वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 59
From जैनकोष
अप्पा बुज्झहि दव्वु तुहुँ गुण पुणु दंसण ठाणु ।
पज्जय चउगइभाव तणु कम्मविणिम्मिउ जाणु ।।59।।
हे शिष्यों ! तुम आत्मा को द्रव्य जानो और दर्शन गुण को गुण जानो । चारों गतियों के भवों को और शरीर को तुम कर्मजनित पर्याय जानो । यह कर्मजनित पर्याय है यह शरीर, भव; यह मैं नहीं हूँ । मैं तो अनंतानंदमय शाश्वत रहने वाला एक चेतन तत्त्व हूँ । मुझे क्या करना है? केवल ज्ञाता द्रष्टा रहना है, निर्वाण प्राप्त करना है । यहाँ की चमचमाहट पर मुग्ध नहीं होना है जैसे आप कोई बंबई जाते हैं तो रास्ते में कितने ही स्टेशने मिलते हैं । उन स्टेशनों में कोई स्टेशन बड़े सुंदर लगते है, सजे हुए ढंग से, सुहावने पेड़ और वृक्षों के बीच । तो क्या कभी यह भी सोचा है कि इस स्टेशन में आराम तो कर लें । उतर कर क्या उस स्टेशन पर आप रह जाते हैं? डिब्बे में ही बैठे-बैठे खिड़की से सुंदरता देखकर मन भर लेते हैं और आगे चले जाते हैं । अगर उतर जायें एक स्टेशन की सुंदरता के मोह में आकर तो सारा काम बिगड़ जायेगा, निरुद्देश्य हो जायेगा । इसी तरह हम एक परिणति की रेल में यात्रा करते चले जा रहे हैं । हमें कहां जाना है? मोक्ष को, निर्वाण को । बीच में देवगति, मनुष्यगति के स्टेशन मिलेंगे । देवताओं की संपत्ति, मनुष्य भव मिलेगा, यह सब ठाट बाट मिलेगा । ये बीच के स्टेशन हैं । इनमें गम्यागम्य चीजों को देखकर मुग्ध नहीं होना चाहिए । यह बड़ा अच्छा है, इसमें रम जायें, आराम करने में लग जायें, तो निर्वाण न पहुंच सकेंगे । इसलिए इस चीज की चमचमाहट पर मोह न करो और अपने आत्मा को उस शुद्ध ज्ञानस्वभाव दर्शन को निरखो । मैं यही हूँ, मेरा सर्वस्व मुझमें है । जो मेरा वैभव है वह मेरे से त्रिकाल अलग नहीं हो सकता है । और जो मेरा वैभव नहीं है वह त्रिकाल भी मुझमें नहीं आ सकता केवल एक कल्पनामात्र करके अपने समये को बिगाड़ रहे हैं । चीजें कुछ नहीं मिलती हैं । सो अपने अंतर में शुद्ध ज्ञान जगे और मोह उत्पन्न न हो । प्रभु के स्वरूप को देखकर अपने स्वभाव का ध्यान रखो तो इसी में ही भलाई है ।
भैया, जिसने अपने आपको नहीं पहिचाना वह कैसे ज्ञानधारी कहला सकता है? स्वपर को जो जानने की कला रखता है उसका ही स्वरूप समझ में न आया तो ज्ञान क्या? क्या कोई दीपक ऐसा होता है कि सब पदार्थों को तो प्रकाशित कर दे और खुद को प्रकाशित न करे? जलते हुए दीपक को ढूंढ़ने के लिए चले तो क्या दूसरे दीपक की जरूरत पड़ेगी? नहीं । भाई उस कमरे में लालटेन जल रही है उसे ले आवो । तो क्या किसी ने यह कहा कि हमको दूसरी लालटेन जलती हुई दे दो तो हम उस लालटेन को ढूंढ़ लावें । दीपक स्वयं प्रकाशित है और पर पदार्थों को प्रकाशित करता है । इसी प्रकार यह ज्ञान खुद ज्ञानस्वरूप है और दूसरे पदार्थों का भी ज्ञान कराता है तो यह ज्ञानमय तत्त्व है । इस आत्मतत्त्व को न समझा तो इस जीव ने कुछ न किया । समस्त पदार्थ एक आत्मज्ञान की नींव पर हैं । सो इसके लिए अधिक उद्यम करना चाहिए ।
