आयु
From जैनकोष
जीवकी किसी विवक्षित शरीरमें टिके रहनेकी अवधिका नाम ही आयु है। इस आयुका निमित्तकर्म आयुकर्म चार प्रकारका है, पर गतिमें और आयुमें अन्तर है। गति जीवको हर समय बँधती है, पर आयु बन्धके योग्य सारे जीवनमें केवल आठ अवसर आते हैं जिन्हें अपकर्ष कहते हैं। जिस आयुका उदय आता है उसी गतिका उदय आता है अन्य गति नामक कर्म भी उसी रूपसे संक्रमण द्वारा अपना फल देते हैं। आयुकर्म दो प्रकारसे जाना जाता है-भुज्यमान व बध्यमान। वर्तमान भवमें जिसका उदय आ रहा है वह भुज्यमान है और इसीमें जो अगले भवकी आयु बँधी है सो बध्यमान है। भुज्यमान आयुका तो कदलीघात आदिके निमित्तसे केवल अपकर्षण हो सकता है उत्कर्षण नहीं पर बध्यमान आयुका परिणामोंके निमित्त से उत्कर्षण व अपकर्षण दोनों सम्भव है। किन्तु विवक्षित आयुकर्मका अन्य आयु रूपसे संक्रमण होना कभी भी सम्भव नहीं है। अर्थात् जिस जातिकी आयु बँधी है उसे अवश्य भोगना पड़ेगा। 1. भेद व लक्षण 1. आयु सामान्य का लक्षण 2. आयुष्यका लक्षण 3. आयु सामान्यके दो भेद (भवायु व अद्धायु) 4. आयु सत्त्वके दो भेद (भुज्यमान व बद्ध्यमान) 5. भवायु व अद्धायुके लक्षण 6. भुज्यमान व बद्ध्यमान आयुके लक्षण 7. आयु कर्म सामान्यका लक्षण • आयु कर्मके उदाहरण - देखें प्रकृतिबन्ध - 3 8. आयुकर्मके चार भेद (नरकादि) 9. आयुकर्मके असंख्यात भेद 10. आयुकर्म विशेषके लक्षण 2. आयु निर्देश 1. आयुके लक्षण सम्बन्धी शंका 2. गतिबन्ध जन्मका कारण नहीं आयुबन्ध है 3. जिस भवकी आयु बंधी नियमसे वही उत्पन्न होता है • विग्रह गतिमें अगली आयुका उदय - देखें उदय - 4 4. देव नारकायोंको बहुलताकी अपेक्षा असंख्यात वर्षायुष्क कहा है 3. आयु कर्मके बन्धयोग्य परिणाम 1. मध्यम परिणामोंमें ही आयु बँधती है 2. अल्पायु बन्ध योग्य परिणाम 3. नरकायु सामान्यके बन्ध योग्य परिणाम 4. नरकायु विशेषक बन्ध परिणाम 5. कर्म भूमिज तिर्यञ्च आयुके बन्ध योग्य परिणाम 6. भोग भूमिज तिर्यञ्च आयुके बन्ध योग्य परिणाम 7. कर्म भूमिज मनुष्योंके बन्ध योग्य परिणाम 8. शलाका पुरुषोंकी आयुके बन्ध योग्य परिणाम 9. सुभोग भूमिजोंकी आयुके योग्य परिणाम 10. कुभोग भूमिज मनुष्यायुके बन्ध योग्य परिणाम 11. देवायु सामान्यके बन्ध योग्य परिणाम 12. भवनत्रिक आयु सामान्यके बन्ध योग्य परिणाम 13. भवनवासी आयु सामान्यके बन्ध योग्य परिणाम 14. व्यन्तर तथा नीच देवोंकी आयुके बन्ध योग्य परिणाम 15. ज्योतिष देवायुके बन्ध योग्य परिणाम 16. कल्पवासी देवायु सामान्यके बन्ध योग परिणाम 17. कल्पवासी देवायु विशेषके बन्ध योग परिणाम 18. लौकान्तिक देवायुके बन्ध योग परिणाम 19. कषाय व लेश्याकी अपेक्षा आयु बन्धके 20 स्थान • आयुके बन्धमें संक्लेश व विशुद्ध परिणमोंका स्थान - देखें स्थिति - 4 4. आठ अपकर्ष काल निर्देश 1. कर्म भूमिजोंकी अपेक्षा आठ अपकर्ष 2. भोग भूमिजों तथा देव नारकियोंकी अपेक्षा 8 अपकर्ष 3. आठ अपकर्ष कालोंमें न बँधे तो अन्त समयमें बँधती है 4. आयुके त्रिभाग शेष रहनेपर ही अपकर्ष काल आने सम्बन्धी दृष्टि भेद 5. अन्तिम समयमें केवल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही आयु बंधती है। 6. आठ अपकर्ष कालोंमें बँधी आयुका समीकरण 7. अन्य अपकर्षमें आयु बन्धके प्रमाणमें चार वृद्धि व हानि सम्भव है 8. उसी अपकर्ष कालके सर्व समयोंमें उत्तरोत्तर हीन बन्ध होता है • आठ सात आदि अपकर्षोंमें आयु बाँधने वालों का अल्पबहुत्व - देखें अल्पबहुत्व - 3.9.15 5. आयुके उत्कर्षण व अपवर्तन सम्बन्धी नियम 1. बध्यमान व भुज्यमान दोनों आयुओंका अपवर्तन सम्भ्व है • भूज्यमान आयुके अपवर्तन सम्बन्धी नियम - देखें मरण - 4 2. परन्तु बद्ध्यमान आयुकी उदीरणा नहीं होती 3. उत्कृष्ट आयुके अनुभागका अपवर्तन सम्भव है 4. असंख्यात वर्षायुष्कों तथा चरम शरीरियोंकी आयुका अपवर्तन नहीं होता • आयुका स्थिति काण्डयक घात नहीं होता - देखें अपकर्षण - 4 5. भुज्यमान आयुपर्यन्त बद्ध्यमान आयुमें बाधा सम्भव है 6. चारों आयुओंका परस्परमें संक्रमण नहीं होता 7. संयमकी विराधनासे आयुका अपवर्तन हो जाता है • अकाल मृत्युमें आयुका अपवर्तन - देखें मरण - 4 8. आयुका अनुभाव व स्थिति घात साथ-साथ होते हैं 6. आयुबन्ध सम्बन्धी नियम 1. तिर्यंचोंकी उत्कृष्ट आयु भोगभूमि, स्वयम्भूरमण द्वीप व कर्मभूमिके चार कालोंमें ही सम्भव है 2. भोगभूमिजोंमें भी आयु हीनाधिक हो सकती है 3. बद्धायुष्क व घातायुष्क देवोंकी आयु सम्बन्धी स्पष्टीकरण 4. चारों गतियोंमें परस्पर आयुबन्ध सम्बन्धी 5. आयुके साथ वही गति प्रकृति बँधती है 6. एक भवमें एक ही आयुका बन्ध सम्भव है 7. बद्धायुष्कोंमें सम्यक्त्व व गुणस्थान प्राप्ति सम्बन्धी 8. बद्ध्यमान देवायुष्कका सम्यक्त्व विराधित नहीं होता 9. बन्ध उदय सत्त्व सम्बन्धी संयोगी भंग 10. मिश्रयोगोंमें आयुका बन्ध सम्भव नहीं • आयुकी आबाधा सम्बन्धी - देखें आबाधा - 7. आयुविषयक प्ररूपणाएँ 1. नरक गति सम्बन्धी 2. तिर्यंच गति सम्बन्धी 3. एक अन्तर्मुहूर्तमें ल. अप. के सम्भव निरन्तर क्षुद्रभव 4. मनुष्य गति सम्बन्धी 5. भोग भूमिजों व कर्म भूमिजों सम्बन्धी • तीर्थंकरों व शलाका पुरुषोंकी आयु - देखें वह वह नाम - 6. देवगतिमें व्यन्तर देवों सम्बन्धी 7. देवगतिमें भवनवासियों सम्बन्धी 8. देवगतिमें ज्योतिष देवों सम्बन्धी 9. देवगतिमें वैमानिक देव सामान्य सम्बन्धी 10. वैमानिक देवोंमें इन्द्रों व उनके परिवार देवों सम्बन्धी 11. वैमानिक इन्द्रों अथवा देवोंकी देवियों सम्बन्धी 12. देवों द्वारा बन्ध योग्य जघन्य आयु • काय समम्बन्धी स्थिति - देखें काल - 5,6 • भव स्थिति व काय स्थितिमें अन्तर - देखें स्थित - 2 • गति अगति विषयक ओघ आदेश प्ररूपणा - देखें जन्म - 6 • आयु प्रकृतियोंकी बन्ध उदय व सत्त्व प्ररूपणा तथा तत्सम्बन्धी नियम व शंका समाधान - देखें [[ ]]`वह वह नाम' • आयु प्रकरणमें ग्रहण किये गये पल्य सागर आदिका अर्थ - देखें [[ ]]गणित I/1/6 1. भेद व लक्षण 1. आयु सामान्यका लक्षण राजवार्तिक अध्याय 3/27/3/191/24 आयुर्जीवितपरिणामम्। राजवार्तिक अध्याय 8/10/2/575/12 यस्य भावात् आत्मानः जीवितं भवति यस्य चाभावात् मृत इत्युच्यते तद्भवधारणमायुरित्युच्यते। = जीवनके परिणामका नाम आयु है। अथवा जिसके सद्भावसे आत्माका जीवितव्य होता है तथा जिसके अभावसे मृत्यु कही जाती है उसी प्रकार भवधारणको ही आयु कहते हैं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 146 भवधारणनिमित्तमायुः प्राणः।
= भवधारणका निमित्त आयु प्राण है। 2. आयुष्यका लक्षण
गोम्मटसार जीवकाण्ड/ भाषा 258/566/15 आयुका प्रमाण सो आयुष्य है।
3. आयु सामान्यके दो भेद (भवायु व श्रद्धायु)
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 25/85/16 तत्रायुर्द्विभेदं अद्धायुर्भवायुरिति च।...अर्थापेक्षया द्रव्याणामनाद्यनिधनं भवत्यद्धायुः। पर्यायार्थापेक्षया चतुर्विधं भवत्यनाद्यनिधनं, साद्यनिधनं, सनिधनमनादि, सादिसनिधनमिति।
= आयुके दो भेद हैं-भवायु और अद्धायु। द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा द्रव्योंका अद्धायु अनाद्यनिधन है अर्थात् द्रव्य अनादि कालसे चला आया है और वह अनन्त काल तक अपने स्वरूपसे च्युत न होगा, इसीलिए उसको अनादि अनिधन भी कहते हैं। पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा जब विचार करते हैं तो अद्धायुके चार भेद होते हैं, वे इस प्रकार हैं-अनाद्यनिधन, साद्यनिधन, सनिधन अनादि, सादि सनिधनता। 4. आयु सत्त्वके दो भेद (भुज्यमान व बद्ध्यमान) गो.क./भाषा 336/487/10 विद्यामन जिस आयुको भोगवै सो भुज्यमान अर आगामी जाका बन्ध किया सो बद्ध्यमान ऐसे दोऊ प्रकार अपेक्षा करी...आयुका सत्त्व है। 5. भवायु व अद्धायुके लक्षण
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 28/85/16 भवधारणं भवायुर्भवः शरीरं तच्च ध्रियते आत्मनः आयुप्कोदयेन ततो भवधारणमायुष्काख्यं कर्म तदेव भवायुरित्युच्यते। तथा चोक्तम्-देहो भवोत्ति उच्चदि धारिज्जइ आउगणे य भवो सो। तो उच्चदि भवधारणमाउगकम्मं भवाउत्ति। इति आयुर्वशेनैव जीवो जायते जीवति च आयुष एवोदयेन। अन्यस्यायुष उदये सृति मृतिमुपैति पूर्वस्य चायुष्कस्य विनाशे। तथा चोक्तम्-आउगवसेण जीवो जायदि जीवदि य आउगस्सुदये। अण्णाउगोदये वा मरदि य पुव्वाउणासे वा ॥ इति ॥ अद्धा शब्देन काल इत्युच्यते। आउगशब्देन द्रव्यस्य स्थितः, तेन द्रव्याणां स्थितिकालः अद्धायुरित्युच्यते इति।
= 1. भव धारण करना वह भवायु है। शरीरको भव कहते हैं। इस शरीको आत्मा आयुका साहाय्य करके धारण करता है, अतः शरीर धारण करानेमें समर्थ ऐसे आयुकर्मको भवायु कहते हैं। इस विषयमें अन्य आचार्य ऐसा कहते हैं-देहको भव कहते हैं। वह भव आय कर्मसे धारण किया जाता है, अतः भव धारण करानेवाले आयु कर्म को भवायु ऐसा कहा है, आयकर्मके उदयसे ही उसका जीवन स्थिर है और जब प्रस्तुत आयु कर्मसे भिन्न अन्य आयु कर्मका उदय होता है, तब यह जीव मरणावस्थाको प्राप्त होता है। मरण समयमें पूर्वायुका विनाश होता है। इस विषयमें पूर्वाचार्य ऐसा कहते हैं-कि आयु कर्मके उदयसे जीव उत्पन्न होता है और आयुकर्मके उदयसे जीता है। अन्य आयुके उदयमें मर जाता है। उस समय पूर्व आयका विनाश हो जाता है। 2. अद्धा शब्दका `काल' ऐसा अर्थ है, और आयु शब्दसे द्रव्यकी स्थिति ऐसा अर्थ समजना चाहिए। द्रव्यका जो स्थितिकाल उसको अद्धायु कहते हैं। 6. भुज्यमान व बद्ध्यमान आयुके लक्षण गो.क./भाषा 336/487/10 विद्यमान जिस आयुको भोगवे सो भुज्यमान अर अगामी जाका बन्ध किया सो बद्ध्यमान (आयु कहलाती है) 7. आयुकर्म सामान्यका लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 8/3/378/9 प्रकृत्तिः स्वभावः। ....आयुषो भवधारणम्।....तदेवलक्षणं कार्यं।
= प्रकृतिका अर्थ स्वभाव है। भवधारण आयु कर्मकी प्रकृति है। इस प्रकारका लक्षण किया जाता है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 8/4/380/5 इत्यनेन नारकादि भवमेत्तीत्यायुः
= जिसके द्वारा नारकादि भवोंको जाता है वह आयुकर्म है। (राजवार्तिक अध्याय 8/4/2/568/2), ( गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 33/28/11)
धवला पुस्तक 6/1,9-1/12/10 एति भवधारणं प्रति इत्यायुः।
= जो भव धारणके प्रति जाता है वह आयुकर्म है। ( धवला पुस्तक 13/5,5,98/362/6)।
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा 11/8 कम्मकयमोहवड्ढियसंसारम्हि य अणादिजुत्तेहि। जीवस्स अवट्ठाणं करेदि आऊ हलिव्वणरं ॥11॥
= आयु कर्मका उदय है सो कर्मकरि किया अर अज्ञान असंयम मिथ्यात्व करि वृद्धिको प्राप्त भया ऐसा अनादि संसार ताविषै च्यारि गतिनिमैं जीव अवस्थानको करै है। जैसे काष्टका खोड़ा अपने छिद्रमें जाका पग आया होय ताकि तहाँ ही स्थिति करावै तैसे आयुकर्म जिस गति सम्बन्धी उदयरूप होइ तिस ही गर्ति विषै जीवकी स्थिति करावै है। ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 33/93), ( गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 20/13) 8. आयुकर्मके चार भेद (नरकायु आदि) त.सु.8/10 नारकतैर्यग्योनमानुषदैवानि ॥10॥ = नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु ये चार आयुकर्मके भेद हैं। (पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 2/4) (ष.ख.9,9-1/मू.25/48), ( षट्खण्डागम/ पु.12/42,14/सू.13/483), ( षट्खण्डागम 13/5,5/ सु.99/362) ( महाबंध पुस्तक 1/$5/28) ( गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 33/28/11) (पंचसंग्रह / संस्कृत / अधिकार 2/20) 9. आयु कर्मके असंख्यात भेद
धवला पुस्तक 12/4,2,14,16/483/3 पज्जवट्ठियणए पुण अवलंबिज्जामाणे आउअपयडी वि असंखेज्जलोगमेत्ता भवदि, कम्मोदयवियप्पाणमसंखेज्जलोगमेत्ताणमुवलंभादो।
= पर्यायार्थिक नयका आवलम्बन करनेपर तो आयुकी प्रकृतियाँ भी असंख्यात लोकमात्र हैं। क्योंकि कर्मके उदय रूप विकल्प असंख्यात लोकमात्र पाये जाते हैं। 10. आयुकर्म विशेषके लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 8/10/8 नरकेषु तीव्रशीतोष्णवेदनेषु यन्निमित्तं दीर्घजीवन तन्नारकम्। एवं शेषेष्वपि।
= तीव्र उष्ण वेदनावाले नरकोंमें जिसके निमित्तसे दीर्घ जीवन होता है वह नारक आयु है। इसी प्रकार शेष आयुओंमें भी जानता चाहिए। 2. आयु निर्देश 1. आयुके लक्षण सम्बन्धी शंका रा.8/10/3/575/14 स्यादेतत्-अनादि तन्निमित्तं तल्लाभालाभर्जीवतमरणदर्शनादिति; तन्न; किं धारणम्। तस्यानुग्रहाकत्वत्...अतश्चैतदेवं यत् क्षीणायुषोऽन्नादिसंनिधानेऽपि मरणं दृश्यते।...देवेषु नारकेषु चान्नाद्यभावाद् भवधारणमायुरधीनमेवेत्यवसेयम्। = प्रश्न-जीवनका निमित्त तो अन्नादिक हैं, क्योंकि उसके लाभसे जीवन और अलाभसे मरण देखा जाता है? उत्तर-ऐसा नहीं है क्योंकि अन्नादि तो आयुके अऩुग्राहकमात्र हैं, मूल कारण नहीं है। क्योंकि आयुके क्षीण हो जानेपर अन्नादिको प्राप्तिमें भी मरण देखा जाता है। फिर सर्वत्र अन्नादिक अनुग्राहक भी तो नहीं होते, क्योंकि देवों और नारकियोंके अन्नादिकका आहार नहीं होता है। अतः यह सिद्ध होता है कि भवधारण आयुके ही आधीन है। 2. गतिबन्ध जन्मका कारण नहीं आयुबन्ध है
धवला पुस्तक 1/1,1,83/324/5 नापि नरकगतिकर्मणः सत्त्वं तस्य तत्रोत्पत्तेःकारणं तत्सत्त्वं प्रत्यविशेषतः सकलपञ्चेन्द्रयाणामपि नरकप्राप्ति प्रसङ्गात्। नित्यनिगोदानामपि विद्यमानत्रसकर्मणां त्रसेषूत्वत्तिप्रसङ्गात्।
