वर्णीजी-प्रवचन:दर्शनपाहुड - गाथा 27
From जैनकोष
चउसटि̖ठचमरसहिओ चउतीसहि अइसएहिं संजुत्तो ।
अणवरबहुसत्तहिओ कम्मक्खयकारणणिमित्तो ꠰꠰27꠰।
इससे पूर्व गाथा में वंदना का प्रकरण था, उसी वंदना से संबंधित यह गाथा कही जा रही है । तीर्थंकर देव भी वंदनीय है । तीर्थंकर देव तो मुख्यतया वंदनीय हैं, पर मिलते तो नहीं रोज-रोज, इसलिए साधुवों का पहले वर्णन किया । तीर्थंकर देव के पुण्य के उदाहरण हैं । तीर्थंकर भगवान से बढ़कर पुण्य किसी का नहीं माना गया । यद्यपि वह पुण्य मोक्ष का साधन नहीं है । मोक्ष का साधन तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्̖चारित्र है, पर जो धर्ममार्ग में चलता है उसके विशेष पुण्य हुआ ही करता है । तीर्थंकर तो वास्तव में 13 वें गुणस्थान से कहलाते हैं । जब गर्भ में हुए, जन्म हुआ, मुनि हुए तब तक वे तीर्थंकर नहीं, जब उन्हें केवलज्ञान होता है तब से तीर्थंकर कहलाते हैं, फिर भी चूंकि मालूम है कि यह तीर्थंकर होंगे इस कारण उनको गर्भ से ही तीर्थंकर मानते हैं । अब तीर्थंकर गर्भ में आये तीर्थंकर तो भगवान परमात्मा कहलाते हैं, वह क्या गर्भ में आते हैं, मगर जो जीव तीर्थंकर होगा उसे पहले से ही तीर्थंकर कहते हैं, जैसे किसी राजा का पुत्र है, राजगद्दी मिलना उसे निश्चित है तो बचपन से ही उसे लोग राजा कहने लगते ऐसे ही तीर्थंकर प्रकृति का उदय 13 वें गुणस्थान में होता है और जहाँ तीर्थंकर प्रकृति का उदय हुआ वहाँ से तीर्थंकर कहा जाना चाहिए, पर इंद्रों ने तो जन्म से पहले ही समझ लिया था कि यह जीव तीर्थंकर होगा तब ही तो गर्भ के 6 महीने पहले रत्नवर्षा करायी । तो जिसके प्रति यह निर्णय है कि यह तीर्थंकर होगा उसको अभी से ही तीर्थंकर कहा गया है । तो तीर्थंकर प्रकृति का जब उदय है केवलज्ञानी हैं उस समय उनका क्या वैभव होता है? 64 चमर से युक्त होते हैं, 64 चमर ढोरते हैं । अब उनके चमर देवोपुनीत सही पवित्र होते यक्ष हैं । अब वे चमर तो यहाँ हैं नहीं, और चमर तो होने ही चाहियें न? तो काहे के बनाये जायें? चांदी सोने के, तार के, गोटे के या अन्य चीज के, मगर गाय की पूँछ काटकर चमर बनाना यह जैनशासन में युक्त बात नहीं है । चमरी गाय की पूंछ होती है ऐसी जिसकी चमर बनी है । उसमें क्या दोष है? एक तो गाय की पूंछ काटकर ही लायी गई, वह चमर उसके बिना कैसे बने? एक तो वह हिंसा, और दूसरे उसकी डंडी जहाँ से भी चली है वही चाम का संबंध है, चाम भी है और हड्डी भी है नीचे । तीसरे―उसके बाल इतने कड़े होते हैं कि जिस मक्खी या चींटा चींटी आदि जीव के ऊपर जोर से पड़ जाये तो वह कट सकती है । तो ऐसा चमर बिल्कुल अयोग्य है जैनशासन में । जैनशासन में तो अहिंसाप्रधान क्रिया होनी चाहिए न अब भगवान के शृंगार में या उनकी विभूति की याद में गोटा या चांदी के तार के या और किस्म के चमर बना लेना चाहिए । तो ऐसे 64 यक्ष चमर ढोरते हैं भगवान के । और वे 34 अतिशय करके युक्त हैं । 34 अतिशय क्या हैं? 10 तो जन्म के अतिशय―जब तीर्थंकर का जन्म होता है तो जन्म से ही उनकी 10 बातें अलौकिक होती हैं जो कि सबमें नहीं पायी जातीं । वह अभी तीर्थंकर नहीं हुए, मगर तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता है । मनुष्य है और इसी भव में तीर्थंकर प्रकृति का उदय आयगा, ऐसी निकटता होने से और विशेष पुण्य होने से जन्मते ही उनमें 10 अपूर्व बातें होती हैं । वे क्या हैं 10 बातें ? एक तो उनका बड़ा सुंदररूप जो मनोज्ञ है, सर्व जनों को प्रिय है । दूसरा―उनके शरीर