जैसे भैया ! चित्रकारी उस भींत पर आती है जो भींत बहुत पक्की दृढ़ और चिकनी हो और जो भींत मैली है, गंदी है उसमें चित्रकारी कभी नहीं आती है । इसी प्रकार जिसके हृदय में श्रद्धा नहीं भरी है उसमें धर्म कैसे आयेगा? सो प्रथम तो अपने आपमें श्रद्धा करो कि यह मैं आत्मा सबसे न्यारा निराला चैतन्य स्वरूप हूँ व परिपूर्ण हूँ हममें किसी बाहर के पदार्थों से कुछ नहीं आता तथा हमसे निकलकर किन्हीं बाहरी पदार्थों में कुछ नहीं जाता । यह परिपूर्ण है और परिणमता रहता है । ऐसे ज्ञानचमत्कारमय अपने ज्ञानस्वरूप को न जाना तो हमने किया क्या? जिसने अपना परिचय पा लिया वह सर्वत्र स्वतंत्र है । कदाचित उस ज्ञानी को कोई राजा या राज संघ जबरदस्ती गिरफ्तार कर ले और जेलखाने में भी बंद कर दे तो भी यह ज्ञानी वहाँ भी स्वतंत्र है । शरीर ही है एक सीमा के भीतर; पर ज्ञान का उपयोगी यह किसी के द्वारा गिरफ्तार ही नहीं किया जा सकता । वह तो अपने आपमें ही अपने आप है, उपयोग में है । यहाँ भी वह सबसे निराला केवल, ज्ञानमात्र अपने आत्मा को देख रहा है, प्रसन्न है, संतुष्ट है । उसे वहाँ कोई तकलीफ नहीं है । जबकि अज्ञानीजन घर की गद्दी पर बैठे हैं और वहाँ ही यह विकल्प, वह विकल्प, यह क्यों हुआ, इस तरह की दृष्टियां लगाकर बंधन में पड़े रहते हैं दुःख का अनुभव करते हैं ।
अपने आत्मा को विवेक हो जाये तो सर्वदोषरहित उदारतापूर्ण व हित के मार्ग में ले जाने वाला आप ही हो जायेगा । भला सोचो तो सही, आत्मा का परद्रव्य से एक नये पैसे का भी संबंध है क्या? इस निज आत्मा से पर का अणुमात्र भी संबंध नहीं है । क्या यह आत्मा एक पैसा भी कमा सकता है? नहीं । यह तो केवल ज्ञान कर सकता है । बिगड़ जाये तो रागद्वेष कर सकता है । बिगाड़ कर लेगा, इसके सिवाय यह आत्मा और कुछ करने में समर्थ नहीं है । हां, अधर्मभाव किया, जिससे रागवश पाप पुण्य का बंध हुआ । उसके फल में यह संपत्ति-विपत्ति अपने आप सामने आती है । इस संपत्ति का कमाने वाला न आत्मा है और न शरीर है, न हाथ-पैर हैं, न दिमाग है, न बुद्धि है, होती कमाई अपने आप । इस आत्मद्रव्य को देखो यह तो ज्ञानघन अपने आप में परिपूर्ण है । अन्यत्र एक श्लोक बोला करते हैं―पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । पूर्णात्पूर्णमादाय पूणंमेवावशिष्यते । श्लोक है यह ब्रह्मवाद का । स्याद्वाद का किसी भी मत से विरोध नहीं है । जैन सिद्धांत का मूल प्राण है स्याद्वाद । स्याद्वाद सबका आदर करता है । ब्रह्मवाद की बातें भी झूठ नहीं है और उसके मुकाबले में उल्टा जो क्षणिकवाद है उसका भी सिद्धांत गलत नहीं है । और दोनों बिल्कुल उल्टी-उल्टी बातें कहने वाले हैं, ऐसा लगता है ।
ब्रह्मवाद कहता है कि सब कुछ एक है और वह अपरिणामी है । बौद्ध सिद्धांत कहता है कि सर्व अप्रदेशी अनेक हैं, एक कुछ नहीं । सो वे क्षण-क्षण में अपना सत्व खोने वाले हैं । दोनों की बातें कितनी उल्टी लगती हैं । पर वाह रे समता के दानी स्याद्वाद ! तुम उन दोनों को अपना हस्तावलंबन देकर समझा देते हो कि भाई ! ब्रह्मवाद, तुम द्रव्यदृष्टि से यथार्थ हो और हे बौद्धसिद्धांत ! तुम पर्यायदृष्टि से यथार्थ हो । हां, तो ब्रह्मवाद का यह श्लोक है । यह पूर्ण है, वह पूर्ण है, पूर्ण से पूर्ण निकलता है । पूर्ण से पूर्ण निकलने