योगसार - संवर-अधिकार गाथा 230
From जैनकोष
मोह का नाश होने पर स्वरूप की उपलब्धि -
निजरूपं पुनर्याति मोहस्य विगमे सति ।
उपाध्यभावतो याति स्फेटक: स्वस्वरूपताम् ।।२३०।।
अन्वय :- (यथा) उपाधि-अभावत: स्फेटक: स्वस्वरूपतां याति (तथा) मोहस्य विगमे सति (जीव:) निजरूपं पुन: याति ।
सरलार्थ :- जिसप्रकार लालपुष्पादिरूप संयोगस्वरूप उपाधि का अभाव हो जाने से स्फेटक अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त होता है; उसीप्रकार मोह का नाश हो जाने पर जीव पुन: अपने निर्मलस्वरूप को प्राप्त होता है । मोह का नाश होने पर सिद्ध-अवस्था की प्राप्ति होती है - ऐसा कहकर यहाँ निमित्त का ज्ञान कराया है । उपादान की अपेक्षा देखा जाय तो जीव जब स्वयं अपनी योग्यता से स्वाभाविक शुद्ध स्वरूप को प्राप्त होता है, तब मोह का स्वयमेव नाश हो जाता है ।