में सुगंध का होना । शरीर है तो गंध तो अवश्य होती है और प्राय करके चूंकि खून, चाम, हड्डी हैं, भले ही वे जीवित दशा में हैं फिर भी उसमें गंध तो बुरी होगी ही, लेकिन तीर्थंकर के शरीर में बुरी गंध नहीं और सुगंध है, जहां वे विराजे हों तो आस-पास का वातावरण सुगंधमय हो जाता है, और पसेव और निहार भी नहीं है । पसीना भी नहीं आता तीर्थंकर के शरीर में, निहार मल मूत्र भी नहीं, उनका अल्प भोजन और रस का भोजन है और उनमें ऐसा अद्भुत बल होता कि वह सब रसरूप बन जाता है ।
अभी यहां भी अनेक लोग ऐसे भी मिलते हैं जो खाते पीते तो रोज-रोज हैं मगर शौच तीन चार दिन में जाते हैं । तो उनकी जठराग्नि इतनी पुष्ट होती है कि प्राय: वह रस बन जाता, भस्म हो जाता है । तो तीर्थंकर देव के तो ऐसी उत्कृष्ट अग्नि है कि भस्म हो जाता है । उनके वचन हित, मित, प्रिय निकलते है, वे तो महान् आत्मा हैं, महापुरुष हैं । महापुरुषों के वचन खोटे तुच्छ अपमान भरे नहीं निकला करते । अभी यहां ही देख लो; अगर कोई महापुरुष किसी छोटे आदमी को कुछ समझा रहा है और उसकी समझ में नहीं आ रहा तो वह यों कहेगा कि भाई हम तुमको समझा नहीं सकते । आम रिवाज तो यों हैं कि तुम्हें कुछ समझ ही नहीं आती, तुम्हारा दिमाग खराब है, हम इतना समझाते हैं, पर तुम्हारे दिमाग में ही नहीं बैठता, और अधिक गुस्सा होवे तो कहते कि तुम्हारे दिमाग में भुस भरा है, मगर कोई बड़ा आदमी कहेगा तो यों कहेगा कि भाई हम तुम्हें समझा नहीं सके याने हमारी गल्ती है, हम उसका पूरा ढंग नही जानते हैं जो हम आपको समझा सके । तो तीर्थंकर तो एक महान् विभूति हैं, उनके वचन अप्रिय और अहित के नहीं निकलते । ऐसे पुरुषों को सब पर क्षमाभाव रहता है । और दया की बुद्धि रहती है उनका एक अतिशय है अतुल्य बल । उनके समान बल यहाँ किसी में नहीं पाया जाता ।
(126) तीर्थंकरों के अतुल्य बल संबंधी एक दृष्टांत―एक बार का कथानक है कि तीर्थंकर नेमिनाथ और श्रीकृष्ण भाई-भाई थे । नेमिनाथ तो छोटे थे और श्रीकृष्ण बड़े थे, मगर श्रीकृष्ण को यह संदेह हो गया था कि यह नेमिनाथ बड़ा बलवान पुरुष है, इसके रहते हुए हमारा राज्य पर प्रभुत्व न रहेगा तो उसे कुछ चेतावनी देने के लिए श्रीकृष्ण ने एक अद्भुत शंख का नाद किया । अब नेमिनाथ तो थे अवधिज्ञानी जन्म से ही, सो उन्होंने सब हाल समझ लिया कि हमारे भाई श्रीकृष्ण को कुछ घमंड आ गया है सो वहाँ एक बहुत बड़ी सभा तो लगी ही थी । श्रीकृष्ण भी वहीं मौजूद थे । तो वहाँं नेमिनाथ ने कहा सभी से कि अब सभी लोग अपने-अपने शरीर के बल की बात बैठे बैठे दिखाओ, तो किसी ने नेमिनाथ का हाथ मरोड़ा, किसी ने कुछ, किसी ने कुछ, नेमिनाथ बोले कि तुम में से कोई हमारी सबसे छोटी अंगुली (छिगुली) जो मरोड़ सकता हो वह मरोड़ दे । तो अब देखो सभी अंगुलियों की अपेक्षा छिंगुली में कम बल होता है, वह आसानी से मुड़ जाती है । वही नेमिनाथ की छिंगुली मरोड़ सकने में सभी लोग असमर्थ रहे, और जब श्रीकृष्ण मरोड़ने लगे तो वह तो उसी में लटक गये फिर भी न मरोड़ सके । तो यही अतुल्य बल की बात कह रहे कि तीर्थंकरों में अतुल्य बल होता है, और यह नेमिनाथ दयालु इतने थे कि जब षड़यंत्र रचा गया श्रीकृष्ण के द्वारा कि नेमिनाथ को वैराग्य हो जाये, नहीं तो इसके रहते हुए हम को राज्य भोगने में अनेक विघ्न आयेंगे, तो नेमिनाथ का जब विवाह था, तो श्रीकृष्ण ने बहुत से पशुओं को एक जाल के अंदर बंद करवा रखा था और सारथी से कह दिया था कि जब नेमिनाथ इन पशुओं वाले स्थान पर पहुंचे तो यहाँ रथ रोक देना । नेमिनाथ वह दृश्य देखकर कुछ तो पूछेगा कि ये पशु इसके अंदर क्यों भरे हैं....। और कहा कि उसके पूछने पर तुम यह भी कह देना कि ये पशु तुम्हारे साथ के बरातियों को, अतिथियों को भोजन में मांस खिलाने के लिए बँधे हैं । देखिये―वहां इस तरह का एक षडयंत्र, रचा गया । आखिर नेमिनाथ ने विवाह के लिए जाते समय मार्ग में जब वह दृश्य देखा तो उन पशुओं का चीत्कार सुनकर सीधे ही गिरिनार पर्वत पर चले गए । इतनी अद्भुत करुणा थी जीवों के प्रति । तो तीर्थंकरों में अतुल्य बल होता है ।
(127) तीर्थंकरों के शरीर के रक्त संबंधी अतिशय-―एक अतिशय यह है कि उनके शरीर का खून दूध के समान सफेद होता है । अब भी हम आप में दोनों रंग के खून हैं । सफेद भी और लाल भी । जब लाल खून मात्रा से अधिक हो जाता हैं तो मनुष्य कठिन बीमार हो जाता है, और सफेद खून में सामर्थ और निर्दोषता अधिक है । तो तीर्थंकरों के तो सारे शरीर का खून सफेद होता है । क्यों सफेद है कि दोनों खूनों में सफेद खून उत्कृष्ट होता है । एक कवि ने अलंकार में तो यह बतलाया कि जब मां के बच्चा होता है तो जब बच्चे पर मां के हृदय में प्रेम उमड़ता है तो मां के दूध पैदा हो जाता है वह मां एक बच्चे के प्यार में दूध वाली बन जाती है तो फिर तीर्थंकर को तो तीनों लोक के जीवों पर प्यार है, फिर उनकें सारे शरीर का रुधिर श्वेत गया तो इसमें क्या आश्चर्य ? उनके अंग में 1008 लक्षण होते हैं । लक्षण मायने उत्तम, चिन्ह, तिल, रेखायें या उनके निशान, ये सब 1008 लक्षण होते हैं और उनका संस्थान समचतुरस्रसंस्थान होता है । 1008 लक्षण की बात कह रहे । चूंकि उनके शरीर में 1008 लक्षण होते हैं इसलिए भगवान को श्री 1008 लिखते है मायने 1008 बार श्री हम बोल रहे और गुरुवों को, मुनियों को श्री 108 लिखते हैं; उसका अर्थ है कि मुनियों के 1॰8 पापों का त्याग है । पाप 108 प्रकार के होते हैं―समरंभ, समारंभ और आरंभ । किसी पाप के कार्य का विचार करना यह समरंभ पाप है, उस कार्य के साधनों को जुटाना यह समारंभ पाप है और उस कार्य को करना यह आरंभ पाप है, और ये तीनों ही पाप कृतकारित अनुमोदना से होते हैं, करे, कराये, और अनुमोदना करे । तो ये हो गए 3 3 = 9 और ये 9 ही पाप मन, वचन, काय से होते हैं तो 9 3 = 27 और ये 27 ही पाप क्रोधवश हों, मानवश हों, मायावश हो और लोभवश हों तो 27 4 = 108 पाप होते है, इन 108 पापों का त्याग होने से साधुवों को 108 लिखा जाता है । 1008 न लिखना चाहिए क्योंकि साधु तो अरहंत से बहुत निम्न दशा में हैं और प्राय: करके कुसाधु अधिक होते हैं । तो 1008 लक्षणों से युक्त हैं प्रभु ।
(128) तीर्थंकरों का आकार समचतुरस्रसंस्थान―एक अतिशय है कि तीर्थंकर के शरीर का आकार समचतुरस्रसंस्थान है । नाभि से नीचे भी उतना ही लंबा और नाभि से ऊपर से भी उतना ही लंबा जितना हाथ होना चाहिए उतना हाथ, हर एक अंग जिस आकार में सही होना चाहिए उस आकार में होता है, तो उनका संस्थान है समचतुरस्रसंस्थान । और उनका संहनन है वज्रवृषभनाराचसंहनन याने वज्र के ही हाथ, वज्र के ही बेठन और वज्र की ही कीली, जो इतना पुष्ट शरीर होगा वहाँ ही उपद्रव उपसर्ग आये तो उन्हें झेला जा सकता है और अपने ध्यान में बाधा न आ सके और आत्मध्यान का कार्य निर्विघ्न हो लेगा, यही कारण है कि मोक्ष भी वज्रवृषभनाराचसंहनन से बताया गया है । वज्रवृषभनाराचसंहनन पुरुषों के ही होता है, महिलाओं के नहीं होता ।