= नरकगतिका सत्त्व भी (सम्यग्दृष्टिके) नरकमें उत्पत्तिका कारण कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, नरकगतितके सत्त्वके प्रति कोई विशेषता न होनेसे सभी पंचेन्द्रियोंकी नरकगतिका प्रसंग आ आयेगा। तथा नित्य निगोदिया जीवोंके भी त्रसकर्मकी सत्ता विद्यमान रहती है, इसलिए उनको भी त्रसोंमें उत्पत्ति होने लगेगी। 3. जिस भवकी आयु बँधी नियमसे वहीं उत्पन्न होता है राजवार्तिक अध्याय 8/21/1/583/18 न हि नरकायुर्मुखेन तिर्यगायुर्मनुष्यायुर्वा विपच्यते। = `नराकायु' नरकायु रूपसे ही फल देगी तिर्यंचायु वा मनुष्यायु रूपसे नहीं।
धवला पुस्तक 10/4,2,4,40/239/3 जिस्से गईए आउअं बद्धं तत्थेव णिच्छएण उपज्जत्ति त्ति।
= जिस गतिकी आयु बाँधी गयी है। निश्चयसे वहाँ ही उत्पन्न होता है। 4. देव व नारकियोंकी बहुलताकी अपेक्षा असंख्यात वर्षायुष्क कहा गया है
धवला पुस्तक 11/4,2,6,8/10/1 देवणेरइएसु संखेज्जवासाउसत्तमिदि भणिदे सच्चं ण ते असंखेज्जवासाउआ, किंतु संखेज्ज वासाउआ चेव; समयाहियपुव्वकोडिप्पहुडि उवरिमआउअवियप्पाणं असंखेज्जवासाउअत्तब्भुवगमादो। कधं समयाहियपुव्वकोडीए संखेज्जवासाए असंखेज्जवासत्तं। ण, रायरुक्खो व रूढिबलेण परिचत्तसगट्ठस्स असंखेज्जवस्सद्दस्स आउअविसेसम्मि वट्टमाणस्स गहणादो।
= प्रश्न-देव व नारकी तो संख्यात वर्षायुक्त भी होते हैं, फिर यहाँ उनका ग्रहण असंख्यात वर्षायुक्त पदसे कैसे सम्भव है? उत्तर-इस शंकाके उत्तरमें कहते हैं कि सचमुचमें वे असंख्यात वर्षायुष्क नहीं हैं, किन्तु संख्यात वर्षायुष्क ही है। परन्तु यहाँ एक समय अधिक पूर्व कोटिको आदि लेकर आगेके आयु विकल्पोंको असंख्यातवर्षायुके भीतर स्वीकार किया गया है। प्रश्न-एक समय अधिक पूर्व कोटिके असंख्यातवर्षरूपता कैसे सम्भव है? उत्तर-नहीं, क्योंकि, राजवृक्ष (वृक्षविशेष) से समान `असंख्यात वर्ष' शब्द रूढिवश अपने अर्थको छोड़कर आयुविशेषमें रहनेवाला यहाँ ग्रहण किया गया है। 3. आयुकर्मके बन्धायोग्य परिणाम 1. मध्यम परिणामोंमें ही आयु बँधती है
धवला पुस्तक 12/4,2,7,32/27/12 अइजहण्णा आउबंधस्स अप्पाओग्गं। अइमहल्ला पि अप्पाओग्गं चेव, सभावियादो तत्थ दोण्णं विच्चाले ट्ठिया परियत्तमाणमज्झिपरिणामा वुच्चति।
= अति जघन्य परिणाम आयु बन्धके अयोग्य हैं। अत्यन्त महान् परिणाम भी आयु बन्धके अयोग्य ही हैं, क्योंकि ऐसा स्वभाव है। किन्तु उन दोनोंके मध्यमें अवस्थित परिणाम परिवर्तमान मध्यम परिणाम कहलाते हैं। (उनमें यथायोग्य परिणामोंसे आयु बन्ध होता है।)
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा 518/913 लेस्साणां खलु अंसा छव्वीसा होंति तथ्यमज्झिमया। आउगबंधणजोग्गा अट्ठट्ठवगरिसकालभवा।
= लेश्यानिके छब्बीस अंश हैं तहाँ छहौ लेश्यानिकै जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेदकरि अठारह अंश हैं, बहुरि कापोत लेश्याके उत्कृष्ट अंश तै आगैं अर तेजो लेश्याके उत्कृष्ट अंश तै पहिलैं कषायनिका उदय स्थानकनिविशैं आठ मध्यम अंश है ऐसैं छब्बीस अंश भए। तहाँ आयु कर्मके बन्ध योग्य आठ मध्यम अंश जानने। (राजवार्तिक अध्याय 4/22/10/240/1) गो.क/जी.प्र.549/736/21 अशेषक्रोधकषायानुभागोदयस्थानान्यसंख्यातलोकमात्रषड्ढानिवृद्धिपतितासंख्यातलोकमात्राणि तेष्वसंख्यातलोकभक्तवबहुभागमात्राणि संक्लेशस्थानानि तदेकमात्रभागमात्राणि विशुद्धस्थानानि। तेषु लेश्यापदानि चतुर्दशलेश्यांशाः षड्विंशतिः। तत्र मध्यमा अष्टौ आयुर्बद्धनिबन्धनाः। = समस्त क्रोध कषाय के अनुभाग रूप उदयस्थान असंख्यात लोकमात्र षट्स्थानपतित हानि कौं लिये असंख्यात लोकप्रमाण है। तिनकौं यथायोग्य असंख्यात लोकका भाग दिए तहाँ एक भाग बिना बहुभाग प्रमाण तौ संक्लेश स्थान हैं। एक भाग प्रमाण विशुद्धिस्थान है। तिन विषै लेश्यापद चौदह हैं। लेश्यानिके अंश छब्बीस हैं। तिन विषैं मध्यके आठ अंश आयुके बन्धको कारण हैं। 2. अल्पायुके बन्ध योग परिणाम
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 446/654/4 सदा परप्राणिघातोद्यतस्तदीययप्रियतमजीवितविनाशनात् प्रायेणाल्पायुरेव भवति।
= जो प्राणी हमेशा पर जीवोंका घात करके उनके प्रिय जीवितका नाश करता है वह प्रायः अल्पायुषी ही होता है। 3. नरकायु सामान्यके बन्ध योग परिणाम
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 6/15,19 बह्वारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः ॥15॥ निश्शीलव्रतित्वं च सर्वेषाम् ॥19॥
= बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रहवालेका भाव नरकायका आस्त्रव है ॥15॥ शीलरहित और ब्रतरहित होना सब आयुओंका आस्त्रव है ॥19॥
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 6/15/333/6 हिंसादिक्रूरकर्माजस्रप्रवर्तनपरस्वहरणविषयातिगृद्धिकृष्णलेश्याभिजातरौद्रध्यानमरणकालतादिलक्षणो नारकस्यायुष आस्रवो भवति।
= हिंसादि क्रूर कार्योमें निरन्तर प्रवृत्ति, दूसरेके धनका हरण, इन्द्रियोंके विषयोमें अत्यन्त आसक्ति, तथा मरनेके समय कृष्णलेश्या और रौद्रध्यान आदिका नरकायके आस्रव हैं।
तिलोयपण्णत्ति अधिकार 2/293-294 आउस्स बंधसमए सिलोव्व सेलो वेणूमूले य। किमिरायकसायाणं उदयम्मि बंधेदि णिरयाउ ॥293॥ किण्हाय णीलकाऊणुदयादो बंधिऊण णिरयाऊ। मरिऊण ताहिं जुत्तो पावइ णिरयं महावीरं ॥294॥
= आयु बन्धके समय सिलकी रेखाके समान क्रोध, शलके समान मान, बाँसकी जड़के समान माया, और कृमिरागके समान लोभ कषायका उदय होनेपर नरक आयुका बन्ध होता है ॥293॥ कृष्ण नील अथवा कापोत इन तीन लेश्याओंका उदय होनेसे नरकायुको बांधकर और मरकर उन्हीं लेश्याओंसे युक्त होकर महाभयानक नरकको प्राप्त करता है ॥294॥
तत्त्वार्थसार अधिकार 4/30-34 उत्कृष्टमानता शैलराजीसदृशरोषता। मिथ्यात्वं तीव्रलोभत्वं नित्यं निरनुकम्पता ॥30॥ अजस्रं जीवघातित्वं सततानृतवादिता। परस्वहरणं नित्यं नित्यं मैथुनसेवनम् ॥31॥ कामभोगाभिलाषाणां नित्यं चातिप्रवृद्धता। जिनस्यासादनं साधुसमयस्य च भेदनम् ॥32॥ मार्जारताम्रचूड़ादिपापीयः प्राणिपोषणम्। नैः शील्यं च महारम्भपरिग्रहतया सह ॥33॥ कृष्णलेश्यापरिणतं रौद्रध्यानं चतुर्विधम्। आयुषो नारकस्येति भवन्त्यास्रवहेतवः ॥34॥
= कठोर पत्थरके समन तीव्रमान, पर्वतमालाओंके समान अभेद्य क्रोध रखना, मिथ्यादृष्टि होना, तीव्र लोभ होना सदा निर्दयी बने रहना, सदा मिथ्यादृष्टि होना, तीव्र लोभ होना सता निर्दयी बने रहना, सदा जीवघात करना, सदा ही झूठ बोलनेमें प्रेम मानना, सदा परधन हरनेमें लगे रहना, नित्य मैथुन सेवन करना, काम भोगोंकी अभिलाषा सदा ही जाज्वल्यमान रखना, जिन भगवान्की आसादना करना, साधु धर्मका उच्छेद करना, बिल्ली, कुत्ते, मुर्गे इत्यादि पापी प्राणियोंको पालना, शीलव्रत रहित बने रहना और आरम्भ परिग्रहको अति बढ़ाना, कृष्ण लेश्या रहना, चारों रौद्रध्यानमें लगे रहना, इतने अशुभ कर्म नरकायुके आस्रव हेतु हैं। अर्थात् जिन कर्मोंको क्रूरकर्म कहते हैं और जिन्हें व्यसन कहते हैं, वे सभी नरकायुके कारण हैं। (राजवार्तिक अध्याय 6/15/3/525/31) ( महापुराण सर्ग संख्या 10/22-27)
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा 804/982 मिच्छी हु महारंभी णिस्सीलो तिव्वलोहसंजुत्तो। णिरयाउगं णिबंधइ पावमई रुद्दपरिणाम ॥804॥
= जो जीव मिथ्यातरूप मिथ्यादृष्टि होइ, बहुत आरंभी होइ, शील रहित होइ, तीव्र लोभ संयुक्त होइ, रौद्र परिणामी होइ, पाप कार्य विषैं जाकी बुद्धि होइ सो जीव नरकायुको बाँधे है। 4. नरकायु विशेषके बन्धयोग्य परिणाम
तिलोयपण्णत्ति अधिकार 2/296,298,301 धम्मदयापरिचत्तो अमुक्करो पयंडकलहयरो। बहुकोही किण्हाए जम्मदि धूमादि चरिमंते ॥296॥ ...बहुसण्णा णीलाए जम्मदि तं चेव धूमंतं ॥298॥ काऊए संजुत्तो जम्मदि घम्मादिमेघंतं ॥30॥
= दया, धर्मसे रहित, वैरको न छोड़ने वाला, प्रचंड कलह करने वाला और बहुत क्रोधी जीव कृष्ण लेश्याके साथ धूमप्रभासे लेकर अन्तिम पृथ्वी तक जन्म लेता है ॥296॥...आहारादि चारों संज्ञाओंमें आसक्त ऐसा जीव नील लेश्याके साथ धूमप्रभा पृथ्वी तकमें जन्म लेता है ॥298॥ ....। कापोत लेश्यासे संयुक्त होकर घर्मासे लेकर मेघा पृथ्वी तकमें जन्म लेता है। 5. कर्मभूमिज तिर्यंच आयुके बन्धयोग्य परिणाम
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 6/16 माया तैर्यग्योनस्य ॥16॥
= माया तिर्यंचायुका आस्रव है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 6/16/334/3 तत्प्रपञ्चो मिथ्यात्वोपेतधर्मदेशना निःशीलतातिसन्धानप्रियता नीलकापोतलेश्यार्तध्यानमरणकालतादिः।
= धर्मोपदेशमें मिथ्या बातोंको मिलाकर उनका प्रचार करना, शीलरहित जीवन बिताना, अति संधानप्रियता तथा मरणके समय नील व कापोत लेश्या और आर्त ध्यानका होना आति तिर्यंचायुके आस्रव हैं। राजवार्तिक अध्याय 6/16/526/8 प्रपञ्चस्त-मिथ्यात्वोपष्टम्भा-धर्मदेशना-नल्पारम्भपरिग्रहा-तिनिकृति-कूटकर्मा-वनिभेदसद्दश-रोषनिःशीलता-शब्दलिङ्गवञ्चना-तिसन्धानप्रियता-भेदकरणा-नर्थोद्भावन-वर्णगन्ध-रसस्पर्शान्यत्वापादन-जातिकुलशीलसंदूषण-विसंवादनाभिसन्धिमिथ्याजीवित्व-सद्गुणव्यपलोपा-सद्गुणख्यापन-नीलकापोतलेश्यापरिणाम-आर्तध्यानमरणकालतादिलक्षणः प्रत्येतव्यः। = मिथ्यात्वयुक्त अधर्मका उपदेश, बहु आरम्भ, बहुपरिग्रह, अतिवंचना, कूटकर्म, पृथ्वीकी रेखाके समान रोषादि, निःशीलता, शब्द और संकेतादिसे परिवंचनाका षड्यन्त्र, छल-प्रपञ्चकी रुचि, भेद उत्पन्न करना, अनर्थोद्भावन, वर्ण, रस, गन्ध आदिको विकृत करनेकी अभिरुचि, जातिकुलशीलसंदूषण, विसंवाद रुचि, मिथ्याजीवित्व, सद्गुण लोप, असद्गुणख्यापन, नीलकापोतलेश्या रूप परिणाम, आर्तध्यान, मरण समयमें आर्त रौद्र परिणाम इत्यादि तिर्यंचायुके आस्रवके कारण हैं। ( तत्त्वार्थसार अधिकार 4/35-39) (और भी देखो आगे आयु 3/12)
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा 805/982 उम्मग्गदेसगो मग्गणासगो गूढहियमाइल्लो। सठसीलो य ससल्लो तिरियाउं बंधदे जीवो ॥805॥
= जो जीव विपरीत मार्गका उपदेशक होई, भलामार्गका नाशक होई, गूढ और जाननेमें न ऐवे ऐसा जाका हृदय परिणाम होइ, मायावी कष्टी होई अर शठ मूर्खता संयुक्त जाका सहज स्वभाव होई, शल्यकरि संयुक्त होइ सो जीव तिर्यंच आयुको बाँधै है। 6. भोग भूमिज तिर्यंच आयुके बन्धयोग्य परिणाम
तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4/372-374 दादूण केइ दाणं पत्तविसेसेसु के वि दाणाणं अणमोदणेण तिरिया भोगखिदीए वि जायंति ॥372॥ गहिदूण जिणलिंगं संजमसम्मत्तभावपरिचत्ता। मायाचारपयट्टा चारित्तं णसयंति जे पावा ॥373॥ दादूण कुलंगीणं णाणादाणाणि जे णरा मुद्धा। तव्वेसधरा केई भोगमहीए हुवंति ते तिरिया ॥374॥
= कोई पात्र विशेषोंको दान देकर और कोई दानोंकी अनुमोदना करके तिर्यंच भी भोगभूमिमें उत्पन्न होते हैं ॥372॥ जो पापी जनलिंगको (मुनिव्रत) को ग्रहण करके संयम एवं सम्यक्त्व भावको छोड़ देते हैं और पश्चात् मायाचारमें प्रवृत्त होकर चारित्रको नष्ट कर देते हैं; तथा जो कोई मूर्ख मनुष्य कुलिंगियों को नाना प्रकारके दान देते हैं या उनके भेषको धारण करते हैं वे भोग-भूमिमें तिर्यंच होते हैं। 7. कर्मभूमिज मनुष्यायुके बन्धयोग्य परिणाम
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 6/17-18 अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य ॥17॥ स्वभावमार्दव च ॥18॥
= अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रह वालेका भाव मनुष्यायु का आस्रव है ॥17॥ स्वभावकी मृदुता भी मनुष्यायुका आस्रव हैं। सि.स.6/17-18/334/8 नारकायुरास्रवो व्याख्यातः। तद्विपरीतो मानुषस्यायुष इति संक्षेपः। तद्व्यासः-विनीतस्वभावः प्रकृतिभद्रता प्रगुणव्याहारता तनुकषात्यवं मरणकालासंक्लेशतादिः ॥17॥...स्वभावेन मार्दवम्। उपदेशानपेक्षमित्यर्थः। एतदपि मानुषस्यायुष आस्रवः। = नरकायुका आस्रव पहले कह आये हैं। उससे विपरीत भाव मनुष्यायुका आस्रव है। संक्षेपमें यह सूत्रका अभिप्राय है। उसका विस्तारसे खुलासा इस प्रकार है-स्वभावका विनम्र होना, भद्र प्रकृतिका होना, सरल व्यवहार करना, अल्प कषायका होना तथा मरणके समय संक्लेश रूप परिणतिका नहीं होना आदि मनुष्यायुके आस्रव हैं।...स्वभावसे मार्दव स्वभाव मार्दव है। आशय यह है की बिना किसीके समझाये बुजाये मृदुता अपने जीवनमें उतरी हुई हो इसमें किसीके उपदेशकी आवश्यकता न पड़े। यही भी मनुष्यायुका आस्रव है। (राजवार्तिक अध्याय 6/18/1/525/23) राजवार्तिक अध्याय 6/17/526/15 मिथ्यादर्शनालिङ्गितामति-विनीतस्वभावताप्रकृतिभद्रता-मार्दवार्जवसमाचारसुखप्रज्ञापनीयता-बालुकाराजिसदृशरोष-प्रगुणव्यवहारप्रायताऽल्पारम्भपरिग्रह-संतोषाभिरति-प्राण्युपघातविरमणप्रदोषविकर्मनिवृत्ति-स्वागताभिभाषणामौखर्यप्रकृतिमधुरता-लोकयात्रानुग्रह-औदासीन्यानुसूयाल्पसंक्लेशता-गुरुदेवता-तिथिपूजासंविभागशीलता-कपोतपीललेश्योपश्लेष-धर्मध्यानमरणका-लतादिलक्षणः। = भद्रमिथ्यात्व विनीत स्वभाव, प्रकृतिभद्रता, मार्दव आर्जव परिणाम, सुख समाचार कहनेकी रुचि, रेतकी रेखाके समान क्रोधादि, सरल व्यवहार, अल्पपरिग्रह, संतोष सुख, हिंसाविरक्ति, दुष्ट कार्योंसे निवृत्ति, स्वागततत्परता, कम बोलना, प्रकृति मधुरता, लोकयात्रानुग्रह, औदासीन्यवृत्ति, ईर्षारहित परिणाम, अल्पसंक्लेश, देव-देवता तथा अतिथि पूजामें रुचि दानशीलता, कपोतपीत लेश्यारूप परिणाम, मरण कालमें धर्मध्यान परिणति आदि मनुष्यायुके आस्रव कारण हैं। राजवार्तिक अध्याय 6/20/1527/15 अव्यक्तसामायिक-विराधितसम्यग्दर्शनता भवनाद्यायुषः महर्द्धिकमानुषस्य वा। = अव्यक्त सामायिक और सम्यग्दर्शनकी विराधना आदि....महर्द्धिक मनुष्यकी आयुके आस्रवके कारण हैं। (और भी देखें [[ ]]आयु 3/12)
