुग ये चार काल वर्तते हैं और स्वर्ग मोक्ष के पुरुषार्थ की सिद्धि है। अन्य क्षेत्रों में सदा त्रेता युग रहता है और वहां के निवासी पुण्यवान व आधि-व्याधि से रहित होते हैं। (अध्याय 2)।
भरतक्षेत्र में महेंद्र आदि छः कुलपर्वत हैं, जिनसे चंद्रमा आदि अनेक नदियाँ निकलती हैं। नदियों के किनारों पर कुरु पाँचाल आदि (आर्य) और पौंड्र कलिंग आदि (म्लेच्छ) लोग रहते हैं। (अध्याय 3) इसी प्रकार प्लक्षद्वीप में भी पर्वत व उनसे विभाजित क्षेत्र हैं। वहाँ प्लक्ष नाम का वृक्ष है और सदा त्रेता काल रहता है। शाल्मल आदि शेष सर्व द्वीपों की रचना प्लक्ष द्वीपवत् है। पुष्कर द्वीप के बीचों-बीच वलयाकार मानुषोत्तर पर्वत है जिससे उसके दो खंड हो गये हैं। अभ्यंतर खंड का नाम धातकी है। यहाँ भोगभूमि है इस द्वीप में पर्वत व नदियाँ नहीं हैं। इस द्वीप को स्वादूदक समुद्र वेष्ठित करता है। इससे आगे प्राणियों का निवास नहीं है। (अध्याय 4)।
इस भूखंड के नीचे दस-दस हजार योजन के सात पाताल हैं - अतल, वितल, नितल, गभस्तिमत्, महातल, सुतल और पाताल। पातालों के नीचे विष्णु भगवान् हजारों फनों से युक्त शेषनाग के रूप में स्थित होते हुए इस भूखंड को अपने सिर पर धारण करते हैं। (अध्याय 5) पृथिवीतल और जल के नीचे रौरव, सूकर, रोध, ताल, विशसन, महाज्वाल, तप्तकुंभ, लवण, विलोहित, रुधिरांभ, वैतरणी, कृमीश, कृमिभोजन, असिपत्र वन, कृष्ण, लालाभक्ष, दारुण, पूयवह, पाप, बह्णिज्वाल, अधःशिरा, संदंश, कालसूत्र, तमस्, अवीचि, श्वभोजन, अप्रतिष्ठ, और अरुचि आदि महाभयंकर नरक हैं, जहाँ पापी जीव मरकर जन्म लेते हैं। (अध्याय 6) भूमि से एक लाख योजन ऊपर जाकर, एक-एक लाख योजन के अंतराल से सूर्य, चंद्र, व नक्षत्र मंडल स्थित हैं, तथा उनके ऊपर दो - दो लाख योजन के अंतराल से बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति, शनि, तथा इनके ऊपर एक-एक लाख योजन के अंतराल से सप्तऋषि व ध्रुव तारे स्थित हैं। इससे 1 करोड़ योजन ऊपर महर्लोक है जहाँ कल्पों तक जीवित रहने वाले कल्पवासी भृगु आदि सिद्धगण रहते हैं। इससे 2 करोड़ योजन ऊपर जनलोक है जहाँ ब्रह्माजी के पुत्र सनकादि रहते हैं। आठ करोड़ योजन ऊपर तप लोक है जहाँ वैराज देव निवास करते हैं।
12 करोड़ योजन ऊपर सत्यलोक है, जहाँ फिर से न मरनेवाले जीव रहते हैं, इसे ब्रह्मलोक भी कहते हैं। भूलोक व सूर्यलोक के मध्य में मुनिजनों से सेवित भुवलोक है और सूर्य तथा ध्रुव के बीच में 14 लाख योजन स्वलोक कहलाता है। ये तीनों लोक कृतक हैं। जनलोक, तपलोक व सत्यलोक ये तीन अकृतक हैं। इन दोनों कृतक व अकृतक के मध्य में महर्लोक है। इसलिए यह कृताकृतक है। (अध्याय 7)।
- बौद्धाभिमत भूगोल-परिचय
(5वीं शताब्दी के वसुबंधुकृत अभिधर्मकोश के आधार पर तिलोयपण्णत्ति/ प्र. 87/ H.L. Jain द्वारा कथित का भावार्थ )। लोक के अधोभाग में 16,00,000 योजन ऊँचा अपरिमित वायुमंडल है। इसके ऊपर 11,20,000 योजन ऊँचा जलमंडल है। इस जलमंडल में 3,20,000 यो. भूमंडल है। इस भूमंडल के बीच में मेरु पर्वत है। आगे 80,000 योजन विस्तृत सीता (समुद्र) है जो मेरु को चारों ओर से वेष्ठित करके स्थित है। इसके आगे 40,000 योजन विस्तृत युगंधर पर्वत वलयाकार से स्थित है। इसके आगे भी इसी प्रकार एक एक सीता (समुद्र) के अंतराल से उत्तरोत्तर आधे-आधे विस्तार से युक्त क्रमशः ईषाधर, खदिरक, सुदर्शन, अश्वकर्ण, विनतक, और निर्मिधर पर्वत हैं। अंत में लोहमय चक्रवाल पर्वत है। निमिंधर और चक्रवाल पर्वतों के मध्य में जो समुद्र स्थित है उसमें मेरू को पूर्वादि दिशाओं में क्रम से अर्धचंद्राकार पूर्वविदेह, शकटाकार जंबूद्वीप, मंडलाकार अबरगोदानीय और समचतुष्कोण उत्तरकुरु ये चार द्वीप स्थित हैं। इन चारों के पार्श्व भागों में दो-दो अंतर्द्वीप हैं। उनमें से जंबूद्वीप के पासवाले चमरद्वीप में राक्षसों का और शेष द्वीप में मनुष्यों का निवास है। जंबूद्वीप में उत्तर की ओर 9 कीटाद्रि (छोटे पर्वत) तथा उनके आगे हिमवान पर्वत अवस्थित है। उसके आगे अनवतप्त नामक अगाध सरोवर है, जिसमें से गंगा, सिंधु, वक्षु और सीता ये नदियाँ निकलती हैं। उक्त सरोवर के समीप में जंबू वृक्ष है। जिसके कारण इस द्वीप का जंबू ऐसा नाम पड़ा है। जंबूद्वीप के नीचे 20,000 योजन प्रमाण अवीचि नामक नरक है। उसके ऊपर क्रमशः प्रतापन आदि सात नरक और हैं। इन नरकों के चारों पार्श्व भाग में कुकूल, कुणप, क्षुरमार्गादिक और खारोदक (असिपत्रवन, श्यामशबल-श्व-स्थान, अयःशाल्मली वन और वैतरणीनदी) ये चार उत्सद है। इन नरकों के धरातल में आठ शीत नरक और हैं। भूमि से 40,000 योजन ऊपर जाकर चंद्रसूर्य परिभ्रमण करते हैं। जिस समय जंबूद्वीप में मध्याह्न होता है उस समय उत्तरकुरु में अर्धरात्रि, पूर्वविदेह में अस्तगमन और अवरगोदानीय में सूर्योदय होता है। मेरु पर्वत की पूर्वादि दिशाओं में उसके चार परिषंड (विभाग) हैं, जिन पर क्रम से यक्ष, मालाधार, सदामद और चातुर्महाराजिक देव रहते हैं। इसी प्रकार शेष सात पर्वतों पर भी देवों के निवास हैं। मेरुशिखर पर त्रायस्त्रिंश (स्वर्ग) है। इससे ऊपर विमानों में याम, तुषित आदि देव रहते हैं। उपरोक्त देवों में चातुर्महाराजिक, और त्रायस्त्रिंश देव मनुष्यवत् काम-भोग भोगते हैं। याम, तुषित आदि क्रमशः आलिंगन, पाणिसंयोग, हसित और अवलोकन से तृप्ति को प्राप्त होते हैं। उपरोक्त कामधातु देवों के ऊपर रूपधातु देवों के ब्रह्मकायिक आदि 17 स्थान हैं। ये सब क्रमशः ऊपर - ऊपर अवस्थित हैं। जंबूद्वीपवासी मनुष्यों की ऊँचाई केवल 3 1/2 हाथ है। आगे क्रम से बढ़ती हई अनभ्र देवों के शरीर की ऊँचाई 125 योजन प्रमाण है।
- आधुनिक विश्व परिचय
लोक के स्वरूप का निर्देश करने के अंतर्गत दो बातें जाननीय हैं - खगोल तथा भूगोल। खगोल की दृष्टि से देखने पर इस असीम आकाश में असंख्यातों गोलाकार भूखंड हैं। सभी भ्रमणशील हैं। भौतिक पदार्थों के आण्विक विधान की भाँति इनके भ्रमण में अनेक प्रकार की गतियें देखी जा सकती हैं। पहली गति है प्रत्येक भूखंड का अपने स्थान पर अवस्थित रहते हुए अपने ही धुरी पर लट्टू की भाँति घूमते रहना। दूसरी गति है सूर्य जैसे किसी बड़े भूखंड को मध्यम में स्थापित करके गाड़ी के चक्के में लगे अरों की भाँति अनेकों अन्य भूखंडों का उसकी परिक्रमा करते रहना, परंतु परिक्रमा करते हुए भी अपनी परिधि का उल्लंघन न करना। परिक्रमाशील इन भूखंडों के समुदाय को एक सौर-मंडल या एक ज्योतिषि-मंडल कहा जाता है। प्रत्येक सौर-मंडल में केंद्रवर्ती एक सूर्य होता है और अरों के स्थानवर्ती अनेकों अन्य भूखंड होते हैं, जिनमें एक चंद्रमा, अनेकों ग्रह, अनेकों उपग्रह तथा अनेकों पृथ्वियें सम्मिलित हैं। ऐसे-ऐसे सौर-मंडल इस आकाश में न जाने कितने हैं। प्रत्येक भूखंड गोले की भाँति गोल है परंतु प्रत्येक सौर-मंडल गाड़ी के पहिये की भाँति चक्राकार है। तीसरी गति है किसी और मंडल को मध्य में स्थापित करके अन्य अनेकों सौर-मंडलों द्वारा उसकी परिक्रमा करते रहना, और परिक्रमा करते हुए भी अपनी परिधि का उल्लंघन न करना।
इन भूखंडों में से अनेकों पर अनेक आकार प्रकार वाली जीव राशि का वास है, और अनेकों पर प्रलय जैसी स्थिति है। जल तथा वायु का अभाव हो जाने के कारण उन पर आज बसती होना संभव नहीं है। जिन पर आज बसती बनी है उन पर पहले कभी प्रलय थी और जिन पर आज प्रलय है उन पर आगे कभी बसती हो जाने वाली है। कुछ भूखंडों पर बसने वाले अत्यंत सुखी हैं और कुछ पर रहने वाले अत्यंत दुःखी, जैसे कि अंतरिक्ष की आधुनिक खोज के अनुसार मंगल पर जो बसती पाई गई है वह नारकीय यातनायें भोग रही है।
जिस भूखंड पर हम रहते हैं यह भी पहले कभी अग्नि का गोला था जो सूर्य में से छिटक कर बाहर निकल गया था। पीछे इसका ऊपरी तल ठंडा हो गया। इसके भीतर अब भी ज्वाला धधक रही है। वायुमंडल धरातल से लेकर इसके ऊपर उत्तरोत्तर विरल होते हुए 500 मील तक फैला हुआ है। पहले इस पर जीवों का निवास नहीं था, पीछे क्रम से सजीव पाषाण आदि, वनस्पति, नमी में रहने वाले छोटे-छोटे कोकले, जल में रहने वाले मत्स्यादि, पृथिवी तथा जल दोनों में रहने वाले मेंढक, कछुआ आदि बिलों में रहने वाले सरीसृप आदि आकाश में उड़ने वाले भ्रमर, कीट, पतंग व पक्षी, पृथिवी पर रहने वाले स्तनधारी पशु बंदर आदि और अंत में मनुष्य उत्पन्न हुए। तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार और भी असंख्य जीव जातियें उत्पन्न हो गयीं।
इस भूखंड के चारों ओर अनंत आकाश हैं, जिसमें सूर्य चंद्र तारे आदि दिखाई देते हैं। चंद्रमा सबसे अधिक समीप में है। तत्पश्चात् क्रमशः शुक्र, बुद्ध, मंगल, बृहस्पति, शनि आदि ग्रह, इनसे साढे नौ मील दूर सूर्य, तथा उससे भी आगे असंख्यातों मील दूर असंख्य तारागण हैं। चंद्रमा तथा ग्रह स्वयं प्रकाश न होकर सूर्य के प्रकाश से प्रकाशवत् दिखते हैं। तारे यद्यपि दूर होने के कारण बहुत छोटे दिखते हैं परंतु इनमें से अधिकतर सूर्य की अपेक्षा लाखों गुणा बड़े हैं तथा अनेकों सूर्य की भाँति स्वयं जाज्वल्यमान हैं।
भूगोल की दृष्टि से देखने पर इस पृथिवी पर एशिया, योरूप, अफ्रीका, अमेरिका, आस्टेलिया आदि अनेकों उपद्वीप हैं। सुदूर पूर्व में ये सब संभवतः परस्पर में मिले हुए थे। भारतवर्ष एशिया का दक्षिणी पूर्वी भाग है। इसके उत्तर में हिमालय और मध्य में विंध्यागिरि, सतपुड़ा आदि पहाड़ियों की अटूट शृंखला है। पूर्व तथा पश्चिम के सागर में गिरने वाली गंगा तथा सिंधुनामक दो प्रधान नदियाँ हैं जो हिमालय से निकलकर सागर की ओर जाती हैं। इसके उत्तर में आर्य जाति और पश्चिम दक्षिण आदि दिशाओं में द्राविड़, भील, कौंल, नाग आदि अन्यान्य प्राचीन अथवा म्लेच्छ जातियाँ निवास करती हैं।
- उपरोक्त मान्यताओं की तुलना
- जैन व वैदिक मान्यता बहुत अंशों में मिलती है। -
जैसे -- चूड़ी के आकार रूप से अनेकों द्वीपों व समुद्रों का एक दूसरे को वेष्टित किये हुए अवस्थान।
- जंबूद्वीप, सुमेरु, हिमवान, निषध, नील, श्वेत (रुक्मि), शृंगी (शिखरी) ये पर्वत, भारतवर्ष (भरत क्षेत्र) हरिवर्ष, रम्यक, हिरण्मय (हैरण्यवत) उत्तरकुरु ये क्षेत्र, माल्यवान व गंधमादन पर्वत, जंबूवृक्ष इन नामों का दोनों मान्यताओं में समान होना।
- भारतवर्ष में कर्मभूमि तथा अन्य क्षेत्रों में त्रेतायुग (भोगभूमि) का अवस्थान।मेरु की चारों दिशाओं में मंदर आदि चार पर्वत जैनमान्य चार गजदंत हैं।
- कुलपर्वतों से नदियों का निकलना तथा आर्य व म्लेच्छ जातियों का अवस्थान।
- प्लक्ष द्वीप में प्लक्षवृक्ष जंबूद्वीपवत् उसमें पर्वतों व नदियों आदि का अवस्थान वैसा ही है जैसा कि धातकी खंड में धातकी वृक्ष व जंबूद्वीप के समान दुगनी रचना।
- पुष्करद्वीप के मध्य वलयकार मानुषोत्तर पर्वत तथा उसके अभ्यंतर भाग में धातकी नामक खंड।
- पुष्कर द्वीप से परे प्राणियों का अभाव लगभग वैसा ही है, जैसा कि पुष्करार्ध से आगे मनुष्यों का अभाव।
- भूखंड के नीचे पातालों का निर्देश लवण सागर के पातालों से मिलता है।
- पृथिवी के नीचे नरकों का अवस्थान।
- .आकाश में सूर्य, चंद्र आदि का अवस्थान क्रम। 10. कल्पवासी तथा फिर से न मरने वाले (लौकांतिक) देवों में लोक।
- इसी प्रकार जैन व बौद्ध मान्यताएँ भी बहुत अंशों में मिलती हैं। जैसे -
- पृथिवी के चारों तरफ आयु व जलमंडल का अवस्थान जैन मान्य वातवलयों के समान है।
- मेरु आदि पर्वतों का एक-एक समुद्र के अंतराल से उत्तरोत्तर वेष्टित वलयाकाररूपेण अवस्थान।
- जंबूद्वीप, पूर्वविदेह, उत्तरकुरु, जंबूवृक्ष, हिमवान, गंगा, सिंधु आदि नामों की समानता।
- जंबूद्वीप के उत्तर में नौ क्षुद्रपर्वत, हिमवान, महासरोवर व उनसे गंगा, सिंधु आदि नदियों का निकास ऐसा ही है जैसा कि भरतक्षेत्र के उत्तर में 11 कूटों युक्त हिमवान पर्वत पर स्थित पद्म द्रह से गंगा सिंधु व रोहितास्या नदियों का निकास।
- जंबूद्वीप के नीचे एक के पश्चात् एक करके अनेकों नरकों का अवस्थान।
- पृथिवी से ऊपर चंद्र-सूर्य का परिभ्रमण।
- मेरु शिखर पर स्वर्गों का अवस्थान लगभग ऐसा ही है जैसा कि मेरु शिखर से ऊपर केवल एक बाल प्रमाण अंतर से जैन मान्य स्वर्ग के प्रथम ‘ऋतु’ नामक पटल का अवस्थान।
- देवों में कुछ का मैथुन से और कुछ का स्पर्श या अवलोकन आदि से काम-भोग का सेवन तथा ऊपर के स्वर्गों में कामभोग का अभाव जैनमान्यतावत् ही है। (देखें देव - II.2.10)।
- देवों का ऊपर ऊपर अवस्थान।
- मनुष्यों की ऊंचाई से लेकर देवों के शरीरों की ऊँचाई तक क्रमिक वृद्धि लगभग जैन मान्यता के अनुसार है (देखें अवगाहना - 3,4) 3 आधुनिक भूगोल के साथ यद्यपि जैन भूगोल स्थूल दृष्टि से देखने पर मेल नहीं खाता पर आचार्यों की सुदूरवर्ती सूक्ष्मदृष्टि व उनकी सूत्रात्मक कथन पद्धति को ध्यान में रखकर विचारा जाये तो वह भी बहुत अंशों में मिलता प्रतीत होता है। यहाँ यह बात अवश्य ध्यान में रखने योग्य है कि वैज्ञानिक जनों के अनुमान का आधार पृथिवी का कुछ करोड़ वर्ष मात्र पूर्व का इतिहास है, जब कि आचार्यों की दृष्टि कल्पों पूर्व के इतिहास को स्पर्श करती है,। जैसे कि -
- पृथिवी के लिए पहले अग्नि का गोला होने की कल्पना, उसका धीरे-धीरे ठंडा होना और नये सिरे से उस पर जीवों व मनुष्यों की उत्पत्ति का विकास लगभग जैनमान्य प्रलय के स्वरूप से मेल खाता है। (देखें प्रलय )।
- पृथिवी के चारों ओर के वायु मंडल में 500 मील तक उत्तरोत्तर तरलता जैन मान्य तीन वातवलयोंवत् ही है।
- एशिया आदि महाद्वीप जैनमान्य भरतादि क्षेत्रों के साथ काफी अंश में मिलते हैं (देखें अगला शीर्षक )
- आर्य व म्लेच्छ जातियों का यथायोग्य अवस्थान भी जैनमान्यता को सर्वथा उल्लंघन करने को समर्थ नहीं।
- सूर्य-चंद्र आदि के अवस्थान में तथा उन पर जीव राशि संबंधी विचार में अवश्य दोनों मान्यताओं में भेद है। अनुसंधान किया जाय तो इसमें भी कुछ न कुछ समन्वय प्राप्त किया जा सकता है।
सातवीं आठवीं शताब्दी के वैदिक विचारकों ने लोक के इस चित्रण को वासना के विश्लेषण के रूप में उपस्थित किया है। (जैन धर्म का इतिहास /2/1)। यथा -अधोलोक वासना ग्रस्त व्यक्ति की तम: पूर्ण वह स्थिति जिसमें कि उसे हिताहित का कुछ भी विवेक नहीं होता और स्वार्थसिद्धि के क्षेत्र में बड़े से बड़े अन्याय तथा अत्याचार करते हुए भी जहाँ उसे यह प्रतीति नहीं होती कि उसने कुछ बुरा किया है। मध्य लोक उसकी वह स्थिति है जिसमें कि उसे हिताहित का विवेक जागृत हो जाता है परंतु वासना की प्रबलता के कारण अहित से हटकर हित की ओर झुकने का सत्य पुरुषार्थ जागृत करने की सामर्थ्य उसमें नहीं होती है। इसके ऊपर ज्योतिष लोक या अंतरिक्ष लोक उसकी साधना वाली वह स्थिति है जिसमें उसके भीतर उत्तरोत्तर उन्नत पारमार्थिक अनुभूतियां झलक दिखाने लगती हैं। इसके अंतर्गत पहले विद्युतलोक आता है जिसमें क्षणभर को तत्त्दर्शन होकर लुप्त हो जाता है। तदनंतर तारा लोक आता है जिसमें तात्त्विक अनुभूतियों की झलक टिमटिमाती या आँख-मिचौनी खेलती प्रतीत होती हैं। अर्थात् कभी स्वरूप में प्रवेश होता है और कभी पुनः विषयासक्ति जागृत हो जाती है। इसके पश्चात् सूर्य लोक आता है जिसमें ज्ञान सूर्यका उदय होता है, और इसके पश्चात् अंत में चंद्र लोक आता है जहाँ पहुँचने पर साधक समता-भूमि में प्रवेश पाकर अत्यंत शांत हो जाता है। उर्ध्व लोक के अंतर्गत तीन भूमियां हैं - महर्लोक, जनलोक और तपलोक। पहली भूमि में वह अर्थात् उसकी ज्ञानचेतना लोकालोक में व्याप्त होकर महान हो जाती है, दूसरी भूमियें कृतकृत्यता की और तीसरी भूमियें अनंत आनंद की अनुभूति में वह सदा के लिए लय हो जाती है। यह मान्यता जैन के अध्यात्म के साथ शत प्रतिशत नहीं तो 80 प्रतिशत मेल अवश्य खाती है।
- जैन व वैदिक मान्यता बहुत अंशों में मिलती है। -
- चातुर्द्वीपिक भूगोल परिचय
( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ प्र. 138/ H.L. Jain का भावार्थ )- काशी नगरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित संपूर्णानंद अभिनंदन ग्रंथ में दिये गये, श्री रायकृष्णदासजी के एक लेखके अनुसार, वैदिक धर्म मान्य सप्तद्वीपिक भूगोल की अपेक्षा चातुर्द्वीपिक भूगोल अधिक प्राचीन है। इसका अस्तित्व अब भी वायुपुराण में कुछ -कुछ मिलता है। चीनी यात्री मेगस्थनीज के समय में भी यही भूगोल प्रचलित था; क्योंकि वह लिखता है - भारत के सीमांतर पर तीन और देश माने जाते हैं - सीदिया, बैक्ट्रिया तथा एरियाना। सादिया से उसके भद्राश्व व उत्तरकुरु तथा बैक्ट्रिया व एरियाना से केतुमाल द्वीप अभिप्रेत है। अशोक के समय में भी यही भूगोल प्रचलित था, क्योंकि उसके शिलालेख में जंबूद्वीप भारतवर्ष की संज्ञा है। महाभाष्य में आकर सर्वप्रथम सप्तद्वीपिक भूगोल की चर्चा है। अतएव वह अशोक तथा महाभाष्यकाल के बीच की कल्पना जान पड़ती है।
- सप्तद्वीपक भूगोल की भाँति यह चातुर्द्वीपिक भूगोल कल्पनामात्र नहीं है, बल्कि इसका आधार वास्तविक है। उसका सामंजस्य आधुनिक भूगोल से हो जाता है।
- चातुर्द्वीपिक भूगोल में जंबूद्वीप पृथिवी के चार महाद्वीपों में से एक है और भारतवर्ष जंबूद्वीप का ही दूसरा नाम है। वही सप्तद्वीपिक भूगोल में आकर इतना बड़ा हो जाता है कि उसकी बराबरी वाले अन्य तीन द्वीप (भद्राश्व, केतुमाल व उत्तरकुरु) उसके वर्ष बनकर रह जाते हैं। और भारतवर्ष नामवाला एक अन्य वर्ष (क्षेत्र) भी उसी के भीतर कल्पित कर लिया जाता है।
- चातुर्द्वीपी भूगोल का भारत (जंबूद्वीप) जो मेरु तक पहुँचता है, सप्तद्वीपिक भूगोल में जंबूद्वीप के तीन वर्षों या क्षेत्रों में विभक्त हो गया है। - भारतवर्ष, किंपुरुष व हरिवर्ष। भारत का वर्ष पर्वत हिमालय है। किंपुरुष हिमालय के परभाग में मंगोलों की बस्ती है, जहाँ से सरस्वती नदी का उद्गम होता है, तथा जिसका नाम आज भी कन्नौर में अवशिष्ट है। यह वर्ष पहले तिब्बत तक पहुँचता था, क्योंकि वहाँ तक मंगोलों की बस्ती पायी जाती है। तथा इसका वर्ष पर्वत हेमकूट है, जो कतिपय स्थानों में हिमालयंतर्गत ही वर्णित हुआ है। (जैन मान्यता में किंपुरुष के स्थानपर हैमवत् और हिमकूट के स्थान पर महाहिमवान का उल्लेख है )। हरिवर्ष से हिरात का तात्पर्य है जिसका पर्वत निषध है, जो मेरू तक पहुँचता है। इसी हरिवर्ष का नाम अवेस्ता में हरिवरजी मिलता है।
- इस प्रकार रम्यक, हिरण्यमय और उत्तरकुरू नामक वर्षों में विभक्त होकर चातुर्द्वीपिक भूगोल वाले उत्तरकुर महाद्वीप के तीन वर्ष बन गये हैं।
- किंतु पूर्व और पश्चिम के भद्राश्व व केतुमाल द्वीप यथापूर्व दो के दो ही रह गये। अंतर केवल इतना है कि यहाँ वे दो महाद्वीप न होकर एक द्वीप के अंतर्गत दो वर्ष या क्षेत्र हैं। साथ ही मेरु को मेखलित करने वाला, सप्तद्वीपिक, भूगोल का, इलावृतक भी एक स्वतंत्र वर्ष बन गया है।
- यों उक्त चार द्वीपों से पल्लवित भारतवर्ष आदि तीन दक्षिणी, हरिवर्ष आदि तीन उत्तरी, भद्राश्व व केतुमाल से दो पूर्व व पश्चिमी तथा इलावृत नाम का केंद्रीय वर्ष, जंबूद्वीप के नौ वर्षों की रचना कर रहा है।
- (जैनाभिमत भूगोल में 9 की बजाय 10 वर्षों का उल्लेख है। भारतवर्ष, किंपुरुष व हरिवर्ष के स्थान पर भरत, हैमवत व हरि ये तीन मेरु के दक्षिण में हैं। रम्यक, हिरण्यमय तथा उत्तरकुरु के स्थान पर रम्यक, हैरण्यवत व ऐरावत ये तीन मेरु के उत्तर में हैं। भद्राश्व व केतुमाल के स्थान पर पूर्वविदेह व पश्चिमविदेह ये दो मेरु के पूर्व व पश्चिम में हैं। तथा इलावृत के स्थान पर देवकुरु व उत्तरकुरु ये दो मेरु के निकटवर्ती हैं। यहाँ वैदिक मान्यता में तो मेरु के चौगिर्द एक ही वर्ष मान लिया गया और जैन मान्यता में उसे दक्षिण व उत्तर दिशावाले दो भागों में विभक्त कर दिया है। पूर्व व पश्चिमी भद्राश्व व केतुमाल द्वीपों में वैदिकजनों ने क्षेत्रों का विभाग न दर्शाकर अखंड रखा पर जैन मान्यता में उनके स्थानीय पूर्व व पश्चिम विदेहों को भी 16, 16 क्षेत्रों में विभक्त कर दिया गया )।
- मेरु पर्वत वर्तमान भूगोल का पामीर प्रदेश है। उत्तरकुरु पश्चिमी तुर्किस्तान है। सीता नदी यारकंद नदी है। निषध पर्वत हिंदकुश पर्वतों की शृंखला है। हैमवत भारतवर्ष का ही दूसरा नाम रहा है। (देखें वह वह नाम)।
- लोकनिर्देश का सामान्य परिचय
- लोकसामान्य निर्देश
- लोक का लक्षण
- लोक का आकार
- लोक का विस्तार
- वातवलयों का परिचय
- वातवलय सामान्य परिचय
- तीन वलयों का अवस्थान क्रम
- पृथिवियों के सात वातवलयों का स्पर्श
- वातवलयों का विस्तार
- लोक के आठ रुचक प्रदेश
- लोक विभाग निर्देश
- त्रस व स्थावर लोक निर्देश
- अधोलोक सामान्य परिचय
- भावनलोक निर्देश
- व्यंतरलोक निर्देश
- मध्यलोक निर्देश
- ज्योतिषलोक सामान्य निर्देश
- ऊर्ध्वलोक सामान्य परिचय
- लोकसामान्य निर्देश
- लोक का लक्षण
देखें आकाश - 1.3 (1. आकाशके जितने भाग में जीव, पुद्गल आदि षट् द्रव्य देखे जायें सो लोक है और उसके चारों तरफ शेष अनंत आकाश अलोक है, ऐसा लोकका निरुक्ति अर्थ है। 2. अथवा षट् द्रव्यों का समवाय लोक है )
देखें लौकांतिक - 1। (3.जन्म-जरामरणरूप यह संसार भी लोक कहलाता है।)
राजवार्तिक/5/12/10-13/455/20 यत्र पुण्यपापफललोकनं स लोकः।10।.... कः पुनरसौ। आत्मा। लोकति पश्यत्युपलभते अर्थानिति लोक:।11।... सर्वज्ञेनानंताप्रतिहतकेवलदर्शनेन लोक्यते यः स लोकः। तेन धर्मादीनामपि लोकत्वं सिद्धम्।13।= जहाँ पुण्य व पाप का फल जो सुख-दु:ख वह देखा जाता है सो लोक है इस व्युत्पत्ति के अनुसार लोक का अर्थ आत्मा होता है। जो पदार्थो को देखे व जाने सो लोक इस व्युत्पत्ति से भी लोक का अर्थ आत्मा है। आत्मा स्वयं अपने स्वरूप का लोकन करता है अतः लोक है। सर्वज्ञ के द्वारा अनंत व अप्रतिहत केवलदर्शन से जो देखा जाये सो लोक है, इस प्रकार धर्म आदि द्रव्यों का भी लोकपना सिद्ध है।
- लोक का आकार
तिलोयपण्णत्ति/1/137-138 हेटि्ठमलोयायारो वेत्तासणसण्णिहो सहावेण। मज्झिमलोयायारो उब्भियमुर अद्धसारिच्छो।137। उवरिमलोयाआरो उब्भियमुरवेण होइ सरिसत्तो। संठाणो एदाणं लोयाणं एण्हिं साहेमि।138।= इन (उपरोक्त) तीनों में से अधोलोक का आकार स्वभाव से वेत्रासनके सदृश है, और मध्यलोकका आकार खड़े किये हुए आधे मृदंग के ऊर्ध्व भाग के समान है। ऊर्ध्वलोक का आकार खडे किए हुए मृदंग के सदृश है।138। ( धवला 4/1,3.2/गाथा 6/11) ( त्रिलोकसार/6 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/4-9 ) ( द्रव्यसंग्रह टीका/35/112/11 )।
धवला 4/1,3,2/गाथा 7/11 तलरुक्खसंठाणो।7।= यह लोक तालवृक्षके आकारवाला है।
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/प्र.24 प्रो. लक्षमीचंद - मिस्रदेशके गिरजे में बने हुए महास्तूप से यह लोकाकाशका आकार किंचिंत् समानता रखता प्रतीत होता है।
- लोक का विस्तार
तिलोयपण्णत्ति/1/149-163 सेढिपमाणायामं भागेसु दक्खिणुत्तरेसु पुढं। पुव्बावरेसु वासं भूमिमुहे सत्त येक्कपंचेक्का।149। चोद्दसरज्जुपमाणो उच्छेहो होदि सयललोगस्स।अद्धमुरज्जस्सुदवो समग्गमुखोदयसरिच्छो।150। व हेट्ठिममज्धिमउवरिमलोउच्छेहो कमेण रज्जू वो। सत्त य जोयणलक्खं जोयणलक्खूणसगरज्जू।151। इहरयणसक्करावालुपंकधूमतममहातमादिपहा। सुरवद्धम्मि महीओ सत्त च्चिय रज्जुअंतरिआ।152।धम्मावंसामेघाअंजणरिट्ठाणउब्भमघवीओ। माघविया इय ताणं पुढवीणं वोत्तणामाणि।153।मज्झिमजगस्स हेट्ठिमभागादो णिग्गदो पढमरज्जू। सक्करपहपुढवीए हेट्ठिमभागम्मि णिट्ठादि।154। तत्तो दोइरज्जू वालुवपहहेट्ठि समप्पेदि। तह य तइज्जारज्जूपंकपहहेट्ठास्स भागम्मि।155। धूमपहाए हेट्ठिमभागम्मि समप्पदे तुरियरज्जू। तह पंचमिया रज्जू तमप्पहाहेट्ठिमपएसे।156। महतमहेट्ठिमयंते छट्ठी हि समप्पदे रज्जू। तत्तो सत्तमरज्जू लोयस्स तलम्मि णिट्ठादि।157। मज्झिमजगस्स उवरिमभागादु दिवड्ढरज्जुपरिमाणं। इगिजोयणलक्खूणं सोहम्मविमाणधयदंडे।158। वच्चदि दिवड्ढरज्जू माहिंदसणक्कुमारउवरिम्मि। णिट्ठादि अद्धरज्जूबंभुत्तर उड्ढभागम्मि।159। अवसादि अद्धरज्जू काविट्ठस्सोवरिट्ठभागम्मि। स च्चियमहसुक्कोवरि सहसारोवरि अ स च्चेय।160। तत्तो य अद्धरज्जू आणदकप्पस्स उवरिमपएसे। स य आरणस्स कप्पस्स उवरिमभागम्मि गेविज्जं।161। तत्तो उवरिमभागे णवाणुत्तरओ होंति एक्करज्जूवो। एवं उवरिमलोए रज्जुविभागो समुद्दिट्ठं।162। णियणिय चरिमिंदयधयदंडग्गं कप्पभूमिअवसाणं कप्पादीदमहीए विच्छेदो लोयविच्छेदो।169। =- दक्षिण और उत्तर भाग में लोक का आयाम जगश्रेणी प्रमाण अर्थात् सात राजू है। पूर्व और पश्चिम भाग में भूमि और मुख का व्यास क्रम से सात, एक, पाँच और एक राजू है। तात्पर्य यह है कि लोक की मोटाई सर्वत्र सात राजू है, और विस्तार क्रम से लोक के नीचे सात राजू, मध्यलोक में एक राजू, ब्रह्म स्वर्ग पर पाँच राजू और लोक के अंत में एक राजू है।149।
- संपूर्ण लोक की ऊँचाई 14 राजू प्रमाण है। अर्धमृदंग की ऊँचाई संपूर्ण मृदंग की ऊँचाई के सदृश है। अर्थात् अर्धमृदंग सदृश अधोलोक जैसे सात राजू ऊँचा है उसी प्रकार ही पूर्ण मृदंग के सदृश ऊर्ध्वलोक भी सात ही राजू ऊँचा है।150। क्रम से अधोलोक की ऊँचाई सात राजू, मध्यलोक की ऊँचाई 1,00,000 योजन, और ऊर्ध्वलोक की ऊँचाई एक लाख योजन कम सात राजू है।151। ( धवला 4/1,3,2/गाथा 8/11 ); ( त्रिलोकसार/113 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/11,16-17 )।
- तहाँ भी - तीनों लोकों में से अर्धमृदंगाकार अधोलोक में रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम:प्रभा, महातमप्रभा ये सात पृथिवियाँ एक-एक राजू के अंतराल से हैं।152। धर्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी ये इन उपर्युक्त पृथिवियों के अपरनाम हैं।153। मध्यलोक के अधोभाग से प्रारंभ होकर पहला राजू शर्कराप्रभा पृथिवी के अधोभाग में समाप्त होता है।154। इसके आगे दूसरा राजू प्रारंभ होकर बालुकाप्रभा के अधोभाग में समाप्त होता है। तथा तीसरा राजू पंकप्रभा के अधोभाग में।155। चौथा धूमप्रभा के अधोभाग में, पाँचवाँ तमःप्रभा के अधोभाग में।156। और छठा राजू महातमःप्रभा के अंत में समाप्त होता है। इससे आगे सातवाँ राजू लोक के तलभाग में समाप्त होता है।157। (इस प्रकार अधोलोक की 7 राजू ऊँचाई का विभाग है।)
- रत्नप्रभा पृथिवी के तीन भागों में खरभाग 16000 यो., पंक भाग 84000 यो. और अब्बहुल भाग 80,000 योजन मोटे हैं। देखें रत्नप्रभा - 2।
- लोक में मेरू के तलभाग से उसकी चोटी पर्यंत 1,00,000 योजन ऊँचा व 1 राजू प्रमाण विस्तार युक्त मध्यलोक है। इतना ही तिर्यक्लोक है। - देखें तिर्यंच - 3.1 )। मनुष्यलोक चित्रा पृथिवी के ऊपर से मेरु की चोटी तक 99,000 योजन विस्तार तथा अढाई द्वीप प्रमाण 45,00,000 योजन विस्तार युक्त है। -देखें मनुष्य - 4.1।
- चित्रा पृथिवी के नीचे खर व पंक भाग में 1,00,000 यो. तथा चित्रा पृथिवी के ऊपर मेरु की चोटी तक 99,000 योजन ऊँचा और एक राजू प्रमाण विस्तार युक्त भावनलोक है। - देखें भावन लोक - 4.15। इसी प्रकार व्यंतरलोक भी जानना। - देखें व्यंतर - 4.1-5। चित्रा पृथिवी से 790 योजन ऊपर जाकर 110 योजन बाहल्य व 1 राजू विस्तार युक्त ज्योतिष लोक है। -देखें ज्योतिषि लोक - 1.2.6
- मध्यलोक के ऊपरी भाग से सौधर्म विमान का ध्वजदंड 1,00,000 योजन कम 1½राजू प्रमाण ऊँचा है।158। इसके आगे 1½ राजू प्रमाण ऊँचा है। 158। इसके आगे 1½ राजू माहेंद्र व सनत्कुमार स्वर्ग के ऊपरी भाग में, 1/2 राजू ब्रह्मोत्तर के ऊपरी भाग में।159। 1/2 राजू कापिष्ठ के ऊपीर भाग में, 1/2 राजू महाशुक्र के ऊपरी भाग में, 1/2 राजु सहस्रार के ऊपरी भाग में।160। 1/2 राजू आनत के ऊपरी भाग में और 1/2 राजू आरण-अच्युत के ऊपरी भाग में समाप्त हो जाता है।161। उसके ऊपर एक राजू की ऊँचाई में नवग्रैवेयक, नव अनुदिश, और 5 अनुत्तर विमान हैं। इस प्रकार ऊर्ध्वलोक में 7 राजू का विभाग कहा गया।162। अपने-अपने अंतिम इंद्रक -विमान समन्बधी ध्वजदंड के अग्रभाग तक उन-उन स्वर्गों का अंत समझना चाहिए। और कल्पातीत भूमि का जो अंत है वही लोक का भी अंत है।163।
- (लोक शिखर के नीचे 425 धनुष और 21 योजन मात्र जाकर अंतिम सर्वार्थसिद्धि इंद्रक स्थित है। (देखें स्वर्ग_देव - 5.1;) सर्वार्थसिद्धि इंद्रक के ध्वजदंड से 12 योजन मात्र ऊपर जाकर अष्टम पृथिवी है। वह 8 योजन मोटी व एक राजू प्रमाण विस्तृत है। उसके मध्य ईषत् प्राग्भार क्षेत्र है। वह 45,00,000 योजन विस्तार युक्त है। मध्य में 8 योजन और सिरों पर केवल अंगुल प्रमाण मोटा है। इस अष्टम पृथिवी के ऊपर 7050 धनुष जाकर सिद्धिलोक है। (देखें मोक्ष - 1.7)।
- वातवलयों का परिचय
- वातवलय सामान्य परिचय
तिलोयपण्णत्ति/1/268 गोमुत्तमुग्गवण्णा धणोदधी तह धणाणिलओ वाऊ। तणु वादो बहुवण्णो रुक्खस्स तयं व वलयातियं।268। = गोमूत्र के समान वर्णवाला घनोदधि, मूंग के समान वर्णवाला घनवात तथा अनेक वर्णवाला तनुवात। इस प्रकार ये तीनों वातवलय वृक्ष की त्वचा के समान (लोकको घेरे हुए) हैं।268। ( राजवार्तिक/3/1/8/160/16 ); ( त्रिलोकसार/123 ); (देखें चित्र सं - 9 पृ. 439)।
- तीन वलयों का अवस्थान क्रम
तिलोयपण्णत्ति/1/269 पढमो लोयाधारो घणोवही इह घणाणिलो ततो। तप्परदो तणुवादो अंतम्मि णहंणिआधारं।269। = इनमें से प्रथम घनोदधि वातवलय लोक का आधारभूत है, इसके पश्चात् घनवातवलय, उसके पश्चात् तनुवातवलय और फिर अंत में निजाधार आकाश है।269। ( सर्वार्थसिद्धि/3/1/204/3 ); ( राजवार्तिक/3/1/8/160/14 ); (तत्त्वार्थ वृत्ति/3/1/श्लोक 1-2/112 )।
तत्त्वार्थ वृत्ति /3/1/111/19 सर्वाः सप्तापि भूमयो घनातप्रतिष्ठा वर्तंते। स च घनवातः अंबुवातप्रतिष्ठोऽस्ति। स चांबुवातस्तनुवातस्तनृप्रतिष्ठो वर्तते। स च तनुवात आकाशप्रतिष्ठो भवति। आकाशस्यालंबनं किमपि नास्ति। = दृष्टि नं. 2- ये सभी सातों भूमियाँ घनवात के आश्रय स्थित हैं। वह घनवात भी अंबु (घनोदधि) वात के आश्रय स्थित है और वह अंबुवात तनुवात के आश्रय स्थित है। वह तनुवात आकाश के आश्रय स्थित है, तथा आकाश का कोई भी आलंबन नहीं है।
- पृथिवियों के सात वातवलयों का स्पर्श
तिलोयपण्णत्ति/2/24 सत्तच्चिय भूमीओ णवदिसभाएण घणोवहिविलग्गा। अट्ठमभूमीदसदिस भागेसु घणोवहिं छिवदि।24।
तिलोयपण्णत्ति 8/206-207 सोहम्मदुगविमाणा घणस्सरूवस्स उवरि सलिलस्स। चेट्ठंते पवणोवरि माहिंदसणक्कुमाराणिं।206। बम्हाई चत्तारो कप्पा चेट्ठंति सलिलवादढं। आणदपाणदपहुदीसेसा सुद्धम्मि गयणयले।207। = सातों (नरक) पृथिवियाँ ऊर्ध्वदिशा को छोड़कर शेष नौ दिशाओं में घनोदधि वातवलय से लगी हई हैं, परंतु आठवीं पृथिवी दशों दिशाओं में ही वातवलय को छूती है। 24। सौधर्म युगल के विमान घनस्वरूप जल के ऊपर तथा माहेंद्र व सनत्कुमार कल्प के विमान पवन के ऊपर स्थित हैं।206। ब्रह्मादि चार कल्प जल व वायु दोनों के ऊपर, तथा आनत प्राणत आदि शेष विमान शुद्ध आकाशतल में स्थित हैं।207।
- वातवलयों का विस्तार
तिलोयपण्णत्ति/1/270-281 जोयणवीससहस्सां बहलंतम्मारुदाण पत्तेक्कं। अट्ठाखिदीणं हेट्ठेलोअतले उवरि जाव इगिरज्जू।270। सगपण चउजोयणयं सत्तमणारयम्मि पुहविपणधीए। पंचचउतियपमाणं तिरीयखेत्तस्स पणिधोए।271। सगपंचचउसमाणा पणिधीए होंति बम्हकप्पस्स। पणचउतिय जोयणया उवरिमलोयस्स यंतम्मि।272। कोसदुगमेक्ककोसं किंचूणेक्कं च लोयसिहरम्मि। ऊणपमाणं दंडा चउस्सया पंचवीस जुदा।273। तीसं इगिदालदलं कोसा तियभाजिदा य उणवणया। सत्तमखिदिपणिधीए वम्हजुदे वाउबहुलत्तं।280। दो छब्बारस भागब्भहिओ कोसो कमेण वाउघणं। लोयउवरिम्मि एवं लोय विभायम्मि पण्णत्तं।281। =दृष्टि नं. 1- आठ पृथिवियों के नीचे लोक के तलभाग से एक राजू की ऊँचाई तक इन वायुमंडलों में से प्रत्येक की मोटाई 20,000 योजन प्रमाण है।270। सातवें नरक में पृथिवियों के पार्श्व भाग में क्रम से इन तीनों वातवलयों की मोटाई 7,5 और 4 तथा इसके ऊपर तिर्यग्लोक (मर्त्यलोक ) के पार्श्वभाग में 5,4 और 3 योजन प्रमाण है।271। इसके आगे तीनों वायुओं की मोटाई ब्रह्म स्वर्ग के पार्श्व भाग में क्रम से 7,5 और 4 योजन प्रमाण, तथा ऊर्ध्वलोक के अंत में (पार्श्व भाग में) 5, 4 और 3 योजन प्रमाण है।272। लोक के शिखर पर (पार्श्व भाग में) उक्त तीनों वातवलयों का बाहल्य क्रमशः 2 कोस, 1 कोस और कुछ कम 1 कोस है। यहाँ कुछ कम का प्रमाण 2425 धनुष समझना चाहिए।273। (शिखर पर प्रत्येक की मोटाई 20,000 योजन है - देखें मोक्ष - 1.7) ( त्रिलोकसार/124-126 )। दृष्टि नं. 2- सातवीं पृथिवी और ब्रह्म युगल के पार्श्वभाग में तीनों वायुओं की मोटाई क्रम से 30, 41/2 और 49/3 कोस हैं।280। लोक शिखर पर तीनों वातवलयों की मोटाई क्रम से 1(1/3), 1(1/2) और 1 (1/12) कोस प्रमाण है। ऐसा लोक विभाग में कहा गया है।281। - विशेष देखें चित्र सं - 9 पृ. 439.
- वातवलय सामान्य परिचय
- लोक के आठ रुचक प्रदेश
राजवार्तिक/1/20/12/76/13 मेरुप्रतिष्ठवज्रवैडूर्यपटलांतररुचकसंस्थिता अष्टावाकाशप्रदेशलोकमध्यम्। = मेरू पर्वत के नीचे वज्र व वैडूर्य पटलों के बीच में चौकोर संस्थानरूप से अवस्थित आकाश के आठ प्रदेश लोक का मध्य हैं।
- लोक विभाग निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/1/136 सयलो एस य लोओ णिप्पण्णो सेढिविदंमाणेण। तिवियप्पो णादव्वो हेट्ठिममज्झिल्लउड्ढ भेएण।136। = श्रेणी वृंद्र के मान से अर्थात् जगश्रेणी के घन प्रमाण से निष्पन्न हुआ यह संपूर्ण लोक अधोलोक मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक के भेद से तीन प्रकार का है।136। ( बारस अणुवेक्खा/39 ); ( धवला 13/5,5,50/288/4 )।
- त्रस व स्थावर लोक निर्देश
(पूर्वोक्त वेत्रासन व मृदंगाकार लोक के बहु मध्य भाग में, लोक शिखर से लेकर उसके अंत पर्यंत 13 राजू लंबी व मध्यलोक समान एक राजू प्रमाण विस्तार युक्त नाड़ी है। त्रस जीव इस नाड़ी से बाहर नहीं रहते इसलिए यह त्रसनाली नाम से प्रसिद्ध है। (देखें त्रस - 2.3, त्रस - 2.4)। परंतु स्थावर जीव इस लोक में सर्वत्र पाये जाते हैं। (देखें स्थावर - 9) तहाँ भी सूक्ष्म जीव तो लोक में सर्वत्र ठसाठस भरे हैं, पर बादर जीव केवल त्रसनाली में होते हैं (देखें सूक्ष्म - 3.7) उनमें भी तेजस्कायिक जीव केवल कर्मभूमियों में ही पाये जाते हैं अथवा अधोलोक व भवनवासियों के विमानों में पाँचों कायों के जीव पाये जाते हैं, पर स्वर्ग लोक में नहीं - देखें काय - 2.5। विशेष देखें चित्र सं - 9 पृ. 439।
- अधोलोक सामान्य परिचय
(सर्वलोक तीन भागों में विभक्त है - अधो, मध्य व ऊर्ध्व - देखें लोक - 2.2,3 मेरु तल के नीचे का क्षेत्र अधोलोक है, जो वेत्रासन के आकार वाला है। 7 राजू ऊँचा व 7 राजू मोटा है। नीचे 7 राजू व ऊपर 1 राजू प्रमाण चौड़ा है। इसमें ऊपर से लेकर नीचे तक क्रम से रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा व महातमप्रभा नामकी 7 पृथिवियाँ लगभग एक राजू अंतराल से स्थित हैं। प्रत्येक पृथिवी में यथायोग्य 13,11 आदि पटल 1000 योजन अंतराल से अवस्थित हैं। कुल पटल 49 हैं। प्रत्येक पटल में अनेकों बिल या गुफाएँ हैं। पटल का मध्यवर्ती बिल इंद्रक कहलाता है। इसकी चारों दिशाओं व विदिशाओं में एक श्रेणी में अवस्थित बिल श्रेणीबद्ध कहलाते हैं और इनके बीच में रत्नराशिवत् बिखरे हुए बिल प्रकीर्णक कहलाते हैं। इन बिलों में नारकी जीव रहते हैं। (देखें नरक - 5.1-3)। सातों पृथिवियों के नीचे अंत में एक राजू प्रमाण क्षेत्र खाली है। (उसमें केवल निगोद जीव रहते हैं)- देखें चित्र सं - 10 पृ. 441।
- भावनलोक निर्देश
(उपरोक्त सात पृथिवियों में जो रत्नप्रभा नाम की प्रथम पृथिवी है, वह तीन भागों में विभक्त है - खरभाग, पंकभाग व अब्बहुल भाग। खरभाग भी चित्र, वैडूर्य, लोहितांक आदि 16 प्रस्तरों में विभक्त है। प्रत्येक प्रस्तर 1000 योजन मोटा है। उनमें चित्र नाम का प्रथम प्रस्तर अनेकों रत्नों व धातुओं की खान है। (देखें रत्नप्रभा- 2)। तहाँ खर व पंकभाग में भावनवासी देवों के भवन हैं और अब्बहुल भाग में नरक पटल है। (देखें भवन - 4/1 चित्र)। इसके अतिरिक्त तिर्यक् लोक में भी यत्र-तत्र-सर्वत्र उनके पुर, भवन व आवास हैं। (देखें व्यंतर - 4.1-5)। (विशेष देखें भवन - 4)।
- व्यंतरलोक निर्देश
(चित्रा पृथिवी के तल भाग से लेकर सुमेरु की चोटी तक तिर्यग् लोक प्रमाण विस्तृत सर्वक्षेत्र व्यंतरों के रहने का स्थान है। इसके अतिरिक्त खर व पंकभाग में भी उनके भवन हैं। मध्यलोक के सर्व द्वीप-समुद्रों की वेदिकाओं पर, पर्वतों के कूटों पर, नदियों के तटों पर इत्यादि अनेक स्थलों पर यथायोग्य रूप में उनके पुर, भवन व आवास हैं। (विशेष देखें व्यंतर - 4.1-5)।
- मध्यलोक निर्देश
- द्वीप-सागर आदि निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/5/8-10,27 सब्वे दीवसमुद्दा संखादीदा भवंति समवट्टा। पढमो दीओ उवही चरिमो मज्झम्मि दीउवही।8। चित्तोवरि बहुमज्झे रज्जूपरिमाणदीहविक्खंभे। चेट्ठंति दीवउवही एक्केक्कं वेढिऊणं हु प्परिदो।9। सव्वे वि वाहिणीसा चित्तखिदिं खंडिदण चेट्ठंति। वज्जखिदीए उवरिं दीवा वि हु चित्ताए।10। जंबूदीवे लवणो उवही कालो त्ति धादईसंडे। अवसेसा वारिणिही वत्तव्वा दीवसमणामा।28। =- सब द्वीपसमुद्र असंख्यात एवं समवृत्त हैं। इनमें से पहला द्वीप, अंतिम समुद्र और मध्य में द्वीप समुद्र हैं।8। चित्रा पृथिवी के ऊपर बहुमध्य भाग में एकराजू लंबे-चौड़े क्षेत्र के भीतर एक-एक को चारों ओर से घेरे हुए द्वीप व समुद्र स्थित हैं। 9। सभी समुद्र चित्रा पृथिवी खंडित कर वज्रा पृथिवी के ऊपर, और सब द्वीप चित्रा पृथिवी के ऊपर स्थित हैं।10। (मूलाचार./1076); ( तत्त्वार्थसूत्र/3/7-8 ); ( हरिवंशपुराण/5/2,626-627 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/19 )।
- जंबूद्वीप में लवणोदधि और धातकीखंड में कालोद नामक समुद्र है। शेष समुद्रों के नाम द्वीपों के नाम के समान ही कहना चाहिए।28। (मूलाचार/1077); ( राजवार्तिक/3/38/7/208/17 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/183 )।
त्रिलोकसार/886 वज्जमयमूलभागा वेलुरियकयाइरम्मा सिहरजुदा। दीवो वहीणमंते पायारा होंति सव्वत्थ।886। = सभी द्वीप व समुद्रों के अंत में परिधि रूप से वैडूर्यमयी जगती होती है, जिनका मूल वज्रमयी होता है तथा जो रमणीक शिखरों में संयुक्त हैं। (-विशेष देखें लोक - 3.2 तथा लोक - 4.1 )।
नोट - (द्वीप-समुद्रों के नाम व समुद्रों के जल का स्वाद - देखें लोक - 5.1, लोक - 5.)।
- तिर्यक्लोक, मनुष्यलोक आदि विभाग
धवला 4/1, 3,1/9/3 देसभेएण तिविहो, मंदरचिलियादो, उवरिमुड्ढलोगो, मंदरमूलादो हेट्ठा अधोलोगो, मंदरपरिच्छिण्णो मज्झलोगो त्ति। = देश के भेद से क्षेत्र तीन प्रकार का है। मंदराचल (सुमेरु पर्वत) की चूलिका से ऊपर का क्षेत्र ऊर्ध्वलोक है। मंदराचल के मूल से नीचे का क्षेत्र अधोलोक है। मंदराचल से परिच्छिन्न अर्थात् तत्प्रमाण मध्यलोक है।
हरिवंशपुराण/5/1 तनुवातांतपर्यंतस्तिर्यग्लोको व्यवस्थितः। लक्षितावधिरूर्ध्वाधो मेरुयोजनलक्षया।1। =- तनुवातवलय के अंतभाग तक तिर्यग्लोक अर्थात् मध्यलोक स्थित है। मेरु पर्वत एक लाख योजन वाला विस्तारवाला है। उसी मेरु पर्वत द्वारा ऊपर तथा नीचे इस तिर्यग्लोक की अवधि निश्चित हैं।1। (इसमें असंख्यात द्वीप, समुद्र एक दूसरे को वेष्टित करके स्थित हैं देखें लोक - 2.11। यह सारा का सारा तिर्यग्लोक कहलाता है, क्योंकि तिर्यंच जीव इस क्षेत्र में सर्वत्र पाये जाते हैं।
- उपरोक्त तिर्यग्लोक के मध्यवर्ती, जंबूद्वीप से लेकर मानुषोत्तर पर्वत तक अढाई द्वीप व दो सागर से रुद्ध 45,00,000 योजन प्रमाण क्षेत्र मनुष्यलोक है। देवों आदि के द्वारा भी उनका मानुषोत्तर पर्वत के पर भाग में जाना संभव नहीं है। (-देखें मनुष्य - 4.1)।
- मनुष्य लोक के इन अढाई द्वीपों में से जंबूद्वीप में 1 और घातकी व पुष्करार्ध में दो-दो मेरु हैं। प्रत्येक मेरु संबंधी 6 कुलधर पर्वत होते हैं, जिनसे वह द्वीप 7 क्षेत्रों में विभक्त हो जाता है। मेरु के प्रणिधि भाग में दो कुरु तथा मध्यवर्ती विदेह क्षेत्र के पूर्व व पश्चिमवर्ती दो विभाग होते हैं। प्रत्येक में 8 वक्षार पर्वत, 6 विभंगा नदियाँ तथा 16 क्षेत्र हैं। उपरोक्त 7 व इन 32 क्षेत्रों में से प्रत्येक में दो-दो प्रधान नदियाँ हैं। 7 क्षेत्रों में से दक्षिणी व उत्तरीय दो क्षेत्र तथा 32 विदेह इन सबके मध्य में एक-एक विजयार्ध पर्वत हैं, जिनपर विद्याधरों की बस्तियाँ हैं। (देखें लोक - 3.5)।
- इस अढाई द्वीप तथा अंतिम द्वीप व सागर में ही कर्मभूमि है, अन्य सर्व द्वीप व सागर में सर्वदा भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। कृष्यादि षट्कर्म तथा धर्म-कर्म संबंधी अनुष्ठान जहाँ पाये जायें वह कर्मभूमि है, और जहाँ जीव बिना कुछ किये प्राकृतिक पदार्थों के आश्रय पर उत्तम भोगभोगते हुए सुखपूर्वक जीवन-यापन करें वह भोगभूमि है। अढाई द्वीप के सर्व क्षेत्रों में भी सर्व विदेह क्षेत्रों में त्रिकाल उत्तम प्रकार की कर्मभूमि रहती है। दक्षिणी व उत्तरी दो-दो क्षेत्रों में षट्काल परिवर्तन होता है। तीन कालों में उत्तम,मध्यम व जघन्य भोगभूमि और तीन कालों में उत्तम, मध्यम व जघन्य भोगभूमि और तीन कालों में उत्तम, मध्यम व जघन्य कर्मभूमि रहती है। दोनों कुरुओं में सदा उत्तम भोगभूमि रहती है, इनके आगे दक्षिण व उत्तरवर्ती दो क्षेत्रों में सदा मध्यम भोगभूमि और उनसे भी आगे के शेष दो क्षेत्रों में सदा जघन्य भोगभूमि रहती है (देखें भूमि - 3) भोगभूमि में जीव की आयु, शरीरोत्सेध, बल व सुख क्रम से वृद्धिंगत होता है और कर्मभूमि में क्रमशः हानिगत होता है। - देखें काल - 4 .18। 5. मनुष्यलोक व अंतिम स्वयंप्रभ द्वीप व सागर को छोड़कर शेष सभी द्वीप, सागरों में विकलेंद्रिय व जलचर नहीं होते हैं। इसी प्रकार सर्व ही भोगभूमियों में भी वे नहीं होते हैं। वैर वश देवों के द्वारा ले जाये गये वे सर्वत्र संभव हैं। - देखें तिर्यंच - 3.7।
- द्वीप-सागर आदि निर्देश
- ज्योतिषलोक सामान्य निर्देश
पूर्वोक्त चित्रा पृथिवी से 790 योजन ऊपर जाकर 110 योजन पर्यंत आकाश में एक राजू प्रमाण विस्तृत ज्योतिष लोक है। नीचे से ऊपर की ओर क्रम से तारागण, सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, शुक्र, बृहस्पति, मंगल, शनि व शेष अनेक ग्रह अवस्थित रहते हुए अपने-अपने योग्य संचार-क्षेत्र में मेरु की प्रदक्षिणा देते रहते हैं। इनमें से चंद्र इंद्र है और सूर्य प्रतींद्र। 1 सूर्य, 88 ग्रह, 28 नक्षत्र व 66,975 तारे, ये एक चंद्रमा का परिवार है। जंबूद्वीप में दो, लवणसागर में 4, धातकी खंड में 12, कालोद में 42 और पुष्करार्ध में 72 चंद्र हैं। ये सब तो चर अर्थात् चलने वाले ज्योतिष विमान हैं। इससे आगे पुष्कर के परार्ध में 8, पुष्करोद में 32, वारुणीवर द्वीप में 64 और इससे आगे सर्व द्वीप समुद्रों में उत्तरोत्तर दुगुने चंद्र अपने परिवार सहित स्थित हैं। ये अचर ज्योतिष विमान हैं - देखें ज्योतिष लोक - 5।
- ऊर्ध्वलोक सामान्य परिचय
सुमेरु पर्वत की चोटी से एक बाल मात्र अंतर से ऊर्ध्वलोक प्रारंभ होकर लोक-शिखर पर्यंत 100400 योजनकम 7 राजू प्रमाण ऊर्ध्वलोक है। उसमें भी लोक शिखर से 21 योजन 425 धनुष नीचे तक तो स्वर्ग है और उससे ऊपर लोक शिखर पर सिद्धलोक है। स्वर्गलोक में ऊपर-ऊपर स्वर्ग पटल स्थित हैं। इन पटलों में दो विभाग हैं - कल्प व कल्पातीत। इंद्र सामानिक आदि 10 कल्पनाओं युक्त देव कल्पवासी हैं और इन कल्पनाओं से रहित अहमिंद्र कल्पातीत विमानवासी हैं। आठ युगलोंरूप से अवस्थित कल्प पटल 16 हैं - सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेंद्र, बह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत। इनसे ऊपर ग्रैवेयेक, अनुदिश व अनुत्तर ये तीन पटल कल्पातीत हैं। प्रत्येक पटल लाखों योजनों के अंतराल से ऊपर-ऊपर अवस्थित हैं। प्रत्येक पटल में असंख्यात योजनों के अंतराल से अन्य क्षुद्र पटल हैं। सर्वपटल मिलकर 63 हैं। प्रत्येक पटल में विमान हैं। नरक के बिलोंवत् ये विमान भी इंद्रक श्रेणीबद्ध व प्रकीर्णक के भेद से तीन प्रकारों में विभक्त हैं। प्रत्येक क्षुद्रपटल में एक - एक इंद्रक है और अनेकों श्रेणीबद्ध व प्रकीर्णक। प्रथम महापटल में 33 और अंतिम में केवल एक सर्वार्थसिद्धि नाम का इंद्रक है, इसकी चारों दिशाओं में केवल एक-एक श्रेणीबद्ध है। इतना यह सब स्वर्गलोक कहलाता है। (नोट— चित्र सहित विस्तार के लिए देखें स्वर्ग - 5) सर्वार्थसिद्धि विमान के ध्वजदंड से 29 योजन 425 धनुष ऊपर जाकर सिद्ध लोक है। जहाँ मुक्तजीव अवस्थित हैं। तथा इसके आगे लोक का अंत हो जाता है (देखें मोक्ष - 1.7)।
- लोक का लक्षण
- जंबूद्वीप निर्देश
- जंबूद्वीप निर्देश
- जंबूद्वीप सामान्य निर्देश
तत्त्वार्थसूत्र/3/9-23 तन्मध्ये मेरुनाभिवृत्तो योजनशतसहस्रविष्कंभो जंबूद्वीपः।9। भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहैरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि।10। तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवन्निषधनीलरुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः।11।हेमार्जुनतपनीयवैडूर्यरजतहेममयाः।12। मणिविचित्रपार्श्वा उपरि मूले च तुल्यविस्ताराः।13। पद्ममहापद्मतिगिंछकेसरिमहापुंडरीकपुंडरीका हृदास्तेषामुपरि।14। प्रथमो योजनसहस्रायामस्तदर्द्धविष्कंभो हृद:।।15।। दशयोजनावगाह:।।16।। तन्मध्ये योजनं पुष्करम्।17। तद्द्विगुणद्विगुणा हृदाः पुष्कराणि च ।18। तन्निवासिन्यो देव्यः श्रीह्नीधृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्म्यः पल्योपमस्थितयःससामानिकपरिषत्काः ।19। गंगासिंधुरोहिद्रोहितास्याहरिद्धरिकांतासीतासीतोदानारीनरकांतासुवर्णरूप्यकूलारक्तारक्तोदाःसरितस्तमंध्यगाः।20। द्वयोर्द्वयोः पूर्वाः पूर्वगाः।21। शेषास्त्वपरगाः।22। चतुर्दशनदीसहस्रपरिवृता गंगासिंध्वादयो नद्यः।23। =- उन सब (पूर्वोक्त असंख्यात द्वीप समुद्रों, - देखें लोक - 2.11) के बीच में गोल और 100,000 योजन विष्कंभवाला जंबूद्वीप है। जिसके मध्य में मेरु पर्वत है।9। ( तिलोयपण्णत्ति/4/11 व 5/8); ( हरिवंशपुराण/5/3 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/20 )।
- उसमें भरतवर्ष, हैमवतवर्ष, हरिवर्ष, विदेहवर्ष, रम्यकवर्ष, हैरण्यवतवर्ष और ऐरावतवर्ष ये सात वर्ष अर्थात् क्षेत्र हैं।10। उन क्षेत्रों को विभाजित करने वाले और पूर्व पश्चिम लंबे ऐसे हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी, और शिखरी ये छह वर्षधर या कुलाचल पर्वत हैं।11। ( तिलोयपण्णत्ति/4/90-94 ); ( हरिवंशपुराण/5/13-15 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/2 व 3/2); ( त्रिलोकसार/564 )।
- ये छहों पर्वत क्रम से सोना, चाँदी, तपाया हुआ सोना, वैडूर्यमणि, चाँदी और सोना इनके समान रंगवाले हैं।12। इनके पार्श्वभाग मणियों से चित्र-विचित्र हैं। तथा ये ऊपर, मध्य और मूल में समान विस्तारवाले हैं।13। ( तिलोयपण्णत्ति/4/94-95 ); ( त्रिलोकसार/566 )
- इन कुलाचल पर्वतों के ऊपर क्रम से पद्म, महापद्म, तिगिंछ, केसरी, महापुंडरीक, और पुंडरीक, ये तालाब हैं।14। ( हरिवंशपुराण/5/120-121 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/69 )।
- पहिला जो पद्म नाम का तालाब है उसके मध्य एक योजन का कमल है। (इसके चारों तरफ अन्य भी अनेकों कमल हैं - दे आगे लोक 3.9 । इससे आगे के हृदों में भी कमल हैं। वे तालाब व कमल उत्तरोत्तर दूने विस्तार वाले हैं।17-18। ( हरिवंशपुराण/5/129 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/69 )।
- पद्म हृद को आदि लेकर इन कमलों पर क्रम से श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये देवियाँ, अपने-अपने सामानिक परिषद् आदि परिवार देवों के साथ रहती हैं - (देखें व्यंतर - 3.2)।19। ( हरिवंशपुराण/5/130 )।
- (उपरोक्त पद्म आदि द्रहों में से निकल कर भरत आदि क्षेत्रों में से प्रत्येक में दो-दो करके क्रम से) गंगा-सिंधु, रोहित-रोहितास्या, हरित-हरिकांता, सीता-सीतोदा, नारी-नरकांता, सुवर्णकूला-रूप्यकूला, रक्ता-रक्तोदा नदियाँ बहती हैं। 20। ( हरिवंशपुराण/5/122-125 )। (तिनमें भी गंगा, सिंधु व रोहितास्या ये तीन पद्म द्रह से, रोहित व हरिकांता महापद्मद्रह से, हरित व सीतोदा तिगिंछ द्रह से, सीता व नरकांता केशरी द्रह से नारी व रूप्यकूला महापुंडरीक से तथा सुवर्णकूला, रक्ता व रक्तोदा पुंडरीक सरोवर से निकलती हैं - ( हरिवंशपुराण/5/132-135 )।
- उपरोक्त युगलरूप दो-दो नदियों में से पहली-पहली नदी पूर्व समुद्र में गिरती हैं और पिछली-पिछली नदी पश्चिम समुद्र में गिरती हैं।21-22) . ( हरिवंशपुराण/5/160 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/192-193 )।
- गंगा, सिंधु आदि नदियों की चौदह-चौदह हजार परिवार नदियाँ हैं। (यहाँ यह विशेषता है कि प्रथम गंगा-सिंधु यगुल में से प्रत्येक की 14000, द्वि. युगल में प्रत्येक की 28000 इस प्रकार सीतोदा नदी तक उत्तरोत्तर दूनी नदियाँ हैं। तदनंतर शेष तीन युगलों में पुनः उत्तरोत्तर आधी-आधी हैं। ( सर्वार्थसिद्धि/3/23/220/10 ); ( राजवार्तिक/3/23/3/190/13 ), ( हरिवंशपुराण/5/275-276 )।
तिलोयपण्णत्ति/4/गाथा का भावार्थ- - यह द्वीप एक जगती करके वेष्टित है।15। ( हरिवंशपुराण/5/3 ), ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/26 )।
- इस जगती की पूर्वादि चारों दिशाओं में विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित नाम के चार द्वार हैं।41-42। ( राजवार्तिक/3/9/1/170/29 ); ( हरिवंशपुराण/5/390 ); ( त्रिलोकसार/892 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/38,42 )।
- इनके अतिरिक्त यह द्वीप अनेकों वन उपवनों, कुंडों, गोपुर-द्वारों, देव-नगरियों व पर्वत, नदी, सरोवर, कुंड आदि सबकी वेदियों करके शोभित हैं। 92-99।
- (प्रत्येक पर्वत पर अनेकों कूट होते हैं (देखें आगे उन उन पर्वतों का निर्देश ) प्रत्येक पर्वत व कूट, नदी, कुंड, द्रह, आदि वेदियों करके संयुक्त होते हैं - (देखें अगला शीर्षक )। प्रत्येक पर्वत, कुंड, द्रह, कूटों पर भवनवासी व व्यंतर देवों के पुर, भवन व आवास हैं - (देखें व्यंतर - 4.1.5 )। प्रत्येक पर्वतादि के ऊपर तथा उन देवों के भवनों में जिन चैत्यालय होते हैं। (देखें चैत्यालय - 3.2)।
- जंबूद्वीप में पर्वत नदी आदि का प्रमाण
- क्षेत्र, नगर आदि का प्रमाण
( तिलोयपण्णत्ति/2396-2397 ); ( हरिवंशपुराण/5/8-11 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/55 )।
- क्षेत्र, नगर आदि का प्रमाण
- जंबूद्वीप सामान्य निर्देश
नं. |
नाम |
गणना |
विवरण |
1 |
महाक्षेत्र |
7 |
भरत हैमवत आदि (देखें लोक - 3.3।। |
2 |
कुरुक्षेत्र |
2 |
देवकुरु व उत्तर कुरु |
3 |
कर्मभूमि |
34 |
भरत, ऐरावत व 32 विदेह। |
4 |
भोगभूमि |
6 |
हैमवत, हरि, रम्यक व हैरण्यवत तथा दोनों कुरुक्षेत्र |
5 |
आर्यखंड |
34 |
प्रति कर्मभूमि एक |
6 |
म्लेच्छ खंड |
170 |
प्रति कर्मभूमि पाँच |
7 |
राजधानी |
34 |
प्रति कर्मभूमि एक |
8 |
विद्याधरों के नगर। |
3750 |
भरत व ऐरावत के विजयार्धों में से प्रत्येक पर 115 तथा 32 विदेहों के विजयार्धों में से प्रत्येक पर 110 (देखें विद्याधर )। |
- पर्वतों का प्रमाण
( तिलोयपण्णत्ति 4/2394-2397 ); ( हरिवंशपुराण/5/8-10 ); ( त्रिलोकसार /731);
नं. |
नाम |
गणना |
विवरण |
1 |
मेरु |
1 |
जंबूद्वीप के बीचोबीच। |
2 |
कुलाचल |
6 |
हिमवान् आदि (देखें लोक - 3.3)। |
3 |
विजयार्ध |
34 |
प्रत्येक कर्मभूमि में एक। |
4 |
वृषभगिरि |
34 |
प्रत्येक कर्मभूमि के उत्तर मध्य-म्लेच्छ खंड में एक। |
5 |
नाभिगिरि |
4 |
हैमवत, हरि, रम्यक व हैरण्यवत क्षेत्रों के बीचोबीच। |
6 |
वक्षार |
16 |
पूर्व व ऊपर विदेह के उत्तर व दक्षिण में चार-चार। |
7 |
गजदंत |
4 |
मेरु की चारों विदिशाओं में। |
8 |
दिग्गजेंद्र |
8 |
विदेह क्षेत्र के भद्रशालवन में व दोनों कुरुओं में सीता व सीतोदा नदी के दोनों तटों पर। |
9 |
यमक |
4 |
दो कुरुओं में सीता व सीतोदा के दोनों तटों पर। |
10 |
कांचनगिरि |
200 |
दोनों कुरुओं में पाँच-पाँच द्रहों के दोनों पार्श्व भागों में दस-दस। |
311 |
- नदियों का प्रमाण
( तिलोयपण्णत्ति/4/2380-2385 ); ( हरिवंशपुराण/5/272-277 ); ( त्रिलोकसार/747-750 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/197-198 )।
नाम |
गणना |
प्रत्येक का परिवार |
कुल प्रमाण |
विवरण |
गंगा-सिंधु |
2 |
14000 |
28002 |
भरतक्षेत्र में |
रोहित-रोहितास्या |
2 |
28000 |
56002 |
हैमवत क्षेत्र में |
हरित हरिकांता |
2 |
56000 |
112002 |
हरि क्षेत्र में |
नारी नरकांता |
2 |
56000 |
112002 |
रम्यक क्षेत्र में |
सुवर्णकूला व रूप्यकूला |
2 |
28000 |
56002 |
हैरण्यवत क्षेत्र में |
रक्ता-रक्तोदा |
2 |
14000 |
28002 |
ऐरावत क्षेत्र में |
छह क्षेत्रों की कुल नदियाँ |
|
392012 |
|
|
सीता सीतोदा |
2 |
84000 |
168002 |
दोनों कुरुओं में |
क्षेत्र नदियाँ |
64 |
14000 |
896064 |
32 विदेहों में |
विभंगा |
12 |
× |
12 |
|
विदेह की कुल नदियाँ |
|
|
1064078 |
हरिवंशपुराण व जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो की अपेक्षा |
जंबूद्वीप की कुल नदी |
|
|
1456090 |
|
विभंगा |
12 |
28000 |
336000 |
|
जंबूद्वीप की कुल नदी |
|
|
1792090 |
तिलोयपण्णत्ति की अपेक्षा |
- द्रह-कुंड आदि
नं. |
नाम |
गणना |
विवरण का प्रमाण |
1 |
द्रह |
16 |
कुलाचलों पर 6 तथा दोनों कुरु में 10‒( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/67 )। |
2 |
कुंड |
1792090 |
नदियों के बराबर ( तिलोयपण्णत्ति/4/2386 )। |
3 |
वृक्ष |
2 |
जंबू व शाल्मली ( हरिवंशपुराण/5/8 ) |
4 |
गुफाएं |
68 |
34 विजयार्धों की ( हरिवंशपुराण/5/10 ) |
5 |
वन |
अनेक |
