योगसार - निर्जरा-अधिकार गाथा 278
From जैनकोष
परीषहजय का लाभ -
स्वात्मानमिच्छुभिर्ज्ञातुं सहनीया: परीषहा: ।
नश्यत्यसहमानस्य स्वात्म-ज्ञानं परीषहात् ।।२७८।।
अन्वय :- स्व-आत्मानं ज्ञातुं इच्छुभि: परीषहा: सहनीया:। (परीषहान्) असहमानस्य स्व-आत्म-ज्ञानं परीषहात् नश्यति ।
सरलार्थ :- अपने आत्मा को जानने के इच्छुक साधुओं को समागत परीषहों को सहन करना चाहिए; क्योंकि यदि सहज उपस्थित परीषहों को मुनिराज सहन नहीं करते हैं, तो उनका प्राप्त किया हुआ आत्म-ज्ञान परीषहों के उपस्थित होनेपर स्थिर नहीं रहता अर्थात् नाश को प्राप्त हो जाता है ।