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 446/652/13 तत्र ये हिंसादयः परिणामा मध्यमास्ते मनुजगतिनिर्वर्तकाः बालिकाराज्या, दारुणा, गोमूत्रिकया, कर्दमरागेण च समानाः यथासंख्येन क्रोधमानमायालोभाः परिणामाः। जीवघातं कृत्वा हा दुष्टं कृतं, यथा दुःखं मरणं वास्माकं अप्रियं तथा सर्वजीवानां। अहिंसा शोभना वर्यतु असमर्था हिंसादिकं परिहर्तुमिति च परिणामः। मृषापरदोषसूचकं परगुणानामसहनं वचनं वासज्जनाचारः। साधुनामयोग्यवचने दुर्व्यापारे च प्रवृत्तानां का नाम साधुतास्माकमिति परिणामः। तथा शस्त्रप्रहारादप्यर्थः परद्रव्यापहरणं, द्रव्यविनाशो हि सकलकुटुम्बविनाशो, नेतरत् तस्माद्दुष्टकृतं परधनहरणमिति परिणामः। परदारादिलङ्घनमस्माभिः कृतं तदतीचाशोभनं। यथास्मद्दाराणं परैर्ग्रहणे दुःखमात्मसाक्षिकं तद्वत्तेषामिति परिणामः। यथा गङ्गादिमहानदीनां अनवतरप्रवेशेऽपि न तृप्तिः सागरस्यैवं द्रविणेनापि जीवस्य संतोषो नास्तीति परिणामः। एवमादि परिणामानां दुर्लभता अऩुभवसिद्धैव।
= इन (तीव्र, मध्यम व मन्द) परणामोंमें जो मध्यम हिंसादि परिणाम हैं वे मनुष्यपनाके उत्पादक हैं। (तहाँ उनका मध्यम विस्तार निम्न प्रकार जानना) 1. चारोँ कषायोंकी अपेक्षा-बालुकामें खिंची हुई रेखाके मान क्रोध परिणाम, लकड़ीके समान मान परिणाम, गोमूत्राकरके समान माया परिणाम, और किचड़के रंगके समान लोभ परिणाम ऐसे परिणामोंसे मनुष्यपनाकी प्राप्ति होती है। 2. हिंसा की अपेक्षा-जीव घात करनेपर, हा! मैंने दुष्ट कार्य किया है, जैसे दुःख व मरण हमको अप्रिय हैं सम्पूर्ण प्राणियोंको भी उसी प्रकार वह अप्रिय हैं, जगत्में अहिंसा ही श्रेष्ठ व कल्याणकारिणी हैं। परन्तु हम हिंसादिकोंका त्याग करनेंमें असमर्थ हैं। ऐसे परिणाम.... 3. असत्यकी अपेक्षा-झूठे पर दोषोंको कहना, दूसरोंके सद्गुण देखकर मनमें द्वेष करना, असत्य भाषण करना यह दुर्जनोंका आचार है। साधुओंके अयोग्य ऐसे निंद्य भाषण और खोटे कामोंमें हम हमेशा प्रवृत्त हैं, इसलिए हममें सज्जनपना कैसा रहेगा? ऐसा पश्चात्ताप करना रूप परिणाम। 4. चोरीकी अपेक्षा-दूसरोंका धन हरण करना, यह शस्त्रप्रहारसे भी अधिक दुःखदायक है, द्रव्यका विनाश होनेसे सर्वकुटुम्बका ही विनाश होता है, इसलिए मैंने दूसरोंका धन हरण किया है सो अयोग्य कार्य हमसे हुआ है, ऐसे परिणाम। 5. ब्रह्मचर्यकी अपेक्षा-हमारी स्त्रीका किसीने हरण करनेपर जैसा हमको अतिशय कष्ट दिया है वैसा उनको भी होता है यह अनुभवसे प्रसिद्ध है। ऐसे परिणाम होना। 6. परिग्रहकी अपेक्षा-गंगादि नदियाँ हमेशा अपना अनन्त जल लेकर समुद्रमें प्रवेश करती हैं तथापि समुद्रकी तृप्ति होती ही नहीं। यह मनुष्य प्राणी भी धन मिलनेसे तृप्त नहीं होता है। इस तरहके परिणाम दुर्लभ हैं। ऐसे परिणामोंसे मनुष्यपनाकी प्राप्ति होती है।
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा 806/983 पयडीए तणुकसाओ दाणरदीसीलसंजमविहीणो। मज्झिमगुणेहिं जुत्तोमणुवाउं बंधदे जीवो ॥806॥
= जो जीव विचार बिना प्रकृति स्वभाव ही करि मंद कषायी होइ, दानविषै प्रीतिसंयुक्त होइ, शील संयम कर रहित होइ, न उत्कृष्ट गुण न दोष ऐसे मध्यम गुणनिकरि संयुक्त होई सो जीव मनुष्यायु कौं बाँधै हैं। 8. शलाकापुरुषोंकी आयुके बन्धयोग्य परिणाम
तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4/504-506 एदे मणुओ पदिसुदिपहुदि हुणाहिरायंता। पुव्वभवम्मि विदेहे राजकुमारामहाकुले जादा ॥504॥ कुसला दाणादीसुं संजमतवणाणवंतपत्ताणं। णियजोग्गअणुठ्ठाणामद्दवअज्जवगुणेहिं सर्जुत्ता ॥505॥ मिच्छत्त भावणाए भोगाउं बंधिऊण ते सव्वे। पच्छा खाइयकम्मं गेण्हंति जिणिंदचरणमूलम्हि ॥506॥
= प्रतिश्रुतिको आदि लेकर नाभिराय पर्यन्तमें चौदह मनु पूर्वभवमें विदेह क्षेत्रके भीतर महाकुलमें राजकुमार थे ॥504॥ वे सब संयम तप और ज्ञानसे युक्त पत्रोंके लिए दानादिकके देनेमें कुशल, अपने योग्य अनुष्ठानसे संयुक्त, और मार्दव आर्जव गुणोंसे सहित होते हुए पूर्वमें मिथ्यात्व भावनासे भोगभूमिकी आयुको बाँधकर पश्चात् जिनेन्द्र भगवान्के चरणोंके समीप क्षायिक सम्यक्त्वको ग्रहण करते हैं ॥505-506॥ 9. सुभोग भूमिज मनुष्यायुके बन्धयोग्य परिणाम
तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4/365-671 भोगमहीए सव्वे जायंते मिच्छभावसंजुता। मंदकसायामाणवा पेसुण्णासूयदव्वपरिहीणा ॥365॥ वज्जिद मंसाहारा मधुमज्जोदुंबरेहि परिचता। सच्चजुदा मदरहिदा वारियपरदारपरिहीणा ॥366॥ गुणधरगुणेसु रत्ता जिणपूजं जे कुणंति परवसतो। उववासतणुसरीरा अज्जवपहुदींहिं संपण्णा ॥367॥ आहारदाणणिरदा जदीसु वरविविहजोगजुत्तेसुं। विमलतरसंजमेसु य विमुक्कगंथेसु भत्तीए ॥368॥ पुव्वं बद्धणराऊ पच्छा तित्थयरपादमूलम्मि। पाविदखाइससम्मा जायंते केइ भोगभूमीए ॥369॥ एवं मिच्छाइठ्ठि णिग्गंथाणं जदीण दाणाइं। दादूण पुण्णपाके भोगमही केइ जायंति ॥370॥ आहाराभयदाणं विविहोसहपोथ्ययादिदाणं। सेसे णाणोयणं दादूणं भोगभूमि जायंते ॥371॥
= भोग भूमिमें वे सब जीव उत्पन्न होते हैं जो मिथ्यात्व भावसे युक्त होते हुए भी, मन्दकषायी हैं, पैशुन्य एवं असूयादि द्रव्योंसे रहित हैं, मांसाहारके त्यागी हैं, मधु मद्य और उदुम्बर फलोंके भी त्यागी हैं, सत्यवादी हैं, अभिमानसे रहित हैं, वेश्या और परस्त्रीके त्यागी हैं, गुणियोंके गुणोंमें अनुरक्त हैं, पराधीन होकर जिनपूजा करते हैं, उपवास से शरीरको कृश करनेवाले हैं, आर्जव आदिसे उत्पन्न हैं, तथा उत्तम एवं विविध प्रकारके योगोंसे युक्त, अत्यन्त निर्मल सम्यक्त्वके धारक और परिग्रहसे रहित, ऐसे यतियोंको भक्तिसे आहार देनेमें तत्पर हैं ॥365-368॥ जिन्होंने पूर्व भवमें मनुष्यायुको बाँध लिया है, पश्चात् तीर्थंकरके पाद मूलमें क्षायिक सम्यक्दर्शन प्राप्त किया हैं, ऐसे कितने ही सम्यक्दृष्टि पुरुष भी भोगभूमिमें उत्पन्न होते हैं ॥369॥ इस प्रकार कितने ही मिथ्यादृष्टि मनुष्य निग्रन्थ यतियोंको दानादि देकर पुण्यका उदय आनेपर भोगभूमिमें उत्पन्न होते हैं ॥370॥ शेष कितने ही मनुष्य आहार दान, अभयदान, विविध प्रकारकी औषध तथा ज्ञानके उपकरण पुस्तकादिके दानको देकर भोगभूमिमें उत्पन्न होते हैं। 10. कुभोग भूमिज मनुष्यायुके बन्धयोग्य परिणाम
तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4/2500-2511 मिच्छत्तम्मि रत्ताणं मंदकसाया पियंवदा कुडिला धम्मफलं मग्गंता मिच्छादेवेसु भत्तिपरा ॥2500॥ सुद्धोदणसलिलोदणर्कजियअसणादिकट्ठसुकिलिट्ठा। पंचग्गितवं विसमं कायकिलेसंचकुव्वंता ॥2501॥ सम्मत्तरयणहीणा कुमाणुसा लवणजलधिदीवेसुं। उपज्जंति अधण्णा अण्णाणजलम्मिज्जंता ॥2502॥ अदिमाणगव्विदा जे साहूणकुणंति किंच अवमाणं। सम्मत्ततवजुदाणं जे णिग्गंथाणं दूसणा देंति ॥2503॥ जे मायाचाररदा संजमतवजोगवज्जिदा पावा। इड्ढिरससादगारवगरुवा जे मोहभावण्णा ॥2504॥ थूलसुहुमादिचारं जे णालोचंति गुरुजणसमीवे। सज्झाय वंदणाओ जेगुरुसहिदा ण कुव्वंति ॥2505॥ जे छंडिय मुणिसंघं वसंति एकाकिणो दुराचारा। जे कोहेण य कलहं सव्वेसिंतो पकुव्वंति ॥2506॥ आहारसण्ण सत्तालोहकसाएण जणिदमोहा जे। धरि ऊण जिणलिंगं पावं कुव्वंति जे घोरं ॥2507॥ जे कुव्वंति ण भत्तिं अरहंताणं तहेव साहूणं। जे वच्छलविहीणा पाउव्वण्णम्मि संघम्मि ॥2508॥ जे गेण्हंति सुवण्णप्पहुदिं जिणलिंगं धारिणो हिठ्ठा। कण्णाविवाहपहुंदि संजदरूवेण जे पकुव्वंति ॥2509॥ जे भुंजंति विहिणा मोणेणं धोर पावसंलग्गा। अण अण्णदरुदयादो सम्मत्तं जे विणासंति ॥2510॥ ते कालवसं पत्ता फलेण पावण विसमपाकाणं। उप्पज्जंति कुरूवा कुमाणुसा जलहिदिवेसुं ॥2511॥
= मिथ्यात्वमें रत, मन्द कषायी, प्रिय बोलनेवाले, कुटिल, धर्म फलको खोजनेवाले, मिथ्यादेवोंकी भक्तिमें तत्पर, शुद्ध ओदन, सलिलोदन व कांजी खानेके कष्टसे संक्लेशको प्राप्त विषम पंचाग्रि तप, व कामक्लेशको करनेवाले, और सम्यक्त्वरूपी रत्नसे रहित अधन्य जीव अज्ञानरूपी जलमें डूबते हुए लवणसमुद्रके द्विपोंमें कुमानुष उत्पन्न होते हैं ॥2500-2502॥ इसके अतिरिक्त जो लोग तीव्र अभिमानसे गर्वित होकर सम्यक्त्व व तपसे युक्त साधुओंका किंचित् भी अपमान करते हैं, जो दिगम्बर साधुओंकी निन्दा करते हैं, जो पापी संयम तप व प्रतिमायोगसे रहित होकर मायाचारमें रत रहते हैं, जो ऋद्वि रस और सात इन तीन गारवोंसे महान् होते हुए मोहको प्राप्त हैं जो स्थूल व सूक्ष्म दोषोंकी गुरुजनोंके समीपमें आलोचना नहीं करते हैं, जो गुरुके साथ स्वध्याय व वन्दना कर्मको नहीं करते हैं, जो दुराचारी मुनि संघको छोड़कर एकाकी रहते हैं, जो क्रोधसे सबसे कलह करते हैं, जो आहार संज्ञामें आसक्त व लोभ कषायमें मोहको प्राप्त होते हैं, जो जिनलिंगको धारण कर घोर पापको करते हैं, जो अरहन्त तथा साधुओंकी भक्ति करते हैं, जो चातुर्वर्ण्य संघके विषयमें वात्सल्य भावसे विहीन होते हैं, जो जिनलिंगके धारी होकर स्वर्णादिकको हर्षसे ग्रहण करते हैं, जो संयमीके वेषसे कन्याविवाहादिक करते हैं, जो मौनके बिना भोजन करते हैं, जो घोर पापमेंसंलग्न रहते हैं, जो अनन्तानुबन्धी चतुष्टयमेंसे किसी एकके उदित होनेसे सम्यक्त्वको नष्ट करते है, वे मृत्युको प्राप्त होकर विषम परिपाकवाले पापकर्मोंके फलसे समुद्रके इन द्वीपोंमें कुत्सित रूपसे कुमानुष उत्पन्न होते हैं ॥2503-2511॥ ( जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो अधिकार 10/59-79) ( त्रिलोकसार गाथा 922-924) 11. देवायु सामान्यके बन्धयोग्य परिणाम
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 6/20-21 सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसिदेवस्य ॥20॥ सम्यक्त्वं च ॥21॥
= सरागसंयम, संयमासंयम,, अकामनिर्जरा, और बालतप ये देवायुके आस्रव हैं ॥20॥ सम्यक्त्व भी देवायुका आस्रव है ॥21॥
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 6/18/334/12 स्वभावमार्दवं च ॥18॥ ...एतदपि मानुषस्यायुष आस्रवः। पृथग्योगकरणं किमर्थम्। उत्तरार्थम्, देवायुष आस्रवोऽयमपि यथा स्यात्।
= स्वभावकी मृदुता भी मनुष्यायुका आस्रव हैं। = प्रश्न-इस सूत्रको पृथक् क्यों बनाया? उत्तर-स्वभावकी मृदुता देवायुका भी आस्रव है इस बातके बतलाने के लिए इस सूत्रको अलग बनाया है। (राजवार्तिक अध्याय 6/18/1-2/526/24)
तत्त्वार्थसार अधिकार 4/42-43 आकामनिर्जराबालतपो मन्दकषायता। सुधर्मश्रवणं दानं तथायतनसेवनम् ॥42॥ सरागसंयमश्चैव सम्यक्त्वं देशसंयमः। इति देवायुषो ह्येते भवन्त्यास्त्रवहेतवः ॥
= बालतप व अकामनिर्जराके होनेसे, कषाय मन्द रखनेसे, श्रेष्ठ धर्मको सुननेसे, दान देने, आयुतन सेवी बननेसे, सराग साधुओंका संयम धारण करनेसे, देशसंयम धारण करनेसे, सम्यग्दृष्टि होनेसे, देवायुका आस्रव होता है।
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा 807/983 अणुव्वदमहव्वदेहिं य बालतवाकामणिज्जराए य। देवाउगं णिबंधइ सम्माइट्ठी य जो जीवो ॥
= जो जीव सम्यग्दृष्टि है, सो केवल सम्यक्त्व करि साक्षात् अणुव्रत महाव्रतनिकरिदेवायुकौं बाँधै है बहुरि जो मिथ्यादृष्टि जीव है सो उपचाररूप अणुव्रत महाव्रतनिकरि वा अज्ञानरूप वाल तपश्चरण करि वा बिना इच्छा बन्धादिकतै भई ऐसी आकाम निर्जराकरि देवायुकौं बाँधे हैं। 12. भवनत्रिकायु सामान्यके बन्धयोग्य परिणाम
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 6/21/336/6 तेन सरागसंयमसंयमासंयमावपि भवनवास्याद्यायुष आस्रवौ प्राप्नुतः। नैष दोषः सम्यक्त्वभावे सति तद्व्यपदेशाभावात्तदुभयमप्यत्रान्तर्भवति।
= प्रश्न-सरागसंयम और संयमासंयम ये भवनवासी आदिकी आयुके आस्रव हैं यह प्राप्त होता है? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्वके अभावमें सरागसंयम और संयमासंयम नहीं होते। इसलिए उन दोनोंका यहीं अन्तर्भाव होता है अर्थात् ये भी सौधर्मादि देवायुके आस्रव हैं, क्योंकि ये सम्यक्त्वके होने पर ही होते हैं। राजवार्तिक अध्याय 6/20/1/527/15 अव्यक्तसामायिक-विराधितसम्यग्दर्शनता भवनाद्यायुषः महिर्द्धिकमानुषस्य वा पञ्चाणुव्रतधारिणोऽविराधितसम्यग्दर्शनाः तिर्यङ्मनुष्याः सौधर्मादिषु अच्युतावसानेसूत्यद्यन्ते, विनिपतितसम्यक्त्वा भवनादिषु। अनधिगतजीवा जीवा बालतपसः अनुपलब्धतत्त्वस्वभावा अज्ञानकृतसंयमाः, संक्लेषाभावविशषात् केचिद्भवनव्यन्तरादिषु सहस्रारपर्यन्तेषु मनुष्यतिर्यक्ष्वपि च। आकामनिर्जरा-क्षुत्तृष्णानिरोध-ब्रह्मचर्य-भूशय्या-मलधारण-परिता-पादिभिः परिखेदिमूर्तयः चाटकनिरोधबन्धनबद्धा दीर्घकालरोगिणः असंक्लष्टाः तरुगिरिशिखरपातिनः अनशनज्जलनजसप्रवेशनविषभक्षण धर्म बुद्धयः व्यन्तरमानुषतिर्यक्षु। निःशीलव्रताः सानुकम्पहृदयाः जलराजितुल्यरोषभोगभूमिसमुत्पन्नाश्च व्यन्तरादिषु जन्म प्रतिपद्यन्ते इति। = अव्यक्त सामायिक, और सम्यग्दर्शनकी विराधना आदि भवनवासी आदिकी आयुके अथवा महिर्द्धिक मनुष्यकी आयुके आस्रव कारण हैं। पंच अणुव्रतोंके धारक सम्यग्दृष्टि तिर्यंच या मनुष्य सौधर्म आदि अच्युत पर्यन्त स्वर्गोंमें उत्पन्न होते हैं। यदि सम्यग्दर्शन विराधना हो जाये तो भवनवासी आदिमें उत्पन्न होते हैं। तत्त्वज्ञानसे रहित बालतप तपनेवाले अज्ञानी मन्द कषायके कारण कोई भवनवासी व्यन्तर आदि सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त उत्पन्न होते हैं। कोई मरकर मनुष्य भी होते हैं, तथा तिर्यंच भी। आकाम निर्जरा, भूख प्यासका सहना, ब्रह्मचर्य, पृथ्वीपर सोना, मल धारण आदि परिषहोंसे खेदखिन्न न होना, गूढ़ पुरुषोंके बन्धनमें पड़नेपर भी नहीं घबड़ाना दीर्घकालीन रोग होनेपर भी असंक्लिष्ट रहना, या पर्वतके शिखरसे झंपापात करना, अनशन, अग्नि प्रवेश, विषभक्षण आदिको धर्म माननेवाले कुतापस व्यन्तर और मनुष्य तथा तिर्यंचोंमें उत्पन्न होते हैं। जिनके व्रत या शीलोंको धारण नहीं किया किन्तु सदय हृदय हैं, जल रेखाके समान मन्द कषायी हैं, तथा भोग भूमिमें उत्पन्न होनेवाले व्यन्तर आदिमें उत्पन्न होते हैं।
त्रिलोकसार गाथा 450 उम्मग्गचारि सणिदाणाणलादिमुदा अकामणिज्जरिणो। कुदवा सबलचरित्ता भवणतियं जंति ते जीवा ॥450॥