पर भी पूर्ण ही शेष रहता है । देखो अब, द्रव्यदृष्टि से यह मैं आत्मा पूर्ण हूँ और यह परिणमन अपने काल में पूर्ण है । यह मैं पर्याय रूप से जो कुछ हूँ पूर्ण हूँ और यह पर्याय जहाँ से उत्पन्न होती है वह जो मूल स्रोतभूत है वह भी पूर्ण है । पूर्ण से पूर्ण निकलता है अर्थात् इस पूर्ण द्रव्य से प्रतिसमय पूर्ण पर्याय निकलती है और पूर्ण से पूर्ण निकल जाने पर भी यह आत्मद्रव्य पूर्ण ही शेष रहता है । इसको कहां तकलीफ है? कहां संकट है? कहां असुविधा है? कहां भय है? कहां अरक्षा है? यह तो सदा सुरक्षित है । पर मायामय इन परिणमनों पर, पुरुषों पर दृष्टि देते हैं और यह श्रद्धा बनती है कि यदि इन लोगों ने अच्छा कह दिया तो मेरी सत्ता है, हित है, ठीक है, सुख होगा अन्यथा दुःख ही हैं; ऐसी मिथ्या श्रद्धा बनाये है । एक जीव तो क्या लोक के अनंत जीव भी मिलकर यदि मेरा गुण गायें तो उनकी इस चेष्टा से मेरा कुछ भी सुधार नहीं हो सकता । और कदाचित् ये सब अनंत प्राणी भी मेरे विपरीत निंदा कर दें तो उनके इस परिणमन से मेरी इस आत्मा का कोई बिगाड़ नहीं हो सकता है । हम ही कल्पनाएं करके अपना बिगाड़ करते हैं और यथार्थज्ञान करके अपना सुधार करते हैं । यह आत्मद्रव्य शुद्ध एकस्वभावी है । द्रव्यों में परख करने की दृष्टि की निपुणता चाहिये ।
जौहरी लोग किसी रत्न हीरा को देखने की बड़ी तेज परख रखते हैं और उसकी कीमत, उसका गुण परख डालते हैं । उससे भी पेनी परख हमें पदार्थों के स्वरूप की जानकारी के लिये चाहिये। जिन्हें देखते हैं वे शुद्ध नहीं हैं, परमार्थ नहीं है । जो दिखते हैं वे सब मायामय हैं । जो सच्चाई का दम भरने वाले हैं वे प्रयत्न, वे कर्म सब मायामय है । फिर और छल की, द्वेषों की तो कथा ही क्या है? परमार्थ तो एक शुद्ध बुद्ध चैतन्यस्वभाव है । उस रूप ही अपना अनुभव करें तो ये व्यसन, पाप, दुराचार, अनीति तो वहाँ ठहर ही नहीं सकतें । आत्मपरिचय के बिना हम किसी धर्म को गुण को अपने में बढ़ाना चाहें तो वह मेंढकों के तौलने जैसा काम है । जरा आप जिंदा मेंढक एक सेर भर तराजू से सही-सही तौल दें । आपको यदि तौलने को दिया जाये तो आप न तोल पायेंगे । उनमें से एक दो उछल जायेंगे । फिर यदि एक दो को संभालेंगे तो अन्य एक दो उछल जायेंगे । आप तौल न सकेंगे । इसी प्रकार आत्मश्रद्धा के बिना आचरण को फिट जमा न पावेंगे । जैसे कहते हैं ना, कि अपने आत्मा की करुणा के लिये यथार्थत: मोक्षमार्ग के लिये हमें अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का परिणाम बनाना चाहिये, प्रवृत्ति बनाना चाहिये । वह यथार्थत: तब तक नहीं हो सकती जब तक कि शुद्ध आत्मा का परिचय नहीं हो । और इसी कारण करणानुयोग में बताया है कि जब तक सम्यक्त्व न होगा तब तक देशव्रत की साधना नहीं हो सकती । उसका अर्थ क्या है? वस्तुत: अणुव्रत भी नहीं हो सकता । आत्मपरिचय बिना अणुव्रत का दम भरते हो तो वे भी न जाने किन-किन परिणामों में चल रहे हैं ।