मेरु के 4 वन भद्रशाल, नंदन, सौमनस व पांडुक। पूर्वा पर विदेह के छोरों पर देवारण्यक व भूतारण्यक। सर्वपर्वतों के शिखरों पर, उनके मूल में, नदियों के दोनों पार्श्व भागों में इत्यादि। |
6 |
कूट |
568 |
( तिलोयपण्णत्ति/4/2396 ) |
7 |
चैत्यालय |
अनेक |
कुंड, वनसमूह, नदियाँ, देव नगरियाँ, पर्वत, तोरण द्वार, द्रह, दोनों वृक्ष, आर्य खंड के तथा विद्याधरों के नगर आदि सब पर चैत्यालय हैं—(देखें चैत्यालय )। |
8 |
वेदियाँ |
अनेक |
उपरोक्त प्रकार जितने भी कुंड आदि तथा चैत्यालय आदि हैं उतनी ही उनकी वेदियाँ है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/23-88-2390 )। |
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18 |
जंबूद्वीप के क्षेत्रों की ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/60-67 ) |
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311 |
सर्व पर्वतों की ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/60-67 ) |
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16 |
द्रहों की ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/60-67 ) |
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24 |
पद्मादि द्रहों की ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/60-67 ) |
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90 |
कुंडों की ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/60-67 ) |
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14 |
गंगादि महानदियों की ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/60-67 ) |
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5200 |
कुंडज महानदियों की ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/60-67 ) |
9 |
कमल |
2241856 |
कुल द्रह=16 और प्रत्येक द्रह में |
- क्षेत्र निर्देश
- जंबूद्वीप के दक्षिण में प्रथम भरतक्षेत्र जिसके उत्तर में हिमवान् पर्वतऔर तीन दिशाओं में लवण सागर है। ( राजवार्तिक/3/10/3/171/12 )। इसके बीचों बीच पूर्वापर लंबायमान एक विजयार्ध पर्वत है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/107 ); ( राजवार्तिक/3/10/4/171/17 ); ( हरिवंशपुराण/5/20 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/32 )। इसके पूर्व में गंगा और पश्चिम में सिंधु नदी बहती है। (देखें लोक - 3.1) ये दोनों नदियाँ हिमवान् के मूल भाग में स्थित गंगा व सिंधु नाम के दो कुंडों से निकलकर पृथक्-पृथक् पूर्व व पश्चिम दिशा में, उत्तर से दक्षिण की ओर बहती हुई विजयार्ध दो गुफा में से निकलकर दक्षिण क्षेत्र के अर्धभाग तक पहुँचकर और पश्चिम की ओर मुड़ जाती हैं, और अपने-अपने समुद्र में गिर जाती हैं - ( देखें लोक - 3.11)। इस प्रकार इन दो नदियों व विजयार्ध से विभक्त इस क्षेत्र के छह खंड हो जाते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/266 ); ( सर्वार्थसिद्धि/3//10/213/6 ); ( राजवार्तिक/3/10/3/171/13 )। विजयार्थ की दक्षिण के तीन खंडों में से मध्य का खंड आर्यखंड है और शेष पाँच खंड म्लेच्छ खंड हैं - (देखें आर्यखंड - 2)। आर्यखंड के मध्य 12×9 योजन विस्तृत विनीता या अयोध्या नाम की प्रधान नगरी है जो चक्रवर्ती की राजधानी होती है। ( राजवार्तिक/3/10/1/171/6 )। विजयार्ध के उत्तरवाले तीन खंडों में मध्यवाले म्लेच्छ खंड के बीचों-बीच वृषभगिरि नाम का एक गोल पर्वत है जिस पर दिग्विजय कर चुकने पर चक्रवर्ती अपना नाम अंकित करता है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/268-269 ); ( त्रिलोकसार/710 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/107 )।
- इसके पश्चात् हिमवान् पर्वत के उत्तर में तथा महाहिमवान् के दक्षिण में दूसरा हैमवत क्षेत्र है ( राजवार्तिक/3/10/5/172/17 ); ( हरिवंशपुराण/5/57 )। इसके बहुमध्य भाग में एक गोल शब्दवान् नाम का नाभिगिरि पर्वत है ( तिलोयपण्णत्ति/1704 ); ( राजवार्तिक/3/10/7/172/21 )। इस क्षेत्र के पूर्व में रोहित और पश्चिम में रोहितास्या नदियाँ बहती हैं। (देखें लोक - 3.1.7)। ये दोनों ही नदियाँ नाभिगिरि के उत्तर व दक्षिण में उससे 2 कोस परे रहकर ही उसकी प्रदक्षिणा देती हुई अपनी-अपनी दिशाओं में मुड़ जाती हैं, और बहती हुई अंत में अपनी-अपनी दिशा वाले सागर में गिर जाती हैं। -(देखें आगे लोक - 3.11)।
- इसके पश्चात् महाहिमवान् के उत्तर तथा निषध पर्वत के दक्षिण में तीसरा हरिक्षेत्र है ( राजवार्तिक/3/10/6/172/19 )। नील के उत्तर में और रुक्मि पर्वत के दक्षिण में पाँचवाँ रम्यक क्षेत्र है। ( राजवार्तिक/3/10/15/181/15 ) पुनः रुक्मि के उत्तर व शिखरी पर्वत के दक्षिण में छठा हैरण्यवत क्षेत्र है। ( राजवार्तिक/3/10/18/181/21 ) तहाँ विदेह क्षेत्र को छोड़कर इन चारों का कथन हैमवत के समान है। केवल नदियों व नाभिगिरि पर्वत के नाम भिन्न हैं - देखें लोक - 3.1.7 ) व लोक - 5.8।
- निषध पर्वत के उत्तर तथा नीलपर्वत के दक्षिण में विदेह क्षेत्र स्थित है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2474 ); ( राजवार्तिक/3/10/12/173/4 )। इस क्षेत्र की दिशाओं का यह विभाग भरत क्षेत्र की अपेक्षा है सूर्योदय की अपेक्षा नहीं, क्योंकि वहाँ इन दोनों दिशाओं में भी सूर्य का उदय व अस्त दिखाई देता है। ( राजवार्तिक/3/10/13/173/10 )। इसके बहुमध्यभाग में सुमेरु पर्वत है (देखें लोक - 3.6)। (ये क्षेत्र दो भागों में विभक्त हैं - कुरुक्षेत्र व विदेह) मेरु पर्वत की दक्षिण व निषध के उत्तर में देवकुरु है ( तिलोयपण्णत्ति/4/2138-2139 )। मेरु के पूर्व व पश्चिम भाग में पूर्व व अपर विदेह है, जिनमें पृथक् - पृथक् 16- 16 क्षेत्र हैं, जिन्हें 32 विदेह कहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2199 )। (दोनों भागों का इकट्ठा निर्देश — राजवार्तिक/3/10/13/173/6 ) (नोट - इन दोनों भागों के विशेष कथन के लिए देखें आगे पृथक् शीर्षक (देखें लोक - 3.12-14) )।
- सबसे अंत में शिखरी पर्वत के उत्तर में तीन तरफ से लवण सागर के साथ स्पर्शित सातवाँ ऐरावत क्षेत्र है। ( राजवार्तिक/3/10/21/181/28 )। इसका संपूर्ण कथन भरत क्षेत्रवत् है ( तिलोयपण्णत्ति/4/2365 ); ( राजवार्तिक/3/10/22/181/30 ) केवल इनकी दोनों नदियों के नाम भिन्न हैं (देखें लोक - 3.1.7) तथा लोक - 5.8 )।
- कुलाचल पर्वत निर्देश
- भरत व हैमवत इन दोनों क्षेत्रों की सीमा पर पूर्व-पश्चिम लंबायमान (देखें लोक - 3.1.2) प्रथम हिमवान् पर्वत है - ( राजवार्तिक/3/11/2/182/6 )। इस पर 11 कूट हैं - ( तिलोयपण्णत्ति/4/1632 ); ( राजवार्तिक/3/11/2/182/16 ); ( हरिवंशपुराण/5/52 ); ( त्रिलोकसार/721 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/39 )। पूर्व दिशा के कूट पर जिनायतन और शेष कूटों पर यथा योग्य नामधारी व्यंतर देव व देवियों के भवन हैं (देखें लोक - 5.4)। इस पर्वत के शीर्ष पर बीचों-बीच पद्म नाम का हृद है ( तिलोयपण्णत्ति/4/16-58 ); (देखें लोक - 3.1.4)।
- तदनंतर हैमवत् क्षेत्र के उत्तर व हरिक्षेत्र के दक्षिण में दूसरा महाहिमवान् पर्वत है। ( राजवार्तिक/3/11/4/182/31 )। इस पर पूर्ववत् आठ कूट हैं ( तिलोयपण्णत्ति /4/1724 ); ( राजवार्तिक 3/11/4/183/4 ); ( हरिवंशपुराण 5/70 ); ( त्रिलोकसार/724 )( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/39 )। इसके शीर्ष पर पूर्ववत् महापद्म नाम का द्रह है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1727 ); (देखें लोक - 3.1.4)।
- तदनंतर हरिवर्ष के उत्तर व विदेह के दक्षिण में तीसरा निषधपर्वत है। ( राजवार्तिक/3/11/6/183/11 )। इस पर्वत पर पूर्ववत 9 कूट हैं ( तिलोयपण्णत्ति/4/1758 ); ( राजवार्तिक/3/11/6/183/17 ): ( हरिवंशपुराण/5/87 ): ( त्रिलोकसार/725 ): ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/39 )। इसके शीर्ष पर पूर्ववत् तिगिंछ नाम का द्रह है ( तिलोयपण्णत्ति/4/1761 ); (देखें लोक - 3.1.4)।
- तदनंतर विदेह के उत्तर तथा रम्यकक्षेत्र के दक्षिण दिशा में दोनों क्षेत्रों को विभक्त करने वाला निषधपर्वत के सदृश चौथा नीलपर्वत है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2327 ); ( राजवार्तिक/3/11/8/23 )। इस पर पूर्ववत् 9 कूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2328 ); ( राजवार्तिक/3/11/8/183/24 ); ( हरिवंशपुराण/5/99 ); ( त्रिलोकसार/729 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/39 )। इतनी विशेषता है कि इस पर स्थित द्रह का नाम केसरी है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2332 ); (देखें लोक - 3.1/4)।
- तदनंतर रम्यक व हैरण्यवत क्षेत्रों का विभाग करने वाला तथा महा हिमवान पर्वत के सदृश 5वाँ रुक्मि पर्वत है, जिस पर पूर्ववत आठ कूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2340 ); ( राजवार्तिक/3/11/10/183/30 ); ( हरिवंशपुराण/5/102 ); ( त्रिलोकसार/727 )। इस पर्वत पर महापुंडरीक द्रह है। (देखें लोक - 3.1.4)। तिलोयपण्णत्ति की अपेक्षा इसके द्रह का नाम पुंड्रीक है। (तिलोयपण्णत्ति/4/2344)।
- अंत में जाकर हैरण्यवत व ऐरावत क्षेत्रों की संधि पर हिमवान पर्वत के सदृश छठा शिखरी पर्वत है, जिस पर 11 कूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2356 ); ( राजवार्तिक/3/11/12/184/3 ); ( हरिवंशपुराण/5/105 ); ( त्रिलोकसार/728 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/39 ) इस पर स्थित द्रह का नाम पुंड्रीक है (देखें लोक - 3.1/4)। तिलोयपण्णत्ति की अपेक्षा इसके द्रह का नाम महापुंडरीक है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2360 )।
- विजयार्ध पर्वत निर्देश
- भरतक्षेत्र के मध्य में पूर्व-पश्चिम लंबायमान विजयार्ध पर्वत है (देखें लोक - 3.3.1)। भूमितल से 10 योजन ऊपर जाकर इसकी उत्तर व दक्षिण दिशा में विद्याधर नगरों की दो श्रेणियाँ हैं। तहाँ दक्षिण श्रेणी में 55 और उत्तर श्रेणी में 60 नगर हैं। इन श्रेणियों से भी 10 योजन ऊपर जाकर उसीप्रकार दक्षिण व उत्तर दिशा में आभियोग्य देवों की श्रेणियाँ हैं। (देखें विद्याधर - 4 )। इसके ऊपर 9 कूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/146 ); ( राजवार्तिक/3/10/4/172/10 ); हरिवंशपुराण/5/26 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/48 )। पूर्व दिशा के कूट पर सिद्धायतन है और शेष पर यथायोग्य नामधारी व्यंतर व भवनवासी देव रहते हैं। (देखें लोक - 5.4)। इसके मूलभाग में पूर्व व पश्चिम दिशाओं में तमिस्र व खंडप्रपात नाम की दो गुफाएँ हैं, जिनमें क्रम से गंगा व सिंधु नदी प्रवेश करती हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/175 ); ( राजवार्तिक/3/10/4/17/171/27 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/89)। राजवार्तिक व. त्रिलोकसार के मत से पूर्व दिशा में गंगाप्रवेश के लिए खंडप्रपात और पश्चिम दिशा में सिंधु नदी के प्रवेश के लिए तमिस्र गुफा है (देखें लोक - 3.10)। इन गुफाओं के भीतर बहु मध्यभाग में दोनों तटों से उन्मग्ना व निमग्ना नाम की दो नदियाँ निकलती हैं जो गंगा और सिंधु में मिल जाती हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/237 ), ( राजवार्तिक/3/10/4/171/31 ); ( त्रिलोकसार/593 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/95-98 );
- इसी प्रकार ऐरावत क्षेत्र के मध्य में भी एक विजयार्ध है, जिसका संपूर्ण कथन भरत विजयार्धवत् है (देखें लोक - 3.3)। कूटों व तन्निवासी देवों के नाम भिन्न हैं। (देखें लोक - 5.4)।
- विदेह के 32 क्षेत्रों में से प्रत्येक के मध्य पूर्वापर लंबायमान विजयार्ध पर्वत है। जिनका संपूर्ण वर्णन भरत विजयार्धवत् है। विशेषता यह कि यहाँ उत्तर व दक्षिण दोनों श्रेणियों में 55, 55 नगर हैं . ( तिलोयपण्णत्ति/4/2257, 2260 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/176/20 ); ( हरिवंशपुराण/5/255-256 ); ( त्रिलोकसार/611-695 )। इनके ऊपर भी 9,9 कूट हैं ( त्रिलोकसार/692 )। परंतु उनके व उन पर रहने वाले देवों के नाम भिन्न हैं। (देखें लोक - 5.4)।
- सुमेरु पर्वत निर्देश
- सामान्य निर्देश
विदेहक्षेत्र के बहु मध्यभाग में सुमेरु पर्वत है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1780 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/173/16 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/21 )। यह पर्वत तीर्थंकरों के जन्माभिषेक का आसनरूपमाना जाता है ( तिलोयपण्णत्ति/4/1780 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/21 ), क्योंकि इसके शिखर पर पांडुकवन में स्थित पांडुक आदि चार शिलाओं पर भरत, ऐरावत तथा पूर्व व पश्चिम विदेहों के सर्व तीर्थंकरों का देव लोग जन्माभिषेक करते हैं (देखें लोक - 3.3.4)। यह तीनों लोकों का मानदंड है, तथा इसके मेरु, सुदर्शन, मंदर आदि अनेकों नाम हैं (देखें सुमेरु - 2)।
- मेरु का आकार
यह पर्वत गोल आकार वाला है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1782 )। पृथिवी तलपर 10,0,00 योजन विस्तार तथा 99,000 योजन उत्सेध वाला है। क्रम से हानिरूप होता हुआ इसका विस्तार शिखर पर जाकर 1000 योजन रह जाता है। (देखें लोक चित्र - 6.4)। इसकी हानि का क्रम इस प्रकार है - क्रम से हानिरूप होता हुआ पृथिवी तल से 500 योजन ऊपर जाने पर नंदनवन के स्थान पर यह चारों ओर से युगपत् 500 योजन संकुचित होता है। तत्पश्चात् 11,000 योजन समान विस्तार से जाता है। पुनः 51,500 योजन क्रमिक हानिरूप से जानेपर सौमनस वन के स्थान पर चारों ओर से 500 योजन संकुचित होता है। यहाँ से 11,000 योजन तक पुनः समान विस्तार से जाता है उसके ऊपर 25,000 योजन क्रमिक हानिरूप से जाने पर पांडुकवन के स्थान पर चारों ओर से युगपत् 494 योजन संकुचित होता है। (तिलोयपण्णत्ति /4/1788-1791); ( हरिवंशपुराण/5/287-301 ) इसका बाह्य विस्तार भद्रशाल आदि वनों के स्थान पर क्रम से 10,000 9954(6/11), 4272(8/11) तथा 1000 योजन प्रमाण है ( तिलोयपण्णत्ति/4/1783 + 1990+ 1939+ 1810); ( हरिवंशपुराण/5/287-301 ) और भी देखें लोक - 6.6 में इन वनों का विस्तार)। इस पर्वत के शीश पर पांडुक वन के बीचों बीच 40 यो. ऊँची तथा 12 यो. मूल विस्तार युक्त चूलिका है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1814 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/180/14 ); ( हरिवंशपुराण/5/302 ); ( त्रिलोकसार/637 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/132 ); (विशेष देखें लोक - 6.4-2 में चूलिका विस्तार)।
- मेरु की परिधियाँ
नीचे से ऊपर की ओर इस पर्वत की परिधि सात मुख्य भागों में विभाजित है - हरितालमयी, वैडूर्यमयी, सर्वरत्नमयी, वज्रमयी, मद्यमयी और पद्मरागमयी अर्थात् लोहिताक्षमयी। इन छहों में से प्रत्येक 16,500 यो. ऊँची है। भूमितल अवगाही सप्त परिधि (पृथिवी उपल बालु का आदि रूप होने के कारण) नाना प्रकार है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1802-1804 ), ( हरिवंशपुराण/5/304 )। दूसरी मान्यता के अनुसार ये सातों परिधियाँ क्रम से लोहिताक्ष, पद्म, तपनीय, वैडूर्य, वज्र, हरिताल और जांबूनद-सुवर्णमयी हैं। प्रत्येक परिधि की ऊँचाई 16500 योजन है। पृथिवीतल के नीचे 1000 यो. पृथिवी, उपल, बालु का और शर्करा ऐसे चार भाग रूप हैं। तथा ऊपर चूलिका के पास जाकर तीन कांडकों रूप है। प्रथम कांडक सर्वरत्नमयी, द्वितीय जांबूनदमयी और तीसरा कांडक चूलिका का है जो वैडूर्यमयी है।
- वनखंड निर्देश
- सुमेरु पर्वत के तलभाग में भद्रशाल नाम का प्रथम वन है जो पाँच भागों में विभक्त है - भद्रशाल, मानुषोत्तर, देवरमण, नागरमण और भूतरमण। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1805 ); ( हरिवंशपुराण/5/307 ) इस वनकी चारों दिशाओं में चार जिनभवन हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2003 ); ( त्रिलोकसार/611 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/49 ) इनमें से एक मेरु से पूर्व तथा सीता नदी के दक्षिण में है। दूसरा मेरु की दक्षिण व सीतोदा के पूर्व में है। तीसरा मेरु से पश्चिम तथा सीतीदा के उत्तर में है और चौथा मेरु के उत्तर व सीता के पश्चिम में है। ( राजवार्तिक/3/10/178/18 ) इन चैत्यालयों का विस्तार पांडुक वन के चैत्यालयों से चौगुना है ( तिलोयपण्णत्ति/4/2004 )। इस वन में मेरु की चारों तरफ सीता व सीतोदा नदी के दोनों तटों पर एक-एक करके आठ दिग्गजेंद्र पर्वत हैं। (देखें लोक - 3.12)
- भद्रशाल वन से 500 योजन ऊपर जाकर मेरु पर्वत की कटनी पर द्वितीय वन स्थित है। (देखें पिछला उपशीर्षक - 1)। इसके दो विभाग हैं नंदन व उपनंदन। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1806 ); हरिवंशपुराण/5/308 ) इसकी पूर्वादि चारों दिशाओं में पर्वत के पास क्रम से मान, धारणा, गंधर्व व चित्र नाम के चार भवन हैं जिनमें क्रम से सौधर्म इंद्र के चार लोकपाल सोम, यम, वरुण व कुबेर क्रीड़ा करते हैं।) ( तिलोयपण्णत्ति/4/1994-1996 ); ( हरिवंशपुराण/315-317 ); ( त्रिलोकसार/619, 621 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/83-84 )। कहीं-कहीं इन भवनों को गुफाओं के रूप में बताया जाता है। ( राजवार्तिक/3/10/13/179/14 )। यहाँ भी मेरु के पास चारों दिशाओं में चार जिनभवन हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1998 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/179/32 ); ( हरिवंशपुराण/5/358 ); ( त्रिलोकसार/611 )। प्रत्येक जिनभवन के आगे दो-दो कूट हैं - जिनपर दिक्कुमारी देवियाँ रहती हैं। तिलोयपण्णत्ति की अपेक्षा ये आठ कूट इस वन में न होकर सौमनस वन में ही हैं। (देखें लोक - 5.5)। चारों विदिशाओं में सौमनस वन की भाँति चार-चार करके कुल 16 पुष्करिणियाँ हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1998 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/179/25 ); ( हरिवंशपुराण /5/334-335+343 - 346 ); ( त्रिलोकसार/628 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/110-113 )। इस वन की ईशान दिशा में एक बलभद्र नाम का कूट है जिसका कथन सौमनस वन के बलभद्र कूट के समान है। इस पर बलभद्र देव रहता है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1997 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/179/16 ); ( हरिवंशपुराण/5/328 ); ( त्रिलोकसार/624 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/99 )।
- नंदन वन में 62500 योजन ऊपर जाकर सुमेरु पर्वत पर तीसरा सौमनस वन स्थित है। देखें लोक - 3.6,1)। इसके दो विभाग हैं- सौमनस व उपसौमनस ( तिलोयपण्णत्ति/4/1806 ); ( हरिवंशपुराण/5/308 )। इसकी पूर्वादि चारों दिशाओं में मेरु के निकट वज्र, वज्रमय, सुवर्ण व सुवर्णप्रभ नाम के चार पुर हैं, ( तिलोयपण्णत्ति/4/1943 ); ( हरिवंशपुराण/5/319 ); ( त्रिलोकसार/620 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/91 ) इनमें भी नंदन वन के भवनोंवत् सोम आदि लोकपाल क्रीड़ा करते हैं। ( त्रिलोकसार/621 )। चारों विदिशाओं में चार-चार पुष्करिणी हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1946(1962-1966) ); ( राजवार्तिक/3/10/13/180/7 )। पूर्वादि चारों दिशाओं में चार जिनभवन हैं ( तिलोयपण्णत्ति/4/1968 ); ( हरिवंशपुराण/5/357 ); ( त्रिलोकसार/611 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/64 )। प्रत्येक जिन मंदिर संबंधी बाह्य कोटों के बाहर उसके दोनों कोनों पर एक-एक करके कुल आठ कूट हैं। जिनपर दिक्कुमारी देवियाँ रहती हैं। (देखें लोक - 5.5)। इसकी ईशान दिशा में बलभद्र नाम का कूट है जो 500 योजन तो वन के भीतर है और 500 योजन उसके बाहर आकाश में निकला हुआ है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1981 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/101 ); इस पर बलभद्र देव रहता है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1984 ) मतांतर की अपेक्षा इस वन में आठ कूट व बलभद्र कूट नहीं हैं। ( राजवार्तिक/3/10/13/180/6 )। (देखें सामनेवाला चित्र )। 4. सौमनस वनसे 36000 योजन ऊपर जाकर मेरु के शीर्ष पर चौथा पांडुक वन है। (देखें लोक - 3.6,1) जो चूलिका को वेष्टित करके शीर्ष पर स्थित है ( तिलोयपण्णत्ति/4/1814 )। इसके दो विभाग हैं - पांडुक व उपपांडुक। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1806 ); ( हरिवंशपुराण/5/309 )। इसके चारों दिशाओं में लोहित, अंजन, हरिद्र और पांडुक नाम के चार भवन हैं जिनमें सोम आदि लोकपाल क्रीड़ा करते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1836, 1852 ); ( हरिवंशपुराण/5/322 ), ( त्रिलोकसार/620 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/93 ); चारों विदिशाओं में चार-चार करके 16 पुष्करिणियाँ हैं। ( राजवार्तिक/3/10/16/180/26 )। वन के मध्य चूलिका की चारों दिशाओं में चार जिनभवन हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1855, 1935 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/180/28 ); ( हरिवंशपुराण/5/354 ); ( त्रिलोकसार/611 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/64 )। वन की ईशान आदि दिशाओं में अर्ध चंद्राकार चार शिलाएं हैं - पांडुक शिला, पांडुकंबला शिला, रक्ताकंबला शिला और रक्तशिला। राजवार्तिक के अनुसार ये चारों पूर्वादि दिशाओं में स्थित हैं। ( तिलोयपण्णत्ति /4/1818, 1830-1834 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/180/15 ); ( हरिवंशपुराण/5/347 ); ( त्रिलोकसार/633 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/138-141 )। इन शिलाओंपर क्रम से भरत, अपरविदेह, ऐरावत और पूर्व विदेह के तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1827,1831-1835 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/180/22 ); ( हरिवंशपुराण/5/353 ); ( त्रिलोकसार/634 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/148-150 )।
- सामान्य निर्देश
- पांडुकशिला निर्देश
पांडुक शिला 100 योजन /लंबी 50 योजन चौड़ी है, मध्य में 8 योजन ऊँची है और दोनों ओर क्रमशः हीन होती गयी है। इस प्रकार यह अर्धचंद्रकार है। इसके बहुमध्यदेश में तीन पीठ युक्त एक सिंहासन है और सिंहासन के दोनों पार्श्व भागों में तीन पीठ युक्त ही एक भद्रासन है। भगवान् के जन्माभिषेक के अवसर पर सौधर्म व ऐशानेंद्र दोनों इंद्र भद्रासनों पर स्थित होते हैं और भगवान् को मध्य सिंहासन पर विराजमान करते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1819-1829 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/180/20 ); ( हरिवंशपुराण/5/349-352 ); ( त्रिलोकसार/635-636 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/142-147 )।
- अन्य पर्वतों का निर्देश
- भरत, ऐरावत व विदेह इन तीन को छोड़कर शेष हैमवत आदि चार क्षेत्रों के बहुमध्य भाग में एक-एक नाभिगिरि है। ( हरिवंशपुराण/5/161 ); ( त्रिलोकसार/718-719 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/209 ); (विशेष देखें लोक - 5.13.2)। ये चारों पर्वत ऊपर-नीचे समान गोल आकार वाले हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1704 ); ( त्रिलोकसार/718 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/210 )।
- मेरु पर्वत की विदिशाओं में हाथी के दाँत के आकारवाले चार गजदंत पर्वत हैं। जो एक ओर तो निषध व नील कुलाचलों को और दसरी तरफ मेरु को स्पर्श करते हैं। तहाँ भी मेरु पर्वत के मध्यप्रदेश में केवल एक-एक प्रदेश उससे संलग्न हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2012-2014 )। ( तिलोयपण्णत्ति )के अनुसार इन पर्वतों के परभाग भद्रशाल वन की वेदी को स्पर्श करते हैं, क्योंकि वहाँ उनके मध्य का अंतराल 53000 यो. बताया गया है। तथा सग्गायणी के अनुसार उन वेदियों से 500 यो. हटकर स्थित है, क्योंकि वहाँ उनके मध्य का अंतराल 52000 यो. बताया है। (देखें लोक - 6.3.1 में देवकुरु व उत्तरकुरु का विस्तार)। अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार उन वायव्य आदि दिशाओं में जो-जो भी नामवाले पर्वत हैं, उन पर क्रम से 7,9,7,9 कूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2031, 2046, 2058, 2060 ); ( हरिवंशपुराण/5/216 ), (विशेष देखें लोक - 5.3.3)। मतांतर से इन पर क्रम से 7,10,7,9 कूट हैं। ( राजवार्तिक/30/10/13/173/23,30/14/18 )। ईशान व नैर्ऋत्य दिशावाले विद्युत्प्रभ व माल्यवान गजदंतों के मूल में सीता व सीतोदा नदियों के निकलने के लिए एक-एक गुफा होती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2055, 2063 )।
- देवकुरु व उत्तरकुर में सीतोदा व सीता नदी के दोनों तटों पर एक यमक पर्वत हैं (देखें आगे लोक - 3.12)। ये गोल आकार वाले हैं। (देखें लोक - 6.4.1 में इनका विस्तार )। इन पर इन इन के नामवाले व्यंतर देव सपरिवार रहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2084 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/174/28 )। उनके प्रासादों का सर्वकथन पद्मद्रह के कमलोंवत् है। ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/92-102 )।
- उन्हीं देवकुरु व उत्तरकुरु में स्थित द्रहों के दोनों पार्श्वभागों में कांचन शैल स्थित है। (देखें आगे लोक - 3.12) ये पर्वत गोल आकार वाले हैं। (देखें लोक - 6.4.2 में इनका विस्तार) इनके ऊपर कांचन नामक व्यंतर देव रहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2099 ); ( हरिवंशपुराण/5/204 ); ( त्रिलोकसार/659 )।
- देवकुरु व उत्तरकुरु के भीतर से बाहर भद्रशाल वन में सीतोदा व सीता नदी के दोनों तटों पर आठ दिग्गजेंद्र पर्वत हैं (देखें लोक - 3.12)। ये गोल आकार वाले हैं (देखें लोक - 6.4 में इनका विस्तार)। इन पर यम व वैश्रवण नामक वाहन देवों के भवन हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2106, 2108, 2031 )। उनके नाम पर्वतों वाले ही हैं। ( हरिवंशपुराण/5/209 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/81 )।
- पूर्व व पश्चिम विदेह में सीता व सीतोदा नदी के दोनों तरफ उत्तर-दक्षिण लंबायमान, 4, 4 करके कुल 16 वक्षार पर्वत हैं। एक ओर ये निषध व नील पर्वतों को स्पर्श करते हैं और दूसरी ओर सीता व सीतोदा नदियों को। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2200, 2224, 2230 ); ( हरिवंशपुराण/5/228-232 ) (और भी देखें आगे लोक - 3.14)। प्रत्येक वक्षार पर चार चार कूट हैं; नदी की तरफ सिद्धायतन है और शेष कूटों पर व्यंतर देव रहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2309-2311 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/176/4 ); ( हरिवंशपुराण/5/234-235 )। इन कूटों का सर्व कथन हिमवान पर्वत के कूटोंवत् है। ( राजवार्तिक/3/10/13/176/7 )।