= उन्मार्गचारि, निदान करने वाले अग्नि, जल आदिसे झंपापात करनेवाले, बिना अभिलाष बन्धादिक कै निमित्त तैं परिषह सहनादि करि जिनकै निर्जरा भई, पंचाग्नि आदि खोटे तपके करनेवाले, बहुरि सदोष चारित्रके धरन हारे जे जीव हैं ते भवनत्रिक विषै जाय ऊपजै हैं। 13. भवनवासी देवायुके बन्धयोग्य परिणाम
तिलोयपण्णत्ति अधिकार 3/198,199,206 अवमिदसंका केई णाणचरित्ते किलिट्टभावजुदा। भवणामरेसु आउं बंधंति हु मिच्छभाव जुदा ॥198॥ अविणयसत्ता केई कामिणिविरहज्जरेण जज्जरिदा कलहपिया पाविट्टा जायंते भवणदेवेसु ॥199॥ जे कोहमाणमायालोहासत्ताकिविट्ठचारित्ता। वइराणुबद्वरुचिरा ते उपज्जंति असुरेसु ॥206॥
= ज्ञान और चारित्रके विषयमें जिन्होंने शंकाको अभीदूर नहीं किया है, तथा जो क्लिष्ट भावसे युक्त हैं, ऐसे जो मिथ्यात्व भावसे सहित होते हुए भवनवासी सम्बन्धी देवोंकी आयुको बाँधते हैं ॥198॥ कामिनीके विरहरूपी ज्वरसे जर्जरित, कलहप्रिय और पापिष्ठ कितने ही अविनयी जीव भवनवासी देवोंमें उत्पन्न होते हैं ॥199॥ जो जीव क्रोध, मान, मायामें आसक्त हैं, अकृपिष्ठ चारित्र अर्थात् क्रूराचारी हैं, तथा वैर भावमें रूचि रखते हैं वे असुरोंमें उत्पन्न होते हैं। 14. व्यन्तर तथा नीच देवोंकी आयुके बन्धयोग्य परिणाम
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 181-182/398 णाणस्स केवलीणं धम्मस्साइरिय सव्वसाहुणं। माइय अवण्णवादी खिब्भिसिय भावणं कुणइ ॥181॥ मंताभिओगकोदुगभूदीयम्मं पउंजदे जोहु। इढ्ढिरससादहेदुं अभिओगं भावणं कुणइ ॥182॥
= श्रुतज्ञान, केवली व धर्म, इन तीनोंके प्रति मायावी अर्थात् ऊपसे इनके प्रति प्रेम व भक्ति दिखाते हुए, परन्तु अन्दरसे इनके प्रतिका बहुमान या आचरणसे रहित जीव, आचार्य, उपाध्याय व साधु परमेष्ठीमें दोषोंका आरोपण करनेवाले, और अवर्णवादी जन ऐसे अशुभ विचारोंसे मुनि किल्विष जातिके देवोंमें जन्म लेते हैं ॥181॥ मम्त्राभियोग्य अर्थात् कुमारी वगैरहमें भूतका प्रवेश उत्पन्न करना, कौतुहलोपदर्शन क्रिया अर्थात् अकालमें जलवृष्टि आदि करके दिखाना, आदि चमत्कार, भूतोंकी क्रिड़ा दिखाना-ये सब क्रियाएँ ऋद्धि गौरव या रस गौरव, या सात गौरव दिखानेके लिए जो करता है सो आभियोग्य जातिके वाहन देवोंमें उत्पन्न होता हैं।
तिलोयपण्णत्ति अधिकार 3/201-205 मरणे विराधिदम्मि य केई कंदप्पकिव्विसा देवा। अभियोगा संमोहप्पहुदीसुरदुग्गदीसु जायंते ॥201॥ जे सच्चवयणहोणा हस्सं कुव्वंति बहुजणे णियमा। कंदप्परत्तहिदया ते कंदप्पैसु जायंति ॥202॥ जे भूदिकम्मतंताभियोगकोदूहलाइसंजुत्ता। जणवण्णे य पअट्टा वाहणदेवेसु ते होंति ॥203॥ तित्थयरसंघमहिमाआगमगंथादिएसु पडिकूला। दुव्वणया णिगदिल्ला जायंते किव्विंससुरेसु ॥204॥ उप्पहउवएसयरा विप्पडिवण्णा जिणिंदमग्गमि। मोहेणं संमोघा संमोहसुरेसु जायंते ॥205॥ तिलोयपण्णत्ति अधिकार 8/556,566 सबल चरित्ता कूरा उम्ग्गट्ठा णिदाणकदभावा। मंदकसायाणुरदा बंधंते अप्पइद्धिअसुराउं ॥556॥ ईसाणलंतवच्चुदकप्पंतं जाव होंति कंदप्पा। किव्विसिया अभियोगा णियकप्पजहण्णठिदिसहिया ॥566॥
= मरणके विराधित करनेपर अर्थात् समाधि मरणके बिना, कितने ही जीव दुर्गतियोमें कन्दर्प, किल्विष आभियोग्य और सम्मोह इत्यादि देव उत्पन्न होते हैं। जो प्राणी सत्य वचनसे रहित हैं, नित्य ही बहुजनमें हास्य करते हैं, और जिनका हृदय कामासक्त रहता है, वे कन्दर्प देवोमें उत्पन्न होते हैं ॥202॥ जो भूतिकर्म, मन्त्राभियोग और कौतूहलादि आदिसे संयुक्त हैं तथा लोगों के गुणगान (खुशामद) में प्रवृत्त कहते हैं, वे वाहन देवोमें उत्पन्न होते हैं ॥203॥ जो लोग तीर्थंकर व संघकी महिमा एवं आगमग्रन्थादिके विषयमें प्रतिकूल हैं, दुर्विनयी, और मायाचारी हैं, वे किल्विष देवोंमें उत्पन्न होते हैं ॥204॥ उत्पथ अर्थात् कुमार्गका उपदेश करनेवाले, जिनेन्द्रोपदिष्ट मार्गमें विरोधी और मोहसे संमुग्ध जीव सम्मोह जातिके देवोमें उत्पन्न होते हैं ॥205॥ दूषित चारित्रवाले, क्रूर, उन्मार्गमें स्थित, निदान भावसे सहित और मन्द कषायोमें अनुरक्त जीव अल्पर्द्धिक देवोंकी आयुको बाँधते हैं ॥556॥ कन्दर्प, किल्विषिक और आभियोग्य देव अपने-अपने कल्पकी जघन्य स्थित सहित क्रमशः ईशान, लान्तव और अच्युत कल्पपर्यन्त होते हैं ॥566॥ 15. ज्योतिषदेवायुके बंध योग्य परिणाम
तिलोयपण्णत्ति अधिकार 7/617 आयुबंधणभावं दंसणगहणस्य कारणं विवहं। गुणठाणादि पवण्णण भावण लोएव्व त्ववत्तव्वं ॥617॥
= आयु के बन्धक भाव, सम्यग्दर्शन ग्रहणके विविध कारण और गुणस्थानादिका वर्णन, भावनलोकके मान चाहिए ॥617॥ 16. कल्पवासी देवायु सामान्यके बन्धयोग्य परिणाम
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 6/21/336/5 सम्यक्त्वं च ॥21॥ किम्। दैवस्यायुष आस्रवइत्यनुवर्तते। अविशेषाभिधानेऽपि सौधर्मादिविशेषगतिः।
= सम्यक्त्व भी देवायु का आस्रव है। प्रश्न-सम्यक्त्व क्या है? उत्तर-`देवायु का आस्रव है', इस पदकी पूर्व सूत्रसे अनुवृत्ति होती है। यद्यपि सम्यक्त्व को सामान्यसे देवायुका आस्रव कहा है, तो भी इससे सौधर्मादि विशेषका ज्ञान होता है। (राजवार्तिक अध्याय 6/21/527/27)। राजवार्तिक अध्याय 6/20/1/527/13 कल्याणमित्रसम्बन्ध आयतनोपसेवासद्धर्मश्रवणगौरवदर्शना-ऽनवद्योप्रोषधोपवास-तपोभावना-बहुश्रुतागमपरत्व-कषायनिग्रह-पात्रदान-पीतपद्मलेश्यापरिणाम-धर्मध्यानमरणादिलक्षणः सौधर्माद्यायुषः आस्रवः। = कल्याणमित्र संसर्ग, आयतन सेवा, सद्धर्मश्रवण, स्वगौरवदर्शन, प्रोषधोपवास, तपकी भावना, बहुश्रुतत्व आगमपरता कषायनिग्रह, पात्रदान, पीत पद्मलेश्या परिणाम, मरण कालमें धर्मध्यान रूप परिणति आदि सौधर्म आदि आयुके आस्रव हैं। (और भी. देखें आयु - 3.12) बन्धयोग्य परिणाम। 17. कल्पवासी देवायु विशेषके बन्धयोग्य परिणाम सि.प.8/556-566 सबलचरित्ता कूरा उम्मग्गठ्ठा णिदाणकदभावा। मंदकसायाणुरदा बंधंते अप्पइद्धि असुराउं ॥556॥ दसपुव्वधरा सोहम्मप्पहुदि सव्वट्टसिद्विपरियंतं। चोद्दसपुव्वधरा तट्ट लंतवकप्पादि वच्चंते ॥557॥ सोहम्मादि अच्चुदपरियंतं जंति देवसदजुत्ता। चउविहदाणपणट्ठा अकसाया पंचगुरुभत्ता ॥558॥ सम्मत्तणाणअज्जवलज्जासीलादिएहि परिपुण्णा। जायंते इत्थीओ जा अच्चुदकप्पपरियंतं ॥559॥ गिगलिंगधारिणो जे उक्किट्ठतवस्समेण संपुण्णा। ते जायंति अभव्वा उवरिमगेवज्जपरियंतं ॥560॥ परदो अच्चणवदतवदंसणणाणचरण संपण्णा णिग्गंथा जायंते भव्वा सव्वट्ठसिद्धि परियंतं ॥561॥ चरयापरिवज्जधरा मंदकसाया पियंवदा केई। कमसो भावणपहुदि जम्मंते बम्हकप्पंतं ॥562॥ जे पंचेंदियतिरिया सण्णी हु अकामणिज्जरेण जुदा। मंदकसाया केई जंति सहस्सारपरियंतं ॥563॥ तणदंडणादिसहिया जीवा जे अमंदकोहजुदा। कमसो भावणपहुदो केई जम्मंति अच्चुदं जाव ॥564॥ आ ईसाणं कप्पं उप्पत्ती हादि देवदेवीणं। तप्परदो उब्भूदी देवाणं केवलाणं पि ॥565॥ ईसाणलंतवच्चुदकप्पंतं जाव होंति कंदप्पा। किव्विसिया अभियोगा णियकप्पजहण्णट्ठिदिसहिया ॥566॥ = दूषित चरित्रवाले, क्रूर, उन्मार्गमें स्थित, निदान भावसे सहित, कषायोमें अनुरक्त जीव अल्पर्द्धिक देवोंकी आयु बाँधते हैं ॥556॥ दशपूर्व के धारी जीव सौधर्मादि सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त जाते हैं ॥557॥ चार प्रकारके दानमें प्रवृत्त, कषायोंसे रहित व पंचगुरओंकी भक्तिसे युक्त ऐसे देशव्रत संयुक्त जीव सौधर्म स्वर्गको आदि लेकर अच्युतस्वर्ग पर्यन्त जाते हैं ॥558॥ सम्यक्त्व, ज्ञान, आर्जव, लज्जा एवं शीलादिसे परिपूर्ण स्त्रियां अच्युत कल्प पर्यन्त जाती हैं ॥559॥ जो जघन्य जिनलिंगको धारण करनेवाले और उत्कृष्ट तपके श्रमसे परिपूर्ण वे उपरिमग्रैवेयक पर्यन्त उत्पन्न होते हैं ॥560॥ पूजा, व्रत, तप, दर्शन ज्ञान और चारित्रसे सम्पन्न निर्ग्रन्थ भव्य इससे आगे सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त उत्पन्न होते हैं ॥561॥ मंद कषायी व प्रिय बोलनेवाले कितने ही चरक (साधुविशेष) और परिव्राजक क्रमसे भवनवासियोंको आदि लेकर ब्रह्मकल्प तक उत्पन्न होते हैं ॥562॥ जो कोई पंचेन्द्रियतिर्यंच संज्ञो आकाम निर्जरासे युक्त हैं और मंदकषायी हैं वे सहस्रार कल्प तक उत्पन्न होते हैं ॥563॥ जो तनुदंडन अर्थात् कायक्लेश आदिसे सहित और तीव्र क्रोधसे युक्त हैं ऐसे कितने ही आजीवक साधु क्रमशः भवनवासियों से लेकर अच्युत स्वर्ग पर्यन्त जन्म लेते हैं ॥564॥ देव और देवियोंको उत्पत्ति ईशान कल्प तक होता है। इससे आगे केवल देवोंकी उत्पत्ति ही है ॥565॥ कन्दर्प, किल्विषिक और अभियोग्य देव अपने अपने कल्पकी जघन्य स्थिति सहित क्रमशः ईशान, लान्तव और अच्युत कल्प पर्यन्त होते हैं। 18. लौकान्तिक देवायुके बन्धयोग्य परिणाम
तिलोयपण्णत्ति अधिकार 8/646-651 इह खेत्ते वेरग्गं बहुभेयं भाविदूण बहुकालं। संजम भावेहि मुणी देवा लोयंतिया होंति ॥646॥ थुइणिंदासु समाणो सुहदुक्खेसु सबधुरिउवग्गे। जो समणो सम्मत्तो सो च्चिय लोयंतियो होदि ॥647॥ जे णिरवेक्खा देहे णिछंदा णिम्ममा णिरारम्भा। णिरवज्जा समणवरा ते च्चिय लोयंतिया होंति ॥648॥ संयगविप्पयोगे लाहालाहम्मि जीविदे मरणे। जो समदिठ्ठी समणो सो च्चिय लोयंतियो होदि ॥649॥ अणवरदसमं पत्ता संजमसमिदीसु झाणजोगेसुं तिव्वतवचरणजुत्ता समणा लोयंतिया होंति ॥650॥ पंचमहव्वय सहिया पंचसु समिदीसु चिरम्मि चेट्ठंति। पंचक्खविसयविरदा रिसिणो लोयंतिया होंति ॥651॥
= इस क्षेत्रमें बहुत काल तक बहुत प्रकारके वैराग्यको भाकर संयमसे युक्त मुनि लौकान्तिक देव होते हैं ॥646॥ जो सम्यग्दृष्टि श्रमण (मुनि) स्तुति और निन्दामें, सुख और दुःखमें तथा बन्धु और रिपुमें समान हैं वही लोकान्तिक होता है ॥647॥ जो देहके विषयमें निरपेक्ष, निर्द्वन्द्व, निर्मम, निरारम्भ और निरवद्य हैं वे ही श्रेष्ठ श्रवण लौकान्तिक देव होते हैं ॥648॥ जो श्रमण संयोग और वियोगमें, लाभ और अलाभमें, तथा जीवित और मरणमें, समदृष्टि होते हैं वे लौकान्तिक होते हैं ॥649॥ संयम, समिति, ध्यान एवं समाधिके विषयमें जो निरन्तर श्रमको प्राप्त हैं अर्थात् समाधान हैं, तथा तीव्र तपश्चरणसे संयुक्त हैं वे श्रमण लौकान्तिक होते हैं ॥650॥ पाँच महाव्रतोंसे सहित, पाँच समितियोंका चिरकाल तक आचरण करनेवाले, और पाँचों इन्द्रिय विषयोंसे विरक्त ऋषि लौकान्तिक होते हैं ॥651॥ 19. कषाय व लेश्याकी अपेक्षा आयु बन्धके 20 स्थान
गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा 295-639 (विशेष देखो जन्म 6/7)
शक्ति स्थान 4 लेश्या स्थान 14 आयुबन्ध स्थान 20 1. शिला भेद 1 कृष्ण उ. 0 अबन्ध - समान - - 1 नरकायु 2. पृथ्वी भेद 1 कुष्ण म. 1 नरकायु - समान 2 कृष्णादि म. उ. 1 नरकायु - - 3 कृष्णादि 2 म. 1 नरकायु - - - + 1 उ. 2 नरक तिर्यच्चायु - - - - 3 नरक तिर्यञ्च2 मनुष्यायु - - 4 कृष्णादि 3 म. 4 सर्व - - - + 1ज. - - 5 कृष्णादि 4 म. 4 सर्व - - - + 1ज. - - 6 कृष्णादि 5 म. 4 सर्व - - - + 1ज. 3 धूलिरेखा समान 6 कृष्णादि 1 ज. 4 सर्व सर्व - - +5 म. 3 मनुष्यदेव व तिर्यञ्चायु - - - - - 2 मनुष्य देवायु - - 5 कृष्ण बिना - - - 1 ज.+ 4 म. - - 4 कृष्ण, नील बिना 1 देवायु - - 3 पीतादि 1 उ. 1 देवायु - - - + म. 0 अबन्ध - - 2 पद्म, शुक्ल 1 ज. 0 अबन्ध - - - + 1 म. - - 1 शुक्ल 1 म. 0 अबन्ध 4 जलरेखा समान 1 शुक्ल 1 उ. 0 अबन्ध
4. आठ अपकर्ष काल निर्देश 1. कर्मभूमिजोंकी अपेक्षा 8 अपकर्ष
धवला पुस्तक 10/4,2,4,36/233/4 जे सोवक्कमाउआ ते सग-सग भंजमाणाउट्ठिदीए बे तिभागे अदिक्कंते परभवियाउअबंधपाओग्गा होंति जाव असंखेयद्धात्ति। तत्थ बन्धपाओग्गकालब्भन्तरे आउबन्धपाओग्गपरिणामेहिं के वि जीवा अट्ठवारं के वि सत्तवारं के वि छव्वारंके वि पंचवारं के वि चत्तारिवारं, के वि तिण्णिवारं के वि दोवारं के वि एक्कवारं परिणंति। कुदो। साभावियादो। तत्थ तदियत्तिभागपढमसमए जेहि परभवियाउअबन्धो पारद्धोते अंतोमुहेत्तेण बंधं समाणिय पुणो सयलाउट्ठीदीए णवमभागे सेसे पुणो वि बन्धपाओग्गा होंति। सयलाउट्ठिदीए सत्तावीसभागावसेसे पुणो वि बन्धपाओग्गा होंति। एवं सेसतिभाग तिभागावसेसे बन्धपाओग्गा होंति त्ति णेदव्वं जा अट्ठमी आगरिसा त्ति। ण च तिभागावसेसे आउअं णियमेण बज्झदि त्ति एयन्तो। किंतु तत्थ आउअबंधपाओग्गा होंति त्ति उत्त होदि।
= जो जीव सोपक्रम आयुष्य हैं वे अपनी-अपनी भुज्यमान आयु स्थितिके दो त्रिभाग बीत जानेपर वहाँसे लेकर असंखेयाद्धा काल तक परभवसम्बन्धी आयुको बाँधनेके योग्य होते हैं। उनमें आयु बन्धके योग्य कालके भीतर कितने ही जीव आठ बार; कितने ही सात बार; कितने ही छह बार; कितने ही पाँच बार; कितने ही चार बार; कितने ही तीन बार; कितने ही दो बार; कितने ही एक बार आयु बन्धके योग्य परिणामोंमें-से परिणत होते हैं। क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। उसमें जिन जीवोंने तृतीय त्रिभागके प्रथम समयमें परभव सम्बन्धी आयुका बन्ध आरम्भ किया है वे अन्तर्मुहूर्त में आयु बन्धको समाप्त कर फिर समस्त आयु स्थितिके नौंवे भागके शेष रहनेपर फिरसे भी आयु बन्धके योग्य होते हैं। तथा समस्त आयु स्थितिका सत्ताईसवाँ भाग शेष रहनेपर पुनरपि बन्धके योग्य होते हैं। इस प्रकार उत्तरोत्तर जो त्रिभाग शेष रहता जाता है उसका त्रिभाग शेष रहनेपर यहाँ आठवें अपकर्षके प्राप्त होनेतक आयु बन्ध के योग्य होते हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। परन्तु त्रिभाग शेष रहने पर आयु नियमसे बँधती है ऐसा एकान्त नहीं है। किन्तु उस समय जीव आयु बन्धके योग्य होते हैं। यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ( गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 629-643/836)
गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 518/913/17 कर्मभूमितिर्यग्मनुष्याणां भुज्यमानायुर्जघन्यमध्यमोत्कृष्टं विवक्षितमिदं 6561। अत्र भागद्वयेऽतिक्रान्ते तृतीयभागस्य 2187 प्रथमान्तर्मुहूर्तः परभवायुर्बंधयोग्यः, तत्र न बद्धं तदा तदेकभागतृतीयभागस्य 729 प्रथमान्तर्मुहूर्त्त। तत्रापि न बद्ध तदा तदेकभागतृतीयभागस्य243 प्रथमान्तर्मुहूर्तः। एवमग्रेऽग्रे नेतव्यमष्टवारं यावत्। इत्यष्टैवापकर्षाः। ...स्वभावादेव तद्बन्ध प्रायोग्यपरिणमनं जीवानां कारणान्तर निरपेक्षमित्यर्थः।