यहाँ दिगंबर शास्त्रों में भी है ऐसा और श्वेतांबर शास्त्रों में भी है । दोनों में करणानुयोग करीब-करीब एक साथ चल, द्रव्यानुयोग भी एक साथ चला, पर चरणानुयोग में बदल की और उस बदल कारण यह है कि अपने आराम का ध्यान रखा कि हमको आराम बहुत रहे, कोई कष्ट न आये । इस आधार पर श्वेतांबर साधुवों में चरणानुयोग की शिथिलता बढ़ गई है । वहाँ भी ग्रंथों में इतना नहीं लिखा । एक बार भोजन लिखा है भगवती सूत्र में । कदाचित् कोई अत्यंत रुग्ण हो, गंभीर परिस्थिति हो तो, दूसरी बार जल औषधि जैसी अल्प चीज ले ले, पर जब किसी प्रकार का रोग ही नहीं तो वहाँ एक बार का ही आहार बताया । अब साधु लोग दुबारा तिबारा भोजन करने लगे, उनको उनके भक्तों ने किसी ने रोका नहीं तो उनकी वह एक परिपाटी चल उठी । अब तो नये ग्रंथ निर्माण में लिख भी दिया कि 5-6 बार आहार ले । तो 5 - 6 बार का कोई अर्थ नहीं, जितनी बार आवश्यक हो उतनी बार लें । एक या दो बार की शोभा देता, अधिक बार की नहीं ꠰ इतनी-इतनी बार तो गृहस्थ लोगों को भी अशोभनीय लगता । तो अपने आराम का ख्याल रखकर वह चरणानुयोग है मगर दिगंबर जैनदर्शन में आराम का ख्याल नहीं रखा और न उसमें बदल किया, अगर मुनि बनते नहीं बनता तो तुम श्रावक ही रहो, वहाँ ही धर्मसाधना करो, पर साधु हो तो जो साधुवों के मूल गुण हैं उनके अनुसार ही चलना योग्य है । बड़े-बड़े कठिन उपद्रव भी आयें तो भी वे वज्रवृषभनाराचसंहनन में समतापूर्वक सह लिए जाते हैं, और यह वज्रवृषभनाराचसंहनन महिलाओं के नहीं होता ।
दूसरी बात―दोंनों ही जगह यह लिखा है करणानुयोग में कि वज्रवृषभनाराचसंहनन से मोक्ष होता है तो अपने आप ही सिद्ध हो गया कि स्त्रियों को मोक्ष नहीं है । अगर कोई बात कुछ सत्य लिखे या बोले तो यह ख्याल नहीं रहता कि यह पोल हमारा वहाँ से खुल सकता है, यह झूठ हमारी वहाँ से सिद्ध हो सकती है तो जल्दी-जल्दी में लिख तो देते हैं मगर उनकी वह बात करणानुयोग से संगत नहीं बैठती । वज्रवृषभनाराचसंहनन एक पुष्ट संहनन है और यह तीर्थंकरों के जन्म से ही होता है । तो तीर्थंकर के ये 10 अतिशय जन्म से ही होते हैं, अब आगे कुछ बढ़े, मुनि हुए, केवलज्ञानी हुए तो उनके 14 अतिशय तो देवकृत है जिन्हें देव करते हैं और 10 अतिशय केवलज्ञान होने पर होते ही हैं । तो वे देवकृत अतिशय क्या हैं?
(129) केवलज्ञानी के 10 अतिशय―एक तो अर्द्धमागधी भाषा होना, तीर्थंकर का वचन किसी भाषारूप में नहीं है । उनकी दिव्यध्वनि है, । तीर्थंकर दिगंबर जैनशासन में किसी से बोलते नहीं हैं, बातचीत नहीं करते । अच्छा आप ही अंदाज लगा लें कि यदि उनसे बातचीत करने का सिलसिला बना है, आपका प्रश्न सुनें, उसका उत्तर दे तो इसमें कुछ न कुछ राग है कि नहीं ? पूर्व में वीतराग होने पर वचनालाप न बनेगा । जिसमें वचनालाप बनता है उसमें राग अवश्य है । चाहे प्रशस्त राग कहो, चाहे कुछ । तो तीर्थंकर के अपने समय में दिव्यध्वनि खिरती है वह भव्य जीवों के पुण्य से और उनके वचन योग से दिव्यध्वनि ओंकार के रूप में खिरती है । उसको जो लोग सुनते है वे अपनी-अपनी बुद्धिमाफिक उसका अर्थ लगाते हैं, अपने प्रश्नों का समाधान करते हैं और गणधर देव जैसे कि महावीरस्वामी के गणधर गौतम हुए, वह द्वादशांग की रचना करते हैं, पर तीर्थंकर से कोई प्रश्न करता हो, तीर्थंकर उसको जवाब देते हो, यह क्रिया वहाँ नहीं है । प्रश्न करने वाले की तो मंशा है, कुछ भी बोले । यहाँ प्रतिमा के आगे भी वह कुछ प्रश्न कर सकता । पर तीर्थंकर के राग नहीं है इसलिए वहाँ वचनालाप की प्रवृत्ति नहीं है, समय पर दिव्यध्वनि खिरती है । हाँ इतना तो