- भरत क्षेत्र के पाँच म्लेच्छ खंडों में से उत्तर वाले तीन के मध्यवर्ती खंड में बीचों-बीच एक वृषभ गिरि है, जिस पर दिग्विजय के पश्चात् चक्रवर्ती अपना नाम अंकित करता है। (देखें लोक - 3.3)। यह गोल आकार वाला है। (देखें लोक - 6.4 में इसका विस्तार) इसी प्रकार विदेह के 32 क्षेत्रों में से प्रत्येक क्षेत्र में भी जानना (देखें लोक - 3.14)।
- भरत, ऐरावत व विदेह इन तीन को छोड़कर शेष हैमवत आदि चार क्षेत्रों के बहुमध्य भाग में एक-एक नाभिगिरि है। ( हरिवंशपुराण/5/161 ); ( त्रिलोकसार/718-719 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/209 ); (विशेष देखें लोक - 5.13.2)। ये चारों पर्वत ऊपर-नीचे समान गोल आकार वाले हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1704 ); ( त्रिलोकसार/718 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/210 )।
- द्रह निर्देश
- हिमवान पर्वत के शीष पर बीचों-बीच पद्म नाम का द्रह है। (देखें लोक - 3.4)। इसके तट पर चारों कोनों पर तथा उत्तर दिशा में 5 कूट हैं और जल में आठों दिशाओं में आठ कूट हैं। (देखें लोक - 5.3)। हृद के मध्य में एक बड़ा कमल है, जिसके 11000 पत्ते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/1667,1670 ); ( त्रिलोकसार/569 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/75 ); इस कमल पर ‘श्री’ देवी रहती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1672 ); (देखें लोक - 3.1-6)। प्रधान कमल की दिशा-विदिशाओं में उसके परिवार के अन्य भी अनेकों कमल हैं। कुल कमल 1,40,116 हैं। तहाँ वायव्य, उत्तर व ईशान दिशाओं में कुल 4000 कमल उसके सामानिक देवों के हैं। पूर्वादि चार दिशाओं में से प्रत्येक में 4000(कुल 16000) कमल आत्मरक्षकों के हैं। आग्नेय दिशा में 32,000 कमल आभ्यंतर पारिषदों के, दक्षिण दिशा में 40,000 कमल मध्यम पारिषदों के, नैर्ऋत्य दिशा में 48,000 कमल बाह्य पारिषदों के हैं। पश्चिम में 7 कमल सप्त अनीक महत्तरों के हैं। तथा दिशा व विदिशा के मध्य आठ अंतर दिशाओं में 108 कमल त्रायस्त्रिंशों के हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1675-1689 ); ( राजवार्तिक/3/17-/185/11 ); ( त्रिलोकसार/572-576 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/91-123 )। इसके पूर्व पश्चिम व उत्तर द्वारों से क्रम से गंगा, सिंधु व रोहितास्या नदी निकलती है। (देखें आगे शीर्षक - 11)। (देखें चित्र सं - 24, पृ. 470)।
- महाहिमवान् आदि शेष पाँच कुलाचलों पर स्थित महापद्म, तिगिंछ, केसरी, महापुंडरीक और पुंडरीक नाम के ये पाँच द्रह हैं। (देखें लोक - 3.4), इन हृदों का सर्व कथन कूट कमल आदि का उपरोक्त पद्महृदवत् ही जानना। विशेषता यह कि तन्निवासिनी देवियों के नाम क्रम से ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी हैं। (देखें लोक - 3.1)। व कमलों की संख्या तिगिंछ तक उत्तरोत्तर दूनी है। केसरी की तिगिंछवत्, महापुंडरीक की महापद्मवत् और पुंडरीक की पद्मवत् है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1728-1729; 1761-1762; 2332-2333; 2345-2361 )। अंतिम पुंडरीक द्रह से पद्मद्रहवत् रक्ता, रक्तोदा व सुवर्णकूला ये तीन नदियाँ निकलती हैं और शेष द्रहों से दो-दो नदियाँ केवल उत्तर व दक्षिण द्वारों से निकलती हैं। (देखें लोक - 3.17 व 11 )। ( तिलोयपण्णत्ति में महापुंडरीक के स्थान पर रुक्मि पर्वत पर पुंडरीक और पुंडरीक के स्थान पर शिखरी पर्वत पर महापुंडरीक द्रह कहा है - (देखें लोक - 3.4)।
- देवकुरु व उत्तरकुरु में दस द्रह हैं।अथवा दूसरी मान्यता से 20 द्रह हैं। (देखें आगे लोक - 3.12) इनमें देवियों के निवासभूत कमलों आदि का संपूर्ण कथन पद्मद्रहवत् जानना ( तिलोयपण्णत्ति/4/2093, 2126 ); ( हरिवंशपुराण/5/198-199 ); ( त्रिलोकसार/658 ); (अ.प./6/124-129)। ये द्रह नदी के प्रवेश व निकास के द्वारों से संयुक्त हैं। ( त्रिलोकसार/658 )।
- सुमेरु पर्वत के नंदन, सौमनस व पांडुक वन में 16,16 पुष्करिणी हैं, जिनमें सपरिवार सौधर्म व ऐशानेंद्र क्रीड़ा करते हैं। तहाँ मध्य में इंद्रका आसन है। उसकी चारों दिशाओं में चार आसन लोकपालों के हैं, दक्षिण में एक आसन प्रतींद्रका , अग्रभाग में आठ आसन अग्रमहिषियों के, वायव्य और ईशान दिशा में 84,00,000 आसन सामानिक देवों के, आग्नेय दिशा में 12,00,000 आसन अभ्यंतर पारिषदों से, दक्षिण में 14,00,000 आसन मध्यम पारिषदों के, नैर्ऋत्य दिशा में 16,00,000 आसन बाह्य पारिषदों के, तथा उसी दिशा में 33 आसन त्रायस्त्रिंशों के, पश्चिम में छह आसन महत्तरों के और एक आसन महत्तरिका का है। मूल मध्य सिंहासन के चारों दिशाओं में 84,000 आसन अंगरक्षकों के हैं। (इस प्रकार कुल आसन 1,26,84,054 होते हैं)। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1949-1960 ), ( हरिवंशपुराण - 5.336-342 )।
- कुंड निर्देश
- हिमवान् पर्वत के मूलभाग से 25 योजन हटकर गंगा कुंड स्थित है। उसके बहुमध्य भाग में एक द्वीप है, जिसके मध्य में एक शैल है। शैल पर गंगा देवी का प्रासाद है। इसी का नाम गंगाकूट है। उस कूट के ऊपर एक-एक जिनप्रतिमा है, जिसके शीश पर गंगा की धारा गिरती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/216-230 ); ( राजवार्तिक/3/2/1/187/26 व 188/1); ( हरिवंशपुराण/5/142 ); ( त्रिलोकसार/586-587 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ 3/34-37 व 154-162)।
- उसी प्रकार सिंधु आदि शेष नदियों के पतन स्थानों पर भी अपने-अपने क्षेत्रों में अपने-अपने पर्वतों के नीचे सिंधु आदि कुंड जानने। इनका संपूर्ण कथन उपरोक्त गंगा कुंडवत् है विशेषता यह कि उन कुंडों के तथा तन्निवासिनी देवियों के नाम अपनी-अपनी नदियों के समान हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/261-262;1696 ); ( राजवार्तिक/3/22/1/188/1,18,26,29 +188/6,9,12,16, 20,23,26, 29)। भरत आदि क्षेत्रों में अपने-अपने पर्वतों से उन कुंडों का अंतराल भी क्रम से 25,50, 100, 200, 100, 50, 25 योजन है। ( हरिवंशपुराण/5/151-157 )।
- 32 विदेहों में गंगा, सिंधु व रक्ता, रक्तोदा नामवाली 64 नदियों के भी अपने-अपने नाम वाले कुंड नील व निषध पर्वत के मूलभाग में स्थित हैं। जिनका संपूर्ण वर्णन उपर्युक्त गंगा कुंडवत् ही है। ( राजवार्तिक/3/10/13/176/24,29+177/11 )।
- नदी निर्देश
- हिमवान् पर्वत पर पद्मद्रह के पूर्वद्वार से गंगानदी निकलती है ( तिलोयपण्णत्ति/4/196 ); ( राजवार्तिक/3/22/1/187/22 ) : ( हरिवंशपुराण - 5.132 ): ( त्रिलोकसार/582 ):( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/147 )। द्रह की पूर्व दिशा में इस नदी के मध्य एक कमलाकार कूट है, जिसमें बला नाम की देवी रहती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/205-209/ ): ( राजवार्तिक/3/22/2/188/3 )। द्रह से 500 योजन आगे पूर्व दिशा में जाकर पर्वत पर स्थित गंगा कूट से 1/2 योजन इधर ही इधर रहकर दक्षिण की ओर मुड़ जाती है, और पर्वत के ऊपर ही उसके अर्ध विस्तार प्रमाण अर्थात् 523 /29/152 योजन आगे जाकर वृषभाकार प्रणाली को प्राप्त होती है। फिर उसके मुख में से निकलती हई पवर्त के ऊपर से अधोमुखी होकर उसकी धारा नीचे गिरती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/210-214 ), ( राजवार्तिक/3/22/1/187/22 ): ( हरिवंशपुराण - 5.138-140 ): ( त्रिलोकसार/582/584 ): ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3147-149 )। वहाँ पर्वत के मूल से 25 योजन हटकर वह धार गंगाकुंड में स्थित गंगाकूट के ऊपर गिरती है (देखें लोक - 3.9)। इस गंगाकुंड के दक्षिण द्वार से निकलकर वह उत्तर भारत में दक्षिण मुखी बहती हुई विजयार्ध की तमिस्र गुफा में प्रवेश करती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/232-233 ): ( राजवार्तिक/3/22/1/187/27 ): ( हरिवंशपुराण - 5.148 ): ( त्रिलोकसार/591 ): ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/174 )। ( राजवार्तिक , व त्रिलोकसार में तमिस्र गुफा की बजाय खंडप्रपात नाम की गुफा में प्रवेश कराया है ) उस गुफा के भीतर वह उन्मग्ना व निमग्ना नदी को अपने में समाती हई ( तिलोयपण्णत्ति/4/241 ) :(देखें लोक - 3.5) गुफा के दक्षिण द्वार से निकलकर वह दक्षिण भारत में उसके आधे विस्तार तक अर्थात 119/3/19 योजन तक दक्षिण की ओर जाती है। तत्पश्चात पूर्व की ओर मुड़ जाती है और मागध तीर्थ के स्थान पर लवण सागर में मिल जाती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/243-244 ) : ( राजवार्तिक/3/22/1/187/28 ) :( हरिवंशपुराण - 5.148-149 ),( त्रिलोकसार/596 )। इसकी परिवार नदियाँ कुल 14,000 हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/1/244 ): ( हरिवंशपुराण - 5.149 ): (देखें लोक - 3.1, [ लोक#3.9 | लोक - 3.9]]),ये सब परिवार नदियाँ म्लेच्छ खंड में ही होती हैं आर्यखंड में नहीं (देखें म्लेच्छ - 1),
- सिंधु नदी का संपूर्ण कथन गंगा नदीवत है। विशेष यह कि पद्मद्रह के पश्चिम द्वार से निकलती है। इसके भीतरी कमलाकारकूट में लवणा देवी रहती है। सिंधुकुंड में स्थित सिंधुकूट पर गिरती है। विजयार्ध की खंडप्रपात गुफा को प्राप्त होती है।अथवा राजवार्तिक व त्रिलोकसार की अपेक्षा तमिस्र गुफा को प्राप्त होती है।पश्चिम की ओर मुड़कर प्रभास तीर्थ के स्थान पर पश्चिम लवण सागर में मिलती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/252-264 ):( राजवार्तिक 3/22/2/187/31 ): ( हरिवंशपुराण - 5.151 ): ( त्रिलोकसार/597 )- (देखें लोक - 3.108) इसकी परिवार नदियाँ 14000 हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/264 ); (देखें लोक - 3.1,9)।
- हिमवान् पर्वत के ऊपर पद्मद्रह के उत्तर द्वार से रोहितास्या नदी निकलती है जो उत्तरमुखी ही रहती हुई पर्वत के ऊपर 276(6/19) योजन चलकर पर्वत के उत्तरी किनारे को प्राप्त होती है, फिर गंगा नदीवत् ही धार बनकर नीचे रोहितास्या कुंड में स्थित रोहितास्याकूट पर गिरती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1695 ); ( राजवार्तिक/3/22/3/188/7 ); ( हरिवंशपुराण - 5.153-163 ); ( त्रिलोकसार/598 ) कुंड के उत्तरी द्वार से निकलकर उत्तरमुखी बहती हुई वह हैमवत् क्षेत्र के मध्यस्थित नाभिगिरि तक जाती है। परंतु उससे दो कोस इधर ही रहकर पश्चिम की ओर उसकी प्रदक्षिणा देती हई पश्चिम दिशा में उसके अर्धभाग के सम्मुख होती है। वहाँ पश्चिम दिशा की ओर मुड़ जाती है और क्षेत्र के अर्ध आयाम प्रमाण क्षेत्र के बीचोंबीच बहती हुई अंत में पश्चिम लवणसागर में मिल जाती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1713-1716 ); ( राजवार्तिक/3/22/3/188/11 ); ( हरिवंशपुराण - 5.163 ); ( त्रिलोकसार/598 ); (देखें लोक - 3.1, लोक - 3.8) इसकी परिवार नदियों का प्रमाण 28,000 है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1716 ); (देखें लोक - 3.1-9)।
- महाहिमवान् पर्वत् के ऊपर महापद्म हृद के दक्षिण द्वार से रोहित नदी निकलती है। दक्षिणमुखी होकर 1605 (5/19) यो. पर्वत के ऊपर जाती है। वहाँ से पर्वत के नीचे रोहितकुंड में गिरती है और दक्षिणमुखी बहती हुई रोहितास्यावत् ही हैमवतक्षेत्र में, नाभिगिरि से 2 कोस इधर रहकर पूर्व दिशा की ओर उसकी प्रदक्षिणा देती है। फिर वह पूर्व की ओर मुड़कर क्षेत्र के बीच में बहती हुई अंत में पूर्व लवणसागर में गिर जाती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1735-1737 ); ( राजवार्तिक/3/22/4/188/15 ) ( हरिवंशपुराण - 5.154-163 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/212 ); (देखें लोक - 3.1-8)। इसकी परिवार नदियाँ 28,000 है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1737 ); (देखें लोक - 3.1-9)।
- महाहिमवान् पर्वत के ऊपर महापद्म हृद के उत्तर द्वार से हरिकांता नदी निकलती है। वह उत्तरमुखी होकर पर्वत पर 1605 (5/19) यो. चलकर नीचे हरिकांता कुंड में गिरती है। वहाँ से उत्तरमुखी बहती हुई हरिक्षेत्र के नाभिगिरि को प्राप्त हो उससे दो कोस इधर ही रहकर उसकी प्रदक्षिणा देती हई पश्चिम की ओर मुड़ जाती है और क्षेत्र के बीचोंबीच बहती हुई पश्चिम लवणसागर में मिल जाती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1747-1749 ); ( राजवार्तिक/3/22/5/188/19 ); ( हरिवंशपुराण - 5.155-163 )। (देखें लोक - 3.1-8) इसकी परिवार नदियाँ 56000 हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1749 ); (देखें लोक - 3.1-9);।
- निषध पर्वत के तिगिंछद्रह के दक्षिण द्वार से निकलकर हरित नदी दक्षिणमुखी हो 7421(1/19) यो. पर्वत के ऊपर जा, नीचे हरित कुंड में गिरती है। वहाँ से दक्षिणमुखी बहती हुई हरिक्षेत्र के नाभिगिरि को प्राप्त हो उससे दो कोस इधर ही रहकर उसकी प्रदक्षिणा देती हुई पूर्व की ओर मुड़ जाती है। और क्षेत्र के बीचोबीच बहती हुई पूर्व लवणसागर में गिरती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1770-1772 ); ( राजवार्तिक/3/22/6/188/27 ); ( हरिवंशपुराण - 5.156-163 ); (देखें लोक - 3.1, लोक - 3.8) इसकी परिवार नदियाँ 56000 हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1772 ); (देखें लोक - 3.1,9)।
- निषध पर्वत के तिगिंछह्रद के उत्तर द्वार से सीतोदा नदी निकलती है, जो उत्तरमुखी हो पर्वत के उत्तर 7421(1/19) यो. जाकर नीचे विदेह क्षेत्र में स्थित सीतोदा कुंड में गिरती है। वहाँ से उत्तरमुखी बहती हुई वह सुमेरु पर्वत तक पहँचकर उससे दो कोस इधर ही पश्चिम की ओर उसकी प्रदक्षिणा देती हुई, विद्युत्प्रभ गजदंत की गुफा में से निकलती है। सुमेरु के अर्धभाग के सम्मुख हो वह पश्चिम की ओर मुड़ जाती है। और पश्चिम विदेह के बीचोंबीच बहती हुई अंत में पश्चिम लवणसागर में मिल जाती है। ( तिलोयपण्णत्ति 4/2065-2073 ); ( राजवार्तिक/3/22/7/188/32 ); ( हरिवंशपुराण - 5.157-163 ); (देखें लोक - 3.1, लोक - 3.8)। इसकी सर्व परिवार नदियाँ देवकुरु में 84,000 और पश्चिम विदेह में 4,48,038 (कुल 5,32,038) हैं (विभंगा की परिवार नदियाँ न गिनकर लोक /3/2/3वत् ); ( तिलोयपण्णत्ति/4/2071-2072 )। (देखें लोक - 3.1, लोक - 3.9) की अपेक्षा 1,12,000 हैं।
- सीता नदी का सर्व कथन सीतोदावत् जानना। विशेषता यह कि नील पर्वत के केसरी द्रह के दक्षिण द्वार से निकलती है। सीता कुंड में गिरती है। माल्यवान् गजदंत की गुफा से निकलती है। पूर्व विदेह में से बहती हुई पूर्व सागर में मिलती है। ( तिलोयपण्णत्ति//4/2116-2121 ); ( राजवार्तिक/3/22/8/189/8 ); ( हरिवंशपुराण - 5.159 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/55-56 ); (देखें लोक - 3.1, लोक - 3.8) इसकी परिवार नदियाँ भी सीतोदावत् जानना। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2121-2122 )।
- नरकांता नदी का संपूर्ण कथन हरितवत् है। विशेषता यह कि नीलपर्वत के केसरी द्रह के उत्तर द्वार से निकलती है, पश्चिमी रम्यकक्षेत्र के बीच में से बहती है और पश्चिम सागर में मिलती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2337-2339 ); ( राजवार्तिक 3/22/9/189/11 ); ( हरिवंशपुराण - 5.159 ); (देखें लोक - 3.1-8)।
- नारी नदी का संपूर्ण कथन हरिकांतावत् है। विशेषता यह कि रुक्मिपर्वत के महापुंडरीक ( तिलोयपण्णत्ति की अपेक्षा पुंडरीक) द्रह के दक्षिण द्वार से निकलती है और पूर्व रम्यकक्षेत्र में बहती हुई पूर्वसागर में मिलती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2347-2349 ); ( राजवार्तिक/3/22/10/189/14 ); ( हरिवंशपुराण - 5.159 ); (देखें लोक - 3.18)
- रूप्यकूला नदी का संपूर्ण कथन रोहितनदीवत् है। विशेषता यह कि यह रुक्मि पर्वत के महापुंडरीक हृद के ( तिलोयपण्णत्ति की अपेक्षा पुंडरीक के) उत्तर द्वार से निकलती है और पश्चिम हैरण्यवत् क्षेत्र में बहती हुई पश्चिमसागर में मिलती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2352 ); ( राजवार्तिक/3/22/11/189/18 ); ( हरिवंशपुराण - 5.159 );(देखें लोक - 3.1.8)
- सुवर्णकूला नदी का संपूर्ण कथन रोहितास्या नदीवत् है। विशेषता यह कि यह शिखरी के पुंडरीक( तिलोयपण्णत्ति की अपेक्षा महापुंडरीक) हृद के दक्षिणद्वार से निकलती है और पूर्वी हैरण्यवत् क्षेत्र में बहती हुई पूर्वसागर में मिल जाती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2362 ); ( राजवार्तिक/3/22/12/189/21 ); ( हरिवंशपुराण - 5.159 ); (देखें लोक - 3.1.8)।
- 13-14 रक्ता व रक्तोदाका संपूर्ण कथन गंगा व सिंधुवत् है। विशेषता यह कि ये शिखरी पर्वत के महापुंडरीक ( तिलोयपण्णत्ति की अपेक्षा पुंडरीक) हृद के पूर्व और पश्चिम द्वार से निकलती हैं। इनके भीतरी कमलाकार कूटों के पर्वत के नीचेवाले कुंडों व कूटों के नाम रक्ता व रक्तोदा है। ऐरावत क्षेत्र के पूर्व व पश्चिम में बहती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2367 ); ( राजवार्तिक/3/22/13-14/189/25,28 ); ( हरिवंशपुराण - 5.159 ); (त्रिलोकसार/599); (देखें लोक - 3.1.8)।
- विदेह के 32 क्षेत्रों में भी गंगा नदी की भाँति गंगा, सिंधु व रक्ता-रक्तोदा नाम की क्षेत्र नदियाँ (देखें लोक - 3.14)। इनका संपूर्ण कथन गंगानदीवत् जानना। ( तिलोयपण्णत्ति/4/22-63 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/176/27 ); ( हरिवंशपुराण - 5.168 ); ( त्रिलोकसार/691 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/7/22 )। इन नदियों की भी परिवार नदियाँ 14,000, 14,000 हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2265 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/176/28 )।
- पूर्व व पश्चिम विदेह में - से प्रत्येक में सीता व सीतोदा नदी के दोनों तरफ तीन-तीन करके कुल 12 विभंगा नदियाँ हैं। (देखें लोक - 3.14) ये सब नदियाँ निषध या नील पर्वतों से निकलकर सीतोदा या सीता नदियों में प्रवेश करती हैं ( हरिवंशपुराण - 5.239-243 ) ये नदियाँ जिन कुंडों से निकलती हैं वे नील व निषध पर्वत के ऊपर स्थित हैं। ( राजवार्तिक/3/10/13/176/12 )। प्रत्येक नदी का परिवार 28,000 नदी प्रमाण है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2232 ); ( राजवार्तिक/3/10/132/176/14 )।
- देवकुरु व उत्तरकुरु निर्देश
- जंबूद्वीप के मध्यवर्ती चौथे नंबरवाले विदेहक्षेत्र के बहुमध्य प्रदेश में सुमेरु पर्वत स्थित है। उसके दक्षिण व निषध पर्वत की उत्तर दिशा में देवकुरु तथा उसकी उत्तर व नीलपर्वत की दक्षिण दिशा में उत्तरकुरु स्थित हैं (देखें लोक - 3.3)। सुमेरु पर्वत की चारों दिशाओं में चार गजदंत पर्वत हैं जो एक ओर तो निषध व नील कुलाचलों को स्पर्श करते हैं और दूसरी ओर सुमेरु को - देखें लोक - 3.8। अपनी पूर्व व पश्चिम दिशा में ये दो कुरु इनमें से ही दो-दो गजदंत पर्वतों से घिरे हुए हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2131,2191 ); ( हरिवंशपुराण - 5.167 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/2,81 )।
- तहाँ देवकुरु में निषधपर्वत से 1000 योजन उत्तर में जाकर सीतोदा नदी के दोनों तटों पर यमक नाम के दो शैल हैं, जिनका मध्य अंतराल 500 योजन है। अर्थात् नदी के तटों से नदी के अर्ध विस्तार से हीन 225 यो. हटकर स्थित हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2075-2077 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/175/26 ); ( हरिवंशपुराण - 5.192 ); ( त्रिलोकसार 654-655 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/87 )। इसी प्रकार उत्तर कुरु में नील पर्वत के दक्षिण में 1000 योजन जाकर सीतानदी के दोनों तटों पर दो यमक हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2132-2124 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/174/25 ); ( हरिवंशपुराण - 5.191 ); ( त्रिलोकसार/654 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/15-18 )।
- इन यमकों से 500 योजन उत्तर में जाकर देवकुरु की सीतोदा नदी के मध्य उत्तर दक्षिण लंबायमान 5 द्रह हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2089 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/175/28 ); ( हरिवंशपुराण - 5.196 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/83 )। मतांतर से कुलाचल से 550 योजन दूरी पर पहला द्रह है। ( हरिवंशपुराण - 5.194 )। ये द्रह नदियों के प्रवेश व निकास द्वारों से संयुक्त हैं। ( त्रिलोकसार/658 )। (तात्पर्य यह है कि यहाँ नदी की चौड़ाई तो कम है और हृदों की चौड़ाई अधिक। सीतोदा नदी के हृदों के दक्षिण द्वारों से प्रवेश करके उन के उत्तरी द्वारों से बाहर निकल जाती है। हृद नदी के दोनों पार्श्व भागों में निकले रहते हैं। ) अंतिम द्रह से 2092(2/19) योजन उत्तर में जाकर पूर्व व पश्चिम गजदंतों की वनकी वेदी आ जाती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2100-2101 ); ( त्रिलोकसार/660 )। इसी प्रकार उत्तरकुरु में भी सीता नदी के मध्य 5 द्रह जानना। उनका संपूर्ण वर्णन उपर्युक्तवत् है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2125 );( राजवार्तिक/3/10/13/14/29 ); ( हरिवंशपुराण - 5.194 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/26 )। (इस प्रकार दोनों कुरुओं में कुल 10 द्रह हैं। परंतु मतांतर से द्रह 20 हैं )। -- मेरु पर्वत की चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में पाँच हैं। उपर्युक्तवत् 500 योजन अंतराल से सीता व सीतोदा नदी में ही स्थित हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2136 ); ( त्रिलोकसार/656 )। इनके नाम ऊपर वालों के समान हैं। - (देखें लोक - 5 )।
- दस द्रह वाली प्रथम मान्यता के अनुसार प्रत्येक द्रह के पूर्व व पश्चिम तटों पर दस-दस करके कुल 200 कांचन शैल हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2094-2126 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/174/2 +715/1); ( हरिवंशपुराण - 5.200 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/44,144 )। पर 20 द्रहों वाली दूसरी मान्यता के अनुसार प्रत्येक द्रह के दोनों पार्श्व भागों में पाँच-पाँच करके कुल 200 कांचन शैल हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2137 ); ( त्रिलोकसार/659 )।
- देवकुरु व उत्तरकुरु के भीतर भद्रशाल वन में सीतोदा व सीता नदी के पूर्व व पश्चिम तटों पर, तथा इन कुरुक्षेत्रों से बाहर भद्रशाल वन में उक्त दोनों नदियों के उत्तर व दक्षिण तटों पर एक-एक करके कुल 8 दिग्गजेंद्र पर्वत हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2103, 2112, 2130, 2134 ), ( राजवार्तिक/3/10/13/178/5 ); ( हरिवंशपुराण - 5.205-209 ); ( त्रिलोकसार/661 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/74 )।
- देवकुरु में सुमेरु के दक्षिण भाग में सीतोदा नदी के पश्चिम तट पर तथा उत्तरकुरु में सुमेरु के उत्तर भाग में सीता नदी के पूर्व तट पर, तथा इसी प्रकार दोनों कुरुओं से बाहर मेरु के पश्चिम में सीतोदा के उत्तर तट पर मेरु की पूर्व दिशा में सीता नदी के दक्षिण तट पर एक-एक करके चार त्रिभुवन चूड़ामणि नाम वाले जिन भवन हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2109-2111>+2132-2133 </span)।
- निषध व नील पर्वतों से संलग्न संपूर्ण विदेह क्षेत्र के विस्तार समान लंबी, दक्षिण-उत्तर लंबायमान भद्रशाल वन की वेदी है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2114 )।
- देवकुरु में निषध पर्वत के उत्तर में, विद्युत्प्रभ गजदंत के पूर्व में, सीतोदा के पश्चिम में और सुमेरु के नैर्ऋत्य दिशा में शाल्मली वृक्षस्थल है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2146-2147 ); ( राजवार्तिक 3/10/13/175/23 ); ( हरिवंशपुराण - 5.187 ); (विशेष देखें लोक- 3.13) सुमेरु की ईशान दिशा में, नील पर्वत के दक्षिण में, माल्यवंत गजदंत के पश्चिम में, सीता नदी के पूर्व में जंबू वृक्षस्थल है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2194-2195 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/17/7 ); ( हरिवंशपुराण/5/172 ); ( त्रिलोकसार/639 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/57 )।
- जंबू व शाल्मली वृक्षस्थल
- देवकुरु व उत्तरकुरु में प्रसिद्ध शाल्मली व जंबूवृक्ष हैं। (देखें लोक - 3.12)। ये वृक्ष पृथिवीमयी हैं (देखें वृक्ष ) तहाँ शाल्मली या जंबू वृक्ष का सामान्यस्थल 500 योजन विस्तार युक्त होता है तथा मध्य में 89 योजन और किनारों पर 2 कोस मोटा है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2148-2149 ); ( हरिवंशपुराण/5/174 ); ( त्रिलोकसार/640 )। मतांतर की अपेक्षा वह मध्य में 12 योजन और किनारों पर 2 कोट मोटा है। ( राजवार्तिक/3/7/1/169/18 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/58; 149 )।
- यह स्थल चारों ओर से स्वर्णमयी वेदिका से वेष्टित है। इसके बहुमध्य भाग में एक पीठ है, जो आठ योजन ऊँचा है तथा मूल में 12 और ऊपर 4 योजन विस्तृत है। पीठ के मध्य में मूलवृक्ष है, जो कुल आठ योजन ऊँचा है। उसका स्कंध दो योजन ऊँचा तथा एक कोस मोटा है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2151-2155 ); ( राजवार्तिक/3/7/1/169/19 ); ( हरिवंशपुराण/5/173 ‒177 ): ( त्रिलोकसार/639‒641/648 ): ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/60-64, 154-155 )।
- इस वृक्ष की चारों दिशाओं में छह-छह योजन लंबी तथा इतने ही अंतराल से स्थित चार महाशाखाएँ हैं। शाल्मली वृक्ष की दक्षिण शाखा पर और जंबूवृक्ष की उत्तर शाखा पर जिनभवन हैं। शेष तीन शाखाओं पर व्यंतर देवों के भवन हैं। तहाँ शाल्मली वृक्ष पर वेणु व वेणुधारी तथा जंबू वृक्ष पर इस द्वीप के रक्षक आदृत व अनादृत नाम के देव रहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2156-2165-2196 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/174/7+175/25 ); ( हरिवंशपुराण - 5.177-182, 189 ); ( त्रिलोकसार/6/47-649+652 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/65-67-86; 156-160 )।