आज के युग की एक सभ्यता यह मानी जाती है जिस कहते हैं सफेद पोश सभ्यता, बनावटी, दिखावटी कि लोगों को सदाचार की बातें बता देंगे । यह भी एक सभ्यता में शामिल है । जैसे-लखनऊ में जो परस्पर में बोलचाल कभी होती थी वह भी बड़ी मीठी होती थी । उर्दू के शब्दों में और बड़े विनय बताने वाले । आइये तशरीफ लाइये । हम उतने शब्द नहीं जानते । तो वे बड़े विनय पूर्ण शब्द होते हैं वे किसलिये बोले जाते हैं । शब्द 1 अंतर में पवित्रता है । इस कारण बोल दिये जाते हैं । क्यों? लोक में इन शब्दों में ही बड़प्पन माना जाता है, सभ्यता मानी जाती है, इसलिये ये शब्द बोले जाते हैं । यथार्थत: व्रत व सदाचार आत्मपरिचय होने पर ही हो सकते हैं ।
यदि निश्चय में यह विश्वास घर कर गया कि मुझे दुनियां में अन्य से क्या मतलब है । मैं इनका क्या कर सकूँगा? इनसे मेरा क्या बुरा हो सकेगा? मैं अपना ही बुरा करता जा रहा हूँ । हमें अपनी ही गति सुधारने के लिये अपने इस दुर्लभ नर जीवन को सफल बनाने के लिये ज्ञानस्वभाव को दृष्टि में लेना चाहिये । और उपद्रवों से, दुराचारों से दूर रहना चाहिये । यह आत्महित के प्रयोजन से भावना होती हो तो यह सदाचार टिक सकता है । इस आत्मस्वभाव को जानो कि यह शुद्ध एक चैतन्य स्वभाव है । उस आत्मा के गुण क्या हैं? ज्ञान और दर्शन । बाह्यपदार्थों का जानना और अपने आपका ऐसा अवलोकन होना । जिसमें संतोष रहता है कि मैं सब कुछ हूँ, पूरा हूँ, सुरक्षित हूँ जिसके फल में एक संतोष मिलता है ऐसा ज्ञानदर्शन है । ये दो ज्ञान और दर्शन आत्मा के गुण हैं ।
यहां आत्मा के गुण और पर्यायों के प्रसार का प्रकरण चल रहा है । ज्ञान 8 प्रकार के होते हैं । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान, कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और कुअवधिज्ञान । उनमें से केवलज्ञान तो पूर्णज्ञान है, अखंडज्ञान है और बाकी के 7 ज्ञान खंड ज्ञान हैं । थोड़ा-थोड़ा जानने वाले है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान तो आत्मा के स्वभाव के अनुकूल परिणमते हैं और बाकी खंड ज्ञान तो मिथ्यात्व कर्मों के उदय और तत्तत्ज्ञानावरण के क्षयोपशम के निमित्त से हुआ करते हैं । अब उन सातों में से भी चार तो हैं सम्यग्ज्ञान । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान । तथा तीन कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और कुअवधिज्ञान मिथ्यात्व के उदय की स्थिति में उत्पन्न होते हैं । और आत्मा के दर्शन गुण का प्रसार क्या है? चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । केवलदर्शन पूर्ण शुद्ध अखंड है और बाकी तीन खंड हैं ।
ज्ञान व दर्शन सब जीवों में पाया जाता है । ज्ञान से तो दूसरे पदार्थों को जाना और दर्शन से दूसरे पदार्थों को जानते हुए आत्मा को प्रतिभास लिया । ये दो काम सब जीवों में होते हैं । भगवान के ये दोनों काम एक साथ होते हैं । और छद्मस्थ जीवों में ये दोनों काम क्रम से होते हैं । पहिले दर्शन फिर ज्ञान । पर खेद की बात है कि दर्शन तो इतना हो रहा है पर दर्शन के होने का हम कुछ लाभ नहीं पाते हैं । क्या लाभ इस दर्शन से, जो मुझमें झलक होती है उसे पकड़ने से रह जाऊँ कि यह मैं हूं? यह पकड़ नहीं कर सकें और इसलिए हम पछताते रहते हैं । जिस तरह से विषयों की धुन में अनंतकाल से अनेक भवों को पाकर उन्हें गंवा दिया है । इसी तरह विषयों की धुन में इस दुर्लभ मनुष्यभव को भी पाकर उसे गंवा रहे हैं । बुद्धि आती है काम बिगड़ने पर । जबकि केवल पछतावा ही रह जाता है, हाथ कुछ नहीं लगता ।