अवश्य हो जाता है कि असमय में अगर चक्रवर्ती आये तो असमय में भी दिव्यध्वनि खिरने लगती, सो वह कहीं भगवान में यह चक्री आया है इसलिए हमें दिव्यध्वनि खिरना चाहिए ऐसा उनके राग नहीं उठा, किंतु चक्रवर्ती का पुण्य ही ऐसा है कि मेघ बरस जाये, दिव्यध्वनि खिर जाये, कुछ हो जाये । तो जैसे मेघ बरसते हैं तो क्या वे ऐसा जानकर बरसते हैं कि इस गाव में न बरसे, यहाँ पापी लोग रहते हैं, इस गांव में बरसे, यहाँ पुण्यवान लोग रहते हैं, मेघ के ऐसा भाव नहीं होता, पर जीवों के पुण्य पाप का प्रभाव ऐसा है कि वैसा योग हो जाता है । और भगवान की दिव्यध्वनि सर्व भाषा के लोगों को सुनाई दे, जो जिस भाषा का है और दूर तक सुनाई दे, यह प्रबंध देवकृत होता है । आज भी सुनते हैं कि संयुक्त राष्ट्रसंघ वगैरह बड़ी जगहों में ऐसे-ऐसे यंत्र हैं कि जिनके द्वारा एक भाषा में बोला जाने पर वह अनेक भाषाओंरूप परिणत हो जाता है, वहां पर बैठे अनेक भाषाओं के लोग उसे अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं । (हमने देखा तो नहीं ऐसी मशीन, पर सुना अवश्य है) तो यह अर्द्धमागधी भाषा देवकृत अतिशय है ।
(13॰) अरहंत भगवान का अतिशय जीवों में परस्पर मैत्रीभाव व दिशा आकाश का निर्मल होना―अरहंत भगवान के 34 अतिशयों में देवकृत अतिशय 14 होते हैं, जिनमें पहला अतिशय है अर्द्धमागधी भाषा । दूसरा अतिशय है परस्पर मित्रता का होना । तीर्थंकर केवली भगवान लोक में उत्तम पुरुष है, उनके निकट भी कोई जीव लड़ता रहे तब तो बड़ा गजब हो जायेगा, वहाँ जो पहुंचता है, वह अपना बैर भाव सब छोड़ देता है और परस्पर मित्रता से रहा करता है । जो जाति से ही विरोध रखते हैं वे जीव भी समवशरण में पहुंचते हैं और परस्पर में पास-पास बैठकर मित्रता से सुनते हैं । तो यह अरहंत भगवान का एक अतिशय है । अतिशय तो प्रभु का ही है मगर उसमें कुछ देवों का आवागमन और उनका निरीक्षण ये सब होने से इसका भी प्रभाव है । जैसे कोई बड़ा वक्ता आया है, मानो किसी समाज में कोई ज्ञानी पुरुष आया है और समाज के लोग ही उसके पास न आये या उपेक्षा करें तो अन्य छोटे लोगों पर उसका प्रभाव कैसे हो सकता है? तो बडे लोगों का आना यह एक ऐसा प्रभावक होता है कि दूसरे लोग भी उससे प्रभावित होते हैं । तो समवशरण में प्रभु विराजे हैं, उनकी तो महिमा है ही, मगर देव लोगों का जो प्रबंध हैं, आना जाना है और चमत्कार है वह भी इस वातावरण में सहयोगी है । जीव परस्पर मित्रता को पाते हैं, पर मुख्यता है, प्रभु के सान्निध्य की । प्रभु की उपस्थिति में एक अतिशय यह है कि दिशायें, आकाश निर्मल हो जाता है । जिससे कोई बाधा न आये । वहाँ न गर्मी की बाधा न सर्दी की, न बरसात की, समवशरण में प्रभु जब विराजे होते हैं तो वहाँ देव और इंद्रों का प्रबंध होता है, दिशायें निर्मल होती हैं ।
(131) तीर्थंकर परम देव की सन्निधि का अतिशय छहों ऋतुओं के फल फूल का होना, चरणकमल के नीचे स्वर्णकमल की रचना होना―एक अतिशय यह है कि छहों ऋतुओं के फल फूल फलने लगते हैं, किसी भी समय तीर्थंकर विराजे हों तो उस समय के ऋतु के फल फलने लगते है यह बात तो है ही मगर आगे और पीछे की ऋतुओं के फल भी फलने लगते हैं । यह बात तो कुछ वैज्ञानिक ढंग से अब भी की जाती है । दक्षिण प्रांत में चावल के पेड़ साल के बारहों महीने फलते फैलते हैं, आम तो अब भी बारहों महीने फलते फूलते है, और फिर जहां प्रभु विराजे हो वही तो यह अतिशय होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है, एक अतिशय यह है कि पृथ्वी