- इस स्थल पर एक के पीछे एक करके 12 वेदियाँ हैं, जिनके बीच 12 भूमियाँ हैं। यहाँ पर हरिवंशपुराण में वापियों आदि वाली 5 भूमियों को छोड़कर केवल परिवार वृक्षों वाली 7 भूमियाँ बतायी हैं . ( तिलोयपण्णत्ति/4/1267 ); ( हरिवंशपुराण/5/183 ); ( त्रिलोकसार/641 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/151-152 )। इन सात भूमियों में आदृत युगल या वेणुयुगल के परिवार देवों के वृक्ष हैं।
- तहाँ प्रथम भूमि के मध्य में उपरोक्त मूल वृक्ष स्थित हैं। द्वितीय में वन-वापिकाएँ हैं। तृतीय की प्रत्येक दिशा में 27 करके कुल 108 वृक्ष महामान्यों अर्थात् त्रायस्त्रिंशों के हैं। चतुर्थ की चारों दिशाओं में चार द्वार हैं, जिन पर स्थित वृक्षों पर उसकी देवियाँ रहती हैं। पाँचवीं में केवल वापियाँ हैं। छठीं में वनखंड हैं। सातवीं की चारों दिशाओं में कुल 16,000 वृक्ष अंगरक्षकों के हैं। अष्टम की वायव्य, ईशान व उत्तर दिशा में कुल 4000 वृक्ष सामानिकों के हैं। नवम की आग्नेय दिशा में कुल 32,000 वृक्ष अभ्यंतर पारिषदों के हैं। दसवीं की दक्षिण दिशा में 40,000 वृक्ष मध्यम पारिषदों के हैं। ग्यारहवीं की नैर्ऋत्य दिशा में 48,000 वृक्ष बाह्य पारिषदों के हैं। बारहवीं की पश्चिम दिशा में सात वृक्ष अनीक महत्तरों के हैं। सब वृक्ष मिलकर 1,40,120 होते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2169-2181 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/174/10 ); ( हरिवंशपुराण - 5183-186 ); ( त्रिलोकसार/642-646 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/68-74;162-167 )।
- स्थल के चारों ओर तीन वन खंड हैं। प्रथम की चारों दिशाओं में देवों के निवासभूत चार प्रासाद हैं। विदिशाओं में से प्रत्येक में चार-चार पुष्करिणी हैं प्रत्येक पुष्करिणी की चारों दिशाओं में आठ-आठ कूट हैं। प्रत्येक कूट पर चार-चार प्रासाद हैं। जिन पर उन आदृत आदि देवों के परिवाह देव रहते हैं। ( राजवार्तिक/ में इसी प्रकार प्रासादों के चारों तरफ भी आठ कूट बताये हैं ) इन कूटों पर उन आदृत युगल या वेणु युगल का परिवार रहता है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2184-2190); ( राजवार्तिक/3/10/13/174/18 )।
- विदेह के 32 क्षेत्र
- पूर्व व पश्चिम की भद्रशाल वन की वेदियों (देखें लोक - 3.12) से आगे जाकर सीता व सीतोदा नदी के दोनों तरफ चार-चार वक्षारगिरि और तीन-तीन विभंगा नदियाँ एक वक्षार व एक विभंगा के क्रम से स्थित हैं। इन वक्षार व विभंगा के कारण उन नदियों के पूर्व व पश्चिम भाग आठ-आठ भागों में विभक्त हो जाते हैं। विदेह के ये 32 खंड उसके 32 क्षेत्र कहलाते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2200-2209 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/175/30+177/5, 15,24 ); ( हरिवंशपुराण - 5.228, हरिवंशपुराण - 5.243-244 ); ( त्रिलोकसार/665 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ का पूरा 8वाँ अधिकार)।
- उत्तरीय पूर्व विदेह का सर्वप्रथम क्षेत्र कच्छा नाम का है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2233 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/176/14 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/7/33 )। इनके मध्य में पूर्वापर लंबायमान भरत क्षेत्र के विजयार्धवत् एक विजयार्ध पर्वत है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2257 ); ( राजवार्तिक/10/13/176/19 )। उसके उत्तर में स्थित नील पर्वत की वनवेदी के दक्षिण पार्श्वभाग में पूर्व व पश्चिम दिशाओं में दो कुंड हैं, जिनसे रक्ता व रक्तोदा नाम की दो नदियाँ निकलती हैं। दक्षिणमुखी होकर बहती हई वे विजयार्ध की दोनों गुफाओं में से निकलकर नीचे सीता नदी में जा मिलती हैं। जिसके कारण भरत क्षेत्र की भाँति यह देश भी छह खंडों में विभक्त हो गया है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2262‒2268 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/176/23 ): ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/7/72 )। यहाँ भी ऊपर म्लेच्छ खंड के मध्य एक वृषभगिरि है, जिस पर दिग्विजय के पश्चात् चक्रवर्ती अपना नाम अंकित करता है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2290 ‒2291 ): ( त्रिलोकसार/710 ) इस क्षेत्र के आर्य खंड की प्रधान नगरी का नाम क्षेमा है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2268 ): ( राजवार्तिक/3/10/13/176/32 )। इस प्रकार प्रत्येक क्षेत्र में दो नदियाँ व एक विजयार्ध के कारण छह-छह खंड उत्पन्न हो गये हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2292 ); ( हरिवंशपुराण - 5267 ); (त्रिलोकसार/691)। विशेष यह है कि दक्षिण वाले क्षेत्रों में गंगा-सिंधु नदियाँ बहती हैं ( तिलोयपण्णत्ति/4/2295-2296 ) मतांतर से उत्तरीय क्षेत्रों में गंगा-सिंधु व दक्षिणी क्षेत्रों में रक्ता-रक्तोदा नदियाँ हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2304 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/176/28, 31+177/10 ); ( हरिवंशपुराण - 5267-269 ); ( त्रिलोकसार/692 )।
- पूर्व व अपर दोनों विदेहों में प्रत्येक क्षेत्र के सीता सीतोदा नदी के दोनों किनारों पर आर्यखंडों में मागध, बरतनु और प्रभास नामवाले तीन-तीन तीर्थस्थान हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2305-2306 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/177/12 ); ( त्रिलोकसार/678 ) ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/7/104 )।
- पश्चिम विदेह के अंत में जंबूद्वीप की जगती के पास सीतोदा नदी के दोनों ओर भूतारण्यक वन है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2203,2325 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/177/1 ); ( हरिवंशपुराण/5/281 ); ( त्रिलोकसार/672 )। इसी प्रकार पूर्व विदेह के अंत में जंबूद्वीप की जगती के पास सीता नदी के दोनों ओर देवारण्यक वन है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2315-2316 )। (देखें चित्र नं - 13)।
- अन्य द्वीप सागर निर्देश
- लवण सागर निर्देश
- धातकीखंड निर्देश
- कालोद समुद्र निर्देश
- पुष्कर द्वीप
- नंदीश्वर द्वीप
- कुंडलवर द्वीप
- रुचकवर द्वीप
- स्वयंभूरमण समुद्र
- अन्य द्वीप सागर निर्देश
- लवण सागर निर्देश
- जंबूद्वीप को घेरकर 2,00,000 योजन विस्तृत वलयाकार यह प्रथम सागर स्थित है, जो एक नावपर दूसरी नाव औंधी रखने से उत्पन्न हुए आकारवाला है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2398-2399 ); ( राजवार्तिक/3/32/3/193/8 ); ( हरिवंशपुराण/5/430-441 ); ( त्रिलोकसार/901 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/2-4 ) तथा गोल है। ( त्रिलोकसार/897 )।
- इसके मध्यतल भाग में चारों ओर 1008 पाताल या विवर हैं। इनमें 4 उत्कृष्ट, 4 मध्यम और 1000 जघन्य विस्तारवाले हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2408,2409 ); ( त्रिलोकसार/896 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/12 )। तटों से 95,000 योजन भीतर प्रवेश करने पर चारों दिशाओं में चार ज्येष्ठ पाताल हैं। 99500 योजन प्रवेश करने पर उनके मध्य विदिशा में चार मध्यम पाताल और उनके मध्य प्रत्येक अंतर दिशा में 125,125 करके 100 जघन्य पाताल मुक्तावली रूप से स्थित हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2411+2414+2428 ); ( राजवार्तिक/3/32/4-6/196/13,25,32 ); ( हरिवंशपुराण/5/442,451,455 )। 1,00,000 योजन गहरे महापाताल नरक सीमंतक बिल के ऊपर संलग्न हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2413 )।
- तीनों प्रकार के पातालों की ऊँचाई तीन बराबर भागों में विभक्त है। तहाँ निचले भाग मे वायु, उपरले भाग में जल और मध्य के भाग में यथायोग रूप से जल व वायु दोनों रहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2430 ); ( राजवार्तिक/3/32/4-6/196/17,28,32 ); ( हरिवंशपुराण/5/446-447 ); ( त्रिलोकसार/898 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/6-8 )
- मध्य भाग में जल व वायु की हानि-वृद्धि होती रहती है। शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन 2222(2/9) योजन वायु बढ़ती है और कृष्ण पक्ष में इतनी ही घटती है। यहाँ तक कि इस पूरे भाग में पूर्णिमा के दिन केवल वायु ही तथा अमावस्या को केवल जल ही रहता है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2435-2439 ); ( हरिवंशपुराण/5/44 ) पातालों में जल व वायु की इस वृद्धिका कारण नीचे रहनेवाले भवनवासी देवों का उच्छ्वास निःश्वास है। ( राजवार्तिक/3/32/4/193/20 )।
- पातालों में होने वाली उपरोक्त वृद्धि हानि से प्रेरित होकर सागर का जल शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन 800/3 धनुष ऊपर उठता है, और कृष्ण पक्ष में इतना ही घटता है। यहाँ तक कि पूर्णिमा को 4000 धनुष आकाश में ऊपर उठ जाता है और अमावस्या को पृथिवी तल के समान हो जाता है। (अर्थात् 700 योजन ऊँचा अवस्थित रहता है।) तिलोयपण्णत्ति/4/2440, 2443 ) लोगायणी के अनुसार सागर 11,000 योजन तो सदा ही पृथिवी तल से ऊपर अवस्थित रहता है। शुक्ल पक्ष में इसके ऊपर प्रतिदिन 700 योजन बढ़ता है और कृष्णपक्ष में इतना ही घटता है। यहाँ तक कि पूर्णिमा के दिन 5000 योजन बढ़कर 16,000 योजन हो जाता है और अमावस्या को इतना ही घटकर वह पुनः 11,000 योजन रह जाता है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2446 ); ( राजवार्तिक/3/32/3/193/10 ); ( हरिवंशपुराण/5/437 ); ( त्रिलोकसार/900 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो 10/18 )।
- समुद्र के दोनों किनारों पर व शिखर पर आकाश में 700 योजन जाकर सागर के चारों तरफ कुल 1,42,000 वेलंधर देवों की नगरियाँ हैं। तहाँ बाह्य व अभ्यंतर वेदी के ऊपर क्रम से 72,000 और 42,000 और मध्य में शिखर पर 28,000 है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2449-2454 ); ( त्रिलोकसार/904 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/36-37 ) मतांतर से इतनी ही नगरियाँ सागर के दोनों किनारों पर पृथिवी तल पर भी स्थित हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2456 ) सग्गायणी के अनुसार सागर की बाह्य व अभ्यंतर वेदी वाले उपर्युक्त नगर दोनों वेदियों से 42,000 योजन भीतर प्रवेश करके आकाश में अवस्थित हैं और मध्यवाले जल के शिखर पर भी। ( राजवार्तिक/3/32/7/194/1 ); ( हरिवंशपुराण/5/466-468 )।
- दोनों किनारों से 42,000 योजन भीतर जाने पर चारों दिशाओं में प्रत्येक ज्येष्ठ पाताल के बाह्य व भीतरी पार्श्व भागों में एक-एक करके कुल आठ पर्वत हैं। जिन पर वेलंधर देव रहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2457 ); ( हरिवंशपुराण/5/459 ); ( त्रिलोकसार/905 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/27 ); (विशेष देखें लोक - 5.9 में इनके व देवों के नाम)।
- इस प्रकार अभ्यंतर वेदी से 42,000 भीतर जाने पर उपर्युक्त भीतरी 4 पर्वतों के दोनों पार्श्व भागों में (विदिशाओं में) प्रत्येक में दो-दो करके कुल आठ सूर्यद्वीप हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2471-2472 ); ( त्रिलोकसार/909 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/38 ) सागर के भीतर, रक्तोदा नदी के सम्मुख मागध द्वीप, जगती के अपराजित नामक उत्तर द्वार के सम्मुख वरतनु और रक्ता नदी के सम्मुख प्रभास द्वीप हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2473-2475 ); ( त्रिलोकसार/911-912 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/40 )। इसी प्रकार ये तीनों द्वीप जंबूद्वीप के दक्षिण भाग में भी गंगा सिंधु नदी व वैजयंत नामक दक्षिण द्वार के प्रणिधि भाग में स्थित हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1311, 1316 +1318) अभ्यंतर वेदी से 12,000 योजन सागर के भीतर जाने पर सागर की वायव्य दिशा में मागध नामका द्वीप है। ( राजवार्तिक/3/33/8/194/8 ); ( हरिवंशपुराण/5/469 ) इसी प्रकार लवण समुद्र के बाह्य भाग में भी ये द्वीप जानना। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2477 ) मतांतर की अपेक्षा भाग में भी ये द्वीप जानना। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2477 ) मतांतर की अपेक्षा दोनों तटों से 42,000 योजन भीतर जाने पर 42,000योजन विस्तार वाले 24,24 द्वीप हैं। तिन में 8 तो चारों दिशाओं व विदिशाओं के दोनों पार्श्वभागों में हैं और 16 आठों अंतर दिशाओं के दोनों पार्श्व भागों में। विदिशावालों का नाम सूर्यद्वीप और अंतर दिशावालों का नाम चंद्रद्वीप है ( त्रिलोकसार/909 )।
- इनके अतिरिक्त 48 कुमानुष द्वीप हैं। 24 अभ्यंतर भाग में और 24 बाह्य भाग में। तहाँ चारों दिशाओं में चार, चारों विदिशाओं में 4, अंतर दिशाओं में 8 तथा हिमवान्, शिखरी व दोनों विजयार्ध पर्वतों के प्रणिधि भाग में 8 हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2478-2479+2487-2488 ); ( हरिवंशपुराण/5/471-476 +781 );( त्रिलोकसार/193 ) दिशा, विदिशा व अंतर दिशा तथा पर्वत के पासवाले, ये चारों प्रकार के द्वीप क्रम से जगती से 500,500, 550 व 600 योजन अंतराल पर अवस्थित हैं और 100, 55, 50 व 25 योजन विस्तार युक्त हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2480-2482 ); ( हरिवंशपुराण/5/477-478 );( त्रिलोकसार/914 ); ( हरिवंशपुराण की अपेक्षा इनका विस्तार क्रम से 100, 50, 50 व 25 योजन है ) लोक विभाग के अनुसार क्रम से जगती से 500, 550, 500, 600 योजन अंतराल पर स्थित हैं तथा 100, 50, 100, 25 योजन विस्तार युक्त हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/24-91-2494 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/49-51 ) इन कुमानुष द्वीपों में एक जाँघवाला, शशकर्ण, बंदरमुख आदि रूप आकृतियों के धारक मनुष्य बसते हैं। (देखें म्लेच्छ - 3)। धातकीखंड द्वीप की दिशाओं में भी इस सागर में इतने ही अर्थात् 24 अंतर्द्वीप हैं जिनमें रहनेवाले कुमानुष भी वैसे ही होते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2490 )।
- धातकीखंड निर्देश
- लवणोदको वेष्टित करके 4,00,000 योजन विस्तृत ये द्वितीय द्वीप हैं। इसके चारों तरफ भी एक जगती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2527-2531 ); ( राजवार्तिक/3/23/5/595/14 ); ( हरिवंशपुराण/489 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/112 )।
- इसकी उत्तर व दक्षिण दिशा में उत्तर-दक्षिण लंबायमान दो इष्वाकार पर्वत हैं, जिनसे यह द्वीप पूर्व व पश्चिम रूप दो भागों में विभक्त हो जाता है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2532 ); ( सर्वार्थसिद्धि/3/13/227/1 ); ( राजवार्तिक/3/33/6/195/25 ); ( हरिवंशपुराण/5/494 ); ( त्रिलोकसार/925 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/3 ) प्रत्येक पर्वत पर 4 कूट हैं। प्रथम कूट पर जिनमंदिर है और शेष पर व्यंतर देव रहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2539 )।
- इस द्वीप में दो रचनाएँ हैं - पूर्व धातकी और पश्चिम धातकी। दोनों में पर्वत, क्षेत्र, नदी, कूट आदि सब जंबूद्वीप के समान हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2541-2545 ); ( सर्वार्थसिद्धि/3/33/227/1 ); ( राजवार्तिक/3/33/1/194/31 ); ( हरिवंशपुराण/5/165, 496-497 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/38 ) जंबू व शाल्मली वृक्ष को छोड़कर शेष सबके नाम भी वही हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2550 ); ( राजवार्तिक/3/33/5/195/19 ); सभी का कथन जंबूद्वीपवत् है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2715 )।
- दक्षिण इष्वाकार के दोनों तरफ दो भरत हैं तथा उत्तर इष्वाकार के दोनों तरफ दो ऐरावत हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2552 ); ( सर्वार्थसिद्धि/3/33/227/4 )।
- तहाँ सर्व कुल पर्वत तो दोनों सिरों पर समान विस्तार को धरे पहिये के आरोंवत् स्थित हैं और क्षेत्र उनके मध्यवर्ती छिद्रोंवत् हैं जिनेक अभ्यंतर भाग का विस्तार कम व बाह्य भाग का विस्तार अधिक है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2553 ); ( सर्वार्थसिद्धि/3/33/227/6 ); ( राजवार्तिक/3/33/196/4 ); ( हरिवंशपुराण/5/498 ); ( त्रिलोकसार/927 )।
- तहाँ भी सर्व कथन पूर्व व पश्चिम दोनों धातकी खंडों में जंबूद्वीपवत् है। विदेह क्षेत्र के बहु मध्य भाग में पृथक्-पृथक् सुमेरु पर्वत हैं। उनका स्वरूप तथा उन पर स्थित जिन भवन आदि का सर्व कथन जंबूद्वीपवत् है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2575-2576 ); ( राजवार्तिक/3/33/6/195/28 ); ( हरिवंशपुराण/5/494 ) ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/65 )। इन दोनों पर भी जंबूद्वीप के सुमेरुवत् पांडुक आदि चार वन हैं। विशेषता यह है कि यहाँ भद्रशाल से 500 योजन ऊपर नंदन, उससे 55,500 योजन ऊपर सौमनस वन और उससे 28,000 योजन ऊपर पांडुक वन है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2584-2588 ); ( राजवार्तिक/3/33/6/195/30 ); ( हरिवंशपुराण/5/518-519 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो 11/22-28 ) पृथिवी तल पर विस्तार 9400 योजन है, 500 योजन ऊपर जाकर नंदन वन पर 9350 योजन रहता है। तहाँ चारों तरफ से युगपत् 500 योजन सुकड़कर 8350 योजन ऊपर तक समान विस्तार से जाता है। तदनंतर 45,500 योजन क्रमिक हानि सहित जाता हुआ सौमनस वनपर 3800 योजन रहता है तहाँ चारों तरफ से युगपत् 500 योजन सुकड़कर 2800 योजन रहता है, ऊपर फिर 10,000 योजन समान विस्तार से जाता है तदनंतर 18,000 योजन क्रमिक हानि सहित जाता हुआ शीर्ष पर 1000 योजन विस्तृत रहता है। ( हरिवंशपुराण/5/520-530 )।
- जंबूद्वीप के शाल्मली वृक्षवत् यहाँ दोनों कुरुओं में दो-दो करके कुल चार धातकी (आँवले के) वृक्ष स्थित हैं। प्रत्येक वृक्ष का परिवार जंबूद्वीपवत् 1,40,120 है। चारों वृक्षों का कुल परिवार 5,60,480 है। (विशेष देखें लोक - 3.13) इन वृक्षों पर इस द्वीप के रक्षक प्रभास व प्रियदर्शन नामक देव रहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2601-2603 ); ( सर्वार्थसिद्धि/3/33/227/7 ); ( राजवार्तिक/3/33/196/3 ); ( त्रिलोकसार/934 )।
- इस द्वीप में पर्वतों आदि का प्रमाण निम्न प्रकार है। - मेरु 2, इष्वाकार 2, कुल गिरि 12; विजयार्ध 68, नाभिगिरि 8; गजदंत 8; यमक 8; काँचन शैल 400; दिग्गजेंद्र पर्वत 16; वक्षार पर्वत 32; वृषभगिरि 68; क्षेत्र या विजय 68 (जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/81) कर्मभूमि 6; भोगभूमि 12; ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/76 ) महानदियाँ 28; विदेह क्षेत्र की नदियाँ 128; विभंगा नदियाँ 24। द्रह 32; महानदियों व क्षेत्र नदियों के कुंड 156; विभंगा के कुंड 24; धातकी वृक्ष 2; शाल्मली वृक्ष 2 हैं। ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/29-38 )। ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/75-81 ) में पुष्करार्ध की अपेक्षा इसी प्रकार कथन किया है।)
- कालोद समुद्र निर्देश
- धातकी खंड को घेरकर, 8,00,000 योजन विस्तृत वलयाकार कालोद समुद्र स्थित है। जो सर्वत्र 1000 योजन गहरा है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2718-2719 ); ( राजवार्तिक/3/33/6/196/5 ); ( हरिवंशपुराण/5/562 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/43 )।
- इस समुद्र में पाताल नहीं है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1719 ); ( राजवार्तिक/3/32/8/194/13 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/44 )।
- इसके अभ्यंतर व बाह्य भाग में लवणोदवत् दिशा, विदिशा, अंतरदिशा व पर्वतों के प्रणिधि भाग में 24,24 अंतर्द्वीप स्थित हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1720 ); ( हरिवंशपुराण/5/567-572+575 ); ( त्रिलोकसार/913 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/49 ) वे दिशा विदिशा आदि वाले द्वीप क्रम से तट से 500, 650, 550 व 650 योजन के अंतर से स्थित हैं तथा 200, 100, 50,50 योजन है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2722-2725 ) मतांतर से इनका अंतराल क्रम से 500, 550, 600 व 650 है तथा विस्तार लवणोद वालों की अपेक्षा दूना अर्थात् 200, 1000 व 50 योजन है। ( हरिवंशपुराण/5/574 )।
- पुष्कर द्वीप
- कालोद समुद्र को घेरकर 16,00,000 योजन के विस्तार युक्त पुष्कर द्वीप स्थित है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2744 ); ( राजवार्तिक/3/33/6/196/8 ); ( हरिवंशपुराण/576 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो 11/57 )।
- इसके बीचों-बीच स्थित कुंडलाकार मानुषोत्तर पर्वत के कारण इस द्वीप के दो अर्ध भाग हो गये हैं, एक अभ्यंतर और दूसरा बाह्य। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2748 ); ( राजवार्तिक/3/34/6/197/7 ); ( हरिवंशपुराण/5/577 ); ( त्रिलोकसार/937 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/58 )। अभ्यंतर भाग में मनुष्यों की स्थिति है पर मानुषोत्तर पर्वत को उल्लंघकर बाह्य भाग में जाने की उनकी सामर्थ्य नहीं है (देखें मनुष्य - 4.1)। (देखें चित्र सं - 36, पृ. 464)।
- अभ्यंतर पुष्करार्ध में धातकी खंडवत् ही दो इष्वाकार पर्वत हैं जिनके कारण यह पूर्व व पश्चिम के दो भागों में विभक्त हो जाता है। दोनों भागों में धातकी खंडवत् रचना है। ( तत्त्वार्थसूत्र/3/34 ); ( तिलोयपण्णत्ति/4/2784-2785 ); ( हरिवंशपुराण/5/578 )। धातकी खंड के समान यहाँ ये सब कुलगिरि तो पहिये के आरोंवत् समान विस्तार वाले और क्षेत्र उनके मध्य छिद्रों में हीनाधिक विस्तारवाले हैं। दक्षिण इष्वाकार के दोनों तरफ दो भरत क्षेत्र और इष्वाकार के दोनों तरफ दो ऐरावत क्षेत्र हैं। क्षेत्रों, पर्वतों आदि के नाम जंबूद्वीपवत् हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2794-2796 ); ( हरिवंशपुराण/5/579 )।
- दोनों मेरुओं का वर्णन धातकी मेरुओंवत् हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2812 ); ( त्रिलोकसार/609 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/64 )।
- मानुषोत्तर पर्वत का अभ्यंतर भाग दीवार की भाँति सीधा है, और बाह्य भाग में नीचे से ऊपर तक क्रम से घटता गया है। भरतादि क्षेत्रों की 14 नदियों के गुजरने के लिए इसके मूल में 14 गुफाएँ हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2751-2752 ); ( हरिवंशपुराण/5/595-596 ); ( त्रिलोकसार/937 )।
- इन पर्वत के ऊपर 22 कूट हैं। - तहाँ पूर्वादि प्रत्येक दिशा में तीन-तीन कूट हैं। पूर्वी विदिशाओं में दो-दो और पश्चिमी विदिशाओं में एक -एक कूट हैं। इन कूटों की अग्रभूमि में अर्थात् मनुष्य लोक की तरफ चारों दिशाओं में 4 सिद्धायतन कूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2765-2770 ); ( राजवार्तिक/3/34/6/197/12 ); ( हरिवंशपुराण/5/598-601 )। सिद्धायतन कूट पर जिनभवन है और शेष पर सपरिवार व्यंतर देव रहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2775 )। मतांतर की अपेक्षा नैर्ऋत्य व वायव्य दिशावाले एक-एक कूट नहीं हैं। इस प्रकार कुल 20 कूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2783 ); ( त्रिलोकसार/940 ) (देखें चित्र - 36 पृष्ठ सं. 464)।
- इसके 4 कुरुओं के मध्य जंबू वृक्षवत् सपरिवार 4 पुष्कर वृक्ष हैं। जिन पर संपूर्ण कथन जंबूद्वीप के जंबू व शाल्मली वृक्षवत् हैं। ( सर्वार्थसिद्धि/3/34/228/4 ); ( राजवार्तिक/3/34/5/197/4 ); ( त्रिलोकसार/934 )।
- पुष्करार्ध द्वीप में पर्वत-क्षेत्रादि का प्रमाण बिलकुल धातकी खंडवत् जानना (देखें लोक - 4.2)।
- नंदीश्वर द्वीप
- अष्टम द्वीप नंदीश्वर द्वीप है। (देखें चित्र सं - 38, पृ. 465)। उसका कुल विस्तार 1,63,84,00,000 योजन प्रमाण है। ( तिलोयपण्णत्ति/5/52-53 ); ( राजवार्तिक/3/35/198/4 ); ( हरिवंशपुराण/5/647 ); ( त्रिलोकसार/966 )।
- इसके बहुमध्य भाग में पूर्व दिशा की ओर काले रंग का एक-एक अंजनगिरि पर्वत है। ( तिलोयपण्णत्ति/5/57 ); ( राजवार्तिक/3-/198/7 ), ( हरिवंशपुराण/-5/652 )। ( त्रिलोकसार/967 )।
- उस अंजनगिरि के चारों तरफ 1,00,000 योजन छोड़कर 4 वापियाँ हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/60 ), ( राजवार्तिक/3/35/-/198/9 ), ( हरिवंशपुराण/5/655 ), ( त्रिलोकसार/970 )। चारों वापियों का भीतरी अंतराल 65,045 योजन है और बाह्य अंतर 2,23,661 योजन है ( हरिवंशपुराण/5/666-668 )।
- प्रत्येक वापी की चारों दिशाओं में अशोक, सप्तच्छद, चंपक और आम्र नाम के चार वन हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/630 ), ( राजवार्तिक/3/35/-/198/27 ), ( हरिवंशपुराण/5/671,672 ), ( त्रिलोकसार/971 )। इस प्रकार द्वीप की एक दिशा में 16 और चारों दिशाओं में 64 वन हैं। इन सब पर अवतंस आदि 64 देव रहते हैं। ( राजवार्तिक/3/35/-/199/3 ), हरिवंशपुराण/5/681 )।
- प्रत्येक वापी में सफेद रंग का एक-एक दधिमुख पर्वत है। ( तिलोयपण्णत्ति/5/65 ); ( राजवार्तिक/3/35/-/198/25 ); ( हरिवंशपुराण/5/669 );( त्रिलोकसार/967 )।
- प्रत्येक वापी के बाह्य दोनों कोनों पर-लाल रंग के दो रतिकर पर्वत हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/67 ); ( त्रिलोकसार/967 )। लोक विनिश्चय की अपेक्षा प्रत्येक द्रह के चारों कोनों पर चार रतिकर हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/69 ), ( राजवार्तिक/3/35/-/198/31 ), ( हरिवंशपुराण /5/673 )। जिनमंदिर केवल बाहर वाले दो रतिकरों पर ही होते हैं, अभ्यंतर रतिकरों पर देव क्रीड़ा करते हैं। ( राजवार्तिक/3/35/-/198/33 )।
- इस प्रकार एक दिशा में एक अंजनगिरि, चार दधिमुख, आठ रतिकर ये सब मिलकर 13 पर्वत हैं। इनके ऊपर 13 जिनमंदिर स्थित हैं। इसी प्रकार शेष तीन दिशाओं में भी पर्वत द्रह, वन व जिन मंदिर जानना। (कुल मिलकर 52 पर्वत, 52 मंदिर, 16 वापियाँ और 64 वन हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/70-75 ); ( राजवार्तिक/3/35/-/199/1 ); ( हरिवंशपुराण/5/676 )( नियमसार/973 )।