एक मनुष्य था सो उसको धन कमाने की इच्छा हुई । सो उसने सुन रखा था कि इस पहाड़ी में पारस पत्थर हैं । सोचा, यह कैसे जानेंगे कि यह पारस पत्थर है । पारसपत्थर और साधारण पत्थर में जांच मुश्किल से होती है तो उसने समुद्र के किनारे एक लोहे का डंडा गाड़ दिया, जिसका ऊपरी हिस्सा चौड़ा हो, जैसे लुहार की दुकान में कूटस्थ गड़ा होता है; सो गाड़ दिया और उसके पास में 10-20 गाड़ी पत्थरों का ढेर लगा दिया । उसने सोचा कि एक-एक पत्थर उठावेंगे, लोहे के डंडे पर मारेंगे, जिस पत्थर के मारने से यह डंडा सोने का हो जायेगा उसे पारस जानकर रख लेंगे । पत्थर उठाये, लोहे के डंडे पर मारे, और वह लोहा ही रहा सो उसे समुद्र में फेंक दे । समुद्र के किनारे लोहे का डंडा क्यों लगाया कि पत्थरों को यदि बाहर फेंकते हैं तो फिर ढेर लग जायेगा, काम रुक जायेगा । सो समुद्र में फेंका । अब हजारों में एक पत्थर था पारस का । बहुतेरे पत्थर खतम हो गये, मारे, फेंके । इस तरह से बस, यह धुन लगी कि कोई भी इसमें पारस पत्थर नहीं है । फेंकते-फेंकते अंत में देखा कि लोहे का डंडा सोना हो गया । अब वह पछताने लगा कि अरे ! फेंकते-फेंकते मुश्किल से तो पारस हाथ लगा, लोहे का डंडा सोना भी हो गया; पर उस पत्थर को तो हमने समुद्र में फेंक दिया । हाय ! ऐसी धुन लगाये हुए मैंने पारस फेंक दिया ।
इसी तरह चार संज्ञा के ज्वर से पीड़ित यह संसारी प्राणी है । आहार, ‘भय’ मैथुन और परिग्रह । इनमें अपने विषयों की धुन बनायी है । तो सभी जन्मों में इसने विषयों की धुन रखी है । और इसी से आज यह इधर-उधर भटक रहा है । बतलाओ तो सही कि अपनी खाने पीने की ही खुदगर्जी क्यों इसको अधिक प्रिय लग रही है? अपने घर के तीन-चार लोग ही इसको अतिप्रिय लग रहे हैं । दूसरों पर तो कोई दृष्टि भी नहीं है । अगर परिवार से ऊब गये तो थोड़ी दृष्टि और को मिल जायेगी, इतनी कृपा की । और नहीं ऊबते हैं तो किसी भी जीव का न तन है, न मन है, न धन है, न वचन है सब कुछ नष्ट हो जायेगा । इन विनश्वर विषयों के प्यार में ऐसी जो वृत्ति है, यह क्या विषयों के धुन की वृत्ति नहीं है । विषयों की धुन में ही, बही खाया, पिया, भोगा, सूंघा, उसमें ही आशक्ति की, देख लिया । इन वृत्तियों में ही यह मनुष्य जीवन पाया और खो दिया । यही हालत हमारे इस दर्शन गुण की हो रही है । हम एक पदार्थ को जान रहे हैं, पुस्तक को जान रहे हैं । पुस्तक का जानना छोड़ कर अब इस अलमारी को जानने चले तो एक बीच में अंतर हुआ करता है । कि पुस्तक का जानना तो छूट गया और अलमारी का जानना नहीं हो पाया । ऐसा बीच में एक अंतर आता है । नवीन चीज को पकड़ नहीं पाया और ज्ञात चीज को छोड़ दिया तो इस अंतर में यह जीव क्या करता है? दर्शनोपयोग अर्थात् इसका ज्ञान छोड़ने के बाद इस आलमारी का ज्ञान पैदा करने के लिए हम अपने में एक पावर तैयार करते हैं, शक्ति बढ़ाते हैं । इसके फल में फिर हम आलमारी का ज्ञान कर पाते हैं ।