कांच के समान निर्मल हो जाती है । धूल न रहे, कंकड़ न रहें, कांच के समान पुथ्वी साफ रहे, ये सब देवकृत अतिशय हैं मगर हुए प्रभु के सान्निध्य के कारण, इसलिए प्रभु का अतिशय कहा जाता है । जैसे जब कोई मिनिस्टर या राष्ट्रपति अपने गांव या नगर में आता है तो नगरपालिका बहुत बढ़िया सफाई करती है तो बताओ वहां अतिशय किसका माना जायेगा? उस मिनिस्टर या राष्ट्रपति का, क्योंकि सफाई करने वाले तो कार्यकर्ता हैं, झाड़ने वाले हैं, पर अतिशय है उस मुख्य नेता का, ऐसे ही प्रभु गमन करते हैं, विहार करते हैं तो अन्य लोग भी उनके साथ विहार करते है, उन विहार करने वालों को उस समय पृथ्वी बिल्कुल निर्मल कांच के समान लगती हैं । देवों में ऐसी विक्रिया होती है कि जिस काम को मनुष्य वर्षभर में कर पावें, उस काम को देव मिनट में ही कर दें ꠰ एक अतिशय यह है कि जब भगवान विहार करते हैं तो । उनके चरण कमल के नीचे स्वर्णकमल रचे जाते हैं और वे सब कमल 225 रहते हैं । आगे बढ़ते जाते हैं और चारों ओर से स्वर्णकमल की रचना होती है । प्रभु उस कमल पर पैर नहीं रखते, वे तो अंतरिक्ष हैं, आकाश में ऊपर ही रहते है, पर बड़े पुरुषों के लिए स्वागत इसी तरह हुआ करता है । तो एक अतिशय यह है देवकृत कि भगवान के चरणकमल के नीचे स्वर्णकमल रचते जाते हैं ।
(132) प्रभु का अतिशय देवादि के द्वारा जयवाद से आकाश गुंजना, मंद गंधोदक की वृष्टि होना व भूमिका धनधान्य संपन्न होना, अष्टमंगल द्रव्य का होना―एक अतिशय यह है कि आकाश में जय-जय की ध्वनि होती है, प्रभु की जय जिनेंद्र देव की जय । कौन करता है? मनुष्य भी और देव भी । जय-जय के नारों से आकाश गूंज जाता है । कोई महापुरुष मुनि, होकर तपोबल से, समाधिबल से परमात्मा हो गया―तो वह तो एक इस लोक में अनोखी बात है । उसके दर्शन को भी सर्व प्राणी तरसते हैं । और जय-जय के शब्दों से आकाश गुंजा देते हैं । एक अतिशय यह भी है कि उनके आगे-आगे एक धर्मचक्र चलता है ꠰ जिसके दर्शन से लोगों के चित्त में प्रभाव पड़ता है ꠰ जैसे धर्मचक्र की शोभा ऐसी अद्भुत होती है कि दर्शन करते ही लोगों के चित्त में एक प्रभाव बनता है, भक्ति उमड़ती है और कोई महान् लोकोत्तम प्रभु आये हैं ऐसी भावना से चित्त प्रसन्न हो जाता है, जब प्रभु का विहार होता है तब भी और समवशरण में भी मंद-मंद गंधोदक वृष्टि होती रहती है याने इतनी मंद गंधोदक वृष्टि है कि भीगे नहीं और सुगंध आये, आताप दूर हो जाती है, ऐसा वहां देवकृत अतिशय होता है, उस समय भूमि धन धान्य से पूर्ण हो जाती है, यह है प्राकृतिक अतिशय । जहाँ से प्रभु का विहार हो जाये वहाँ दुर्भिक्ष नहीं होता, सुभिक्ष ही रहता है प्रभु के निकट अष्ट मंगलद्रव्य होते हैं । झाड़ी, पंखा, दर्पण आदिक जो 8 मंगलद्रव्य हैं वे उनके निकट होते हैं । ऐसी अद̖भुत शोभा प्रजाजनों को आनंद बरसाने वाला अतिशय प्रभु के होता है ꠰
(133) केवलज्ञान होने पर प्रभुता का अतिशय सौ-सौ योजन तक सुभिक्ष होना, गगनगमन व अदया का अभाव―केवलज्ञान के समय में 10 अतिशय हैं, जिसको केवलज्ञान हो जाता है तो ये 10 अतिशय हुआ करते हैं । जहाँ प्रभु विराजे हों उसके 100-100 योजन दूर तक दुर्भिक्ष नहीं रहता । कोई जीव दुःखी नहीं रहता, अन्न का अभाव नहीं रहता, पर्याप्त सब सामग्रियां मिलती है । जिस समय प्रभु को केवलज्ञान हो चुकता है तो वे आकाश में ही गमन करते हैं । वे नीचे जमीन पर चलते हुए नहीं मिलते हैं । दर्शनीय प्रभु हैं, उनसे बातचीत करना नहीं होता किसी से । वे परमात्मा हैं । अगर बातचीत