= किसी कर्मभूमि या मनुष्य या तिर्यञ्चकी आयु 6561 वर्ष हैं। तहाँ तिस आयुका दो भाग गए 2187 वर्ष रहै तहाँ तीसरा भागकौ लागंत ही प्रथम समस्यास्यों लगाई अन्तर्मुहूर्त पर्यंत काल मात्र प्रथम अपकर्ष है तहाँ परभव सम्बन्धी आयुका बन्ध होइ। बहुरि जो तहाँ न बन्धे तौ तिस तीसरा भागका दोय भाग गये 729 वर्ष आयुके अवशेष रहै तहाँ अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त दूसरा अपकर्ष है तहाँ पर भवका आयु बाँधे। बहुरि तहाँ भी न बंधै तो तिसका भी दोय भाग गये 243 वर्ष आयुके अवशेष रहैं अन्तर्मुहूर्त काल मात्र तीसरा अपकर्ष विषैं परभवका आयु बाँधै। बहुरि तहाँ भी बंधै तौ जिसका भी दोय भाग गयें 81 वर्ष रहैं अन्तर्मुहूर्त्त पर्यन्त चौथा अपकर्ष विषैं परभवका आयु बाँधै ऐसे ही दोय दोय भाग गयें 27 वर्ष वा 9 वर्ष रहैं वा तीन वर्ष रहैं अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त पाँचवाँ, छठा, सातवाँ वा आठवाँ अपकर्ष विषैं परभवका आयुकौं बंधनेकौ योग्य जानना। ऐसेंही जो भुज्यमान आयुका प्रमाण होई ताकै त्रिभाग-त्रिभाग विषैं आयुके बन्ध योग्य परिणाम अपकर्षनि विषैं ही होई सो ऐसा कोई स्वभाव सहज ही है अन्य कोई कारण नहीं। 2. भोगभूमिजों तथा देव नारकियोंकी अपेक्षा आठ अपकर्ष
धवला पुस्तक 6/1,9,26/170/1 देव णेरइएसु...छम्मासावसेसे भुंजमाणाउए असंखेयाद्धापज्जवसाणे संते परभवियमाउअं बंधमाणाणं तदसंभवा।...असंखेज्ज तिरिक्खमणुसा...देव णेरइयाणं व भुंजमाणाउए छम्मासादो अहिए संते परभविआउअस्स वंधाभावा।
= भुज्यमान आयुके (अधिकसे अधिक) छह मास अवशेष रहने पर और (कमसे कम) असंखेयाद्धा कालके अवशेष। रहने पर आगामी भव सम्बन्धी आयुको बाँधनेवाले देव और नारकियोंके पूर्व कोटिके त्रिभागसे अधिक आबाधा होना असम्भव है। (वहाँ तो अधिकसे अधिक छह मास ही आबाधा होती है) असंख्यात वर्षकी आयु वाले भोग-भूमिज तिर्यंच व मनुष्योंके भी देव और नारकियोंके समान भुज्यमान आयुके छह माससे अधिक होने पर परभव सम्बन्धी आयु के बन्धका अभाव है।
धवला पुस्तक 10/4,2,4,36/234/2 णिरुवक्कमाउआ पुण छम्मासावसेसे आउअबंधपाओग्गा होंति। तत्थ वि एवं चेव अट्ठगरिसाओ वत्तव्वाओ।
= जो निरूपक्रमायुष्क हैं वे भुज्यमान आयुमें छह मास शेष रहने पर आयु बन्धके योग्य होते हैं। यहाँ भी इसी प्रकार आठ अपकर्षकी कहना चाहिए।
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 158/192/1 देवनारकाणां स्वस्थितौ षण्मासेषु भोगभूमिजानां नवमासेषु च अवशिष्टेषु त्रिभागेन आयुर्बन्धसंभवात्।
= देव नारकी तिनिकैं तो छह महीना आयुका अवशेष रहै अर भोगभूमियां कै नव महीना आयुका अवशेष रहै तब त्रिभाग करि आयु बंधै है। गो.जी/जी.प्र.518/914/24 निरुपक्रमायुष्काः अनपवर्तितायुष्का देवनारका भुज्यमानायुषिषड्मासावशेष परभावायुर्बन्धप्रायोग्या भवन्ति। अत्राप्यष्टाकर्षाः स्युः। समयाधिकपूर्वकोटिप्रभृतित्रिपलितोपम पर्यंत संख्यातासंख्यातवर्षायुष्कभोगभूमितिर्यग्मनुष्याऽपि निरुपक्रमायुष्का इति ग्राह्यं। = निरुपक्रमायुष्क अर्थात् अनपवर्तित आयुष्क देवनारकी अपनी भुज्जमान आयुमें (अधिकसे अधिक) छह मास अवशेष रहने पर परभव सम्बन्धी आयुके बन्ध योग्य होते हैं। यहाँ भी (कर्म भूमिजों वत्) आठ अपकर्ष होते हैं। समयाधिक पूर्व कोटिसे लेकर तीन पल्यकी आयु तक संख्यात व असंख्यात वर्षायुष्क जो भोगभूमिज तियँच या मनुष्य हैं वे भी निरूपक्रमायुष्क ही हैं, ऐसा जानका चाहिए। ( गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 639-643/836-837) 3. आठ अपकर्ष कालोंमें न बँधें तो अन्त समयमें बँधती है गो.जी/जी.प्र.518/913/20 नाष्टमापकर्षेऽप्यायुर्बन्धनियमः, नाप्यन्योऽपकर्षस्तर्हि आयुर्बन्धः कथं। असंखेयाद्धा भुज्यमानायुषोऽन्त्याबल्यसंख्येयभागः तस्मिन्नवशिष्टे प्रागेव अन्तर्महूर्त मात्रसमयप्रबद्धान् परभवायुर्नियमेन बद्ध्वा समाप्नोतीति नियमो ज्ञातव्यः। = प्रश्न - आठ अपकर्षोमें भी आयु न बंधै है, तो आयुका बन्ध कैसे होई? उत्तर-सौ कहैं है - `असंखेयाद्धा' जो आवलीका असंख्यातवाँ भाग भुज्यमान आयुका अवशेष रहै ताकै पहिले (पर-भविक आयुका बन्ध करै है)।
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 158/192/2 यद्यष्टापकर्षेषु क्वचिन्नायुर्बद्धं तदावल्यसंख्येयभागमात्राया समयोनमुहूर्तमात्राया वा असंक्षेपाद्धायाः प्रागेवोत्तरभवायुरन्तर्मुहूर्तमात्रसमयप्रबद्धान् बद्ध्वा निष्ठापयति। एतौ द्वावपि पक्षो प्रवाह्योपदेशत्वात् अङ्गीकृतौं।
= यदि कदाचित् किसी ही अपकर्षमें आयु न बंधै तो कौई आचार्यके मतसे तौ आवलीका असंख्यातवाँ भागप्रमाण और कोई आचार्यके मतसे एक समय घाटि मुहूर्तप्रमाण आयुका अवशेष रहै तींहिके पहले उत्तर भवकी आयुकर्मको...बाँधे है। ए दोऊ पक्ष आचार्यनिका परम्परा उपदेश करि अंगीकार किये हैं। 4. आयुके त्रिभाग शेष रहनेपर ही अपकर्ष काल आने सम्बन्धी दृष्टिभेद
धवला पुस्तक 10/4,2,4,39/237/10 गोदम! जीवा दुविहा पण्णत्ता संखेज्जवस्साउआ चेव असंखेज्जवस्साउआ चेव। तत्थ जे ते असंखेज्जवस्साउआ ते छम्मासावसेसियंसि याउगंसि परभवियं आयुगं णिबंधंता बंधंति। तत्थ जे ते संखेज्जवस्साउआ ते दुविहा पण्णत्ता सोमक्कमाउआ णिरुवक्कम्माउआ ते त्रिभागावसेससियंसि याउगंसि परभवियं आयुगं कम्मं णिबंधंता बंधति। तत्थ जे ते सोवक्कमाउआ ते सिआ तिभागतिभागावसेसयंति यायुगंसि परभवियं आउगं कम्मं णिबंधंता बंधंति। एदेण विहायपण्णत्तिसुत्तेण सह कधं ण विरोहो। ण एदम्हादो तस्स पुधसूदस्स आइरियभेएण भेदभावण्णस्स एयत्ताभावादो।
= प्रश्न - “हे गौतम! जीव दो प्रकारके कहे गये हैं-संख्यात वर्षायुष्क और असंख्यात वर्षायुक्त। उनमें जो असंख्यात वर्षायुष्क है वे आयुके छह मास शेष रहने पर पर-भविक आयुको बाँधते हुए बाँधते हैं। और जो संख्यात वर्षायुष्क जीव हैं वे दो प्रकारके कहे गये हैं। सोपक्रमायुष्क और निरुपक्रमायुष्क। उनमें जो निरुपक्रमायुष्क हैं वे आयुमें त्रिभाग शेष रहने पर पर-भविक आयुकर्मको बाँधते हुए बाँधते हैं। और जो सोपक्रमायुष्क जीव हैं वे कथंचित् त्रिभाग (कथंचित् त्रिभागका त्रिभाग और कथंचित् त्रिभाग-त्रिभागका त्रिभाग) शेष रहने पर पर-भव सम्बन्धी आयुकर्मको बाँधते हैं। इस व्याख्या-प्रज्ञप्ति सूत्रके साथ कैसे विरोध न होगा! उत्तर - नहीं, क्योंकि, इस सूत्रसे उक्त सूत्र भिन्न आचार्यके द्वारा बनाया हुआ होनेके कारण पृथक् है। अतः उससे इसका मिलान नहीं हो सकता। 5. अन्तिम समयमें केवल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही आयु बँधती है।
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 518/913/20 असंक्षेपाद्धाभुज्यमानायुषोन्त्यवाल्येसंख्येयभागः तस्मिन्नवशिष्टे प्रागेव अन्तर्मुहूर्तमात्रसमयप्रबद्धान् परभावायुर्नियमेन बद्धध्वा समाप्नोतीति नियमो ज्ञातव्यः।
= भुज्यमान आयुके कालमें अन्तिम आवलोका असंख्यातवाँ भाग शेष रहने पर अन्तर्मुहूर्त कालमात्र समय प्रबद्धोंके द्वारा परभवकी आयुकौ बाँधकर पूरी करे है ऐसा नियम है अर्थात् अन्तिम समय केवल अन्तर्मुहूर्तमात्र स्थितिवाली परभव सम्बन्धी आयुको बाँध कर निष्ठापन करै है। 6. आठ अपकर्ष कालोमें बँधी आयुका समीकरण
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 643/837/16 अपकर्षेषु मध्येप्रथमवारं वर्जित्वा द्वितीयादिवारे बध्यमानस्यायुषो वृद्धिर्हानिरवस्थितिर्वा भवति। यदि वृद्धिस्तदा द्वितीयादिवारे बद्धाधिकस्थितेरेव प्राधान्यं। अथ हानिस्तदा पूर्वबद्धाधिकस्थितेरेव प्राधान्यं।
= आठ अपकर्षनि विषैं पहली बार बिना द्वितीयादित बारविषैं पूर्वे जो आयु बाँध्या था, तिसकी स्थिति की वृद्धि वा हानि वा अवस्थिति हो है। तहाँ जो वृद्धि होय तौ पीछैं जो अधिक स्थिति बन्धी तिसकी प्रधानता जाननी। पहुरि जो हानि होय तौ पहिली अधिक स्थिति बंधी थी ताकी प्रधानता जाननी। (अर्थात् आठ अपकर्षोमें बँधी हीनाधिक सर्व स्थितियोमेंसे जो अधिक है वह ही उस आयुकी बँधी हुई स्थिति समझनी चाहिए)। 7. अन्य अपकर्षोमें आयु बन्धके प्रमाणमें चार वृद्धि व हानि सम्भव है
धवला पुस्तक 16/पृ.370/11 चदुण्णमाउआणमवट्ठिद-भुजगारसंकमाणं कालो जहण्णमुक्कस्सेण एगसमओ। पुव्वबंधादो समउत्तरं पबद्धस्स जट्ठिदिं पडुच्च जट्ठिदिसंकयो त्ति एत्थ घेत्तव्वं। देव-णिरयाउ-आणं अप्पदरसंकमस्स जट्ट0 अंतोमुहुत्तं, उक्क, तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि। तिरिक्खमणुसाउआणं जह, अंतोमुहुत्तं, उक्क, तिण्णिपलिदोवमाणि सादिरेयाणि।
= चार आयु कर्मोंके अवस्थित और भुजाकार संक्रमोंका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय मात्र हैं। पूर्व बन्धसे एक समय अधिक बाँधे गये आयुकर्मका ज, स्थिति की अपेक्षा यहाँ ज. स्थितिसंक्रम ग्रहण करना चाहिए। देवायु और नरकायुके अल्पतर संक्रमका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे साधिक तेतीस सागरोपम मात्र है। तिर्यंचायु और मनुष्यायु के अल्पतर संक्रमका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे साधिक तीन-तीन पल्योपम मात्र हैं।
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा 441/593 संकमणाकरणूणा णवकरणा होंति सव्व आऊणं...॥
= च्यारि आयु तिनकै संक्रमणकरण बिना नवकरण पाइए है। 8. उसी अपकर्ष कालके सर्व समयोमें उत्तरोत्तर हीन बन्ध होता है
महाबंध पुस्तक 2/$271/145/12 आयुगस्स अत्थि अव्वत्तबंधगा अप्पतरबंधगा य। महाबंध पुस्तक 2/$359/182/6 आयु. अत्थि अवत्तव्वबंधगा य असंखेज्जभागहाणिबंधगा य।
= 1. आयु कर्मका अवक्तव्य बन्ध करनेवाले जीव हैं, और अल्पतर बन्ध करनेवाले जीव हैं। विशेषार्थ - आयु कर्मका प्रथम समयमें जो स्थितिबन्ध होता है उससे द्वितीयादि समयोंमें उत्तरोत्तर वह हीन हीनतर ही होता है ऐसा नियम है। 2. आयु कर्मके अवक्तव्यपद का बन्ध करनेवाले और असंख्यात भागहानि पदका बन्ध करनेवाले जीव हैं। विशेषार्थ-...आयु कर्मका अवक्तव्य बन्ध होने के बाद अल्पतर हो बन्ध होता है।...आयुकर्म...का जब बन्ध प्रारम्भ होता है तब प्रथम समयमें एक मात्र अवक्तव्य पद ही होता है और अनन्तर अल्पतरपद होता है। फिर भी उस अल्पतर पदमें कौन-सी हानि होती है, यही बतलानेके लिये यहाँ वह असंख्यात भागहानि ही होती है यह स्पष्ट निर्देश किया है। 5. आयुके उत्कर्षण अपवर्तन सम्बन्धी नियम 1. बद्ध्यमान व भुज्यमान दोनों आयुओंको अपवर्तन सम्भव है
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 643/837/16 आयुर्बन्धं कुर्ततां जीवानां परिणामवशेन बद्ध्यमानस्यायुषोऽपर्वतनमपि भवति। तदेवापर्वतनद्यात इत्युच्यते उदीयमानायुरपवर्तनस्यैव कदलीघाताभिघानात्।
= बहुरि आयुके बन्धको करते जीव तिनके परिणामनिके वशर्तें (बद्ध्यमान आयुका) अपर्वतन भी हो है। अपवर्तन नाम घटनेका है। सौ या कौं अपवर्तन घात कहिए जातै उदय आया आयुके (अर्थात भुज्यमान आयुके) अपरवर्तनका नाम कदलीघात है। 2. परन्तु बद्ध्यमान आयुकी उदीरणा नहीं होती
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा 918/1103....। परभविय आउगस्सय उदीरणा णत्थि णियमेण ॥918॥
= बहुरि परभवका बद्ध्यमान आयु ताकी उदीरणा नियम करि नाहीं है। 3. उत्कृष्ट आयुके अनुभागका अपवर्तन सम्भव है।
धवला पुस्तक 12/4,2,7,20/21/3 उक्कस्साणुभागे बंधे ओवट्टणाघादो णत्थि त्ति के वि भणंति। तण्ण घडदे, उक्कस्साउअं बंधिय पुणो तं घादिय मिच्छत्तं गंतूणअग्गिदेवेसु उप्पण्णदीवायणेण वियहिचारादो महाबंधे आउअउक्कस्साणुभागंतरस्स उवड्ढपोग्गलमेत्तकालपरूवणण्णहाणुववत्तीदो वा।
= प्रश्न-(उत्कृष्ट आयुको बाँधकर उसे अपवर्तनघातके द्वारा घातकर पश्चात् अधस्तन गुणस्थानोंको प्राप्त होनेपर उत्कृष्ट अनुभागका स्वामी क्यों नहीं होता)? उत्तर-(नहीं क्योंकि घातित अनुभागके उत्कृष्ट होनेका विरोध है)। उत्कृष्ट अनुभागको बाँधनेपर हैं। उसका अपवर्तनघात नहीं होता, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा माननेपर एक तो उत्कृष्ट आयुको बाँधकर पश्चात् उसका घात करके मिथ्यात्वको प्राप्त हो अग्निकुमार देवोमें उत्पन्न हुए द्विपायन मुनिके साथ व्यभिचार आता है, दूसरे इसका घात माने बिना महाबन्धमें प्ररूपित उत्कृष्ट अनुभागका उपार्ध पुद्गल प्रमाण अन्तर भी नहीं बन सकता। 4. असंख्यात वर्षायुष्कों तथा चरम शरीरियोंकी आयुका अपवर्तन नहीं होता त.सु.2/53 औपपादिकाचरमोत्तमदेहासंख्येयवर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः ॥53॥ = औपपादिक देहवाले देव व नारकी, चरमोत्तम देहवाले अर्थात् वर्तमान भवसे मोक्ष जानेवाले, भोग भूमियाँ तिर्यंच व मनुष्य अनपवर्ती आयुवाले होते हैं। अर्थात् उनकी अपमृत्यु नहीं होती। (सि.सि.2/53/201/4) (राजवार्तिक अध्याय 2/53/1-10/157) ( धवला पुस्तक 9/4,1,66/306/6) ( तत्त्वार्थसार अधिकार 2/135)। 5. भुज्यमान आयु पर्यन्त बद्ध्यमान आयुमें बाधा असम्भव है।
धवला पुस्तक 6/1,9-6,24/168/5 जधा णाणावरणादिसमयपबद्धाणं बंधावलियवदिक्कंताणं ओकड्डण-परपयडि-संकमेहि बाधा अत्थि, तधा आउअस्स ओकड्डण-परपयडिसंकमादीहि बाधाभाव परूवणट्ठं विदियवारमाबाधाणिद्देसादो।
= (जैसे) ज्ञानावरणादि कर्मोंके समयप्रबद्धों के अपकर्षण और पर-प्रकृति संक्रमणके द्वारा बाधा होती है, उस प्रकार आयुकर्मके आबाधकालके पूर्ण होने तक अपरकर्षण और पर प्रकृति संक्रमणके द्वारा बाधाका अभाव है। अर्थात् आगामी भव सम्बन्धी आयुकर्मकी निषेक स्थितिमें कोई व्याघात नहीं होता है, इस बातके प्ररूपणके लिए दूसरी बार `आबाधा' इस सूत्रको निर्देश किया है। 6. चारों आयुओंका परस्परमें संक्रमण नहीं होता