- अष्टाह्निक पर्व में सौधर्म आदि इंद्र व देवगण बड़ी भक्ति से इन मंदिरों की पूजा करते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/83,102 ); ( हरिवंशपुराण/5/680 ); ( त्रिलोकसार/975-976 )। तहाँ पूर्व दिशा में कल्पवासी, दक्षिण में भवनवासी, पश्चिम में व्यंतर और उत्तर में देव पूजा करते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/100-101 )।
- कुंडलवर द्वीप
- ग्यारहवाँ द्वीप कुंडलवर नाम का है, जिसके बहुमध्य भाग में मानुषोत्तरवत् एक कुंडलाकर पर्वत है। ( तिलोयपण्णत्ति/5/117 ); ( हरिवंशपुराण/686 )।
- तहाँ पूर्वादि प्रत्येक दिशा में चार- चार कूट हैं। उनके अभ्यंतर भाग में अर्थात् मनुष्यलोक की तरफ एक-एक सिद्धवर कूट हैं। इस प्रकार इस पर्वत पर कुल 20 कूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/120-121 ); ( राजवार्तिक/3/35/-/199/12 +19); ( त्रिलोकसार/944 )। जिनकूटों के अतिरिक्त प्रत्येक पर अपने-अपने कूटों के नामवाले देव रहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/125 ) मतांतर की अपेक्षा आठों दिशाओं में एक-एक जिनकूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/128 )।
- लोक विनिश्चय की अपेक्षा इस पर्वत की पूर्वादि दिशाओं में से प्रत्येक में चार-चार कूट हैं। पूर्व व पश्चिम दिशावाले कूटों की अग्रभूमि में द्वीप के अधिपति देवों के दो कूट हैं। इन दोनों कूटों के अभ्यंतर भागों में चारों दिशाओं में एक-एक जिनकूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/130-139 ); ( राजवार्तिक/3/35/-/199/7 ); ( हरिवंशपुराण/5/689-698 )। मतांतर की अपेक्षा उनके उत्तर व दक्षिण भागों में एक-एक जिनकूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/140 )। (देखें सामनेवाल चित्र )।
- रुचकवर द्वीप
- तेरहवाँ द्वीप रुचकवर नाम का है। उसमें बीचों बीच रुचकवर नाम का कुंडलाकार पर्वत है। ( तिलोयपण्णत्ति/5/141 ); ( राजवार्तिक/3/35/-/199/22 ); ( हरिवंशपुराण/5/699 )।
- इस पर्वत पर कुल 44 कूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/144 )। पूर्वादि प्रत्येक दिशा में आठ-आठ कूट हैं जिन पर दिक्कुमारियाँ देवियाँ रहती हैं, जो भगवान् के जन्म कल्याण के अवसर पर माता की सेवा में उपस्थित रहती हैं। पूर्वादि दिशाओं वाली आठ-आठ देवियाँ क्रम से झारी, दर्पण, छत्र व चँवर धारण करती हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/145, 148-156 ), ( त्रिलोकसार/947+955-956 ) इन कूटों के अभ्यंतर भाग में चारों दिशाओं में चार महाकूट हैं तथा इनकी भी अभ्यंतर दिशाओं में चार अन्य कूट हैं। जिन पर दिशाएँ स्वच्छ करने वाली तथा भगवान् का जातकर्म करने वाली देवियाँ रहती हैं। इनके अभ्यंतर भाग में चार सिद्धकूट हैं। (देखें चित्र सं - 40, पृ. 468)। किन्हीं आचार्यों के अनुसार विदिशाओं में भी चार सिद्धकूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/162-166 ); ( त्रिलोकसार/947,958-959 )।
- लोक विनिश्चय के अनुसार पूर्वादि चार दिशाओं में एक-एक करके चार कूट हैं जिन पर दिग्गजेंद्र रहते हैं। इन चारों के अभ्यंतर भाग में चार दिशाओं में आठ-आठ कूट हैं जिन पर उपर्युक्त माता की सेवा करनेवाली 32 दिक्कुमारियाँ रहती हैं। उनके बीच की दिशाओं में दो-दो करके आठ कूट हैं, जिनपर भगवान् का जातकर्म करने वाली आठ महत्तरियाँ रहती हैं। इनके अभ्यंतर भाग में पुनः पूर्वादि दिशाओं में चार कूट हैं जिन पर दिशाएँ निर्मल करने वाली देवियाँ रहती हैं। इनके अभ्यंतर भाग में चार सिद्धकूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/167-178 ); ( राजवार्तिक/3/35/199/24 ); ( हरिवंशपुराण/5/704-721 )। (देखें चित्र सं - 41, पृ. 469)।
- स्वयंभूरमण समुद्र
अंतिम द्वीप स्वयंभूरमण है। इसके मध्य में कुंडलाकार स्वयंप्रभ पर्वत है। ( तिलोयपण्णत्ति/5/238 ); ( हरिवंशपुराण/5/730 )। इस पर्वत के अभ्यंतर भाग तक तिर्यंच नहीं होते, पर उसके परभाग से लेकर अंतिम स्वयंभूरमण सागर के अंतिम किनारे तक सब प्रकार के तिर्यंच पायेजाते हैं। (देखें तिर्यंच - 3.4-6)। (देखें चित्र सं - 12 पृ. 443)।
- लवण सागर निर्देश
- द्वीप पर्वतों आदि के नाम रस आदि
- द्वीप-समुद्रों के नाम
- जंबूद्वीप के क्षेत्रों के नाम
- जंबू द्वीप के पर्वतों के नाम
- कुलाचल आदि के नाम
- नाभिगिरि तथा उनके रक्षक देव
- विदेह के वक्षारों के नाम
- गजदंतों के नाम
- यमक पर्वतों के नाम
- दिग्गजेंद्रों के नाम
- जंबूद्वीप के पर्वतीय कूट व तन्निवासी देव
- भरत विजयार्ध
- ऐरावत विजयार्ध
- विदेह के 32 विजयार्ध
- हिमवान्
- महाहिमवान्
- निषध पर्वत
- नील पर्वत
- रुक्मि पर्वत
- शिखरी पर्वत
- विदेह के 16 वक्षार
- सौमनस गजदंत
- विद्युत्प्रभ गजदंत
- गंधमादन गजदंत
- माल्यवान्
- सुमेरु पर्वत के वनों में कूटों के नाम व देव
- जंबूद्वीप में द्रहों व वापियों के नाम
- महाद्रहों के कूटों के नाम
- जंबूद्वीप की नदियों के नाम
- लवणसागर के पर्वत पाताल व तन्निवासी देवों के नाम
- मानुषोत्तर पर्वत के कूटों पर देवों के नाम
- नंदीश्वर द्वीप को वापियाँ व उनके देव
- कुंडलवर पर्वत के कूटों व देवों के नाम
- रुचकवर पर्वत के कूटों व देवों के नाम
- पर्वतों आदि के वर्ण
- द्वीप पर्वतों आदि के नाम रस आदि
- द्वीप-समुद्रों के नाम
- मध्य भाग से प्रारंभ करने पर मध्यलोक में क्रम से
- जंबू द्वीप- लवणसागर;
- धातकीखंड-कालोदसागर;
- पुष्करवरद्वीप पुष्करवर समुद्र;
- वारुणीवरद्वीप-वारुणीवरसमुद्र;
- क्षीरवरद्वीप- क्षीरवरसमुद्र;
- घृतवर द्वीप - घृतवर समुद्रः
- क्षोद्रवर (इक्षुवर) द्वीप- क्षौद्रवर (इक्षुवर) समुद्र;
- नंदीश्वरद्वीप-नंदीश्वरसमुद्र;
- अरुणीवरद्वीप- अरुणीवरसमुद्र;
- अरुणाभासद्वीप- अरुणाभाससमुद्र;
- कुंडलवरद्वीप - कुंडलवरसमुद्र;
- शंखवरद्वीप- शंखवरसमुद्र;
- रुचकवरद्वीप - रुचकवरसमुद्र;
- भुजगवरद्वीप - भुजगवरसमुद्र;
- कुशवरद्वीप - कुशवरसमुद्र;
- क्रौंचवरद्वीप - क्रौंचवरसमुद्र ये 16 नाम मिलते हैं। (मूलाचार/1074-1078); ( सर्वार्थसिद्धि /3/7/211/3 में केवल नं. 9 तक दिये हैं); ( राजवार्तिक/3/7/2/169/30 में नं. 8 तक दिये हैं); ( हरिवंशपुराण/5/613-620 ); ( त्रिलोकसार/304-307 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/84-89 );
- संख्यात द्वीप-समुद्र आगे जाकर पुनः एक जंबूद्वीप है। (इसके आगे पुनः उपर्युक्त नामों का क्रम चल जाता है।) तिलोयपण्णत्ति/5/179 ); ( हरिवंशपुराण/5/166, 397 );
- मध्य लोक के अंत से प्रारंभ करने पर -
- स्वयंभूरमण समुद्र- स्वयंभूरमण द्वीप;
- अहींद्रवर सागर - अहींद्रवर द्वीप;
- देववर समुद्र - देववर द्वीप;
- यक्षवर समुद्र - यक्षवर द्वीप;
- भूतवर समुद्र - भूतवर द्वीप;
- नागवर समुद्र - नागवर द्वीप;
- वैडूर्य समुद्र - वैडूर्य द्वीप;
- वज्रवर समुद्र - वज्रवरद्वीप;
- कांचन समुद्र - कांचन द्वीप;
- रुप्यवर समुद्र -रुप्यवर द्वीप;
- हिंगुल समुद्र - हिंगुल द्वीप;
- अंजनवर समुद्र - अंजनवर द्वीप;
- श्यामसमुद्र-श्यामद्वीप;
- सिंदूर समुद्र - सिंदूर द्वीप;
- हरितास समुद्र- हरितास द्वीप;
- मनःशिलसमुद्र - मनःशिल द्वीप;। ( हरिवंशपुराण/5/622-625 ); ( त्रिलोकसार/305-307 )।
- सागरों के जल का स्वाद- चार समुद्र अपने नामों के अनुसार रसवाले, तीन उदक रस अर्थात् स्वाभाविक जल के स्वाद से संयुक्त, शेष समुद्र ईख समान रस से सहित हैं। तीसरे समुद्र में मधुरूप जल है। वारुणीवर, लवणाब्धि, घृतवर और क्षीरवर, ये चार समुद्र प्रत्येक रस; तथा कालोद, पुष्करवर और स्वयंभूरमण, ये तीन समुद्र उदकरस हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/29-30 ); (मूलाचार/1079-1080); ( राजवार्तिक/3/32/8/194/17 ); ( हरिवंशपुराण/5/628-629 ); ( त्रिलोकसार/319 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/94-95 )।
- मध्य भाग से प्रारंभ करने पर मध्यलोक में क्रम से
- जंबूद्वीप के क्षेत्रों के नाम
- जंबूद्वीप के महाक्षेत्रों के नाम
जंबूद्वीप में 7 क्षेत्र हैं - भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत्, व ऐरावत। (देखें लोक - 3.1.2)।
- विदेह क्षेत्र के 32 क्षेत्र व उनके प्रधान नगर
- क्षेत्रों संबंधी प्रमाण - ( तिलोयपण्णत्ति/4/2206 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/176/176/15 +177/8, 19, 27 ); ( हरिवंशपुराण/5/244-252 ) ( त्रिलोकसार/687-690 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ का पूरा 8वाँ व 9वाँ अधिकार)।
- नगरी संबंधी प्रमाण - ( तिलोयपण्णत्ति/4/2293-2301 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/167/16 +177/9,20,28 ); ( हरिवंशपुराण/5/257-264 ); ( त्रिलोकसार/712-715 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ का पूरा 8-9वाँ अधिकार)।
- जंबूद्वीप के महाक्षेत्रों के नाम
- द्वीप-समुद्रों के नाम
- जंबू द्वीप के पर्वतों के नाम
- कुलाचल आदि के नाम
- जंबूद्वीप में छह कुलाचल हैं - हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मि और शिखरी (देखें लोक - 3.1- लोक - 3.2)।
- सुमेरु पर्वत के अनेकों नाम हैं। (देखें सुमेरु - 2)
- कांचन पर्वतों का नाम कांचन पर्वत ही है। विजयार्ध पर्वतों के नाम प्राप्त नहीं हैं। शेष के नाम निम्न प्रकार हैं -
- नाभिगिरि तथा उनके रक्षक देव
पर्वतों के नाम देवों के नाम
- कुलाचल आदि के नाम
- विदेह के वक्षारों के नाम
( तिलोयपण्णत्ति/4/2210-2214 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/175/32 +177/6, 17,25); ( हरिवंशपुराण/5/228-232 ); ( त्रिलोकसार/666-669 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ 8वाँ 9वाँ अधिकार )। - गजदंतों के नाम
वायव्य आदि दिशाओं में क्रम से सौमनस, विद्युत्प्रभ, गंधमादन, व माल्यवान् ये चार हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2015 ) मतांतर से गंधमादन, माल्यवान्, सौमनस व विद्युत्प्रभ ये चार हैं। ( राजवार्तिक/310/13/173/27,28+175/11,17); ( हरिवंशपुराण/5/210-212 ); ( त्रिलोकसार/663 )।
- यमक पर्वतों के नाम
- दिग्गजेंद्रों के नाम
देवकुरु में सीतोदा नदी के पूर्व व पश्चिम में क्रम से स्वस्तिक, अंजन, भद्रशाल वन में सीतोदा के दक्षिण व उत्तर तट पर अंजन व कुमुद; उत्तरकुरु में सीता नदी के पश्चिम व पूर्व में अवतंस व रोचन, तथा पूर्वी भद्रशाल वन में सीता नदी के उत्तर व दक्षिण तट पर पद्मोत्तर व नील नामक दिग्गजेंद्र पर्वत हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2103 +2122+2130+2134); ( राजवार्तिक/3/10/13/178/6 ); ( हरिवंशपुराण/5/205-209 ); ( त्रिलोकसार/661-662 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/74-75 )।
- जंबूद्वीप के पर्वतीय कूट व तन्निवासी देव
- भरत विजयार्ध—(पूर्व से पश्चिम की ओर) ( तिलोयपण्णत्ति/4/148+167); ( राजवार्तिक/3/10/4/172/10 ); ( हरिवंशपुराण/5/26 ); ( त्रिलोकसार/732-733 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/49 )।
- ऐरावत विजयार्ध—(पूर्व से पश्चिम की ओर) ( तिलोयपण्णत्ति/4/2367 ); ( हरिवंशपुराण/5/110-112 ); ( त्रिलोकसार/733-735 )
- विदेह के 32 विजयार्ध—( तिलोयपण्णत्ति/4/2260,2302-2303 )
- हिमवान्–(पूर्व से पश्चिम की ओर)–( तिलोयपण्णत्ति/4/1632 +1651); ( राजवार्तिक/3/11/2/182/24 ); ( हरिवंशपुराण/5/53-55 ); ( त्रिलोकसार/721 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/40 )
- महाहिमवान्–(पूर्व से पश्चिम की ओर)–( तिलोयपण्णत्ति/4/1724-1726 ); ( राजवार्तिक/3/11/4/183/4 ); ( हरिवंशपुराण/5/71-72 ); ( त्रिलोकसार/724 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/41 )।
- निषध पर्वत–(पूर्व से पश्चिम की ओर)–( तिलोयपण्णत्ति/4/1758-1760 ); ( राजवार्तिक/3/11/6/183/17 ); ( हरिवंशपुराण/5/88-89 ) ( त्रिलोकसार/725 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/42 )।
- नील पर्वत–(पूर्व से पश्चिम की ओर) ( तिलोयपण्णत्ति/4/2328 +2331); ( राजवार्तिक/3/11/8/183/24 ); ( हरिवंशपुराण/5/99-101 ); ( त्रिलोकसार/726 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/43 )।
- रुक्मि पर्वत–(पूर्व से पश्चिम की ओर)–( तिलोयपण्णत्ति/4/2341 +1243); ( राजवार्तिक/3/11/10/183/31 ); ( हरिवंशपुराण/5/102-104 ); ( त्रिलोकसार/727 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/44 )।
- शिखरी पर्वत–(पूर्व से पश्चिम की ओर)–( तिलोयपण्णत्ति/4/2353-2359 +1243); ( राजवार्तिक/3/11/12/184/4 ); ( हरिवंशपुराण/5/105-108 ); ( त्रिलोकसार/728 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/45 )।
- विदेह के 16 वक्षार–( तिलोयपण्णत्ति/4/2310 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/177/11 ); ( हरिवंशपुराण/5/234-235 ); ( त्रिलोकसार/743 )।
- सौमनस गजदंत–(मेरु से कुलगिरि की ओर)–( तिलोयपण्णत्ति/4/2031 +2043-2044); ( राजवार्तिक/3/10/13/175/13 ); ( हरिवंशपुराण/5/221,227 ); ( त्रिलोकसार/739 )।
- विद्युत्प्रभ गजदंत–(मेरु से कुलगिरि की ओर)–( तिलोयपण्णत्ति/4/2045-2046 +2053+2054); ( राजवार्तिक/3/10/13/175/18 ); ( हरिवंशपुराण/5/222,227 ); ( त्रिलोकसार/739-740 )।
- गंधमादन गजदंत–(मेरु से कुलगिरि की ओर)–( तिलोयपण्णत्ति/4/2057-2059 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/173/24 ); ( हरिवंशपुराण/5/217-218 +227); ( त्रिलोकसार/740-741 )।
- माल्यवान्–(मेरु से कुलगिरि की ओर)–( तिलोयपण्णत्ति/4/2060-2062 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/173/30 ); ( हरिवंशपुराण/5/219-220 +224); ( त्रिलोकसार/738 )।
- सुमेरु पर्वत के वनों में कूटों के नाम व देव ( तिलोयपण्णत्ति/4/1969-1977 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/179/19 ); ( हरिवंशपुराण/5/329 ); ( त्रिलोकसार/627 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/105 )।
- जंबूद्वीप में द्रहों व वापियों के नाम
- हिमवान् आदि कुलाचलों पर—[क्रम से पद्म, महापद्म, तिगिंच्छ, केसरी, महापुंडरीक व पुंडरीक द्रह है। तिलोयपण्णत्ति में रुक्मि पर्वत पर महापुंडरीक के स्थान पर पुंडरीक तथा शिखरी पर्वत पर पुंडरीक के स्थान पर महापुंडरीक कहा है। (देखें लोक - 3.1, लोक - 3.4व लोक लोक - 3.9।
- सुमेरु पर्वत के वनों में–आग्नेय दिशा को आदि करके ( तिलोयपण्णत्ति/4/1946,1962-1963 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/179/26 ); ( हरिवंशपुराण/5/334-346 ); ( त्रिलोकसार/628-629 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/110-113 )।
- हिमवान् आदि कुलाचलों पर—[क्रम से पद्म, महापद्म, तिगिंच्छ, केसरी, महापुंडरीक व पुंडरीक द्रह है। तिलोयपण्णत्ति में रुक्मि पर्वत पर महापुंडरीक के स्थान पर पुंडरीक तथा शिखरी पर्वत पर पुंडरीक के स्थान पर महापुंडरीक कहा है। (देखें लोक - 3.1, लोक - 3.4व लोक लोक - 3.9।
- देवकुरु व उत्तरकुरु में ( तिलोयपण्णत्ति/4/2091,2126 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/174/29 +175/5,6,9,28); ( हरिवंशपुराण/5/194-196 ); ( त्रिलोकसार/657 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/28,83 )।
- महाद्रहों के कूटों के नाम
- पद्मद्रह के तट पर ईशान आदि चार विदिशाओं में वैश्रवण, श्रीनिचय, क्षुद्रहिमवान् व ऐरावत ये तथा उत्तर दिशा में श्रीसंचय ये पाँच कूट हैं। उसके जल में उत्तर आदि आठ दिशाओं में जिनकूट, श्रीनिचय, वैडूर्य, अंकमय, आश्चर्य, रुचक, शिखरी व उत्पल ये आठ कूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1660-1665 )।
- महापद्म आदि द्रहों के कूटों के नाम भी इसी प्रकार हैं। विशेषता यह है कि हिमवान् के स्थान पर अपने-अपने पर्वतों के नाम वाले कूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1730-1734,1765-1769 )।
- जंबूद्वीप की नदियों के नाम
- भरतादि महाक्षेत्रों में
क्रम से गंगा-सिद्धधु; रोहित-रोहितास्या; हरित्-हरिकांता; सीता-सीतोदा; नारी-नरकांता; सूवर्णकूला-रूप्यकूला; रक्ता-रक्तोदा ये चार नदियाँ हैं। (देखें लोक - 3.1-7 व लोक - 3.11।
- विदेह के 32 क्षेत्रों में (गंगा-सिंधु नाम की 16 और रक्ता-रक्तोदा नाम की 16 नदियाँ हैं। (देखें लोक - 3.11)।
- विदेह क्षेत्र की 12 विभंगा नदियों के नाम
( तिलोयपण्णत्ति/4/2215-2216 ); ( राजवार्तिक/3/10/13/175/33 >+177/7,17,25); ( हरिवंशपुराण/5/239-243 ); ( त्रिलोकसार/666-669 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/8-9 वाँ अधिकार)।
- भरतादि महाक्षेत्रों में
- लवणसागर के पर्वत पाताल व तन्निवासी देवों के नाम
( तिलोयपण्णत्ति/4/2410 +2460-2469); ( हरिवंशपुराण/5/443,460 ); ( त्रिलोकसार/897 +905-907); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/630-33 )। - मानुषोत्तर पर्वत के कूटों पर देवों के नाम
( तिलोयपण्णत्ति/4/2766 +2776-2782); ( राजवार्तिक/3/34/6/197/14 ); ( हरिवंशपुराण/5/602-610 ); ( त्रिलोकसार/942 )। - नंदीश्वर द्वीप को वापियाँ व उनके देव
पूर्वादि क्रम से ( तिलोयपण्णत्ति/5/63-78 ); ( राजवार्तिक/3/35/-/198/1 ); ( हरिवंशपुराण/5/659-665 ); ( त्रिलोकसार/969-970 )। - कुंडलवर पर्वत के कूटों व देवों के नाम
दृष्टि सं.1–( तिलोयपण्णत्ति/5/122-125 ); ( त्रिलोकसार/944-945 );।
दृष्टि सं.2–( तिलोयपण्णत्ति/5/133 ); ( राजवार्तिक/3/35/-/199/10 ); ( हरिवंशपुराण/5/690-694 )। - रुचकवर पर्वत के कूटों व देवों के नाम
- दृष्टि सं.1 की अपेक्षा
( तिलोयपण्णत्ति/5/145-163 ); ( राजवार्तिक/3/35/-/199/28 ); ( हरिवंशपुराण/5/705-717 ); ( त्रिलोकसार/848-958 )।
- दृष्टि सं.1 की अपेक्षा
- दृष्टि सं.2 की अपेक्षा
( तिलोयपण्णत्ति/5/169-177 ); ( राजवार्तिक/3/35/-/199/24 ); ( हरिवंशपुराण/5/702-727 )। - पर्वतों आदि के वर्ण
- द्वीप क्षेत्र पर्वत आदि का विस्तार
- द्वीप सागरों का सामान्य विस्तार
- लवणसागर व उसके पातालादि
- अढाई द्वीप के क्षेत्रों का विस्तार
- जंबू द्वीप के पर्वतों व कूटों का विस्तार
- लंबे पर्वत
- गोल पर्वत
- पर्वतीय व अन्य कूट
- नदी कुंड द्वीप व पांडुक शिला आदि
- अढ़ाई द्वीपों की सर्व वेदियाँ
- शेष द्वीपों के पर्वतों व कूटों का विस्तार
- धातकीखंड के पर्वत
- पुष्कर द्वीप के पर्वत व कूट
- नंदीश्वर द्वीप के पर्वत
- कुंडलवर पर्वत व उसके कूट
- रुचकवर पर्वत व उसके कूट
- स्वयंभूरमण पर्वत
- अढ़ाई द्वीप के वनखंडों का विस्तार
- अढ़ाई द्वीप की नदियों का विस्तार
- मध्यलोक की वापियों व कुंडों का विस्तार
- अढाई द्वीप के कमलों का विस्तार
- द्वीप क्षेत्र पर्वत आदि का विस्तार
- द्वीप सागरों का सामान्य विस्तार
- जंबूद्वीप का विस्तार 100,000 योजन है। तत्पश्चात् सभी समुद्र व द्वीप उत्तरोत्तर दुगुने-दुगुने विस्तारयुक्त हैं। ( तत्त्वार्थसूत्र/3/8 ); ( तिलोयपण्णत्ति/5/32 )
- जंबूद्वीप का विस्तार 100,000 योजन है। तत्पश्चात् सभी समुद्र व द्वीप उत्तरोत्तर दुगुने-दुगुने विस्तारयुक्त हैं। ( तत्त्वार्थसूत्र/3/8 ); ( तिलोयपण्णत्ति/5/32 )
- लवणसागर व उसके पातालादि
- सागर
- द्वीप सागरों का सामान्य विस्तार
- पाताल
- अढाई द्वीप के क्षेत्रों का विस्तार
- जंबू द्वीप के क्षेत्र
- धातकीखंड के क्षेत्र
- पुष्करार्ध के क्षेत्र
- जंबू द्वीप के पर्वतों व कूटों का विस्तार
- लंबे पर्वत
नोट—पर्वतों की नींव सर्वत्र ऊँचाई से चौथाई होती हैं। ( हरिवंशपुराण/5/506 ); ( त्रिलोकसार/926 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/37 )।
- लंबे पर्वत
- गोल पर्वत—
- पर्वतीय व अन्य कूट—
कूटों के विस्तार संबंधी सामान्य नियम—सभी कूटों का मूल विस्तार अपनी ऊँचाई का अर्धप्रमाण है : ऊपरी विस्तार उससे आधा है। उनकी ऊँचाई अपने-अपने पर्वतों की गहराई के समान है। - नदी कुंड द्वीप व पांडुक शिला आदि—
- अढ़ाई द्वीपों की सर्व वेदियाँ—
वेदियों के विस्तार संबंधी सामान्य नियम—देवारण्यक व भूतारण्यक वनों के अतिरिक्त सभी कुंडों, नदियों, वनों, नगरों, चैत्यालयों आदि की वेदियाँ समान होती हुई निम्न विस्तार-सामान्यवाली हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2388-2391 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/60-69 ) - शेष द्वीपों के पर्वतों व कुटों विस्तार—
- धातकीखंड के पर्वत—
- पुष्कर द्वीप के पर्वत व कूट
- नंदीश्वर द्वीप के पर्वत
- कुंडलवर पर्वत व उसके कूट
- रुचकवर पर्वत व उसके कूट—
- स्वयंभूरमण पर्वत
- अढ़ाई द्वीप के वनखंडों का विस्तार
- जंबूद्वीप के वनखंड
- धातकीखंड के वनखंड
सामान्य नियम—सर्व वन जंबूद्वीप वालों से दूने विस्तार वाले हैं। ( हरिवंशपुराण/5/509 ) - पुष्करार्ध द्वीप के वनखंड
- नंदीश्वरद्वीप के वन
वापियों के चारों ओर वनखंड हैं, जिनका विस्तार (100,000×50,000) योजन है।
- अढ़ाई द्वीप की नदियों का विस्तार
- जंबूद्वीप की नदियाँ
- धातकीखंड की नदियाँ
- पुष्करद्वीप की नदियाँ
- मध्यलोक की वापियों व कुंडों का विस्तार
- जंबूद्वीप संबंधी—
- अन्य द्वीप संबंधी
- अढाई द्वीप के कमलों का विस्तार
अवस्थान |
क्रम |
क्षेत्र |
नगरी |
उत्तरी पूर्व विदेह में पश्चिम से पूर्व की ओर |
1 |
कच्छा |
क्षेमा तिलोयपण्णत्ति/4/2268 |
2 |
सुकच्छा |
क्षेमपुरी |
|
3 |
महाकच्छा |
रिष्टा (अरिष्टा) |
|
4 |
कच्छावती |
अरिष्टपुरी |
|
5 |
आवर्ता |
खड्गा |
|
6 |
लांगलावर्ता |
मंजूषा |
|
7 |
पुष्कला |
औषध नगरी |
|
8 |
पुष्कलावती (पुंडरीकनी) |
पुंडरीकिणी |
|
दक्षिण पूर्व विदेह में पूर्व से पश्चिम की ओर |
1 |
वत्सा |
सुसीमा |
2 |
सुवत्सा |
कुंडला |
|
3 |
महावत्सा |
अपराजिता |
|
4 |
वत्सकावती (वत्सवत्) |
प्रभंकरा (प्रभाकरी) |
|
5 |
रम्या |
अंका (अंकावती) |
|
6 |
सुरम्या (रम्यक) |
पद्मावती |
|
7 |
रमणीया |
शुभा |
|
8 |
मंगलावती |
रत्नसंचया |
|
दक्षिण पश्चिम विदेह में पूर्व से पश्चिम की ओर |
1 |
पद्मा |
अश्वपुरी |
2 |
सुपद्मा |
सिंहपुरी |
|
3 |
महापद्मा |
महापुरी |
|
4 |
पद्मकावती (पद्मवत्) |
विजयपुरी |
|
5 |
शंखा |
अरजा |
|
6 |
नलिनी |
विरजा |
|
7 |
कुमुदा |
शोका |
|
8 |
सरित |
वीतशोका |
|
उत्तरी पश्चिम विदेह में पश्चिम से पूर्व की ओर |
1 |
वप्रा |
विजया |
2 |
सुवप्रा |
वैजयंता |
|
3 |
महावप्रा |
जयंता |
|
4 |
वप्रकावती (वप्रावत) |
अपराजिता |
|
5 |
गंधा (वल्गु) |
चक्रपुरी |
|
6 |
सुगंधा-सुवल्गु |
खड्गपुरी |
|
7 |
गंधिला |
अयोध्या |
|
8 |
गंधमालिनी |
अवध्या |
नं. |
क्षेत्र का नाम |
तिलोयपण्णत्ति/4/1704, 1745,2335,2350 |
राजवार्तिक/3/107/172/21 +10/172/31 +16/181/17+19/181/23 |
हरिवंशपुराण/5/161; त्रिलोकसार/719 |
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/209 |
तिलोयपण्णत्ति/ पूर्वोक्त राजवार्तिक/ पूर्वोक्त हरिवंशपुराण/5/164 |
1 |
हैमवत् |
शब्दवान् |
श्रद्धावान् |
श्रद्धावान् |
श्रद्धावती |
शाती (स्वाति) |
2 |
हरि |
विजयवान् |
विकृतवान् |
विजयवान् |
निकटावती |
चारण (अरुण) |
3 |
रम्यक् |
पद्म |
गंधवां |
पद्मवान |
गंधवती |
पद्म |
4 |
हैरण्यवत् |
गंधमादन |
माल्यवान् |
गंधवान् |
माल्यवान् |
प्रभास |
अवस्थान |
क्रम |
तिलोयपण्णत्ति |
शेषप्रमाण |
उत्तरीयपूर्व विदेह में पश्चिम से पूर्व की ओर |
1 |
चित्रकूट |
चित्रकूट |
2 |
नलिनकूट |
पद्यकूट |
|
3 |
पद्मकूट |
नलिनकूट |
|
4 |
एक शैल |
एक शैल |
|
दक्षिण पूर्व विदेह में पूर्व से पश्चिम की ओर |
5 |
त्रिकूट |
त्रिकूट |
6 |
वैश्रवणकूट |
वैश्रवणकूट |
|
7 |
अंजन शैल |
अंजन शैल |
|
8 |
आत्मांजन |
आत्मांजन |
|
दक्षिण अपर विदेह में पूर्व से पश्चिम की ओर |
9 |
श्रद्धावान् |
|
10 |
विजयवान् |
|
|
11 |
आशीर्विष |
आशीर्विष |
|
12 |
सुखावह |
सुखावह |
|
उत्तर अपर विदेह में पश्चिम से पूर्व की ओर |
13 |
चंद्रगिरि (चंद्रमाल) |
चंद्रगिरि |
14 |
सूर्यगिरि (सूर्यमाल) |
सूर्यगिरि |
|
15 |
नागगिरि (नागमाल) |
नागगिरि |
|
16 |
देवमाल |
|
नोट नं. 9 पर जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो में श्रद्धावती। नं. 10 पर राजवार्तिक में विकृतवान्, त्रिलोकसार में विजयवान् और जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो में विजटावती है। नं. 16 पर हरिवंशपुराण में मेघमाल है।
अवस्थान |
क्रम |
दिशा |
तिलोयपण्णत्ति/4/2077- 2124 हरिवंशपुराण/5/191 ‒192 ‒ त्रिलोकसार/654 ‒655‒ |
राजवार्तिक/3/10/13/174/25;175/26 जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/6/15, 18, 87‒ |
देवकुरु |
1 |
पूर्व |
यमकूट |
चित्रकूट |
2 |
पश्चिम |
मेघकूट |
विचित्र कूट |
|
उत्तरकुरु |
3 |
पूर्व |
चित्रकूट |
यमकूट |
4 |
पश्चिम |
विचित्र कूट |
मेघकूट |
क्रम |
कूट |
देव |
1 |
सिद्धायतन |
जिनमंदिर |
2 |
(दक्षिणार्ध) भरत |
(दक्षिणार्ध) भरत |
3 |
खंड प्रपात |
नृत्यमाल |
4 |
मणिभद्र* |
मणिभद्र* |
5 |
विजयार्ध कुमार |
विजयार्ध कुमार |
6 |
पूर्णभद्र* |
पूर्णभद्र* |
7 |
तिमिस्र गुहा |
कृतमाल |
8 |
(उत्तरार्ध) भरत |
(उत्तरार्ध) भरत |
9 |
वैश्रवण |
वैश्रवण |
*नोट― त्रिलोकसार में मणिभद्र के स्थान पर पूर्णभद्र और पूर्णभद्र के स्थान पर मणिभद्र है। |
क्रम |
कूट |
देव |
1 |
सिद्धायतन |
जिनमंदिर |
2 |
(उत्तरार्ध) ऐरावत |
(उत्तरार्ध) ऐरावत |
3 |
खंड प्रपात* |
कृतमाल* |
4 |
मणिभद्र |
मणिभद्र |
5 |
विजयार्ध कुमार |
विजयार्ध कुमार |
6 |
पूर्णभद्र |
पूर्णभद्र |
7 |
तिमिस्र गुहा* |
नृत्यमाल* |
8 |
(दक्षिणार्ध) ऐरावत |
(दक्षिणार्ध) ऐरावत |
9 |
वैश्रवण |
वैश्रवण |
*नोट― त्रिलोकसार में नं. 3 व 7 पर क्रम से खंडप्रपात व तिमिस्र गुहा नाम कूट और कृतमाल व नृत्यमाल देव बताये हैं। |
क्रम |
कूट |
देव |
1 |
सिद्धायतन |
देवों के नाम |
2 |
(दक्षिणार्ध) स्वदेश |
भरत विजयार्ध |
3 |
खंड प्रपात |
वत् जानने |
4 |
पूर्णभद्र |
|
5 |
विजयार्धकुमार |
|
6 |
मणिभद्र |
देवों के नाम |
7 |
तिमिस्रगुहा |
भरत विजयार्ध |
8 |
(उत्तरार्ध) स्वदेश |
वत् जानने |
9 |
वैश्रवण |
|
क्रम |
कूट |
देव |
1 |
सिद्धायतन |
जिनमंदिर |
2 |
हिमवान् |
हिमवान् |
3 |
भरत |
भरत |
4 |
इला |
इलादेवी |
5 |
गंगा |
गंगादेवी |
6 |
श्री |
श्रीदेवी |
7 |
रोहितास्या |
रोहितास्या देवी |
8 |
सिंधु |
सिंधु देवी |
9 |
सुरा |
सुरा देवी |
10 |
हैमवत |
हैमवत |
11 |
वैश्रवण |
वैश्रवण |
क्रम |
कूट |
देव |
1 |
सिद्धायतन |
जिनमंदिर |
2 |
महाहिमवान् |
महाहिमवान् |
3 |
हैमवत |
हैमवत |
4 |
रोहित |
रोहित |
5 |
हरि (ह्री) |
हरि (ह्री) |
6 |
हरिकांत |
हरिकांत |
7 |
हरिवर्ष |
हरिवर्ष |
8 |
वैडूर्य |
वैडूर्य |
क्रम |
कूट |
देव |
1 |
सिद्धायतन |
जिनमंदिर |