जैसे कोई मनुष्य या बच्चे जंपिंग करते हैं प्रतियोगिता में, कि कौन कितना कूद पाता है । कोई 5 फिट कूद सकता है, तो कोई 4 ।। फिट कूद सकता है । तो देखा होगा कि जब जमीन को छोड़कर कूदते हैं तब जो जमीन में बड़े जोर का बल देकर उठते हैं उनकी कूद ऊंची होती है । अरे भाई ! ऊंचे कूदना था तो नीचे जोर क्यों देते? नीचे जोर देने से वह शक्ति उत्पन्न होती है जिससे ऊंची कूद कर ली जाये । इस प्रकार इन पदार्थों का ज्ञान छोड़कर दूसरे पदार्थों को जानने चलें तो इस बीच में हमें दर्शनोपयोग करना होता है । हम आत्मदर्शन करते हैं । आत्मा को छूते हैं । इस क्रिया से धर्म को भी हम पाल सकते हैं । और दूसरे पदार्थों को जान सकते हैं । अर्थात् हमारा ज्ञान इस तरह चलता है, संकेत से देखो । इस वस्तु को जाना, अब इसको जाना, अब इसको जाना । इस तरह से आप 100 पदार्थों को जान तो गये पर पदार्थों के बीच में 100 बार आप अपने निकट आ गये । अपने निकट आये बिना पदार्थों का जानना बन नहीं सकता है । हम निकट तो आते हैं, मगर पर की दृष्टि को ऐसी धुन लगी है कि इस निकट वाली बात को पकड़कर नहीं रह पाते । ‘‘यदि इस दर्शन के विषय को पकड़ जायें तो यह सम्यग्दर्शन बन जाता है ।’’
यह आत्मद्रव्य की बात चल रही है । उसके गुण दो हैं । (1) ज्ञान और (2) दर्शन । ज्ञान के प्रकार रहे । दर्शन के प्रकार 4 हैं । अब इसके बाद इसका विराम करने के हेतु उन गुणों के प्रकारों को बतलावेंगे कि वे गुण तीन प्रकार के होते हैं, सब द्रव्यों में । यह वस्तु के स्वरूप का वर्णन है । यह फालतू वर्णन नहीं है । ठीक-ठीक जान गए तो श्रद्धा में यह बात बैठ जायेगी कि पर पदार्थ मेरे स्वरूप से अत्यंत पृथक हैं । इतनी बात ज्ञान में, उपयोग में, श्रद्धा में आ जाये तो इससे बढ़कर वैभव तीन लोक में और कुछ नहीं है । इस कारण अनेक प्रयत्न करके इस आत्मतत्व को जानो । इसके जाने बिना निस्तारा न होगा । इसका जानना बड़ा सरल है । भैया ! रोटी बनाना कितना सरल है । हमारी मां-बहिनें रोटी बना डालती हैं और जब तुम लोग जाते हो तो देखते ही होगे । एक दिन इसी प्रकार आप भी बना दो रोटी । जैसी ये लोग बना लेती हैं । आप न बना पाओगे । क्या बात है? आपने रोटी बनाना प्रेक्टिकली नहीं सीखा । आपका अभ्यास नहीं है । इसलिये आप नहीं बना पाते हैं । इसी तरह जिनको आत्मा की दृष्टि प्रेक्टिकल हो जाती है उनको किसी भी क्षण अपने आत्मा की परख कर लेना, निकट झुक जाना ये सब बातें सुगम होती हैं ।
इसके लिए और कठिन उपाय नहीं करना है । एक यह उपाय किसी समय कर लो अपने को ऐसा दृढ़ बनाकर, कि समस्त पर वस्तुओं से मेरा भला नहीं है, सब स्वार्थी हैं । ऐसा जानकर किसी को अपने चित्त न बसाओ । जो उपयोग में आये उसे मना कर दो, बाहर हो जाओ, हट जाओ । किसी को भी प्रयोग में न लो । यदि इतनी बात बन सकी तो अपने आप ही उस ज्योति की झलक होगी जो विलक्षण परम आनंद को प्रकट करते हुए उत्पन्न होती है । बस, अनुभव हो जायेगा और पकड़ लोगे; यही मैं हूँ, यही मेरा वैभव है । यही चाहता हूँ इसके अतिरिक्त और कोई मेरी वान्छा नहीं है । यह अंतर की आवाज बन जायेगी । बस, इतनी स्थिति बन जाये तो फिर कल्याण ही कल्याण है ।