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा 410/573 बंधे...। ...आउचउक्के ण संकमणं ॥410॥
= बहुरि च्यारि आयु तिनकैं परस्पर संक्रमण नाहीं, देवायु, मनुष्यायु आदि रूप होई न परिणमैं इत्यादि ऐसा जानना। 7. संयमको विराधनासे आयुका अपर्वतन हो जाता है
धवला पुस्तक 4/1,5,96/383/3 एक्को विराहियसंजदो वेमाणियदेवेसु आउअं बंधिदूण तमोवट्टणाघादेण घादिय भवणवासियदेवेसु उववण्णो।
= विराधना की है संयमकी जिसने ऐसा कोई संयत मनुष्य वैमानिक देवोंमें आयुको बाँध करके अपवर्तनाघातसे घात करके भवनवासी देवोमें उत्पन्न हुआ। ( धवला पुस्तक 4/1,5,97/385/8 विशेषार्थ)
धवला पुस्तक 12/4,2,7,20/21/3 उक्किस्साउअं बंधिय पुणो तं घादियमिच्छत्तं गंतूण अग्गिदेवेसु उप्पण्णदीवायण...।
= उत्कृष्ट आयुको बाँध करके मिथ्यात्वको प्राप्त हो, द्विपायन मुनि अग्निकुमार देवोमें उत्पन्न हुए। 8. आयुके अनुभाग व स्थितिघात साथ-साथ होते हैं
धवला पुस्तक 12/4,2,13,41/1-2/395 पर उद्धृत “ट्ठिदिघादे हंमंते अणुभागा आऊआण सव्वेसिं। अणुभागेण विणा वि हु आउववज्जण ट्ठिदिघादो ॥1॥ अणुभागे हंमंते ट्ठिदिघादो आउआण सव्वेसिं। ठिदिघादेण विणा वि हु आउववज्जामणुभागो ॥2॥
= स्थितिघात के अनुभागोंका नाश होता है। आयुको छोड़कर शेष कर्मोंका अनुभागके बिना भी स्थितिघात होता है ॥1॥ अनुभागका घात होने पर सब आयुओंका स्थितिघात होता है। स्थिति घातके बिना भी आयु को छोड़कर शेष कर्मोंके अनुभागका घात होता है।
धवला पुस्तक 12/4,2,7,20/21/8 उक्कस्साणुभागेण सह तेत्तीसाउअं बंधिय अणुभागं मोत्तूण ट्ठिदीए चेत्र ओवट्टणाघादं कादूण सोधम्मादिसु उप्पण्णाणं उक्कस्सभावसामित्तं किण्ण लब्भदे। ण विणा आउअस्स उक्कस्सट्ठिदिघादाभावादो।
= प्रश्न-उत्कृष्ट अनुभागके साथ तैंतीस सागरोपम प्रमाण आयुको बाँधकर अनुभागको छोड़ केवल स्थितिके अपवर्तन घातको करके सौधर्मादि देवोमें उत्पन्न हुए जीवोंके उत्कृष्ट अनुभागका स्वामित्व क्यों नहीं पाया जाता। उत्तर-नहीं, क्योंकि (अनुभाग घातके) बिना आयुको उत्कृष्ट स्थितिका घात सम्भव नहीं। 6. आयु बन्ध सम्बन्धी नियम 1. तिर्यचोंकी उत्कृष्ट आयु भोगभूमि, स्वयम्भूरमण द्वीप, व कर्मभूमिके प्रथम चार कालोंमें ही सम्भव है
तिलोयपण्णत्ति अधिकार 5/285-286 एदे उक्कस्साऊ पुव्वावरविदेहजादतिरियाणं। कम्मावणिपडिबद्धे बाहिरभागे सयंपहगिरीदो ॥284॥ तत्थेय सव्वकालं केई जीवाण भरहे एरवदे। तुरियस्स पढमभागे एदेणं होदि उक्कस्सं ॥285॥
= उपर्युक्त उत्कृष्ट आयु पूर्वा पर विदेहोंमें उत्पन्न हुए तिर्यंचोंके तथा स्वयंप्रभ पर्वतके बाह्य कर्मभूमि-भागमें उत्पन्न हुए तिर्यंचोंके ही सर्वकाल पायी जाती है। भरत और ऐरावत क्षेत्रके भीतर चतुर्थ कालके प्रथम भागमें भी किन्हीं तिर्यंचोंके उक्त उत्कृष्ट आयु पायी जाती है। 2. भोग भूमिजोंमें भी आयु हीनाधिक हो सकती है
धवला पुस्तक 14/4,2,6,8/89/13 असंखेज्जवासाउअस्स वा त्ति उत्ते देवणेरइयाणं गहणं, ण समयाहियपुव्वकोडिप्पहुडिउवरिमआउअतिरिक्खमणुस्साणं गहणं।
= `असंख्यातवर्षायुष्क' से देव नारकियोंका ग्रहण किया गया है, इस पदसे एक अधिक पूर्व कोटि आदि उपरिम आयु विकल्पोंसे तिर्यंचो व मनुष्योंका ग्रहण नहीं करना चाहिए। 3. बद्धायुष्क व घातायुष्क देवोंकी आयु सम्बन्धी स्पष्टीकरण
धवला पुस्तक 4/1,5,97/385 पर विशेषार्थ “यहाँ पर जो बद्धायुघातकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि देवोंके दो प्रकारके कालकी प्ररूपणाकी है, उसका अभिप्राय यह है कि, किसी मनुष्यने अपनी संयम अवस्थामें देवायुबन्ध किया। पीछे उसने संक्लेश परिणामोंके निमित्तसे संयमकी विराधना कर दी और इसलिए अपवर्तन घातकेद्वारा आयुका घात भी कर दिया। संयमकी विराधना कर देने पर भी यदि वह सम्यग्दृष्टि है, तो मर कर जिसे कल्पमें उत्पन्न होगा, वहाँकी साधाणतः निश्चित आयुसे अन्तर्मुहूर्त कम अर्ध सागरोपम प्रमाण अधिक आयुका धारक होगा। कल्पना कीजिए किसी मनुष्यने संयम अवस्थामें अच्युत कल्पमें संभव बाईस सागर प्रमाण आयु बंध किया। पीछे संयमकी विराधना और बाँधी हुई आयुकी अपवर्तना कर असंयत सम्यग्दृष्टि हो गया। पीछे मर कर यदि सहस्रार कल्पमें उत्पन्न हुआ, तो वहाँकी साधारण आयु जो अठारह सागरकी है, उससे धातायुष्क सम्यग्दृष्टि देवकी आयु अन्तर्मूहूर्त कम आधा सागर अधिक होगी। यदि वही पुरुष संयमकी विराधना के साथ ही सम्यक्त्वकी विराधना कर मिथ्यादृष्टि हो जाता है, और पीछे मरण कर उसी सहस्रार कल्पमें उत्पन्न होता है, तो उसकी वहाँकी निश्चित अठारह सागरकी आयुसे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अधिक होगी। ऐसे जीवको घातायुष्क मिथ्यादृष्टि कहते हैं।
4. चारों गतियोंमें परस्पर आयुबन्ध सम्बन्धी 1. नरक व देवगतिके जीवोमें
धवला पुस्तक 12/4,2,7,32/27/5 अपज्जत्ततिरिक्खाउअं देव-णेरइया ण बंधंति।
= अपर्याप्त तिर्यंच सम्बन्धी आयुको देव व नारकी जीव नहीं बाँधते।
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 439-440/836/6 परभवायुः स्वभुज्यामानायुष्युत्कृष्टेन षण्मासेऽवशिष्टे देवनारका नारं नैरश्चं बध्नन्ति तद्बन्धे योग्याः स्युरित्यर्थः।... सप्तमपृथ्वीजाश्च तैरश्चमेव।
= भुज्यमान आयुके उत्कृष्ट छह मास अवशेष रहैं देव नारकी हैं ते मनुष्यासु वा तिर्यंचायुको बाँधै है अर्थात् तिस कालमें बन्ध योग्य हों हैं।....सप्तम पृथ्वीके नारकी तिर्यंचायु ही को बाँधे हैं। 2. कर्म भूमिज तिर्यंच मनुष्य गतिके जीवोंमें नोट-सम्यग्दृष्टि मनुष्य व तिर्यंच केवल देवायु न मनुष्यायुका ही बन्ध करते हैं-देखें बन्धव्युच्छित्ति चार्ट । राजवार्तिक अध्याय 2/49/8/155/9 देवेषूत्पद्य च्युतः मनुष्येषु तिर्यक्षु चोत्पद्य अपर्याप्तकालमनु भूय पुनिर्देवायुर्बद्ध्वा उत्पद्यते लब्धमन्तरम्। = देवोंमें उत्पन्न होकर वहाँसे च्युत हो मनुष्य वा तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुआ। अपर्याप्त काल मात्रका अनुभव कर पुनः देवायुको बाँधकर वहाँ ही उत्पन्न हो गया। इस प्रकार देव गतिका अन्तर अन्तर्मुहूर्त मात्र ही प्राप्त होता है। अर्थात् अपर्याप्त मनुष्य वा तिर्यंच भी देवायु बन्ध कर सकते हैं।
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 439-440/836/7 नरतिर्यञ्चस्त्रिभागेऽवशिष्टे चत्वारि।... एक विकलेन्द्रिया नारं तैरञ्चं च। तेजो वायवः...
= तैरञ्चमेव बहुरि मनुष्य तिर्यंच भुज्यमान आयुका तीसरा भाग अवशष रहैं च्यास्यों आयु कौबाँधै है....एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रिय नारक और तिर्यंच आयुकौ बाँधै है। तेजकायिक वा वातकायिक.... तिर्यचायु ही बान्धै हैं।
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 745/900/1 उद्वेलितानुद्वेलितमनुष्यद्विकतेजीवायूनां मनुष्यायुरबन्धादत्रानुत्पत्तेः।
= मनुष्य-द्विककी उद्वेलना भये वा न भये तेज वातकायिकनिके मनुष्यायुके बन्धका अभावतैं मनुष्यनिविषैं उपजना नाहीं। 3. भोगभूमि मनुष्य व तिर्यंचगतिके जीवोमें
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 639-640/836/8 भोगभूमिजाः षण्मासेऽवशिष्टे दैवं।
= बहुरि भोग भूमिया छह मास अवशेष रहैं देवायु ही को बाँधै। 5. आयुके साथ वही गति प्रकृति बँधती है नोट-आयुके साथ गतिका जो बन्ध होता है वह नियमसे आयुके समान ही होता है। क्योंकि गति नामकर्म व आयुकर्मकी व्युच्छित्ति एक साथ ही होती है-देखें [[ ]]बन्ध व्युच्छित्ति चार्ट। 6. एक भवमें एक ही आयुका बन्ध सम्भव है
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा 642/837 एक्के एक्कं आऊं एक्कभवे बंधमेदि जोग्गपदे। अडवारं वा तत्थवि तिभागसेसे व सव्वत्थ ॥642॥
= एक जीव एक समय विषैं एक ही आयु को बाँधै सो भी योग्यकाल विषै आठ बार ही बाँधै, तहाँ सर्व तीसरा भाग अवशेष रहे बाँधे है। 7. बद्धायुष्कोंमें सम्यक्त्व व गुणस्थान प्राप्ति सम्बन्धी पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 1/201 चत्तारि वि छेत्ताइं आउयबंधेण होइ सम्मत्तं। अणुवय-महव्वाइं ण लहइ देवउअं मोत्तुं ॥201॥ = जीव चारों ही क्षेत्रों की (गतियोंकी) आयुका बन्ध होनेपर सम्यक्त्वको प्राप्त कर सकता है। किन्तु अणुव्रत और महाव्रत देवायुको छोड़कर शेष आयुका बन्ध होने पर प्राप्त नहीं कर सकता। ( धवला पुस्तक 1/1,1,85/169/326), ( गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा 334), ( गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा 653/1101)
धवला पुस्तक 1/1,1,26/208/1 बद्धायुरसंयतसम्यग्दष्टिसासादनानामिव न सम्यग्मिथ्यादृष्टिसंयतासंयतानां च तत्रापर्याप्तकाले संभव। समस्ति तत्र तेन तयोर्विरोधात्।
= जिस प्रकार बद्धायुष्क असंयतसम्यग्दृष्टि और सासादन गुणस्थानवालोंका तिर्यंच गतिके अपर्याप्त कालमें सम्भव है, उस प्रकार सम्यग् मिथ्यादृष्टि और संयतासंयतोंका तिर्यंचगतिके अपर्याप्त कालमें सम्भव नहीं हैं, क्योंकि, तिर्यंचगतिमें अपर्याप्तकालके साथ सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयतोंका विरोध है।
धवला पुस्तक 12/1,2,7,19/20/13 उक्कस्साणुभागेण सह आउवबंधे संजदासंजदादिहेट्ठिमगुणट्ठाणाणं गमणाभावादो।
= उत्कृष्ट अनुभागके आथ आयुको बाँधनेपर संयतासंयतादि अधस्तन गुणस्थानोंमें गमन नहीं होता।
गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 731/1325/14 बद्धदेवायुष्कादन्यस्त उपशमश्रेण्यांमरणाभावत्। शेषत्रिकबद्धायुष्कानां च देशसकलसंयमयोरेवासंभवात्।
= देवायुका जाकै बन्ध भया होइ तिहिं बिना अन्य जीवका उपशम श्रेणी विषैं मरण नाहीं। अन्य आयु जाकै बंधा होइ ताकै देशसंयम सकलसंयम भी न होइ।
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 335/486/13 नरकतिर्यग्देवायुस्तु भुज्यमानबद्ध्यमानोभयप्रकारेण सत्त्वेसु सत्सु यथासंख्यंदेशव्रताः सकलव्रताः क्षपका नैव स्युः। गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 346/498/11 असंयते नारकमनुष्यायुषी व्युच्छित्तिः, तत्सत्त्वेऽणुव्रताघटनात्।
= 1. बद्ध्यमान और भुज्यमान दोउ प्रकार अपेक्षा करि नरकायुका सत्त्व होतैं देशव्रत न होई, तिर्यंचायुका सत्त्व होतैं सकलव्रत न होई, नरक तिर्यंच व देवायुका सत्त्व होतैं क्षपक श्रेणी न होई। 2. असंयत सम्यग्दृष्टियोंके नारक व मनुष्यायुकी व्युच्छित्ति हो जाती है क्योंकि उनके सत्त्वमें अणुव्रत नहीं होते। 8. बद्ध्यमान देवायुष्कका सम्यक्त्व विराधित नहीं होता गो.क./भाषा 366/526/3 बहुरि बद्ध्यमान देवायु अर भुज्यमान मनुष्यायु युक्त असंयातादि च्यारि गुणस्थानवर्ती जीव सम्यक्त्व तै भ्रष्ट होइ मिथ्यादृष्टि विषैं होते नाहीं। 9. बंध उदय सत्त्व सम्बन्धी संयमी भंग
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा 641/836 सगसगगदीणमाउं उदेदि बंधे उदिण्णगेण समं। दो सत्ता हु अबंधे एक्कं उदयागदं सत्तं ॥64॥
= नारकादिकनिकें अपनी-अपनी गति सम्बन्धी ही एक आयु उदय हो हैं। बहुरि सत्त्व पर-भवकी आयुका बन्ध भयें उदयागत आयु सहित दोय आयु का है-एकबद्धयमान और एक भुज्यमान। बहुरि अबद्धायुकै एक उदय आया भुज्यमान आयु ही का सत्त्व है।
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा 644/838 एवमबंधे बंधे उवरदबंधे वि होंति भंगा हु। एक्कस्सेक्कम्मि भवे एक्काउं पडि तये णियमा।
= ऐसे पूर्वोक्त रीति करि बन्ध वा अबन्ध वा उपरत बन्धकरि एक जीवके एक पर्याय विषै एक आयु प्रति तीन भंग नियत तैं होय है।
बन्धादि विषै बन्ध वर्तमान बन्धक अबन्ध (अबद्धायुष्क) उपरत बन्द (बद्धायुष्क) बन्ध 1 x x उदय 1 1 1 सत्त्व 2 1 2
10. मिश्र योगोंमें आयुका बन्ध सम्भव नहीं गो.क./भाषा 105/90/9 जातैं मिश्र योग विषैं आयुबन्ध होय नाहीं। 7. आयु विषयक प्ररूपणाएँ 1. नरक गति सम्मबन्धी सामान्य प्ररूपणा : ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 1114-1116). ( सर्वार्थसिद्धि अध्याय 3/6/22-23); ( सर्वार्थसिद्धि अध्याय 4/35/113); (जं.प.11/178); ( महापुराण सर्ग संख्या 10/93); ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/117)। विशेष प्ररूपणा : ( तिलोयपण्णत्ति अधिकार 2/204-214); (राजवार्तिक अध्याय 3/6/7/167/18); (हरि.पु.4/250-294); ( धवला पुस्तक 7/2,2,6/116-120); ( त्रिलोकसार गाथा 198-200) संकेत : असं. = असंख्यात; को. = क्रोड़; पू. = पूर्व (70560000000000 वर्ष)
पटल सं. प्रथम पृथिवी द्वितीय पृथिवी तृतीय पृथिवी चतुर्थ पृथिवी पंचम पृथिवी षष्ट पृथिवी सप्तम पृथिवी - जघन्य उक्तृष्ट जघन्य उक्तृष्ट जघन्य उक्तृष्ट जघन्य उक्तृष्ट जघन्य उक्तृष्ट जघन्य उक्तृष्ट जघन्य उक्तृष्ट - - - सागर सागर सागर सागर सागर सागर सागर सागर सागर सागर सागर सागर सामान्य 10000 वर्ष 1 सागर 1 2 3 7 7 10 10 17 17 22 22 33 1 10000 वर्ष 90,000 वर्ष 1 1-2/11 3 3-4/9 7 7-3/7 10 11-2/5 17 182/3 22 33 2 90,000 वर्ष 90,000.00 वर्ष 1-2/11 1-4/11 3-4/9 3-8/9 7-3/7 7-6/7 11-2/5 12-4/5 18-2/3 20-1/3 3 90,000,00 वर्ष असं.को.पू. 1-4/11 1-6/11 3-8/9 4-3/9 7-6/7 8-2/7 12-4/5 14-1/5 20-1/3 22 4 असं.को.पू. 1/10 सागर 1-6/11 1-8/11 4-3/9 4-7/9 8-2/7 12-4/5 14-1/5 20-1/3 22 5 1/10 सागर 1/5 सागर 1-8/11 1-10/11 4-7/9 5-2/9 8-5/9 9-1/7 15-3/5 17 6 1/5 सागर 3/10 सागर 1-10/11 2-1/11 5-2/9 5-6/9 9-1/7 9-4/7 7 3/10 सागर 2/5 सागर 2-1/11 2-3/11 5-6/9 6-1/9 9-4/7 10 8 2/5 सागर 1/2 सागर 2-3/11 2-5/11 6-1/9 6-5/9 9 1/2 सागर 3/5 सागर 2-5/11 2-7/11 6-5/9 7 10 3/5 सागर 7/10 सागर 2-7/11 2-9/11 11 7/10 सागर 4/5 सागर 2-9/11 3-0 12 4/5 सागर 9/10 सागर 13 9/10 सागर 1सा.