2 |
निषध |
निषध |
3 |
हरिवर्ष |
हरिवर्ष |
4 |
पूर्व विदेह* |
पूर्व विदेह* |
5 |
हरि (ह्री)* |
हरि (ह्री)* |
6 |
विजय* |
विजय* |
7 |
सीतोदा |
सीतोदा |
8 |
अपर विदेह |
अपर विदेह |
9 |
रुचक |
रुचक |
*नोट– राजवार्तिक व त्रिलोकसार में नं.6 पर धृत या धृति नामक कूट व देव कहे हैं। तथा जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो में नं. 4,5,6 पर क्रम से धृति, पूर्व विदेह और हरिविजय नामक कूटदेव कहे हैं। |
क्रम |
कूट |
देव |
1 |
सिद्धायतन |
जिनमंदिर |
2 |
नील |
नील |
3 |
पूर्व विदेह |
पूर्व विदेह |
4 |
सीता |
सीता |
5 |
कीर्ति |
कीर्ति |
6 |
नारी |
नारी |
7 |
अपर विदेह |
अपर विदेह |
8 |
रम्यक |
रम्यक |
9 |
अपदर्शन |
अपदर्शन |
नोट– राजवार्तिक व त्रिलोकसार में नं.6 पर नरकांता नामक कूट व देवी कहा है। |
क्रम |
कूट |
देव |
1 |
सिद्धायतन |
जिनमंदिर |
2 |
रुक्मि (रूप्य) |
रुक्मि (रूप्य) |
3 |
रम्यक |
रम्यक |
4 |
नरकांता* |
नरकांता* |
5 |
बुद्धि |
बुद्धि |
6 |
रूप्यकूला |
रूप्यकूला |
7 |
हैरण्यवत |
हैरण्यवत |
8 |
मणिकांचन (कांचन) |
मणिकांचन (कांचन) |
नोट– राजवार्तिक व त्रिलोकसार में नं.4 पर नारी नामक कूट व देव कहा है। |
क्रम |
कूट |
देव |
1 |
सिद्धायतन |
जिनमंदिर |
2 |
शिखरी |
शिखरी |
3 |
हैरण्यवत |
हैरण्यवत |
4 |
रस देवी |
|
5 |
रक्ता |
रक्तादेवी |
6 |
लक्ष्मी* |
लक्ष्मी देवी* |
7 |
कांचन (सुवर्ण)* |
कांचन* |
8 |
रक्तवती* |
रक्तवती देवी |
9 |
गंधवती* (गांधार) |
गंधवती देवी* |
10 |
रैवत (ऐरावत)* |
रैवत* |
11 |
मणिकांचन* |
मणिकांचन* |
*नोट– राजवार्तिक में नं. 6,7,8,9,10,11 पर क्रम से प्लक्षणकुला, लक्ष्मी, गंधदेवी, ऐरावत, मणि व कांचन नामक कूट व देव देवी कहे हैं। |
क्रम |
कूट |
देव |
1 |
सिद्धायतन |
जिनमंदिर |
2 |
स्व वक्षार का नाम |
कूट सदृश नाम |
3 |
पहले क्षेत्र का नाम |
कूट सदृश नाम |
4 |
पिछले क्षेत्र का नाम |
कूट सदृश नाम* |
*नोट– हरिवंशपुराण में न.4 कूट पर दिक्कुमारी देवी का निवास बताया है। |
क्रम |
कूट |
देव |
|
( तिलोयपण्णत्ति ; हरिवंशपुराण ; त्रिलोकसार ) |
|
1 |
सिद्धायतन |
जिनमंदिर |
2 |
सौमनस |
सौमनस |
3 |
देवकुरु |
देवकुरु |
4 |
मंगल |
मंगल |
5 |
विमल |
वत्समित्रा देवी |
6 |
कांचन |
सुवत्सा (सुमित्रा देवी) |
7 |
विशिष्ट |
विशिष्ट |
|
( राजवार्तिक ) |
|
1 |
सिद्धायतन |
जिनमंदिर |
2 |
सौमनस |
सौमनस |
3 |
देवकुरु |
देवकुरु |
4 |
मंगलावत |
मंगल |
5 |
पूर्वविदेह |
पूर्वविदेह |
6 |
कनक |
सुवत्सा |
7 |
कांचन |
वत्समित्रा |
8 |
विशिष्ट |
विशिष्ट |
क्रम |
कूट |
देव |
( तिलोयपण्णत्ति ; हरिवंशपुराण ; व त्रिलोकसार ) |
||
1 |
सिद्धायतन |
जिनमंदिर |
2 |
विद्युत्प्रभ |
विद्युत्प्रभ |
3 |
देवकुरु |
देवकुरु |
4 |
पद्म |
पद्म |
5 |
तपन |
वारिषेणादेवी |
6 |
स्वस्तिक |
बला देवी* |
7 |
शतउज्ज्वल (शतज्वाल) |
शतउज्ज्वल (शतज्वाल) |
8 |
सीतोदा |
सीतोदा |
9 |
हरि |
हरि |
( राजवार्तिक ) |
||
1 |
सिद्धायतन |
जिनमंदिर |
2 |
विद्युत्प्रभ |
विद्युत्प्रभ |
3 |
देवकुरु |
देवकुरु |
4 |
पद्म |
पद्म |
5 |
विजय |
वारिषेणादेवी |
6 |
अपर विदेह |
बलादेवी |
7 |
स्वस्तिक |
स्वस्तिक |
8 |
शतज्वाल |
शतज्वाल |
9 |
सीतोदा |
सीतोदा |
10 |
हरि |
हरि |
नोट– हरिवंशपुराण में बलादेवी के स्थान पर अचलादेवी कहा है। |
क्रम |
कूट |
देव |
1 |
सिद्धायतन |
जिनमंदिर |
2 |
गंधमादन |
गंधमादन |
3 |
देवकुरु* |
देवकुरु* |
4 |
गंधव्यास (गंधमालिनी) |
गंधव्यास |
5 |
लोहित* |
भोगवती |
6 |
स्फटिक* |
भोगहंति (भोगंकरा) |
7 |
आनंद |
आनंद |
*नोट– त्रिलोकसार में सं.3 पर उत्तरकुरु कहा है। और राजवार्तिक में लोहित के स्थान पर स्फटिक व स्फटिक के स्थान पर लोहित कहा है। |
क्रम |
कूट |
देव |
( तिलोयपण्णत्ति ; हरिवंशपुराण ; त्रिलोकसार ) |
||
1 |
सिद्धायतन |
जिनमंदिर |
2 |
माल्यवान् |
माल्यवान् |
3 |
उत्तरकुरु |
उत्तरकुरु |
4 |
कच्छ |
कच्छ |
5 |
सागर |
भोगवतीदेवी (सुभोगा) |
6 |
रजत |
भोगमालिनी देवी |
7 |
पूर्णभद्र |
पूर्णभद्र |
8 |
सीता |
सीतादेवी |
9 |
हरिसह |
हरिसह |
( राजवार्तिक ) |
||
1 |
सिद्धायतन |
जिनमंदिर |
2 |
माल्यवान् |
माल्यवान् |
3 |
उत्तरकुरु |
उत्तरकुरु |
4 |
कच्छ |
कच्छ |
5 |
विजय |
विजय |
6 |
सागर |
भोगवती |
7 |
रजत |
भोगमालिनी |
8 |
पूर्णभद्र |
पूर्णभद्र |
9 |
सीता |
सीता |
10 |
हरि |
हरि |
सं. |
कूट |
देव |
( तिलोयपण्णत्ति ) सौमनस वन में |
||
1 |
नंदन |
मेघंकरा |
2 |
मंदर |
मेघवती |
3 |
निषध |
सुमेघा |
4 |
हिमवान् |
मेघमालिनी |
5 |
रजत |
तीयंधरा |
6 |
रुचक |
विचित्रा |
7 |
सागरचित्र |
पुष्पमाला |
8 |
वज्र |
अनिंदिता |
(शेष ग्रंथ) नंदन वन में |
||
1 |
नंदन |
मेघंकरी |
2 |
मंदर |
मेघवती |
3 |
निषध |
सुमेघा |
4 |
हैमवत* |
मेघमालिनी |
5 |
रजत* |
तीयंधरा |
6 |
रुचक* |
विचित्रा |
7 |
सागरचित्र |
पुष्पमाला* |
8 |
वज्र |
अनिंदिता |
*नोट— हरिवंशपुराण में सं.4 पर हिमवत्; सं.6 पर रजत; सं.8 पर चित्रक नाम दिये हैं। जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो में सं.4 पर हिमवान्, सं.5 पर विजय नामक कूट कहे हैं। तथा सं.7 पर देवी का नाम मणिमालिनी कहा है। |
|
सौमनसवन ( तिलोयपण्णत्ति ) |
नंदनवन ( राजवार्तिक ) |
1 |
उत्पलगुल्मा |
उत्पलगुल्मा |
2 |
नलिना |
नलिना |
3 |
उत्पला |
उत्पला |
4 |
उत्पलोज्ज्वला |
उत्पलोज्ज्वला |
5 |
भृंगा |
भृंगा |
6 |
भृंगनिभा |
भृंगनिभा |
7 |
कज्जला |
कज्जला |
8 |
कज्जलप्रभा |
कज्जलप्रभा |
9 |
श्रीभद्रा |
श्रीकांता |
10 |
श्रीकांता |
श्रीचंद्रा |
11 |
श्रीमहिता |
श्रीनिलया |
12 |
श्रीनिलया |
श्रीमहिता |
13 |
नलिना (पद्म) |
नलिना (पद्म) |
14 |
नलिनगुल्मा (पद्मगुल्मा) |
नलिनगुल्मा (पद्मगुल्मा) |
15 |
कुमुदा |
कुमुदा |
16 |
कुमुद्रप्रभा |
कुमुद्रप्रभा |
नोट— हरिवंशपुराण , त्रिलोकसार , व जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो में नंदनवन की अपेक्षा तिलोयपण्णत्ति वाले ही नाम दिये हैं। |
सं. |
देवकुरु में दक्षिण से उत्तर की ओर |
उत्तरकुरु में उत्तर से दक्षिण की ओर |
1 |
निषध |
नील |
2 |
देवकुरु |
उत्तरकुरु |
3 |
सूर |
चंद्र |
4 |
सुलस |
ऐरावत |
5 |
विद्युत् (तड़ित्प्रभ) |
माल्यवान् |
अवस्थान |
सं. |
नदियों के नाम |
|||
तिलोयपण्णत्ति |
राजवार्तिक |
त्रिलोकसार |
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो |
||
उत्तरीपूर्व विदेह में पश्चिम से पूर्व की ओर |
1 |
द्रहवती |
ग्राहवती |
गाधवती |
ग्रहवती |
2 |
ग्राहवती |
हृदयावती |
द्रहवती |
द्रहवती |
|
|
3 |
पंकवती |
पंकावती |
पंकवती |
पंकवती |
दक्षिणी पूर्व विदेह में पूर्व से पश्चिम की ओर |
1 |
तप्तजला |
तप्तजला |
तप्तजला |
तप्तजला |
2 |
मत्तजला |
मत्तजला |
मत्तजला |
मत्तजला |
|
3 |
उन्मत्तजला |
उन्मत्तजला |
उन्मत्तजला |
उन्मत्तजला |
|
दक्षिणी अपर विदेह में पूर्व से पश्चिम की ओर |
1 |
क्षीरोदा |
क्षीरोदा |
क्षीरोदा |
क्षीरोदा |
2 |
सीतोदा |
सीतोदा |
सीतोदा |
सीतोदा |
|
3 |
औषध वाहिनी |
सेतांतर वाहिनी |
सोतो वाहिनी |
सोतो वाहिनी |
|
उत्तरी अपर विदेह में पश्चिम से पूर्व की ओर |
1 |
गंभीरमालिनी |
गंभीरमा |
गंभीरमा |
गंभीरमा |
2 |
फेनमालिनी |
फेनमा |
फेनमा |
फेनमा |
|
|
3 |
ऊर्मिमालिनी |
ऊर्मिमा |
ऊर्मिमा |
ऊर्मिमा |
दिशा |
सागर के अभ्यंतर भाग की ओर |
मध्यवर्ती पाताल का नाम |
सागर के बाह्यभाग की ओर |
||
पर्वत |
देव |
पर्वत |
देव |
||
पूर्व |
कौस्तुभ |
कौस्तुभ |
पाताल |
कौस्तुभावास |
कौस्तुभावास |
दक्षिण |
उदक |
शिव |
कदंब |
उदकावास |
शिवदेव |
पश्चिम |
शंख |
उदकावास |
बड़वामुख |
महाशंख |
उदक |
उत्तर |
दक |
लोहित (रोहित) |
यूपकेशरी |
दकवास |
लोहितांक |
नोट— त्रिलोकसार में पूर्वादि दिशाओं में क्रम से बड़वामुख, कदंबक, पाताल व यूपकेशरी नामक पाताल बताये हैं। |
दिशा |
सं. |
कूट |
देव |
पूर्व |
1 |
वैडूर्य |
यशस्वान् |
2 |
अश्मगर्भ |
यशस्कांत |
|
3 |
सौगंधी |
यशोधर |
|
दक्षिण |
4 |
रुचक |
नंद (नंदन) |
5 |
लोहित |
नंदोत्तर |
|
6 |
अंजन |
अशनिघोष |
|
पश्चिम |
7 |
अंजनमूल |
सिद्धार्थ |
8 |
कनक |
वैश्रवण (क्रमण) |
|
9 |
रजत |
मानस (मानुष्य) |
|
उत्तर |
10 |
स्फटिक |
सुदर्शन |
11 |
अंक |
मेघ (अमोघ) |
|
12 |
प्रवाल |
सुप्रबुद्ध |
|
आग्नेय |
13 |
तपनीय |
स्वाति |
14 |
रत्न |
वेणु |
|
ईशान |
15 |
प्रभंजन* |
वेणुधारी |
16 |
वज्र |
हनुमान |
|
वायव्य |
17 |
वेलंब* |
वेलंब |
नैर्ऋत्य |
18 |
सर्वरत्न* |
वेणुधारी (वणुनीत) |
नोट— राजवार्तिक व हरिवंशपुराण में सं.15,17 व 18 के स्थान पर क्रम से सर्वरत्न, प्रभंजन व वेलंब नामक कूट हैं। तथा वेणुतालि, प्रभंजन व वेलंब ये क्रम से उनके देव हैं। |
दिशा |
सं. |
तिलोयपण्णत्ति व त्रिलोकसार |
राजवार्तिक |
हरिवंशपुराण |
पूर्व |
1 |
नंदा |
नंदा |
सौधर्म |
|
2 |
नंदवती |
नंदवती |
ऐशान |
|
3 |
नंदोत्तरा |
नंदोत्तरा |
चमरेंद्र |
|
4 |
नंदिघोष |
नंदिघोष |
वैरोचन |
दक्षिण |
1 |
अरजा |
विजया |
वरुण |
|
2 |
विरजा |
वैजयंती |
यम |
|
3 |
अशोका |
जयंती |
सोम |
|
4 |
वीतशोका |
अपराजिता |
वैश्रवण |
पश्चिम |
1 |
विजया |
अशोका |
वेणु |
|
2 |
वैजयंती |
सुप्रबुद्धा |
वेणुताल |
|
3 |
जयंती |
कुमुदा |
वरुण (घरण) |
|
4 |
अपराजिता |
पुंडरीकिणी |
भूतानंद |
उत्तर |
1 |
रम्या |
प्रभंकरा |
वरुण |
|
2 |
रमणीय |
सुमना |
यम |
|
3 |
सुप्रभा |
आनंदा |
सोम |
|
4 |
सर्वतोभद्र |
सुदर्शना |
वैश्रवण |
नोट—दक्षिण के कूटों पर सौधर्म इंद्र के लोकपाल, तथा उत्तर के कूटों पर ऐशान इंद्र के लोकपाल रहते हैं। |
दिशा |
कूट |
देव |
|
दृष्टि सं.1 |
दृष्टि सं.2 |
||
पूर्व |
वज्र |
स्व स्व कूट सदृश नाम |
विशिष्ट (त्रिशिरा) |
|
वज्रप्रभ |
पंचिशिर |
|
|
कनक |
महाशिर |
|
|
कनकप्रभ |
महावान् |
|
दक्षिण |
रजत |
पद्म |
|
|
रजतप्रभ (रजताभ) |
पद्मोत्तर |
|
|
सुप्रभ |
महापद्म |
|
|
महाप्रभ |
वासुकी |
|
पश्चिम |
अंक |
स्थिरहृदय |
|
|
अंकप्रभ |
महाहृदय |
|
|
मणि |
श्री वृक्ष |
|
|
मणिप्रभ |
स्वस्तिक |
|
उत्तर |
रुचक* |
सुंदर |
|
|
रुचकाभ* |
विशालनेत्र |
|
|
हिमवान्* |
पांडुक* |
|
|
मंदर* |
पांडुर* |
|
नोट– राजवार्तिक व हरिवंशपुराण में उत्तर दिशा के कूटों का नाम क्रम से स्फटिक, स्फटिकप्रभ, हिमवान् व महेंद्र बताया है। अंतिम दो देवों के नामों में पांडुक के स्थान पर पांडुर और पांडुर के स्थान पर पांडुक बताया है। |
दिशा |
सं. |
तिलोयपण्णत्ति ; त्रिलोकसार |
देवियों का काम |
राजवार्तिक ; हरिवंशपुराण |
देवियों का काम |
||
कूट |
देवी |
कूट |
देवी |
||||
पूर्व |
1 |
कनक |
विजया |
जन्म कल्याणक पर झारी धारण करना |
वैडूर्य |
विजया |
जन्म कल्याण पर झारी धारण करना |
2 |
कांचन |
वैजयंती |
कांचन |
वैजयंती |
|||
3 |
तपन |
जयंती |
कनक |
वैजयंती |
|||
4 |
स्वतिकदिशा |
अपराजिता |
अरिष्टा |
अपराजिता |
|||
5 |
सुभद्र |
नंदा |
दिक्स्वतिक |
नंदा |
|||
6 |
अंजनमूल |
नंदवती |
नंदन |
नंदोत्तरा |
|||
7 |
अंजन |
नंदोत्तर |
अंजन |
आनंदा |
|||
8 |
वज्र |
नंदिषेणा |
अंजनमूल |
नंदिवर्धना |
|||
दक्षिण |
1 |
स्फटिक |
इच्छा |
जन्म कल्याणक पर दर्पण धारण करना |
अमोघ |
सुस्थिता |
दर्पण धारण करना |
2 |
रजत |
समाहार |
सुप्रबुद्ध |
सुप्रणिधि |
|||
3 |
कुमुद |
सुप्तकीर्णा |
मंदिर |
सुप्रबुद्धा |
|||
4 |
नलिन |
यशोधरा |
विमल |
यशोधरा |
|||
5 |
पद्म |
लक्ष्मी |
रुचक |
लक्ष्मीवती |
|||
6 |
चंद्र |
शेषवती |
रुचकोत्तर |
कीर्तिमती |
|||
7 |
वैश्रवण |
चित्रगुप्ता |
चंद्र |
वसुंधरा |
|||
8 |
वैडूर्य |
वसुंधरा |
सुप्रतिष्ठ |
चित्रा |
|||
पश्चिम |
1 |
अमोघ |
इला |
जन्म कल्याणक पर छत्र धारण करना |
लोहिताक्ष |
इला |
जन्म कल्याणक पर छत्र धारण करना |
2 |
स्वस्तिक |
सुरादेवी |
जगत्कुसुम |
सुरा |
|||
3 |
मंदर |
पृथिवी |
पद्म |
पृथिवी |
|||
4 |
हैमवत् |
पद्मा |
नलिन (पद्म) |
पद्मावती |
|||
5 |
राज्य |
एकनासा |
कुमुद |
कानना (कांचना) |
|||
6 |
राज्योत्तम |
नवमी |
सौमनस |
नवमिका |
|||
7 |
चंद्र |
सीता |
यश |
यशस्वी (शीता) |
|||
8 |
सुदर्शन |
भद्रा |
भद्र |
भद्रा |
|||
उत्तर |
1 |
विजय |
अलंभूषा |
जन्म कल्याणक पर चँवर धारण करना |
स्फटिक |
अलभूषा |
जन्म कल्याणक पर चँवर धारण करना |
2 |
वैजयंत |
मिश्रकेशी |
अंक |
मिश्रकेशी |
|||
3 |
जयंत |
पुंडरीकिणी |
अंजन |
पुंडरीकिणी |
|||
4 |
अपराजित |
वारुणी |
कांचन |
वारुणी |
|||
5 |
कुंडलक |
आशा |
रजत |
आशा |
|||
6 |
रुचक |
सत्या |
कुंडल |
ह्री |
|||
7 |
रत्नकूट |
ह्री |
रुचिर (रुचक) |
श्री |
|||
8 |
सर्वरत्न |
श्री |
सुदर्शन |
धृति |
|||
उपरोक्त की अभ्यंतर दिशाओं में |
1 |
विमल |
कनका |
दिशाएँ निर्मल करना |
× |
× |
|
2 |
नित्यालोक |
शतपदा (शतहृदा) |
|||||
3 |
स्वयंप्रभ |
कनकचित्रा |
|||||
4 |
नित्योद्योत |
सौदामिनी |
|||||
उपरोक्त की अभ्यंतर दिशाओं में |
1 |
रुचक |
रुचककीर्ति |
जातकर्म करना |
|
|
|
2 |
मणि |
रुचककांता |
|||||
3 |
राज्योत्तम |
रुचकप्रभा |
|||||
4 |
वैडूर्य |
रुचका |
दिशा |
सं. |
( तिलोयपण्णत्ति ) |
देवी का काम |
राजवार्तिक ; हरिवंशपुराण |
देवी का काम |
||
कूट |
देवी |
कूट |
देवी |
||||
चारों दिशाओं में |
1 |
नंद्यावर्त |
पद्मोत्तर |
दिग्गजेंद्र |
|
||
|
2 |
स्वस्तिक |
सुभद्र |
सहस्ती |
|
||
|
3 |
श्रीवृक्ष |
नील |
|
|||
|
4 |
वर्धमान |
अंजनगिरि |
|
|||
अभ्यंतर दिशा में 32 देखें पूर्वोक्त दृष्टि सं - 1 में प्रत्येक दिशा के आठ कूट |
|||||||
विदिशा में प्रदक्षिणा रूप से |
1 |
वैडूर्य |
रुचका |
जातकर्म करने वाली महत्त |
|
||
|
2 |
मणिभद्र |
विजया |
रत्न |
विजया |
|
|
|
3 |
रुचक |
रुचकाभा |
|
|||
|
4 |
रत्नप्रभ |
वैजयंती |
|
|||
|
5 |
रत्न |
रुचकांता |
मणिप्रभ |
रुचककांता |
|
|
|
6 |
शंखरत्न |
जयंती |
सर्वरत्न |
जयंती |
|
|
|
7 |
रुचकोत्तम |
रुचकोत्तमा |
रुचकप्रभा |
|
||
|
8 |
रत्नोच्चय |
अपराजिता |
|
|||
उपरोक्त के अभ्यंतर भाग में चारों दिशाओं में |
1 |
विमल |
कनका |
दिशाओं में उद्योत करना |
चित्रा |
|
|
|
2 |
नित्यालोक |
शतपदा (शतह्रदा) |
कनकचित्रा |
|
||
|
3 |
स्वयंप्रभ |
कनकचित्रा |
त्रिशिरा |
|
||
|
4 |
नित्योद्योत |
सौदामिनी |
सूत्रमणि |
|
सं. |
नाम |
प्रमाण |
वर्ण |
|||||
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा.सं. |
राजवार्तिक/3/ सू./वा. /पृ./पंक्ति |
हरिवंशपुराण/5/ श्लो. |
त्रिलोकसार/ गा.सं. |
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ अधि./गा. |
उपमा |
वर्ण |
||
1 |
हिमवान् |
95 |
12/-/184/11 तत्त्वार्थसूत्र/3/12 |
|
566 |
3/3 |
सुवर्ण |
पीत ( राजवार्तिक ) |
2 |
महाहिमवान् |
95 |
12/-/184/11 तत्त्वार्थसूत्र/3/12 |
|
|
3/3 |
चांदी |
शुक्ल ( राजवार्तिक ) |
3 |
निषध |
95 |
12/-/184/11 तत्त्वार्थसूत्र/3/12 |
|
566 |
3/3 |
तपनीय |
तरणादित्य (रक्त) |
4 |
नील |
95 |
12/-/184/11 तत्त्वार्थसूत्र/3/12 |
|
566 |
3/3 |
वैडूर्य |
मयूरग्रीव ( राजवार्तिक ) |
5 |
रुक्मि |
95 |
12/-/184/11 तत्त्वार्थसूत्र/3/12 |
|
566 |
3/3 |
रजत |
शुक्ल |
6 |
शिखरी |
95 |
12/-/184/11 तत्त्वार्थसूत्र/3/12 |
|
566 |
3/3 |
सुवर्ण |
पीत ( राजवार्तिक ) |
7 |
विजयार्ध |
107 |
10/4/171/15 |
21 |
|
2/32 |
रजत |
शुक्ल |
8 |
विजयार्ध के कूट |
|
|
|
670 |
|
सुवर्ण |
पीत |
9 |
सुमेरु— |
—— देखें लोक - 3.6,4 तथा 3/7 —— |
|
पांडुकशिला |
1820 |
10/13/180/18 |
347 |
633 |
4/13 |
अर्जुन सुवर्ण |
श्वेत |
|
पांडुकंबला |
1830 |
10/13/180/18 |
347 |
633 |
4/13 |
रजत |
विद्रुम (श्वेत) |
|
रक्तकंबला |
1834 |
10/13/180/18 |
347 |
633 |
4/13 |
रुधिर |
लाल |
|
अतिरक्त |
1832 |
10/13/180/18 |
347 |
633 |
4/13 |
सुवर्ण तपनीय |
रक्त |
10 |
नाभिगिरि |
|
|
|
719 |
|
दधि |
श्वेत |
|
मतांतर |
|
|
|
|
3/210 |
सुवर्ण |
पीत |
11 |
वृषभगिरि |
2290 |
|
|
710 |
|
सुवर्ण |
पीत |
12 |
गजदंत— |
|
|
|
|
|
|
|
|
सौमनस |
2016 |
10/13/175/11 |
212 |
663 |
|
चाँदी |
स्फटिक राजवार्तिक |
|
विद्युत्प्रभ |
2016 |
10/13/175/17 |
212 |
663 |
|
तपनीय |
रक्त |
|
गंधमादन |
2016 |
10/13/173/19 |
210 |
663 |
|
कनक |
पीत |
|
माल्यवान् |
2016 |
|
211 |
663 |
|
वैडूर्य |
(नीला) |
13 |
कांचन |
|
10/13/175/1 |
202 |
659 |
|
कांचन |
पीत |
14 |
वक्षार |
|
|
|
670 |
|
सुवर्ण |
पीत |
15 |
वृषभगिरि |
2290 |
|
|
710 |
|
सुवर्ण |
पीत |
16 |
गंगाकुंड में— |
|
|
|
|
|
|
|
|
शैल |
221 |
|
|
|
|
वज्र |
श्वेत |
|
गंगाकूट |
223 |
|
|
|
|
सुवर्ण |
पीत |
17 |
पद्मद्रह का कमल– |
|
|
|
|
|
|
|
|
मृणाल |
1667 |
17/-/185/9 |
|
|
|
रजत |
श्वेत |
|
कंद |
1667 |
17/-/185/9 |
|
|
|
अरिष्टमणि |
ब्राउन |
|
नाल |
1667 |
17/-/185/9 |
|
570 |
3/75 |
वैडूर्य |
नील |
|
पत्ते |
|
22/2/188/3 |
|
|
|
लोहिताक्ष |
रक्त |
|
कर्णिका |
|
22/2/188/3 |
|
|
|
अर्कमणि |
केशर |
|
केसर |
|
22/2/188/3 |
|
|
|
तपनीय |
रक्त |
18 |
जंबूवृक्षस्थल— |
|
|
|
|
|
|
|
|
सामान्य स्थल |
2152 |
|
175 |
|
|
सुवर्ण |
पीत |
|
इसकी वापियों के कूट |
|
10/13/174/22 |
|
|
|
अर्जुन |
श्वेत |
|
स्कंध |
2155 |
|
|
|
|
पुखराज |
पीत |
|
पीठ |
2152 |
|
|
|
|
रजत |
श्वेत |
19 |
वेदियाँ— |
|
|
|
|
|
|
|
|
जंबूद्वीप की जगती |
19 |
|
|
|
|
सुवर्ण |
पीत |
|
भद्रशालवन (वेदी) |
2114 |
10/13/178/5 |
|
|
|
सुवर्ण |
पद्मवर ( राजवार्तिक ) |
|
नंदनवन वेदी |
1989 |
10/13/179/9 |
|
|
|
सुवर्ण |
पद्मवर ( राजवार्तिक ) |
|
सौमनसवन (वेदी) |
1938 |
10/13/180/2 |
|
|
|
सुवर्ण |
पद्मवर ( राजवार्तिक ) |
|
पांडुकवन वेदी |
|
10/13/180/12 |
|
|
|
|
पद्मवर ( राजवार्तिक ) |
|
जंबूवृक्ष वेदी |
|
7/1/169/18 |
|
|
|
(जांबूनद सुवर्ण) |
रक्ततायुक्त पीत |
|
जंबूवृक्ष की 12 वेदियाँ |
2151 |
7/1/169/20 तथा 10/13/174/17 |
|
641 |
|
सुवर्ण |
पद्मवर |
|
सर्व वेदियाँ |
|
|
|
671 |
1/52,64 |
सुवर्ण |
पीत |
20 |
नदियों का जल— |
|
|
|
|
|
|
|
|
गंगा-सिंधु |
|
|
|
|
3/169 |
हिम |
श्वेत |
|
रोहित-रोहितास्या |
|
|
|
|
3/169 |
कुंदपुष्प |
श्वेत |
|
हरित-हरिकांता |
|
|
|
|
3/169 |
मृणाल |
हरित |
|
सीता-सीतोदा |
|
|
|
|
3/169 |
शंख |
श्वेत |
21 |
लवणसागर के पर्वत— |
2461 |
|
460 |
908 |
|
रजत |
धवल |
|
पूर्व दिशा वाले |
|
|
|
|
10/30 |
सुवर्ण |
पीत |
|
दक्षिण दिशा वाले |
|
|
|
|
10/31 |
अंकरत्न |
|
|
पश्चिम दिशा वाले |
|
|
|
|
10/32 |
रजत |
श्वेत |
|
उत्तर दिशा वाले |
|
|
|
|
10/33 |
वैडूर्य |
नील |
22 |
इष्वाकार |
|
|
|
925 |
|
सुवर्ण |
पीत |
23 |
मानुषोत्तर |
2751 |
|
595 |
927 |
|
सुवर्ण |
पीत |
24 |
अंजनगिरि |
57 |
|
654 |
968 |
|
इंद्रनीलमणि |
काला |
25 |
दधिमुख |
65 |
|
669 |
968 |
|
दही |
सफेद |
26 |
रतिकर |
67 |
|
673 |
968 |
|
सुवर्ण |
रक्ततायुक्त पीत |
27 |
कुंडलगिरि |
|
|
|
943 |
|
सुवर्ण |
रक्ततायुक्त पीत |
28 |
रुचकवर पर्वत |
141 |
3/35/-199/22 |
|
943 |
|
सुवर्ण |
रक्ततायुक्त पीत |
सं. |
स्थलविशेष |
विस्तारादि में क्या |
प्रमाण योजन |
|
दृष्टि सं.1–( तिलोयपण्णत्ति/4/2400-2407 ); ( राजवार्तिक/3/32/3/193/8 ); ( हरिवंशपुराण/5/434 ); ( त्रिलोकसार/915 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/22 )। |
|
|
1 |
पृथिवीतल पर |
विस्तार |
200,000 |
2 |
किनारों से 95000 योजन भीतर जाने पर तल में |
विस्तार |
10,000 |
3 |
किनारों से 95000 योजन भीतर जाने पर आकाश में |
विस्तार |
10,000 |
4 |
किनारों से 95000 योजन भीतर जाने पर आकाश में |
गहराई |
1000 |
5 |
किनारों से 95000 योजन भीतर जाने पर आकाश में |
ऊँचाई |
700 |
|
दृष्टि सं.2– |
|
|
6 |
लोग्गायणी के अनुसार उपरोक्त प्रकार आकाश में अवस्थित ( तिलोयपण्णत्ति/4/2445 ); ( हरिवंशपुराण/5/434 )। |
ऊँचाई |
11000 |
|
दृष्टि सं.3— |
|
|
7 |
सग्गायणी के अनुसार उपरोक्त प्रकार आकाश में अवस्थित ( तिलोयपण्णत्ति/4/2448 )। |
ऊँचाई |
10,000 |
8 |
तीनों दृष्टियों से उपरोक्त प्रकार आकाश में पूर्णिमा के दिन |
ऊँचाई |
देखें लोक - 4.1 |
पाताल विशेष |
विस्तार योजन |
गहराई |
दीवारों की मोटाई |
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. |
राजवार्तिक/ 3/32/ 4/133/ पृ. |
हरिवंशपुराण/5/ गा. |
त्रिलोकसार/ गा. |
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/ गा. |
||
मूल में |
मध्य में |
ऊपर |
||||||||
ज्येष्ठ |
10,000 |
100,000 |
10,000 |
100,000 |
500 |
2412 |
14 |
444 |
816 |
5 |
मध्यम |
1000 |
10,000 |
1000 |
10,000 |
50 |
2414 |
26 |
451 |
816 |
13 |
जघन्य |
100 |
1000 |
100 |
1000 |
5 |
2433 |
31 |
456 |
816 |
12 |
नाम |
विस्तार (योजन) |
जीवा |
पार्श्व भुजा (योजन) |
प्रमाण |
||||
दक्षिण |
उत्तर (योजन) |
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा.नं. |
हरिवंशपुराण/5/ गा. |
त्रिलोकसार/ गा. |
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ अ./गा. |
|||
भरत सामान्य |
526 |
अपने अपने पर्वतों को उत्तर जीवा |
14471 |
धनुष पृष्ठ |
105+192 |
18+40 |
604+771 |
2/10 |
दक्षिण भरत |
238 |
9748 |
धनुष पृष्ठ |
184 |
|
|
|
|
उत्तर भरत |
238 |
14471 |
1812 |
191 |
|
|
|
|
हैमवत् |
2105 |
37674 |
6755 |
1698 |
57 |
773 |
|
|
हरिवर्ष |
8421 |
7390 |
13361 |
1739 |
74 |
775 |
3/228 |
|
विदेह |
33684 |
मध्य में 100,000 उत्तर व दक्षिण में पर्वतों की जीवा |
33767 |
1775 |
91 |
605+777 |
7/3 |
|
रम्यक |
— |
हरिवर्षकवत् |
— |
2335 |
97 |
778 |
2/208 |
|
हैरण्यवत् |
— |
हैमवतवत् |
— |
2350 |
97 |
778 |
2/208 |
|
ऐरावत |
— |
भरतवत् |
— |
2365 |
97 |
778 |
2/208 |
|
देवकुरु व उत्तर कुरु– |
|
|
|
|
|
|
|
|
दृष्टि सं.1 |
11592 |
53000 |
60418 |
2140 |
|
|
|
|
दृष्टि सं.2 |
11592 |
52000 |
60418 |
2129 |
|
|
|
|
दृष्टि सं.3 |
11842 |
53000 |
60418 |
× |
168 |
× |
6/2 |
|
—— ( राजवार्तिक/3/10/13/174/3 ) —— |
||||||||
32 विदेह |
पूर्वापर 2212 |
दक्षिण-उत्तर 16592 |
|
2271+2231 |
1 253 |
605 |
7/11+20 |
|
—— ( राजवार्तिक/3/10/13/176/18 ) —— |
नाम |
लंबाई |
विस्तार |
प्रमाण |
||||
अभ्यंतर (योजन) |
मध्यम (योजन) |
बाह्य (योजन) |
|||||
भरत |
द्वीप के विस्तारवत् |
6614 |
12581 |
18547 |
( तिलोयपण्णत्ति/4/2564-2572 ); ( राजवार्तिक/3/33/2-7/192/2 ); (हरिवंशपुराण/5/502-504) ; ( त्रिलोकसार 929 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/6-17 ) |
||
हैमवत |
26458 |
50324 |
74190 |
||||
हरिवर्ष |
105833 |
2012298 |
296763 |
||||
विदेह |
423334 |
805194 |
1187054 |
||||
रम्यक |
— |
हरिवर्षवत् |
— |
||||
हैरण्यवत् |
— |
हैमवतवत् |
— |
||||
ऐरावत |
— |
भरतवत् |
— |
||||
नाम |
|
बाण |
जीवा |
धनुषपृष्ठ |
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. |
हरिवंशपुराण/5/ श्लो. |
|
दोनों कुरु |
|
366680 |
223158 |
925486 |
2593 |
535 |
नाम |
पूर्व पश्चिम विस्तार |
दक्षिण-उत्तर लंबाई (योजन) |
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. |
||
आदि |
मध्यम |
अंतिम |
|||
दोनों बाह्य विदेह के क्षेत्र—( तिलोयपण्णत्ति/4/ गा.सं.); ( हरिवंशपुराण/5/548-549 ); ( त्रिलोकसार/931-933 ) |
|||||
कच्छा-गंधमालिनी |
प्रत्येक क्षेत्र=973 यो. = ( तिलोयपण्णत्ति/4/2607 ) |
509570 |
514154 |
518738 |
2622 |
सुकच्छा-गंधिला |
519693 |
524277 |
528861 |
2634 |
|
महाकच्छा-सुगंधा |
529100 |
533684 |
538268 |
2638 |
|
कच्छकावती-गंधा |
539222 |
543806 |
548390 |
2642 |
|
आवर्ता-वप्रकावती |
548629 |
553213 |
557797 |
2646 |
|
लांगलावती-महावप्रा |
558751 |
563335 |
567919 |
2650 |
|
पुष्कला-सुवप्रा |
568158 |
572742 |
577326 |
2656 |
|
वप्रा-पुष्कलावती |
578280 |
582864 |
587448 |
2658 |
|
दोनों अभ्यंतर विदेहों के क्षेत्र——( तिलोयपण्णत्ति/4/ गा.सं.); ( हरिवंशपुराण/5/555 ); ( त्रिलोकसार/931-933 ) |
|||||
पद्मा-मंगलावती |
प्रत्येक क्षेत्र = 693 ( तिलोयपण्णत्ति/4/2607 ) |
294623 |
290039 |
285455 |
2670 |
सुपद्मा-रमणीया |
284501 |
279917 |
275333 |
2674 |
|
महापद्मा-सुरम्या |
275094 |
270510 |
265926 |
2678 |
|
पद्मकावती-रम्या |
264972 |
260388 |
255804 |
2682 |
|
शंखा-वत्सकावती |
255565 |
250981 |
246397 |
2686 |
|
नलिना-महावत्सा |
245443 |
240859 |
236275 |
2690 |
|
कुमुदा-महावत्सा |
236036 |
231452 |
226868 |
2694 |
|
सरिता-वत्सा |
225914 |
221330 |
216746 |
2698 |
नाम |
लंबाई |
विस्तार |
प्रमाण |
|||||
अभ्यंतर (योजन) |
मध्यम (योजन) |
बाह्य (योजन) |
||||||
भरत |
द्वीप के विस्तारवत् |
( तिलोयपण्णत्ति/4/2805-2817 ); ( राजवार्तिक/3/34/2-5/196/19 ); ( हरिवंशपुराण/5/580-584 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/67-72 ) |
||||||
हैमवत |
||||||||
हरि |
||||||||
विदेह |
||||||||
रम्यक |
||||||||
हैरण्यवत् |
||||||||
ऐरावत |
||||||||
नाम |
|
बाण |
जीवा |
धनुषपृष्ठ |
प्रमाण |
|||
दोनो कुरु |
|
1486931 |
436916 |
3668335 |
उपरोक्त |
|||
नाम |
पूर्व पश्चिम विस्तार |
दक्षिण उत्तर लंबाई |
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. |
|||||
आदिम |
मध्यम |
अंतिम |
||||||
दोनों बाह्य विदेहों के क्षेत्र—( तिलोयपण्णत्ति/4/ गा.नं.); ( त्रिलोकसार/931-933 ) |
||||||||
कच्छा-गंधमालिनी |
|
2837 |
||||||
सुकच्छा-गंधिला |
|
2848 |
||||||
महाकच्छा-सुगंधा |
|
1971502 |
2852 |
|||||
कच्छकावती-गंधा |
|
2856 |
||||||
आवर्ता-वप्रकावती |
|
2860 |
||||||
लांगलावती-महावप्रा |
|
2864 |
||||||
पुष्कला-सुवप्रा |
|
2868 |
||||||
वप्रा-पुष्कलावती |
|
2872 |
||||||
दोनों अभ्यंतर विदेहों के क्षेत्र—( तिलोयपण्णत्ति/4/ गा.); ( त्रिलोकसार/931-933 ) |
||||||||
पद्मा-मंगलावती |
|
2880 |
||||||
सुपद्मा-रमणीया |
|
2884 |
||||||
महापद्मा-सुरम्या |
|
2888 |
||||||
रम्या-पद्मकावती |
|
2892 |
||||||
शंखा-वप्रकावती |
|
2896 |
||||||
महावप्रा-नलिना |
|
2900 |
||||||
कुमुदा-सुवप्रा |
|
2904 |
||||||
सरिता-वप्रा |
|
2908 |
नाम |
ऊँचाई |
नींव योजन |
विस्तार योजन |
दक्षिण जीवा यो. |
उत्तर जीवा योजन |
पार्श्व भुजा योजन |
प्रमाण |