यहां पदार्थों का स्वरूप देखा जा रहा है । जीव को चाहिए क्या? शांति । शांति तो स्वयं जीव का स्वरूप है और फिर भी शांति को तरसता है । कारण क्या है कि इसे अशांति है । अशांति क्यों हुई? अशांति का रूप ही यह है कि किन्हीं पर द्रव्यों के संबंध में विकल्प रखना । बस, यही है अशांति का स्वरूप । पर द्रव्यों के संबंध में विकल्प न रहे यही शांति है । इसका उपाय क्या है? यह समझ में आ जाये कि पर द्रव्यों का मुझमें अत्यंताभाव है । किसी भी पर पदार्थ का गुण परिणमन असर कुछ भी मुझमें नहीं आता है । मैं यदि अयोग्य हूँ तो किसी पर का निमित्त बनकर अपने आप में कल्पनाएँ करके दुःखी हो जाता हूं ।
जैसे कोई देहाती पुरुष न्यायालय में जज के सामने आता अपनी पेशी पर, तो देहाती उस जज के सामने घबड़ा जाता है । क्या जज का उस देहाती पर असर पड़ा है? नहीं । लोग तो यह कहेंगे कि जज का उस पर असर पड़ रहा है सो उस देहाती के छक्के छूट रहे हैं; पर ये सब बातें गलत हैं । जज का उस देहाती पर असर नहीं पड़ा, किंतु वह देहाती चूंकि अज्ञानी है, कम पढ़ा लिखा हो ऐसे वातावरण का उसको अम्यास नहीं है । सो अपने हो उपादान की कमजोरी से जज का निमित पाकर अपनी घबड़ाहट बना रहा है । जज का असर पड़ता होता तो जज से निकलने वाला असर तो एक ही समान का होगा ना? सो सब पर पड़ना चाहिए । सो ऐसा नहीं है । इस तरह सिद्ध है कि हम और आप सब जीव केवल अपनी कल्पना बनाकर अपने आपमें दुःखी होते रहते हैं । किसी परद्रव्य का असर गुण परिणमन मुझमें नहीं आता । यह ज्ञान हो तो विकल्प मिटे, अशांति मिटे । तो वह ज्ञान कैसे हो? पदार्थों का स्वरूप सही जान लिया जाये तो ज्ञान हो । उसी स्वरूप का यहाँ वर्णन चल रहा है ।
जगत के अंदर केवल 6 जाति के पदार्थ हैं । पहला जीव । सब जीव एक जाति के हैं । किसी जीव से किसी जीव में विलक्षणता नहीं है । केवल अपनी करनी के फल में, पर्याय में, माया में, व्यवहार में अंतर है । परमार्थ से किसी जीव का किसी जीव से कोई अंतर नहीं है । सब एक ही जाति के पदार्थ हैं । धनिक हो, राजा हो, रंक हो, प्रभु हो, ज्ञानी हो, मूर्ख हो, पशु हो, पेड़ पत्तियों में आत्मा हो, सर्व आत्माओं का स्वरूप एक है । जाति एक है । इस जाति के पदार्थ अनंत है । दूसरी जाति पुद्गल द्रव्य एक-एक परमाणु को कहते हैं । स्कंध तो अनंत परमाणुओं का पिंड है । जो एक होता है उसका टुकड़ा नहीं होता है तो ऐसे अनंत परमाणु पुद्गल द्रव्य है । इन दो द्रव्यों का तो सबको ज्ञान हो सकता है । इसके अतिरिक्त चार द्रव्य और हैं । एक धर्मद्रव्य; जो सारे लोक में फैला हुआ है, जो जीव पुद्गल के चलने में सहायक है । एक अधर्म द्रव्य; जो चलते हुए को रोकने में सहायक है । एक आकाश द्रव्य जो सर्वत्र व्यापक है और असंख्यात कालद्रव्य हैं । ये हैं पदार्थ । इन पदार्थों के गुणों को देखो तो गुण तीन तरह के मिलेंगे । कोई गुण सबमें पाये जाते, कोई गुण किसी एक जाति में पाये जाते, कोई गुण कुछ जातियों में पाये जाते और कुछ में नहीं । यह वस्तु के स्वरूप के वर्णन की बात है । यह जान लेना इसलिये आवश्यक है कि स्वरूप पहिचाने बिना मोह न मिटेगा । हम जिसमें मोह करते हैं, उसका स्वरूप नहीं जानते तो हम उससे हट कैसे सकेंगे?