करेंगे तो वाक्य बोलकर, वहाँं ख्याल रखें कि मैं अब इसका उत्तर दूं,, अगर दो तीन चार ने प्रश्न किया तो उनको रोक रोककर सभी को उत्तर, देंगे, ये सब बातें तो राग में होती हैं । प्रभु अत्यंत वीतराग हैं । उनका किसी से वार्तालाप नहीं होता । अगर शास्त्रों में कहीं वार्तालाप लिखा भी है तो उसका अर्थ यह है कि लोगों ने कुछ गणधर से पूछा तो गणधर ने उत्तर दिया । तो जहाँ कोई मुख्य पुरुष विराजे हों उसका ही नाम लोग लेते हैं, पर प्रश्नोत्तर प्रभु के साथ नहीं होता ꠰ उनके तो समय पर दिव्यध्वनि खिरती है, लोग अपने आप सब समझ जाते हैं । वे प्रभु आकाश में गमन करते हैं । उनके कोई निकट भी नहीं पहुंचता कि प्रभु को छू लेवें । अरहंत भगवान को कोई छूता नहीं, वे दूर रहते है, दर्शनीय है । उनका गमन आकाश में होता है । वहाँ प्राणिवध नहीं होता जहाँ से वे प्रभु चले जाये, लोगों के भाव प्रकृत्या ही दया से उमड़ जाते हैं ।
(134) प्रभु के कवलाहार का अभाव तथा उपसर्ग का अभाव―प्रभु के कवलाहार नहीं है याने प्रभु भोजन करे, कौर उठाये, खाये, निगले, ऐसा आहार प्रभु के नहीं होता । चाहे वह लाखों वर्ष अरहंत रहें, पर उनके कवलाहार नहीं हैं क्योंकि आहार का संबंध केवल वेदनीय कर्म से नहीं है । मोहनीय कर्म साथ हो तो आहार बनता हें । मोहनीय कर्म का तो प्रभु ने विनाश कर दिया । फिर एक बात और सोचो―अरहंत हैं, परमात्मा हैं और वे हाथ में खायें या थाली में खाये, कौर उठाये और निगलें, यह तो छोटे-छोटे पुरुषों की भांति बात है । अब इस दोष को छिपाने के लिए चाहे कुछ भी कह दिया जाये कि वह गुप्त होकर खाते हैं, लोगों को दिखता नाहीं है तो यह तो और भी अधिक बुरी बात हो गई । मैं छुपकर खाऊँ, लोग मुझे खाते हुए देख न पायें ऐसी मायाचारी में तो और भी दोष की बात है । प्रभु में कवलाहार का अभाव है । संसार में ही जब देवगति के जीव हजारों वर्षों तक उनके रंचमात्र भी क्षुधा नहीं होती, फिर ये तो देवाधिदेव हैं, इनके कवलाहार नहीं है इन पर कोई उपसर्ग भी नहीं कर सकता । यह नियम है कि केवलज्ञानी पर, तीर्थंकर पर कोई उपसर्ग नहीं कर सकता । उससे पहले उपसर्ग होता है, पर केवलज्ञान जगने पर उपसर्ग नहीं है । पार्श्वनाथ भगवान मुनि थे तब कमठ ने उन पर उपसर्ग किया । केवलज्ञानी न थे । जिन जिनको भी किसी ने उपसर्ग किया वह मुनि अवस्था तक की ही बात है । परमात्मा हो जाने के बाद उन पर उपसर्ग नहीं होता ।
(135) तीर्थंकर परमदेव का अतिशय चारों और मुख का दिखना व सर्वविद्यावों का स्वामी होना―प्रभु का मुख चारों ओर दिखता है । यदि ऐसा न हो तो बड़ी गड़बड़, यों मचे कि सभा में तो सब लोग आगे-आगे बैठते हैं, पीछे की तरफ कोई बैठना नहीं चाहता, यदि । उनको पीछे की तरफ बैठना पड़ जाये तो उनमें असंतोष और कलह बन सकता है । प्रभु का मुख होता तो एक तरफ को मगर देवकृत अतिशय है कि उनका मुख चारों और दिखता है । आगे पीछे अगल बगल सभी तरफ से प्रभु का मुख दिखता है । कुछ यंत्र ऐसे होते हैं कि जिससे चारों ओर दिख सकता है । अभी यहीं देख लो किसी किसी प्रतिमा के तीन ओर काँच ऐसा लगा दिया जाता कि जिससे उस प्रतिमा का मुख किसी भी तरफ से देख लो, फिर वहाँ तो देवकृत रचना है, उसका क्या कहना । वहाँ एक ऐसा अतिशय होता कि भगवान का मुख तो है एक ओर मगर दिखता है चारों ओर, इसलिए प्रभु का नाम चतुर्मुख भी है, चतुरानन भी है । ये प्रभु सर्व विद्यावों के स्वामी हैं । केवलज्ञान हो गया, उनमें सर्व कुछ झलक रहा तो अब कौन सी विद्या और कला उनके शेष कहें?