||||
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. |
राजवार्तिक/3/-/-/-/ |
हरिवंशपुराण/5/ गा. |
त्रिलोकसार/ गा. |
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ अ/गा. |
|||||||
कुलाचल– |
नाम |
ऊँचाई योजन |
गहराई |
विस्तार योजन |
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. |
राजवार्तिक/3/10 वा./पृ./पं. |
हरिवंशपुराण/5/ गा. |
त्रिलोकसार/ गा. |
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ अ./गा. |
||
मूल में |
मध्य में |
ऊपर |
||||||||
वृषभगिरि |
100 |
|
100 |
75 |
50 |
270 |
|
|
710 |
|
नाभिगिरि— |
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
दृष्टि सं.1 |
1000 |
|
1000 |
1000 |
1000 |
1704 |
7/182/12 |
|
718 |
3/210 |
दृष्टि सं.2 |
1000 |
|
1000 |
750 |
500 |
1706 |
|
|
|
|
सुमेरु— |
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
पर्वत |
99000 |
1000 |
10,000 |
देखें लोक - 3.6.1 |
1000 |
1781 |
7/177/32 |
283 |
606 |
4/22 |
चूलिका |
40 |
× |
12 |
8 |
4 |
1795 |
7/180/14 |
302 |
620 |
4/132 |
यमक— |
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
दृष्टि सं.1 |
2000 |
|
1000 |
750 |
500 |
2077 |
|
|
|
|
दृष्टि सं.2 |
1000 |
|
1000 |
750 |
500 |
|
7/174/26 |
193 |
655 |
6/16 |
कांचनगिरि |
100 |
|
100 |
75 |
50 |
2094 |
7/175/1 |
|
659 |
6/45 |
दिग्गजेंद्र |
100 |
|
100 |
75 |
50 |
2104, 2113 |
|
|
661 |
4/76 |
अवस्थान |
ऊँचाई योजन |
विस्तार योजन |
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. |
राजवार्तिक/3/ सू. वा./पृ./प. |
हरिवंशपुराण/5/ गा. |
त्रिलोकसार/ गा. |
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ अ. /गा. |
|||
मूल में |
मध्य में |
ऊपर |
||||||||
भरत विजयार्ध |
6 |
6 |
|
|
149 |
|
28 |
723 |
3/46 |
|
ऐरावत विजयार्ध |
— |
भरत विजयार्धवत् |
— |
|
|
112 |
723 |
3/46 |
||
हिमवान् |
25 |
25 |
18 |
12 |
1633 |
|
55 |
723 |
3/46 |
|
महाहिमवान् |
— |
हिमवान् से दुगुना |
— |
1725 |
|
72 |
723 |
3/46 |
||
निषध |
— |
हिमवान् से चौगुना |
— |
1759 |
|
90 |
723 |
3/46 |
||
नील |
— |
निषधवत् |
— |
2327 |
|
101 |
723 |
3/46 |
||
रुक्मि |
— |
महाहिमवान्वत् |
— |
2340 |
|
104 |
723 |
3/46 |
||
शिखरी |
— |
हिमवान्वत् |
— |
2355 |
|
105 |
723 |
3/46 |
||
हिमवान् का सिद्धायतन |
500 |
500 |
375 |
250 |
|
11/2/182/16 |
|
× |
× |
|
शेष पर्वत |
— |
हिमवान् के समान |
— |
|
|
|
|
|
||
( राजवार्तिक/3/11/4/183/5;6/183/18;8/183/25;10/183/32;12/184/5 ) |
||||||||||
चारों गजदंत |
पर्वत से चौथाई |
उपरोक्त नियमानुसार जानना |
2032, 2048, 2058, 2060 |
10/13/173/23 |
224 |
276 |
|
|||
पद्मद्रह |
— |
हिमवान् पर्वतवत् |
— |
|
|
|
|
|
||
अन्यद्रह |
— |
अपने-अपने पर्वतोंवत् |
— |
|
|
|
|
|
||
भद्रशालवन |
— |
(देखें लोक - 3.1215 |
— |
|
|
|
|
|
||
नंदनवन |
500 |
500 |
375 |
250 |
1997 |
|
331 |
626 |
|
|
सौमनसवन |
250 |
250 |
187 |
125 |
1971 |
|
|
|
|
|
नंदनवन का बलभद्रकूट |
— |
(देखें लोक - 2.6,2) |
— |
1997 |
|
|
|
|
||
सौमनसवन का बलभद्र कूट |
— |
(देखें लोक - 3.6,3) |
— |
|
|
|
|
|
||
दृष्टि सं.1 |
100 |
100 |
75 |
50 |
1978 |
|
|
|
|
|
दृष्टि सं.2 |
1000 |
1000 |
750 |
500 |
1980 |
(10/13/179/16) |
|
|
|
अवस्थान |
ऊँचाई |
गहराई |
विस्तार |
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. |
राजवार्तिक/3/22/ वा./पृ./पं. |
हरिवंशपुराण/5/ गा. |
त्रिलोकसार/ गा. |
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ अ./गा. |
||||
नदी कुंडों के द्वीप– |
|
|
|
|
|
|
|
|
||||
गंगाकुंड |
2 कोस |
10 योजन |
8 योजन |
221 |
1/187/26 |
143 |
587 |
3/165 |
||||
सिंधुकुंड |
— |
गंगावत् |
— |
|
2/187/32 |
|
|
|
||||
शेष कुंडयुगल |
2 कोस |
10 योजन |
उत्तरोत्तर दूना |
|
3-14/188-189 |
|
|
|
||||
विस्तार |
||||||||||||
मूल |
मध्य |
ऊपर |
||||||||||
गंगा कुंड |
10 योजन |
4 यो. |
2 यो. |
1 यो. |
222 |
|
144 |
|
3/165 |
|||
|
|
लंबाई |
चौड़ाई |
|
|
|
|
|
||||
पांडुकशिला– |
|
|
|
|
|
|
|
|
||||
दृष्टि सं.1 |
8 योजन |
100 योजन |
50 योजन |
1819 |
|
349 |
635 |
|
||||
दृष्टि सं.2 |
4 योजन |
500 योजन |
250 योजन |
1821 |
180/20 |
|
|
4/142 |
||||
|
|
विस्तार |
|
|
|
|
|
|||||
|
|
मूल |
मध्य |
ऊपर |
|
|
|
|
|
|||
पांडुक शिला के सिंहासन व आसन |
500 धनुष |
500 ध. |
275 ध. |
250 ध. |
|
|
|
|
|
अवस्थान |
ऊँचाई |
गहराई |
विस्तार |
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. |
राजवार्तिक/3/ सू./ वा./पृ./पं. |
हरिवंशपुराण/5/ गा. |
त्रिलोकसार/ गा. |
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ अ./गा. |
|||
सामान्य |
1/2 योजन |
ऊँचाई से चौथाई |
500 धनुष |
2390 |
|
119 |
|
1/69 |
|||
भूतारण्यक |
1 योजन |
ऊँचाई से चौथाई |
1000 धनुष |
2391 |
|
|
|
|
|||
देवारण्यक |
1 योजन |
ऊँचाई से चौथाई |
1000 धनुष |
|
|
|
|
|
|||
हिमवान् |
— |
सामान्य वेदीवत् — |
1629 |
|
|
|
|
||||
पद्मद्रह |
— |
सामान्य वेदीवत् — |
|
15/-/185/1 |
|
|
|
||||
शाल्मली वृक्षस्थल |
— |
सामान्य वेदीवत् — |
2168 |
|
|
|
|
||||
गजदंत |
— |
भूतारण्यक वत् — |
2100,2128 |
|
|
|
|
||||
भद्रशालवन |
— |
भूतारण्यक वत् — |
2006 |
|
|
|
|
||||
धातकीखंड की सर्व |
— |
उपरोक्त वत् — |
|
|
511 |
|
|
||||
पुष्करार्ध की सर्व |
— |
उपरोक्त वत् — |
|
|
|
|
|
||||
इष्वाकार |
— |
सामान्य वत् — |
2535 |
|
|
|
|
||||
मानुषोत्तर की– |
|
|
|
|
|
|
|
||||
तट वेदी |
— |
सामान्य वत् 1 को. — |
2754 |
|
|
|
|
||||
शिखर वेदी |
4000 |
|
|
|
|
|
|
||||
जंबूद्वीप की जगती |
|
गहराई |
विस्तार |
|
|
|
|
|
|||
|
|
1/2यो. |
मूल |
मध्य |
ऊपर |
|
|
|
|
|
|
|
8 योजन |
12यो. |
8 यो. |
4 यो. |
15-27 |
9/1/370/26 |
378 |
885 |
1/26 |
||
|
|
प्रवेश |
आयाम |
|
|
|
|
|
|||
जगती के द्वार— |
|
|
|
|
|
|
|
|
|||
दृष्टि सं.1 |
8 योजन |
4 योजन |
4 योजन |
43 |
|
|
|
|
|||
दृष्टि सं.2 |
750 योजन |
× |
500 योजन |
73 |
|
|
|
|
|||
लवणसागर |
— |
जंबूद्वीप की जगती वत् — |
|
|
|
|
|
नाम |
ऊँचाई |
गहराई |
विस्तार |
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. |
राजवार्तिक/3/33/ वा./पृ./पं. |
हरिवंशपुराण/5/ गा. |
त्रिलोकसार/ गा. |
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ अ./गा. |
||||
पर्वतों के विस्तार व ऊँचाई संबंधी सामान्य नियम— |
||||||||||||
कुलाचल |
जंबूद्वीपवत् |
स्वदीपवत् |
जंबूद्वीप से दूना |
2544-2546 |
5/195/20 |
497,509 |
|
|
||||
विजयार्ध |
जंबूद्वीपवत् |
निम्नोक्त |
जंबूद्वीप से दूना |
2544-2546 |
5/195/20 |
497,509 |
|
|
||||
वक्षार |
जंबूद्वीपवत् |
निम्नोक्त |
जंबूद्वीप से दूना |
2544-2546 |
5/195/20 |
497,509 |
|
|
||||
गजदंत दृष्टि सं.1 |
जंबूद्वीपवत् |
निम्नोक्त |
जंबूद्वीप से दूना |
2544-2546 |
5/195/20 |
497,509 |
|
|
||||
दृष्टि सं.2 |
— |
जंबूद्वीपवत् |
— |
2547 |
|
|
|
|
||||
उपरोक्त सर्व पर्वत- |
— |
जंबूद्वीप से दूना |
— |
|
|
|
|
|
||||
वृषभगिरि |
— |
जंबूद्वीपवत् |
— |
|
|
511 |
|
|
||||
यमक |
— |
जंबूद्वीपवत् |
— |
|
|
511 |
|
|
||||
कांचन |
— |
जंबूद्वीपवत् |
— |
|
|
511 |
|
|
||||
दिग्गजेंद्र |
— |
जंबूद्वीपवत् |
— |
|
|
511 |
|
|
||||
|
|
विस्तार |
|
|
|
|
|
|||||
दक्षिण उत्तर |
पूर्व पश्चिम |
|||||||||||
इष्वाकार |
400 योजन |
स्वद्वीपवत् |
1000 योजन |
2533 |
6/195/26 |
495 |
925 |
11/4 |
||||
विजयार्ध |
जंबूद्वीपवत् |
जंबूद्वीप से दूना |
स्वक्षेत्रवत् |
2607 + उपरोक्त सामान्य नियमवत् |
|
|
||||||
वक्षार |
जंबूद्वीपवत् |
निम्नोक्त |
जंबूद्वीप से दूना |
408 + उपरोक्त सामान्य नियमवत् |
|
|
||||||
गजदंत— |
|
|
|
|
|
|
|
|
||||
अभ्यंतर |
जंबूद्वीपवत् |
256227 |
जंबूद्वीप से दूना |
2591 |
|
533 |
756 |
|
||||
बाह्य |
जंबूद्वीपवत् |
569257 |
जंबूद्वीप से दूना |
2592 |
|
534 |
756 |
|
||||
|
|
गहराई |
विस्तार |
|
|
|
|
|
||||
सुमेरु पर्वत— |
|
1000 |
मूल |
मध्य |
ऊपर |
|
|
|
|
|
||
पृथिवी पर |
84000 |
94000 |
देखें लोक - 3.6/3 |
1000 |
2577 |
6/195/28 |
513 |
|
11/18 |
|||
पाताल में |
दृष्टि सं.1 की अपेक्षा विस्तार = 10,000 |
2577 |
|
513 |
|
|
||||||
चूलिका |
— जंबूद्वीप के मेरुवत् — |
|
|
|
|
|
नाम |
ऊँचाई व चौड़ाई |
दक्षिण उत्तर विस्तार |
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. |
|
||
आदिम |
मध्यम |
अंतिम |
||||
दोनों बाह्य विदेहों के वक्षार— |
देखें पूर्वोक्त सामान्य नियम |
|
|
|
|
त्रिलोकसार/931-933 |
चित्र व देवमाल कूट |
518738 |
519216 |
519693 |
2632 |
||
नलिन व नागकूट |
538268 |
538745 |
539222 |
2640 |
||
पद्म व सूर्यकूट |
557797 |
558274 |
558751 |
2648 |
||
एकशैल व चंद्रनाग |
577326 |
577803 |
578280 |
2656 |
||
दोनों अभ्यंतर विदेहों के वक्षार |
|
|
|
|
||
श्रद्धावान् व आत्मांजन |
285455 |
284978 |
284501 |
2672 |
||
अंजन व विजयवान् |
265926 |
265449 |
264972 |
2680 |
||
आशीविष व वैश्रवण |
246397 |
245920 |
245443 |
2688 |
||
सुखावह व त्रिकूट |
226868 |
226391 |
225914 |
2696 |
नाम |
ऊँचाई यो. |
लंबाई यो. |
विस्तार यो. |
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. |
राजवार्तिक/3/34/ वा./पृ./पं. |
हरिवंशपुराण/5/ गा. |
त्रिलोकसार/ गा. |
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ अ./गा. |
||||||||
पर्वतों के विस्तार व ऊँचाई संबंधी सामान्य नियम |
||||||||||||||||
कुलाचल |
जंबूद्वीपवत् |
स्वद्वीप प्रमाण |
जंबूद्वीप से चौगुना |
2789-2790 |
5/197/2 |
588-589 |
|
|
||||||||
विजयार्ध |
जंबूद्वीपवत् |
निम्नोक्त |
जंबूद्वीप से चौगुना |
2789 |
|
588 |
|
|
||||||||
वक्षार |
जंबूद्वीपवत् |
निम्नोक्त |
जंबूद्वीप से चौगुना |
2789 |
|
588 |
|
|
||||||||
गजदंत |
जंबूद्वीपवत् |
निम्नोक्त |
जंबूद्वीप से चौगुना |
2789 |
|
588 |
|
|
||||||||
नाभिगिरि |
जंबूद्वीपवत् |
निम्नोक्त |
जंबूद्वीप से चौगुना |
2789 |
|
588 |
|
|
||||||||
उपरोक्त सर्वपर्वत |
|
|
|
|
|
|
|
|
||||||||
दृष्टि सं.2 |
— |
जंबूद्वीपवत् |
— |
2791 |
|
|
|
|
||||||||
वृषभगिरि |
— |
जंबूद्वीपवत् |
— |
|
|
|
|
|
||||||||
यमक |
— |
जंबूद्वीपवत् |
— |
|
|
|
|
|
||||||||
कांचन |
— |
जंबूद्वीपवत् |
— |
|
|
|
|
|
||||||||
दिग्गजेंद्र |
— |
जंबूद्वीपवत् — |
|
|
|
|
|
|||||||||
मेरु व इष्वाकार |
— |
धातकीवत् — |
|
|
|
|
|
|||||||||
विस्तार |
||||||||||||||||
दक्षिण उत्तर यो. |
पूर्व पश्चिम यो. |
|||||||||||||||
विजयार्ध |
उपरोक्त |
उपरोक्त नियम |
स्वक्षेत्र वत् |
2826 |
+ उपरोक्त सामान्य नियम |
|
||||||||||
वक्षार |
जंबूद्वीपवत् |
निम्नोक्त |
जंबूद्वीप से चौगुना |
2827 |
+ उपरोक्त सामान्य नियम |
|
||||||||||
गजदंत— |
|
|
|
|
|
|
|
|
||||||||
अभ्यंतर |
जंबूद्वीपवत् |
1626116 |
जंबूद्वीप से चौगुना |
2813 |
|
|
257 |
|
||||||||
बाह्य |
जंबूद्वीपवत् |
2042219 |
जंबूद्वीप से चौगुना |
2814 |
|
|
257 |
|
||||||||
|
|
विस्तार |
|
|
|
|
|
|||||||||
|
|
गहराई |
मूल |
मध्य |
ऊपर |
|
|
|
|
|
||||||
मानुषोत्तरपर्वत |
1721 |
चौथाई |
1022 |
723 |
424 |
2749 |
6/197/8 |
591 |
9340+942 |
11/59 |
||||||
मानुषोत्तर के कूट– |
लोक/6/4/3 में कथित नियमानुसार |
|
|
|
|
|
||||||||||
दृष्टि सं.1 |
430 |
|
430 |
|
215 |
|
|
|
|
|
||||||
दृष्टि सं.2 |
500 |
|
500 |
375 |
250 |
|
6/197/16 |
600 |
|
|
नाम |
ऊँचाई व चौड़ाई |
विस्तार |
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. |
|
|||||
आदिम |
मध्यम |
अंतिम |
|||||||
दोनों बाह्य विदेहों के वक्षार— |
|||||||||
चित्रकूट व देवमाल |
देखें पूर्वोक्त सामान्य नियम |
1940770 |
1941725 |
1942679 |
2846 |
त्रिलोकसार/931-933 |
|||
पद्म व वैडूर्य कूट |
1980950 |
1981904 |
1982859 |
2854 |
|||||
नलिन व नागकूट |
2021129 |
2022084 |
2023038 |
2862 |
|||||
एक शैल व चंद्रनाग |
2061309 |
2062263 |
2063218 |
2870 |
|||||
दोनों अभ्यंतर विदेहों के वक्षार— |
|||||||||
श्रद्धावान् व आत्मांजन |
देखें पूर्वोक्त सामान्य नियम |
1482057 |
1481102 |
1480148 |
2882 |
त्रिलोकसार/931-933 |
|||
अंजन व विजयावान |
1441877 |
1440923 |
1439968 |
2890 |
|||||
आशीर्विष व वैश्रवण |
1401698 |
1400743 |
1399789 |
2898 |
|||||
सुखावह व त्रिकूट |
1361519 |
1360564 |
1359609 |
2906 |
नाम |
ऊँचाई यो. |
गहराई यो. |
विस्तार |
तिलोयपण्णत्ति/5/ गा. |
राजवार्तिक/3/35/ -/ पृ./पं. |
हरिवंशपुराण/5/ गा. |
त्रिलोकसार/ गा. |
||
मूल |
मध्य |
ऊपर |
|||||||
अंजनगिरि |
84000 |
1000 |
84000 |
84000 |
84000 |
58 |
198/8 |
652 |
968 |
दधिमुख |
10,000 |
1000 |
10,000 |
10,000 |
10,000 |
65 |
198/25 |
670 |
968 |
रतिकर |
1000 |
250 |
1000 |
1000 |
1000 |
68 |
198/31 |
674 |
968 |
नाम |
ऊँचाई यो. |
गहराई यो. |
विस्तार |
तिलोयपण्णत्ति/5/ गा. |
राजवार्तिक/3/35/ -/ पृ./पं. |
हरिवंशपुराण/5/ गा. |
त्रिलोकसार/ गा. |
||
मूल |
मध्य |
ऊपर |
|||||||
पर्वत— |
|
|
|
|
|
|
|
|
|
दृष्टि सं.1 |
75000 |
1000 |
10220 |
7230 |
4240 |
118 |
199/8 |
687 |
943 |
दृष्टि सं.2 |
42000 |
1000 |
— |
मानुषोत्तरवत् |
— |
130 |
|
|
|
इसके कूट |
— |
मानुषोत्तर के दृष्टि सं. 2 वत् |
— |
124,131 |
199/12 |
|
960 |
||
द्वीप के स्वामी |
— |
सर्वत्र उपरोक्त से दूने |
— |
137 |
|
697 |
|
||
देवों के कूट |
|
|
|
|
|
|
|
|
|
नाम |
ऊँचाई यो. |
गहराई यो. |
विस्तार |
तिलोयपण्णत्ति/5/ गा. |
राजवार्तिक/3/35/ -/ पृ./पं. |
हरिवंशपुराण/5/ गा. |
त्रिलोकसार/ गा. |
||
मूल |
मध्य |
ऊपर |
|||||||
पर्वत— |
|
|
|
|
|
|
|
|
|
दृष्टि सं.1 |
84000 |
1000 |
84000 |
84000 |
84000 |
142 |
|
|
943 |
दृष्टि सं.2 |
84000 |
1000 |
42000 |
42000 |
42000 |
|
199/23 |
700 |
|
इसके कूट— |
|
|
|
|
|
|
|
|
|
दृष्टि सं.1 |
— |
मानुषोत्तर की दृष्टि सं.2 वत् |
— |
146 |
|
|
960 |
||
दृष्टि सं.2 |
500 |
|
1000 |
750 |
500 |
146,171 |
200/20 |
701 |
|
32 कूट |
500 |
|
1000 |
1000 |
1000 |
|
199/25 |
|
|
नाम |
ऊँचाई यो. |
गहराई यो. |
विस्तार |
तिलोयपण्णत्ति/5/ गा. |
राजवार्तिक/3/35/ -/ पृ./पं. |
हरिवंशपुराण/5/ गा. |
त्रिलोकसार/ गा. |
||
मूल |
मध्य |
ऊपर |
|||||||
पर्वत— |
|
1000 |
|
|
|
239 |
|
|
|
नाम |
विस्तार |
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. |
राजवार्तिक/3/18/13/ पृ. |
हरिवंशपुराण/5/ गा. |
त्रिलोकसार/ गा. |
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ अ./गा. |
|
जंबूद्वीप जगती के अभ्यंतर भाग में |
2 को. |
87 |
|
|
|
|
|
विजयार्ध के दोनों पार्श्वों में |
2 को. |
171 |
|
|
|
|
|
हिमवान् के दोनों पार्श्वों में |
2 को. |
1630 |
|
115 |
730 |
|
|
नाम |
विस्तार |
|
|
|
|
|
|
पूर्वापर |
उत्तर दक्षिण |
||||||
देवारण्यक |
2922 यो. |
16592 यो. |
2220 |
177/2 |
282 |
|
7/15 |
भूतारण्यक |
— देवारण्यकवत् — |
|
|
|
|
|
नाम |
विस्तार |
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. |
राजवार्तिक/3/10/13/ पृ./पं. |
हरिवंशपुराण/5/ गा. |
त्रिलोकसार/ गा. |
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ अ./गा. |
||
मेरु के पूर्व या पश्चिम में |
मेरु के उत्तर या दक्षिण में |
उत्तर दक्षिण कुल विस्तार |
||||||
भद्रशाल |
22000 यो. |
250 यो. |
यो.विदेहक्षेत्रवत् |
2002 |
178/3 |
237 |
610+612 |
4/43 |
वलय व्यास |
बाह्य व्यास |
अभ्यंतर व्यास |
||||||
नंदनवन |
500 यो. |
9954 यो. |
8954 यो. |
1189 |
179/7 |
290 |
610 |
4/82 |
सौमनसवन |
500 यो. |
4272 यो. |
3272 यो. |
1938+1986 |
180/1 |
296 |
610 |
4/127 |
पांडुकवन |
494 यो. |
1000 यो. |
|
1810+1814 |
180/12 |
300 |
610 |
4/131 |
नाम |
पूर्वापर विस्तार यो. |
उत्तर दक्षिण विस्तार |
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. |
राजवार्तिक/3/33/ 6/ पृ./पं. |
हरिवंशपुराण/5/ गा. |
||
आदिम यो. |
मध्यम यो. |
अंतिम यो. |
|||||
बाह्य |
5844 |
587448 |
590238 |
593027 |
2609+2660 |
|
|
अभ्यंतर |
5844 |
216746 |
213956 |
211167 |
2609+2700 |
|
|
मेरु से पूर्व या पश्चिम |
मेरु के उत्तर या दक्षिण में |
उत्तर दक्षिण कुल विस्तार |
|||||
|
107879 |
नष्ट |
1225 |
|
2528 |
|
531 |
वलयव्यास |
बाह्यव्यास |
अभ्यंतरव्यास |
|||||
नंदन |
500 |
9350 |
8350 |
|
|
195/31 |
520 |
सौमनस |
500 |
3800 |
2800 |
|
|
196/1 |
524 |
पांडुक |
494 |
1000 |
12 चूलिका |
|
|
|
527 |
नाम |
पूर्वापर विस्तार |
उत्तर दक्षिण विस्तार |
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. |
||
आदिम |
मध्यम |
अंतिम |
|||
देवारण्यक— |
|
|
|
|
|
बाह्य |
11688 |
2082114 |
2087693 |
2093272 |
2828+2874 |
अभ्यंतर |
11688 |
1340713 |
1335134 |
1329555 |
2828+2910 |
मेरु से पूर्व या पश्चिम |
मेरु के उत्तर या दक्षिण में |
उत्तर दक्षिण कुल विस्तार |
|
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. |
|
भद्रशाल |
215758 |
नष्ट |
2451 |
|
2821 |
नंदन आदि वन |
— |
धातकीखंडवत् |
— |
(देखें लोक - 4.4,4) |
|
नाम |
स्थल विशेष |
चौड़ाई |
गहराई |
ऊँचाई |
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. |
राजवार्तिक/3/22- वा./पृ./पं. |
हरिवंशपुराण/5/ गा. |
त्रिलोकसार/ गा. |
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ अ./गा. |
|||
नदियों के विस्तार व गहराई आदि संबंधी सामान्य नियम–भरत व ऐरावत क्षेत्र की नदियों का विस्तार प्रारंभ 6 यो. और अंत में उससे दसगुणा होता है। आगे-आगे के क्षेत्रों में विदेह पर्यंत वह प्रमाण दुगुना-दुगुना होता गया है। ( त्रिलोकसार/600 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/194 )। नदियों का विस्तार उनकी गहराई से 50 गुना होता है। ( हरिवंशपुराण/5/507 )। |
||||||||||||
वृषभाकार प्रणाली— |
||||||||||||
गंगा-सिंधु |
हिमवान् |
6 यो. |
2 को.प्रवेश |
2 को.प्रवेश |
214 |
|
140 |
584 |
3/150 |
|||
आगे के नदी युगल |
विदेह तक उत्तरोत्तर दुगुने |
|
|
|
151 |
599 |
3/152 |
|||||
|
ऐरावत तक उत्तरोत्तर आधे |
|
|
|
159 |
599 |
3/153 |
|||||
गंगा— |
उद्गम |
6 यो. |
1/2 को. |
|
197 |
|
136 |
600 |
3/194 |
|||
|
पर्वत से गिरने वाली धार |
|
|
पर्वत की ऊँचाई |
213 |
|
|
586 |
|
|||
|
दृष्टि सं.1 |
10 |
|
पर्वत की ऊँचाई |
|
|
|
|
|
|||
|
दृष्टि सं.2 |
25 |
|
पर्वत की ऊँचाई |
217 |
|
|
|
3/168 |
|||
|
गुफा द्वार पर |
8 यो. |
|
|
236 |
|
148 |
|
7/93 |
|||
|
समुद्र प्रवेश पर |
62 यो |
|
5 को. |
246 |
1/187/29 |
149 |
600 |
3/177 |
|||
सिंधु |
— गंगानदीवत् — |
252 |
2/187/32 |
151 |
600 |
3/194 |
||||||
रोहितास्या |
— गंगा से दूना — |
1696 |
3/188/9 |
151 |
599 |
3/180 |
||||||
रोहित |
— रोहितास्यावत् — |
1737 |
4/188/17 |
151 |
599 |
3/180 |
||||||
हरिकांता |
— रोहित से दुगुना — |
1748 |
5/188/21 |
151 |
599 |
3/181 |
||||||
हरित |
— हरिकांतावत् — |
1773 |
6/188/29 |
151 |
599 |
3/181 |
||||||
सीतोदा |
— हरिकांता से दूना — |
2074 |
7/188/33 |
151 |
599 |
3/182 |
||||||
सीता |
— सीतोदावत् — |
2122 |
8/189/9 |
151 |
599 |
3/182 |
||||||
उत्तर की छ: नदियाँ |
— क्रम से हरितादिवत् — |
|
9-24/189 |
159 |
|
|
||||||
विदेह की 64 नदियाँ |
— गंगानदीवत् — |
— |
(देखें लोक - 3.10) |
|
|
— |
||||||
विभंगा |
कुंड के पास |
50 को. |
16592 |
|
2218 |
|
|
605 |
|
|||
|
महानदी के पास |
500 को. |
|
|
2219 |
|
|
|
|
|||
|
दृष्टि सं.2 |
|
|
3/10/13/-176/13 |
|
|
7/27 |
नाम |
पूर्व पश्चिम |
उत्तर दक्षिण लंबाई |
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. |
||||||
आदिम |
मध्यम |
अंतिम |
|||||||
सामान्य नियम—सर्व नदियाँ जंबूद्वीप से दुगुने विस्तार वाली हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2546 ) |
|||||||||
दोनों बाह्य विदेहों की विभंगा— |
|||||||||
द्रहवती व ऊर्मिमालिनी |
सर्वत्र 250 यो. ( तिलोयपण्णत्ति/4/2608 ) |
528861 |
528980 |
529100 |
2636 |
||||
ग्रहवती व फेनमालिनी |
548390 |
548509 |
548629 |
2644 |
|||||
गंभीरमालिनी व पंकावती |
567919 |
568038 |
568158 |
2652 |
|||||
दोनों अभ्यंतर विदेहों की विभंगा— |
|||||||||
क्षीरोदा व उन्मत्तजला |
सर्वत्र 250 यो. ( तिलोयपण्णत्ति/4/2608 ) |
275333 |
275214 |
275094 |
2676 |
||||
मत्तजला व सीतोदा |
255804 |
255685 |
255565 |
2684 |
|||||
तप्तजला व औषधवाहिनी |
236275 |
236156 |
236036 |
2692 |
नाम |
उत्तर दक्षिण लंबाई |
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. |
|||||
आदिम |
मध्यम |
अंतिम |
|||||
सामान्य नियम—सर्व नदियाँ जंबूद्वीप वाली से चौगुने विस्तार युक्त है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2788 ) |
|||||||
दोनों बाह्य विदेहों की विभंगा— |
|||||||
द्रहवती व ऊर्मिमालिनी |
1961576 |
1961815 |
1962053 |
2850 |
|||
ग्रहवती व फेनमालिनी |
2001755 |
2001994 |
2002233 |
2858 |
|||
गंभीरमालिनी व पंकावती |
2041935 |
2042174 |
2042412 |
2866 |
|||
दोनों अभ्यंतर विदेहों की विभंगा— |
|||||||
क्षीरोदा व उन्मत्तजला |
1461251 |
1461013 |
1460774 |
2886 |
|||
मत्तजला व सीतोदा |
1421072 |
1420833 |
1420595 |
2894 |
|||
तप्तजला व अंतर्वाहिनी |
1380892 |
1380654 |
1380415 |
2902 |
नाम |
लंबाई |
चौड़ाई |
गहराई |
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. |
राजवार्तिक/3/ सू./ वा./पृ./पं. |
हरिवंशपुराण/5/ गा. |
त्रिलोकसार/ गा. |
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ अ./गा. |
||||
सामान्य नियम—सरोवरों का विस्तार अपनी गहराई से 50 गुना है ( हरिवंशपुराण/5/507 ) द्रहों की लंबाई अपने-अपने पर्वतों की ऊँचाई से 10 गुनी है, चौड़ाई 5 गुनी और गहराई दसवें भाग है। ( त्रिलोकसार/568 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/71 ) |
||||||||||||
जंबूद्वीप जगती के मूलावाली— |
||||||||||||
उत्कृष्ट |
200 ध. |
100 ध. |
20 ध. |
23 |
|
|
|
|
||||
मध्यम |
150 ध. |
75 ध. |
15 ध. |
23 |
|
|
|
|
||||
जघन्य |
100 ध. |
50 ध. |
10 ध. |
23 |
|
|
|
|
||||
पद्मद्रह |
1000 ध. |
500 ध. |
10 |
1658 |
( तत्त्वार्थसूत्र/3/15-16 ) |
126 |
|
|
||||
महापद्म |
— पद्म से दुगुना — |
1727 |
|
129 |
|
|
||||||
तिगिंच्छ |
— पद्म से चौगुना — |
1761 |
|
129 |
देखें उपरोक्त सामान्य नियम |
देखें उपरोक्त सामान्य नियम |
||||||
केसरी |
— तिगिंछवत् — |
2323 |
|
129 |
||||||||
पुंडरीक |
— महापद्मवत् — |
2344 |
|
129 |
||||||||
महापुंडरीक |
— पद्मवत् — |
2355 |
|
129 |
||||||||
देवकुरु के द्रह |
— पद्मद्रहवत् — |
2090 |
10/13/174/30 |
195 |
656 |
6/57 |
||||||
उत्तरकुरु के द्रह |
— देवकुरुवत् — |
2126 |
|
|
|
|
||||||
नंदनवन की वापियाँ |
50 यो. |
25 यो. |
10 यो. |
|
|
|
|
|
||||
सौमनसवन की वापियाँ |
|
|
|
|
|
|
|
|
||||
दृष्टि सं.1 |
25 यो. |
25 यो. |
5 यो. |
1947 |
|
|
|
|
||||
दृष्टि सं.2 |
— |
नंदनवत् |
— |
|
10/13/180/7 |
|
|
|
||||
गंगा कुंड— |
गोलाई का व्यास |
गहराई |
|
|
|
|
|
|||||
दृष्टि सं.1 |
10 यो. |
10 यो. |
216+221 |
|
|
|
|
|||||
दृष्टि सं.2 |
60 यो. |
10 यो. |
218 |
22/1/187/25 |
142 |
587 |
|
|||||
दृष्टि सं.3 |
62 यो. |
10 |
219 |
|
|
|
|
|||||
सिंधुकुंड |
— गंगाकुंडवत् — |
|
22/5/187/32 |
|
|
|
||||||
आगे सीतासीतोदा तक |
— उत्तरोत्तर दुगुना — |
|
22/3-8/189 |
|
|
|
||||||
आगे रक्तारक्तोदा तक |
— उत्तरोत्तर आधा — |
|
22/9-14/189 |
|
|
|
||||||
32 विदेहों की नदियों के कुंड |
63 यो. |
10 यो. |
|
10/13/176/24 |
|
|
|
|||||
विभंगा के कुंड |
120 यो. |
10 यो. |
|
10/13/176/10 |
|
|
|
नाम |
लंबाई |
चौड़ाई |
गहराई |
तिलोयपण्णत्ति/5/ गा. |
राजवार्तिक/3/ सू./ वा./पृ./पं. |
हरिवंशपुराण/5/ गा. |
त्रिलोकसार/ गा. |
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ अ./गा. |
धातकीखंड के पद्म आदि द्रह |
— जंबूद्वीप से दूने — |
|
33/5/195/23 |
|
|
|
||
नंदीश्वरद्वीप की वापियाँ |
100,000 |
100,000 |
1000 |
60 |
35/-/198/11 |
657 |
971 |
|
नाम |
ऊँचाई या विस्तार |
कमल सामान्य को. |
नाल को. |
मृणाल को. |
पत्ता को. |
कणिका को. |
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. |
राजवार्तिक/3/ 17/-/185/ पंक्ति |
हरिवंशपुराण/5 / गा. |
त्रिलोकसार/ गा. |
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ अ./गा. |
पद्म द्रह का |
ऊँचाई— |
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
मूल कमल |
दृष्टि सं.1 |
4 |
*42 |
|
|
1 |
1667 |
|
128 |
570-571 |
6/74 |
|
दृष्टि सं.2 |
|
|
|
2 |
2 |
1670 |
8,9 |
|
|
|
|
विस्तार— |
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
दृष्टि सं.1 |
4 या 2 |
1 |
3 |
× |
1 |
1667 1669 |
|
|
570-571 |
|
|
दृष्टि सं.2 |
4 |
1 |
3 |
1 |
2 |
1667+1670 |
8 |
128 |
|
3/74 |
नोट—*जल के भीतर 10 योजन या 40 कोस तथा ऊपर दो कोस ( राजवार्तिक/-/185/9 ); ( हरिवंशपुराण/5/128 ); ( त्रिलोकसार/571 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/3/74 ) |
|||||||||||
परिवार कमल |
— सर्वत्र उपरोक्त से आधा — |
|
16 |
|
|
|
|||||
आगे तिगिंछ द्रह तक |
— उत्तरोत्तर दूना — |
|
तत्त्वार्थसूत्र/3/18 |
|
|
3/127 |
|||||
केसरी आदि द्रह के |
— तिगिंछ आदि वत् — |
|
तत्त्वार्थसूत्र/3/26 |
|
|
|
|||||
हिमवान् पर |
ऊँचाई |
1 जल के ऊपर |
|
|
|
1 |
206 |
22/2/188/3 |
|
|
3/74 |
कमलाकार कूट |
विस्तार |
2 |
|
|
1/2 |
1 |
254 |
|
|
|
|
धातकीखंड के |
|
— जंबूद्वीप वालों से दूने — ( राजवार्तिक/3/33/5/195/23 ) |
|
|
|
पुराणकोष से