2. तिर्यञ्च गति सम्बन्धी प्रमाण : ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 1105-1111); ( तिलोयपण्णत्ति अधिकार 5/281-290); (राजवार्तिक अध्याय 3/39/3-5/209); ( त्रिलोकसार गाथा 328-330); ( गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 208/458) संकेत : 1 पूर्वांग = 8400,000 वर्ष : 1 पूर्व = 70560000000000 वर्ष।
क्रम मार्गणा विशेष आयु - - - जघन्य उक्तृष्ट एकेन्द्रिय 1 पृथिवी कायिक शुद्ध - 12000वर्ष 2 पृथिवी कायिक खर - 22000वर्ष 3 अप्. कायिक - सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त 7000 वर्ष 4 तेज कायिक - सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त 3 दिन रात 5 वायु कायिक - सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त 3000 वर्ष 6 वनस्पति साधारण - सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त 10000 वर्ष विकलेन्द्रिय 7 द्वीन्द्रिय - - 12 वर्ष 8 त्रीन्द्रिय - - 49 दिनरात 9 चतुरिन्द्रिय - - 6 महिने पंचेन्द्रिय 10 जलचर मत्स्यादि सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त 1 कोड़ पूर्व 11 परिसर्ग गोह, नेवला, सरिसृपादि सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त 9 पूर्वांग 12 उरग सर्प सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त 42000 वर्ष 13 पक्षी कर्म भूमिज भैरुंड आदि सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त 72000 वर्ष 14 चौपाये कर्म भूमिज सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त 1 पल्य 15 असंज्ञी पंचेन्द्रिय कर्म भूमिज सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त 1 कोड़ पूर्व भोग भूमिज 16 उत्तम भोगभूमिज देवकुरु-उत्तर कुरु सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त 3 पल्य 17 मध्यम भोगभूमिज हरि व रम्यक क्षेत्र सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त 2 पल्य 18 जघन्य भोगभूमिज हैमवत-हैरण्यवत सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त 1 पल्य 19 कुभोग भूमिज (अन्तर्द्वीप) सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त 1 पल्य 20 कर्म भूमिज - सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त 1 पल्य
3. एक अन्तर्मुहूर्तमें लब्ध्यपर्याप्तकके सम्भव निरन्तर क्षुद्रभव ( गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा 123-125/332-335); ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 137/75)
क्रम मार्गणा एकअन्तर्मुहूर्तके भव नाम सूक्ष्म या बादर प्रत्येक में योग (जोड़) एकेन्द्रिय (ल.अप.) 1 पृथिवी कायिक सूक्ष्म 6012 2 पृथिवी कायिक बादर 6012 3 अप्. कायिक सूक्ष्म 6012 4 अप्. कायिक बादर 6012 5 तेज कायिक सूक्ष्म 6012 6 तेज कायिक बादर 6012 7 वायु कायिक सूक्ष्म 6012 8 वायु कायिक बादर 6012 9 वनस्पति साधारण सूक्ष्म 6012 10 वनस्पति साधारण बादर 6012 11 वनस्पति अप्रति. प्रत्येक बादर 6012 66132 विकलेन्द्रिय (ल.अप.) 12 द्वीन्द्रिय - 80 13 त्रीन्द्रिय - 60 14 चतुरेन्द्रिय - 40 180 पंचेन्द्रिय (ल.अप.) 15 असंज्ञी - 8 16 संज्ञी - 8 17 मनुष्य - 24 कुल योग - - 66336
4. मनुष्य गति सम्बन्धी :- 1 पूर्व = 70560000000000 वर्ष 1. क्षेत्रकी अपेक्षा प्रमाण = ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 1111-1113); ( तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4/गा.); ( सर्वार्थसिद्धि अध्याय 3/27-31,37/58-66); (राजवार्तिक अध्याय 3/27-31,37/191-192,198)
विषय प्रमाण जघन्य प्रमाण उत्कृष्ट - तिलोयपण्णत्ति गा. आयु तिलोयपण्णत्ति 4 गा. अन्य प्रमाण आयु भरत-ऐरावत क्षेत्र : सुषमा सुषमा काल - देव कुरु उत्तर कुरुवत् सुषमा काल - हरि-रम्यकवत् सुषमा दुषमा काल - हैमवत हैरण्यवतवत् दुषमा सुषमा काल - विदेह क्षेत्रवत् दुषमा काल - 20 वर्ष - - 120 वर्ष दुषमा दुषमा काल - 12 वर्ष - - 20 वर्ष विदेह क्षेत्र 2255 अन्तर्मुहूर्त 2255 1 कोड़ पूर्व हैमवत हैरण्यवत - 1 कोड़ - 1 पल्य हरि-रम्यक 404 1 पल्य 396 - 2 पल्य देव-उत्तर कुरु - 2 पल्य 335 - 3 पल्य अन्तर्द्वीपजम्लेच्छ - (1कोड़ पूर्व) 2513 - 1 पल्य कालकी अपेक्षा – ( तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4/गा.)
विषय प्रमाण जघन्य प्रमाण उत्कृष्ट - तिलोयपण्णत्ति गा. आयु तिलोयपण्णत्ति 4 गा. अन्य प्रमाण आयु अवसर्पिण्णी : सुषमा सुषमा काल - 2 पल्य 335 - 3 पल्य सुषमा काल - 1 पल्य 396 - 2 पल्य सुषमा दुषमा काल - 1 कोड़ पूर्व 404 - 1 पल्य दुषमा सुषमा काल - 120 पूर्व 1277 - 1 कोड़ पूर्व दुषमा काल - 20 पूर्व 1475 - 120 वर्ष दूषमा दूषमा काल 1554 15या16 वर्ष 1536 20 वर्ष उत्सर्पिणी : दुषमा दुषमा काल 1564 15-16 वर्ष - - 20 वर्ष दूषमा काल 1568 20 वर्ष - - 120 वर्ष दूषमा सुषमा काल 1576 120 वर्ष 1595 - 1 कोड़ पूर्व सुषमा दुषमा काल 1596 1 कोड़ पूर्व 1598 - 1 पल्य दुषमा काल 1600 1 पल्य - 2 पल्य सुषमा सुषमा काल 1602 2 पल्य 1604 - 3 पल्य 5. भोगभूमिजों व कर्म भूमिजों सम्बन्धी ( तिलोयपण्णत्ति अधिकार 5/गा.) उत्तम भोगभू. 290 2 पल्य 290 - 3 पल्य मध्यम भोगभू. 289 1 पल्य 289 - 2 पल्य जघन्य भोगभू. 288 1पूर्व कोड़ 288 - 1 पल्य कर्म भूमि - देखो ऊपर भरत-ऐरावत क्षेत्र
6. देवगतिमें व्यन्तर सम्बन्धी 1. ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 1116-1117); 2. ( तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 4/38-39); 3. ( तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4,5,6/गा.), 4. ( त्रिलोकसार गाथा 240-293); 5. ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/142) संकेत-साधिक-अपनेसे ऊपरकी अपेक्षा यथायोग्य कुछ अधिक प्रमाण आयु
तिलोयपण्णत्ति 6 गा. अन्य प्रमाण नाम जघन्य उत्त्कृष्ट विशेष
(1) देवोंकी अपेक्षा 83 1,2 व्यन्तर सामान्य सर्वत्र 10,000 वर्ष 1 पल्य वाहनादिवाले दिशाओमें स्थित 84 4,5 किन्नर आदि आठों इन्द्र सर्वत्र 10,000 वर्ष 1 पल्य वाहनादिवाले दिशाओमें स्थित 84 4,5 प्रतीन्द्र सर्वत्र 10,000 वर्ष 1 पल्य वाहनादिवाले दिशाओमें स्थित 84 4,5 सामानिक सर्वत्र 10,000 वर्ष 1 पल्य वाहनादिवाले दिशाओमें स्थित 84 4,5 महत्तर देवी सर्वत्र 10,000 वर्ष 1/2 पल्य वाहनादिवाले दिशाओमें स्थित 84 4,5 शेष देव सर्वत्र 10,000 वर्ष यथायोग्य वाहनादिवाले दिशाओमें स्थित 85 नं. 4 सर्वत्र 10,000 वर्ष नीचोपपाद 10,000 वर्ष वाहनादिवाले दिशाओमें स्थित 85 नं. 4 सर्वत्र 10,000 वर्ष दिग्वासी 20,000 वर्ष वाहनादिवाले दिशाओमें स्थित 85 नं. 4 सर्वत्र 10,000 वर्ष अन्तर निवासी 30,000 वर्ष वाहनादिवाले दिशाओमें स्थित 85 नं. 4 सर्वत्र 10,000 वर्ष कूष्माण्डा 40,000 वर्ष वाहनादिवाले दिशाओमें स्थित 85 नं. 4 सर्वत्र 10,000 वर्ष उत्पन्न सर्वत्र 10,000 वर्ष 50,000 वर्ष वाहनादिवाले दिशाओमें स्थित 85 नं. 4 सर्वत्र 10,000 वर्ष अनुत्पन्न 60,000 वर्ष वाहनादिवाले दिशाओमें स्थित 85 नं. 4 सर्वत्र 10,000 वर्ष प्रमाणक 70,000 वर्ष वाहनादिवाले दिशाओमें स्थित 85 नं. 4 सर्वत्र 10,000 वर्ष गन्ध 80,000 वर्ष वाहनादिवाले दिशाओमें स्थित 85 नं. 4 सर्वत्र 10,000 वर्ष महा गन्ध 84,000 वर्ष वाहनादिवाले दिशाओमें स्थित 85 नं. 4 सर्वत्र 10,000 वर्ष भुजंग (जुगल) 1/8 पल्य वाहनादिवाले दिशाओमें स्थित 85 नं. 4 सर्वत्र 10,000 वर्ष प्रातिक 1/4 पल्य वाहनादिवाले दिशाओमें स्थित 85 नं. 4 सर्वत्र 10,000 वर्ष आकाशोत्पन्न 1/2 पल्य वाहनादिवाले दिशाओमें स्थित
प्रमाण नाम आयु विशेष
तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4 गा. तिलोयपण्णत्ति अधिकार 5. गा. जघन्य उत्कृष्ट विशेष
जम्बू द्वीपके रक्षक 76 - महोरग सर्वत्र 10,000 वर्ष 1 पल्य 276 - वृषभदेव सर्वत्र 10,000 वर्ष 1 पल्य 1712 - शाली देव सर्वत्र 10,000 वर्ष 1 पल्य - 51 अन्य सर्व द्वीप समुद्रोंके अधिपति देव सर्वत्र 10,000 वर्ष 1 पल्य (2) देवियोंकी अपेक्षा 1672 - श्री देवी सर्वत्र 10,000 वर्ष 1 पल्य 1728 - ह्री देवी सर्वत्र 10,000 वर्ष 1 पल्य 1762 - धृति सर्वत्र 10,000 वर्ष 1 पल्य 209 - बला देवी सर्वत्र 10,000 वर्ष 1 पल्य 258 - लवणा सर्वत्र 10,000 वर्ष 1 पल्य
नोट - इसी प्रकार अन्य सर्व देवियोंकी जानना (3) घातायुष्ककी अपेक्षा - ( धवला पुस्तक 7/2,2,30/129); ( त्रिलोकसार गाथा 541) सम्यग्दृष्टि = स्वस्व उत्कृष्ट + 1/2 पल्य मिथ्यादृष्टि = स्व स्व उत्कृष्ट + पल्य/असं. 7. देव गतिमें भवनवासियों सम्बन्धी सपरिवार आयु सम्बन्धी = ( तिलोयपण्णत्ति अधिकार 3/144-175); ( त्रिलोकसार गाथा 240-247) केवल इन्द्रों सम्बन्धी = ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 1117-1123); ( तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 4/28); (जं.प.11/137); ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 35/142) संकेत : साधिक = अपनेसे ऊपरकी अपेक्षा यथायोग्य कुछ अधिक।
क्रम नाम आयु सामान्य मूल भेद 1 प्रतीन्द्र 2 त्रायस्त्रिंश 3 लोकपाल 4 सामानिक आत्मरक्षा पारिषद सेनापति आरोहक वाहन या अनीक देव सामान्य इन्द्र ज. उ. इन्द्र इन्द्राणि – देव देवी अभ्यन्तर मध्यम बाह्य – – 1 असुरकुमार चमरेन्द्र 1 सागर 2.1\2 पल्य स्व स्व इन्द्रावत 1 पल्य - 2.1\2 2 पल्य 1.1\2 1 पल्य 1/2 पल्य - वैरोचन - - साधिक सागर 3 पल्य - साधिक पल्य - 3 पल्य 2.1\2 पल्य 2 पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य 2 नागकुमार भूतानन्द - - 3 पल्य 1/8 पल्य - 1 कोड़ पूर्व - 1/8 पल्य 1/16 पल्य 1/32 पल्य 1 कोड़ पूर्व 1 कोड़ वर्ष - धरणानन्द - - साधिक पल्य - साधिक पल्य - साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य 3 सुपर्णकुमार वेणु - - 2.1\2 पल्य 3 कोड़ पूर्व - 1 कोड़ वर्ष - 3 कोड़ पूर्व 2 कोड़ पूर्व 1 कोड़ पूर्व 1 कोड़ वर्ष 1 लाख वर्ष - वेणुधारी - - साधिक पल्य साधिक पल्य - साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य 4 द्वीपकुमार पूर्ण - - 2 पल्य 3 कोड़ वर्ष - 1 लाख वर्ष - 3 कोड़ वर्ष 2 कोड़ वर्ष 1 कोड़ वर्ष 1 लाख वर्ष 50,000 वर्ष - विशिष्ट - - साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य 5 उदधिकुमार जलप्रभ सर्वत्र 10,000 वर्ष इन्द्रावत् 1.1\2 पल्य 3 कोड़ वर्ष - 1 लाख वर्ष 3 कोड़ वर्ष 2 कोड़ वर्ष 1 कोड़ वर्ष 1 लाख वर्ष 50,000 वर्ष - जलकान्त साधिक - - साधिक पल्य साधिक पल्य स्व स्व इन्द्रावत साधिक पल्य कथन नष्ट हो गया है ( तिलोयपण्णत्ति 3/161,174 ) साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य 6 स्तनितकुमार घोष - - 1.1\2 पल्य 3 कोड़ पल्य - 1 लाख वर्ष - 3 कोड़ वर्ष 2 कोड़ वर्ष 1 कोड़ वर्ष 1 लाख वर्ष 50,000 वर्ष - महाघोष - - साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य 7 विद्युतकुमार हरिषेण - - 1.1\2 पल्य 3 कोड़ वर्ष - 1 लाख वर्ष 3 कोड़ वर्ष 2 कोड़ वर्ष 1 कोड़ वर्ष 1 लाख वर्ष 50,000 वर्ष - हरिकान्त - - साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य 8 दिक्कुमार अमितगति - - 1.1\2 पल्य 3 कोड़ वर्ष - 1 लाख वर्ष - 3 कोड़ वर्ष 2 कोड़ वर्ष 1 कोड़ वर्ष 1 लाख वर्ष 50,000 वर्ष - अमितवाहन - - साधिक पल्य साधिक पल्य - साधिक पल्य - साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य 9 अग्निकुमार अग्निशिक्षा - - 1.1\2 3 कोड़ वर्ष - 1 लाख वर्ष - 3 कोड़ वर्ष 2 कोड़ वर्ष 1 कोड़ वर्ष 1 लाख वर्ष 50,000 वर्ष - अग्निवाहन - - साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य 10 वायुकुमार वेलम्ब - - 1.1\2 पल्य 3 कोड़ वर्ष - 1 लाख वर्ष - 3 कोड़ वर्ष 2 कोड़ वर्ष 1 कोड़ वर्ष 1 लाख वर्ष 50,000 वर्ष - प्रभञ्जन - - साधिक पल्य साधिक पल्य - साधिक पल्य - साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य साधिक पल्य
(2) घातायुष्ककी अपेक्षा : ( धवला पुस्तक 7/2,2,30/129); (त् रयणसार 541 ) सम्यग्दृष्टि इन्द्र स्व स्व उक्तृष्ट + 1/2 सागर मिथ्यादृष्टि इन्द्र स्व स्व उत्कृष्ट + पल्य/असं. 8. देवगतिमें ज्योतिष देवों सम्बन्धी 1. ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 1122-1123); 2. ( तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 4/40-41); 3. ( तिलोयपण्णत्ति अधिकार 7/617-625); 4. (राजवार्तिक अध्याय 4/40-41/249); 5. (हरि.पु.6/8-9); 6. (जं.प.12/95-96); 7. ( त्रिलोकसार गाथा 446)
प्रमाण सं. नाम आयु - - जघन्य प्रमाण नं. 5 उत्कृष्ट (1) ज्योतिष देव सामान्यकी अपेक्षा 1-7 चन्द्र 1/8 पल्य 1 पल्य + 1 लाख वर्ष 1-7 सूर्य 1/8 पल्य 1 पल्य + 1000 वर्ष 1-7 शुक्र 1/8 पल्य 1 पल्य + 100 वर्ष 2,3,4,6,7 बृहस्पति 1/8 पल्य 1 पल्य नं.1 बृहस्पति 1/8 पल्य 1 पल्य -100 वर्ष नं.5 बृहस्पति 1/8 पल्य 3/4 पल्य प्रमाण सं. नाम आयु - - जघन्य उत्कृष्ट 1-7 बुध, मंगल 1/8 पल्य 1/2 पल्य 1-7 शनि 1/8 पल्य 1/2 पल्य 1-7 नक्षत्र 1/8 पल्य 1/2 पल्य 1-7 तारे 1/8 पल्य 1/4 पल्य (2) ज्योतिष देवियोंकी अपेक्षा ( त्रिलोकसार गाथा 449) सर्व देवियाँ स्व स्व देवोंसे आधी (3) घातायुष्यकी अपेक्षा ( धवला पुस्तक 7/2,2/30/129), ( त्रिलोकसार गाथा 541) सम्यग्दृष्टि = स्व स्व उत्कृष्ट + 1/2 पल्य मिथ्यादृष्टि = स्व स्व उत्कृष्ट + पल्य/असं. 9. देवगति में वैमानिक देव सामान्य सम्बन्धी (प्रमाण : स्वर्ग सामान्यकी उत्कृष्ट व जघन्य आयु सम्बन्धी– ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 119); (त.मू.4/29-34); ( तिलोयपण्णत्ति अधिकार 8/458-459); (राजवार्तिक अध्याय 4/29-34/246-248); ( जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो अधिकार 19/653); ( त्रिलोकसार गाथा 532); प्रत्येक पटल विशेष में आयु सम्बन्धी– (टीका सहित षट्खण्डागम पुस्तक 7/2,2/सू.33/38/129-135) बद्धायुष्ककी अपेक्षा प्रत्येक पटलमें आयु सम्बन्धी – ( तिलोयपण्णत्ति अधिकार 8/458-512) घातायुष्क सामान्यकी अपेक्षा पटलमें आयु सम्बन्धी – ( तिलोयपण्णत्ति अधिकार 8/541) घातायुष्क सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा – ( त्रिलोकसार गाथा 533/541)