(136) अरहंत की प्रभुता का अतिशय उनके शरीर की छाया न पड़ना, नेत्रों का अनिमेष रहना नख केशों का न बढ़ना―प्रभु के शरीर की छाया नहीं पड़ती क्योंकि प्रभु का शरीर स्फटिक मणि के तुल्य सर्व दोषरहित हो जाता है । अब भी स्फटिक मणि की मूर्ति हों तो उसकी छाया न मिलेगी, फिर उनका देह तो स्फटिक मणि से भी उत्कृष्ट स्वच्छ है, उस शरीर की छाया नहीं पड़ती । प्रभु के नेत्र टिमकार नहीं मारते अर्थात् नीचे ऊँचे नहीं उठते, किंतु अर्द्धनिमीलित (आधे बंद और आधे खुले) होते हैं । अब देखो कितनी निश्चलता और कितनी वीतरागता का अतिशय है ꠰ प्रभु के केश और नख अब नहीं बढ़ते । केवलज्ञान होने से पहले केश भी बढ़ते थे, नख भी बढ़ते थे तो नखों को भी पत्थर से घिस-घिसकर या किसी तरह उसकी चिकित्सा रखते थे । अब केवलज्ञान होने पर न तो केश बढ़ेंगे और न नख बढ़ेंगे । ऐसे प्रभु के केवलज्ञान होने पर 10 अतिशय होते हैं । यों अरहंत परमेष्ठी के, तीर्थंकर परमदेव के वंदनीय होने के प्रकरण मे उनके अतिशय बताये गए हैं ।
(137) अरहंत तीर्थंकर प्रभु की अनवरतवहुसत्त्वहितता व कर्मक्षयकारनिमित्तिता―प्रभु के दर्शन से, प्रभु के उपदेश से बहुत प्राणियों का हित होता है, ऐसा उपदेश है उनका जिसमें सर्व प्राणियों का हित है । जैसे तत्त्वज्ञान की बात, उसे जो सुनेगा? समझेगा, अपने ज्ञान में उतारेगा, अनुभव करेगा उसको भगवंत आत्मा की प्राप्ति होती है । और जैसे चरणानुयोग का उपदेश, जीवों की दया पालन, तो जो दया करेगा उसका उपकार हुआ । उसके अशुभ पापकर्म दूर हुए और जिनकी दया पली उनका भी उपकार हुआ कि वे सुख से अपने जीवन में चल रहे है, तो प्रभु के उपदेश से सबका उपकार होता है और प्रभु कर्मक्षय के कारण में निमित्त हैं । उनके गुणों का चिंतन करने से अपने स्वरूप की भावना जगती है, स्वरूपरमण होता है और अनेकों कर्मों का क्षय होता है । इन बातों से अरहंतदेव पूज्य हैं । तो ऐसे पूज्य प्रभु के समवशरण में विराजने से देवों ने बहुत से अतिशय बनाया, समवशरण आदिक विभूतियां बनायी तो भी प्रभु को किसी बात से प्रयोजन नहीं । वे तो सकल ज्ञेय के जाननहार हैं तो भी अपने अनंत आनंदरस में लीन हैं, जो होता है वह सहज हो रहा । जैसे मेघ बरसते हैं तो भव्य जीवों के पुण्योदय के अनुसार बरसते हैं । ठीक सही बरसते, न कम बरसते और न अधिक । तो जहाँ के लोग अधिक पुण्यवान हों, वहाँ मेघ सही बरसते हैं, तो उन मेघों के बरसने में क्या मेघों की इच्छा, है? क्या वे यह सोचते हैं कि मैं इस जगह बरसूं इस जगह नहीं? अरे मेघ ऐसा नहीं सोचते किंतु जीवों के पुण्य प्रताप से ऐसा होता है । ठीक इसी भाँति भगवान का विहार किस ओर होता है? क्या भगवान राग करके विहार करते हैं कि मैं इस नगर को जाऊँ, इस दिशा में न जाऊँ? अरे जहाँ के जीवों का पुण्य विशेष होता है वहाँ प्रभु का विहार हो जाया करता है । तो प्रभु कुछ भी इच्छा नहीं रखते, वे मोहनीय कर्म से रहित हैं । शेष तीन घातिया कर्म से भी रहित हैं, उनको किसी भी अणु मात्र से प्रयोजन नहीं, किंतु वे वीतराग हैं, सर्वज्ञ हैं । उस आत्मा के गुणविकासक । ऐसा माहात्म्य है कि जिससे ये सब अतिशय हो जाया करते हैं ।