- - आयु सामान्य बद्धायुष्ककी अपेक्षा घातायुष्क सामान्य क्रम नाम जघन्य उत्कृष्ट उत्कृष्ट उत्कृष्ट (1) सौधर्म ईशान स्वर्ग सम्बन्धी सर्व सामान्य साधिक 1 पल्य साधिक 2 सागर घातायुष्क ( धवला पुस्तक 4/पृ.463/11) सम्यग्दृष्टि 1 पल्य+1/2 पल्य 2 सागर+1/2 सागर मिथ्यादृष्टि 1 पल्य+पल्य/असं. 2 सागर+पल्य/असं. प्रत्येक पटल 1 ऋजु 1.1\2 1/2 सागर 1/2 सागर 666,666,666,666,662\3 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 2 विमल 1/2 सागर 17/30 सागर 1,333,333,333,333,331\3 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 3 चन्द्र 17/30 सागर 19/30 सागर 20,000,000,000,000,00 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 4 वल्गु 19/30 सागर 21/30 सागर 266,666,666,666,662\3 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 5 वीर 21/30 सागर 23/30 सागर 333,333,333,333,3331\3 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 6 अरुण 23/30 सागर 25/30 सागर 400,000,000,000,000 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 7 नन्दन 25/30 सागर 27/30 सागर 466,666,666,666,666 2\3 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 8 नलिन 27/30 सागर 29/30 सागर 533,333,333,333,333 1\3 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 9 कांचन 29/30 सागर 1-1/30 सागर 600,000,000,000,000 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 10 रुधिर 1-1/30 सागर 1-3/30 सागर 666,666,666,666,666 2\3 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 11 चंचु 1-3/30 सागर 1-5/30 सागर 733,333,333,333,333 1/3 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 12 मरुत 1-5/30 सागर 1-7/30 सागर 800,000,000,000,000 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 13 ऋद्वीश 1-7/30 सागर 1-9/30 सागर 866,666,666,666,666 2\3 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 14 वैडूर्य 1-9/30 सागर 1-11/30 सागर 933,333,333,333,333 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 15 रुचक 1-11/30 सागर 1-13/30 सागर 1,000,000,000,000,000 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 16 रुचिर 1-13/30 सागर 1-15/30 सागर 1,066,666,666,666,666 2\3 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 17 अङ्क 1-15/30 सागर 1-17/30 सागर 1,133,333,333,333,333 1\3 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 18 स्फटिक 1-17/30 सागर 1-19/30 सागर 1,200,000,000,000,000 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 19 तपनीय 1-19/30 सागर 1-21/30 सागर 1,266,666,666,666,666 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 20 मेघ 1-21/30 सागर 1-23/30 सागर 1,333,333,333,333,333 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 21 अभ्र 1-23/30 सागर 1-25/30 सागर 1,400,000,000,000,000 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 22 हरित 1-25/30 सागर 1-27/30 सागर 1,466,666,666,666,666 2\3 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 23 पद्म 1-27/30 सागर 1-29/30 सागर 1,533,333,333,333,333 1\3 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 24 लोहिताङ्क 1-29/30 सागर 2-1/30 सागर 1,600,000,000,000,000 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 25 वरिष्ट 2-1/30 सागर 2-3/30 सागर 1,666,666,666,666,666 2\3 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 26 नन्दावर्त 2-3/30 सागर 2-5/30 सागर 1,73,3333,333,333,333, 1\3 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 27 प्रभंकर 2-5/30 सागर 2-7/30 सागर 1,800,000,000,000,000 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 28 पिष्टाक (पृष्ठक) 2-7/30 सागर 2-9/30 सागर 1,866,666,666,666,666 2\3 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 29 गज 2-9/30 सागर 2-11/30 सागर 1,933,333,333,333,333 1\2 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 30 मित्र 2-11/30 सागर 2-13/30 सागर 20,000,000,000,000,000 पल्य स्व स्व उत्कृष्ट आयुवत् 31 प्रभा 2-13/30 सागर 2-1/2 सागर साधिक 2 सागर (2) सनत्कुमार माहेन्द्र युगल सम्बन्धी - स्वर्ग सामान्य साधिक 2 सागर साधिक 7 सागर घातायुष्क:– - सम्यग्दृष्टि 2-1/2 सागर 7-1/2 सागर - मिथ्यादृष्टि 2 सागर+पल्य\असं. 7 सागर+पल्य\असं. प्रत्येक पटल– 1 अंजन 2-1/2 सागर 3-3/14 सागर 2-5/7 सागर 2 वनमाला 3-3/14 सागर 3-1/14 सागर 3-3/7 सागर 3 नाग 3-13/14 सागर 4-9/14 सागर 4-1/7 सागर 4 गरुड़ 4-9/14 सागर 5-5/14 सागर 4-6/7 सागर 5 लांगल 5-5/14 सागर 6-1/14 सागर 5-4/7 सागर 6 बलभद्र 6-1/14 सागर 6-11/14 सागर 6-3/7 सागर 7 चक्र 6-11/14 सागर 7.1\2 सागर साधिक 7 सागर (3) ब्रह्म ब्रह्मोत्तर युगल सम्बन्धी - स्वर्ग सामान्य साधिक 7 सागर साधिक 10 सागर घातायुष्क:– - सम्यग्दृष्टि 7+1/2 सागर 10+1/2 सागर - मिथ्यादृष्टि 7 सागर+पल्य\असं. 10 सागर+पल्य\असं. प्रत्येक पटल– 1 अरिष्ट 7-1/2 सागर 8-1/4 सागर 7-3/4 सागर 2 देवसमित 8-1/4 सागर 9 सागर 8-2/4 सागर 3 ब्रह्म 9 सागर 9-3/4 सागर 9-1/4 सागर 4 बह्मोत्तर 9-3/4 सागर 10-1/2 सागर साधिक 10 सागर - लौकान्तिक देव 8 सागर 8 सागर 8 साधिक (4) लांतव कापिष्ठ युगल सम्बन्धी - स्वर्ग सामान्य साधिक 10 सागर साधिक 14 सागर घातायुष्क:– - सम्यग्दृष्टि 10+1/2 सागर 14+1/2 सागर - मिथ्यादृष्टि 10 सागर+पल्य\असं. 14 सागर+पल्य\असं. प्रत्येक पटल– 1 ब्रह्म निलय 10-1/2 सागर 12-1/2 सागर साधिक 12 सागर 2 लान्तव 12-1/2 सागर 14-1/2 सागर साधिक 14 सागर क्रम नाम आयु सामान्य बद्धायुष्ककी अपेक्षा उत्कृष्ट घातायुष्क सामान्य उत्कृष्ट - - जघन्य उत्कृष्ट (5) शुष्क महाशुक्र युगल सम्ब्धी - स्वर्ग सामान्य साधिक 14 सागर साधिक 1 सागर घातायुष्क:– सम्यग्दृष्टि 14-1/2 सागर 14-1/2 सागर मिथ्यादृष्टि 14 सागर-पल्य\असं. 16 सागर+पल्य\असं. प्रत्येक पटल– 1 महा शुष्क 14-1/2 सागर 16-1/2 सागर साधिक 16 सागर (6) शतार-सहस्रार युगल सम्बन्धी - स्वर्ग सामान्य साधिक 16 सागर साधिक 18 सागर घातायुष्क:– - सम्यग्दृष्टि 16-1/2 सागर 18-1/2 सागर - मिथ्यादृष्टि 16 सागर+पल्य\असं. 18 सागर+पल्य\असं. प्रत्येक पटल – 1 सहस्रार 16-1/2 सागर 18-1/2 सागर साधिक 18 सागर उत्कृष्ट आयु सामान्य (7) आनत प्राणत युगल सम्बन्धी - स्वर्ग सामान्य 18 सागर 20 सागर - उत्पत्तिका अभाव - घातायुष्क:- उत्पत्ति का अभाव त्रिलोकसार गाथा 533) प्रत्येक पटल 1 आनत 18-1/2 सागर 19 सागर 18-4/6 सागर - उत्पत्तिका अभाव 2 प्राणत 19 सागर 19-1/2 सागर 19-2/3 सागर - उत्पत्तिका अभाव 3 पुष्पक 19-1/2 सागर 20 सागर 20 सागर - उत्पत्तिका अभाव (8) आरण अच्युत युगल सम्बन्धी स्वर्ग सामान्य 20 सागर 22 सागर - उत्पत्तिका अभाव - घातायुष्क:- उत्पत्ति का अभाव ( त्रिलोकसार गाथा 533) प्रत्येक पटल – 1 सातंकर 20 सागर 20-2/3 सागर 20-4/6 सागर उत्पत्तिका अभाव 2 आरण 20-2/3 सागर 21-1/3 सागर 21-2/6 सागर उत्पत्तिका अभाव 3 अच्युत 21-1/3 सागर 22 सागर 22 सागर उत्पत्तिका अभाव (9) नव ग्रैवेयक सम्बन्धी स्वर्ग सामान्य 22 सागर 31 सागर - उत्पत्तिका अभाव घातायुष्क:- उत्पत्ति का अभाव ( त्रिलोकसार गाथा 533) प्रत्येक पटल – 1 अधो-सुदर्शन 22 सागर 23 सागर - उत्पत्तिका अभाव 2 अमोघ 23 सागर 24 सागर - उत्पत्तिका अभाव 3 सुप्रबद्ध 24 सागर 25 सागर - उत्पत्तिका अभाव 4 मध्यम-यशोधर 25 सागर 26 सागर - उत्पत्तिका अभाव 5 सुभद्र 26 सागर 27 सागर - उत्पत्तिका अभाव 6 सुविशाल 27 सागर 28 सागर - उत्पत्तिका अभाव 7 ऊर्ध्व-सुमनस 28 सागर 29 सागर - उत्पत्तिका अभाव 8 सौमनस 29 सागर 30 सागर - उत्पत्तिका अभाव 9 प्रीतिंकर 30 सागर 31 सागर - उत्पत्तिका अभाव (10) नव अनुदिश सम्बन्धी - स्वर्ग सामान्य 31 सागर 32 सागर - उत्पत्तिका अभाव घातायुष्क:- उत्पत्ति का अभाव ( त्रिलोकसार गाथा 533) प्रत्येक पटल– 1 आदित्य 9 के 9 सर्व विमान 31 सागर 32 सागर - उत्पत्तिका अभाव (11) पंच अनुत्तर सम्बंधी - स्वर्ग सामान्य 32 सागर 33 सागर - उत्पत्तिका अभाव घातायुष्क:- उत्पत्ति का अभाव ( त्रिलोकसार गाथा 533) प्रत्येक पटल– 1 विजय 32 सागर 33 सागर - उत्पत्तिका अभाव 2 वैजयन्त 32 सागर 33 सागर - उत्पत्तिका अभाव 3 जयन्त 32 सागर 33 सागर - उत्पत्तिका अभाव 4 अपराजित 32 सागर 33 सागर - उत्पत्तिका अभाव 5 सर्वार्थ सिद्धि 33 सागर 33 सागर - उत्पत्तिका अभाव
10. वैमानिक देवोंमें व उनके परिवार देवों सम्बन्धी प्रमाण – ( तिलोयपण्णत्ति अधिकार 8/513-526) संकेत - ऊन = किञ्चिदून। इन्द्र त्रिक = इन्द्र सम्बन्धी प्रतीन्द्र, सामाविक, व त्रायस्त्रिंश यह तीन सामन्त लो. चतु. = लोकपालों सम्बन्धी प्रतीन्द्र, सामाविक, त्रायत्रिंश, पारिषद तथा अन्य सामन्त प्रकी. त्रिक = इन्द्र सम्बन्धी प्रकीर्णक, आभियोग्य व किल्विषक यह तीन प्रकार देव नोट - उत्कृष्ट आयु दी गयी है। पहले-पहले स्वर्गकी उत्कृष्ट अगले-अगले स्वर्गमें जघन्य आयु है। नं. नाम स्वर्ग इन्द्रादिक लोकपालादिक पारिषद प्रकी. - - इन्द्र इंद्रत्रिक यम-सोम कुबेर वरुण लो./चतु. - अभ्यन्तर मध्यम बाह्य अनीक त्रिक. - - - - पल्य पल्य पल्य - पल्य पल्य पल्य पल्य पल्य 1 सौधर्म स्व स्व स्वर्गकी उत्कृष्ट आयु स्व स्व इन्द्रवत् 2-1/2 3 ऊन 3 स्व स्व प्वामिवत् 2-1/2 3 4 5 1 कथन नष्ट हो गया है 2 ईशान स्व स्व स्वर्गकी उत्कृष्ट आयु स्व स्व इन्द्रवत् 3 ऊन 3 साधिक 3 स्व स्व प्वामिवत् 3 4 5 1 कथन नष्ट हो गया है 3 सनत्कुमार स्व स्व स्वर्गकी उत्कृष्ट आयु स्व स्व इन्द्रवत् 3-1/2 4 ऊन 4 स्व स्व प्वामिवत् 3-1/2 4 5 6 2 कथन नष्ट हो गया है 4 माहेन्द्र स्व स्व स्वर्गकी उत्कृष्ट आयु स्व स्व इन्द्रवत् 4 ऊन 4 साधिक 4 स्व स्व प्वामिवत् 3-1/2 4 5 6 2 कथन नष्ट हो गया है 5 ब्रह्म स्व स्व स्वर्गकी उत्कृष्ट आयु स्व स्व इन्द्रवत् 4-1/2 5 ऊन 5 स्व स्व प्वामिवत् 4-1/2 5 6 7 3 कथन नष्ट हो गया है 6 ब्रह्मोत्तर स्व स्व स्वर्गकी उत्कृष्ट आयु स्व स्व इन्द्रवत् 5 ऊन 5 साधिक 5 स्व स्व प्वामिवत् 4-1/2 5 6 7 3 कथन नष्ट हो गया है 7 लान्तव स्व स्व स्वर्गकी उत्कृष्ट आयु स्व स्व इन्द्रवत् 5-1/2 6 ऊन 6 स्व स्व प्वामिवत् 5-1/2 6 7 8 4 कथन नष्ट हो गया है 8 कापिष्ठ स्व स्व स्वर्गकी उत्कृष्ट आयु स्व स्व इन्द्रवत् 6 ऊन 6 साधिक 6 स्व स्व प्वामिवत् 5-1/2 6 7 8 4 कथन नष्ट हो गया है 9 शुक्र स्व स्व स्वर्गकी उत्कृष्ट आयु स्व स्व इन्द्रवत् स्व स्व स्वर्गकी उत्कृष्ट आयु 6-1/2 7 ऊन 7 स्व स्व प्वामिवत् 6-1/2 7 8 9 5 कथन नष्ट हो गया है 10 महाशुक्र स्व स्व स्वर्गकी उत्कृष्ट आयु स्व स्व इन्द्रवत् 7 ऊन 7 साधिक 7 स्व स्व प्वामिवत् 6-1/2 7 8 9 5 कथन नष्ट हो गया है 11 शतार स्व स्व स्वर्गकी उत्कृष्ट आयु स्व स्व इन्द्रवत् 7-1/2 8 ऊन 8 स्व स्व प्वामिवत् 7-1/2 8 9 10 6 कथन नष्ट हो गया है 12 सहस्रार स्व स्व स्वर्गकी उत्कृष्ट आयु स्व स्व इन्द्रवत् 8 ऊन 8 साधिक 8 स्व स्व प्वामिवत् 7-1/2 8 9 10 6 कथन नष्ट हो गया है 13 आनत स्व स्व स्वर्गकी उत्कृष्ट आयु स्व स्व इन्द्रवत् 8-1/2 9 ऊन 9 स्व स्व प्वामिवत् 8-1/2 9 10 11 7 कथन नष्ट हो गया है 14 प्राणत स्व स्व स्वर्गकी उत्कृष्ट आयु स्व स्व इन्द्रवत् 9 ऊन 9 साधिक 9 स्व स्व प्वामिवत् 8-1/2 9 10 11 7 कथन नष्ट हो गया है 15 आरण स्व स्व स्वर्गकी उत्कृष्ट आयु स्व स्व इन्द्रवत् 9-1/2 10 ऊन 10 स्व स्व प्वामिवत् 9-1/2 10 11 12 8 कथन नष्ट हो गया है 16 अच्युत स्व स्व स्वर्गकी उत्कृष्ट आयु स्व स्व इन्द्रवत् 10 ऊन 10 साधिक 10 स्व स्व प्वामिवत् 9-1/2 10 11 12 8 कथन नष्ट हो गया है
11. वैमामिक इन्द्रों अथवा देवोंकी देवियों सम्बन्धी नोट - उत्कृष्ट आयु दी गयी है। जघन्य आयु सर्वत्र एक पल्य है। संकेत - ऊन = किंचिदून इन्द्रत्रिक = इन्द्र सम्बन्धी प्रतीन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश यह तीन सामन्त लो.चतु. = लोकपालों सम्बन्धी प्रतीन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद व अन्य सामन्त प्रकी. त्रिक = प्रकीर्णक, अभियोग्य व किल्विषक देव प्रमाण - सारे चार्टका आधार भूत – ( तिलोयपण्णत्ति अधिकार 527-540) केवल इन्द्रोंकी देवियों सम्बन्धी – ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 1120-1121); ( तिलोयपण्णत्ति अधिकार 8/527-532); ( धवला पुस्तक 7/4,1,66/गा.131-300); ( त्रिलोकसार गाथा 542)
क्रम नाम स्वर्ग इन्द्रकी देवियाँ इन्द्रत्रिक लोकपाल परिवारकी देवियाँ - - दृष्टि नं. 1 दृष्टि नं. 2 दृष्टि नं. 3 - सोमयम कुबेर वरुण लो.त्रिक आत्मरक्षोंकी देवियाँ पारिषद त्रयकी देवियाँ अनीकों की देवियाँ प्रकी.त्रिककी देवियाँ - - पल्य पल्य पल्य - पल्य पल्य पल्य 1 सौधर्म 5 5 5 स्व स्व इन्द्रोंकी देवियोंवत् 1-1/4 1-1/2 ऊन 1-1/2 स्व स्व स्वामिवत् कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है 2 ईशान 7 7 5 स्व स्व इन्द्रोंकी देवियोंवत् 1-1/2 1-1/2 साधिक 1-1/2 स्व स्व स्वामिवत् कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है 3 सनत्कुमार 9 9 17 स्व स्व इन्द्रोंकी देवियोंवत् 2-1/4 2-1/2 ऊन 2-1/2 स्व स्व स्वामिवत् कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है 4 माहेन्द्र 11 11 17 स्व स्व इन्द्रोंकी देवियोंवत् 2-1/2 2-1/2 साधिक 2-1/2 स्व स्व स्वामिवत् कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है 5 ब्रह्म 13 13 25 स्व स्व इन्द्रोंकी देवियोंवत् 3-1/4 3-1/2 ऊन 3-12 स्व स्व स्वामिवत् कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है 6 ब्रह्मोत्तर 15 15 25 स्व स्व इन्द्रोंकी देवियोंवत् 3-1/2 3-1/2 साधिक 3-1/2 स्व स्व स्वामिवत् कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है 7 लान्तव 17 17 35 स्व स्व इन्द्रोंकी देवियोंवत् 4-1/4 4-1/2 ऊन 4-1/2 स्व स्व स्वामिवत् कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है 8 कापिष्ठ 19 19 17 स्व स्व इन्द्रोंकी देवियोंवत् 1/2 1/2 साधिक 4-1/2 स्व स्व स्वामिवत् कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है 9 शुक्र 21 21 40 स्व स्व इन्द्रोंकी देवियोंवत् 5-1/4 5-1/2 ऊन 5-1/2 स्व स्व स्वामिवत् कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है 10 महाशुक्र 23 23 40 स्व स्व इन्द्रोंकी देवियोंवत् 5-1/2 5-1/2 साधिक 5-1/2 स्व स्व स्वामिवत् कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है 11 शतार 25 25 45 स्व स्व इन्द्रोंकी देवियोंवत् 6-1/4 6-1/2 ऊन 6-1/2 स्व स्व स्वामिवत् कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है 12 सहस्रार 27 27 45 स्व स्व इन्द्रोंकी देवियोंवत् 6-1/2 6-1/2 साधिक 6-1/2 स्व स्व स्वामिवत् कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है 13 आनत 34 29 50 स्व स्व इन्द्रोंकी देवियोंवत् 7-1/4 7-1/2 ऊन 7-1/2 स्व स्व स्वामिवत् कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है 14 प्राणत 41 31 50 स्व स्व इन्द्रोंकी देवियोंवत् 7-1/2 7-1/2 साधिक 7-1/2 स्व स्व स्वामिवत् कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है 15 आरण 48 33 55 स्व स्व इन्द्रोंकी देवियोंवत् 8-1/4 8-1/2 ऊन 8-1/2 स्व स्व स्वामिवत् कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है 16 अच्युत 55 35 55 स्व स्व इन्द्रोंकी देवियोंवत् 8-1/2 8-1/2 साधिक 8-1/2 स्व स्व स्वामिवत् कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है कथन नष्ट हो गया है
12. देवों-द्वारा बन्ध योग्य जघन्य आयु
धवला पुस्तक 9/4,1,66/306-308
क्रम स्वर्ग जघन्य आयु - - तिर्यंचोंकी मनुष्योंकी 1 सानत्कुमार माहेन्द्र मुहूर्त पृथक्त्व मुहूर्त पृथक्त्व 2 ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर दिवस पृथक्त्व दिवस पृथक्त्व 3 लावन्त-कापिष्ठ दिवस पृथक्त्व दिवस पृथक्त्व 4 शुक्र-महाशुक्र पक्ष पृथक्त्व पक्ष पृथक्त्व 5 शतार-सहस्रार पक्ष पृथक्त्व पक्ष पृथक्त्व 6 आनत-प्राणत मास पृथक्त्व मास पृथक्त्व 7 आरण-अच्युत मास पृथक्त्व मास पृथक्त्व 8 नवग्रैवेयक वर्ष पृथक्त्व वर्ष पृथक्त्व 9 अनुदिश-अराजित x वर्ष पृथक्त्व 10 सम्यग्दृष्टि कोई भी देव x वर्ष पृथक्त्व