तो ऐसे गुण जो सभी जाति के द्रव्यों में पाये जायें, साधारण गुण हैं । साधारण गुण 6 होते हैं । देखो पहिला है अस्तित्वगुण; जिस गुण के कारण वे पदार्थ हैं । इससे सिद्ध है कि पदार्थों को किसी ने बनाया नहीं है । अनादि सिद्ध हैं जो कुछ भी नहीं है वह हो जाये, ऐसा नहीं होता । असत् से सत् नहीं होता । गधों के सींग असत् हैं । क्या किसी गधे के सींग देखें गये हैं? असत् से सत् नहीं होता और सत् से असत् नहीं होता यह एक निष्कंप नियम है । सर्व जाति के पदार्थों में प्रथम तो अस्तित्व गुण है । द्वितीय वस्तुत्व गुण है । जिसके कारण प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप से हैं; दूसरे के स्वरूप से नहीं है । कोई किसी दूसरे की सत्ता नहीं लेते । प्रत्येक पदार्थ अपने में परिणति करते हैं परिणमते हैं यह हुआ द्रव्यत्व गुण । अपनेरूप ही परिणमते है दूसरे रूप नहीं परिणमते हैं यह अगुरुलघुत्व गुण हुआ । फिर प्रत्येक पदार्थ में कुछ न कुछ आकार है, प्रदेश है यह हुआ प्रदेशत्व और वे सब किसी न किसी के द्वारा प्रमेय है, ज्ञेय हैं, जानने में आते हैं, यह हुआ प्रमेयत्वगुण । ऐसी ये 6 बातें प्रत्येक पदार्थों में हैं ।
कुछ गुण ऐसे हैं जो एक में ही पाये जायें और अन्य में न पाये जायें, इन गुणों को असाधारणगुण कहते हैं । जैसे एक जीवत्वगुण, ज्ञान, दर्शन गुण चैतन्य वह जीव में ही पाया जाता है, बाकी 5 जातियों में नहीं । देखो तो सही; ये पुद्गल मेरी बिरादरी के नहीं, हमारी जाति के नहीं । इसके विरुद्ध यह मैं ज्ञानमय और यह शरीर है पूरा जड़ फिर भी अज्ञानी की ऐसी दृष्टि लगी है कि यह मैं हूँ । शरीर में यह मैं हूँ, ऐसा मानने के बाद फिर रिश्ते बन जाते, ये मेरे पुत्र हैं, ये मेरे पिता हैं, यह मेरी स्त्री है; ऐसे रिश्ते बन गये । फिर द्वेषभाव हो गया कि यह मेरा है, यह पराया है, ये न्यारी-न्यारी वृत्तियां बन गई और फिर कल्पनाएं नाना होने लगीं ।
भैया ! कल्पनाएं ही तो मात्र दुःख है । जीव को और कोई दूसरा दुःख नहीं है । जैसे कोई पक्षी कुछ खाने की चीज चोंच में ले आये । मान लो कहीं से मांस का टुकड़ा ही ले आया । अगर ले आया तो उस पर दसों पक्षी टूट पड़ते हैं । उस पक्षी पर कितनी आकुलताएं छा गयीं । वह बड़ा विकल हो गया, थक गया । अरे क्यों थकते हो? क्यों विकल होते हो? अरे ! वह टुकड़ा चोंच से निकाल कर फेंक दो । देखो पक्षी ! तेरी सब आपदाएं मिटती हैं कि नहीं? सभी आपदाएं मिट जायेंगी । इसी तरह पर पदार्थों के संबंध में ममता लगायें तो चारों ओर से काल्पनिक कषायादिक घेरे फिर रहे हैं । आपत्तियां कुछ नहीं, केवल कल्पना की और मान लिया । इस रोग के सब रोगी हैं । सब अपनी कल्पना की बातों को जान लो ।
भैया ! सोचो―दूसरे के धन-वैभव, परिवार के बिना दूसरों का काम चल जाता है कि नहीं? चल जाता है । तो यह व्यर्थ ही तो मोह कर रहे हो । इनसे क्या संबंध है? अहो ! इस रोग के यहां सभी रोगी हैं । इस आत्मा में तरंगें उठती है, राग द्वेष के परिणाम होते हैं । उन रागद्वेषोंरूप ही यह मैं आत्मा हूँ इतना मान लेता है । बस, यह भ्रम ही सर्व विपत्तियों के पहाड़ों का मूल है । ज्ञान की बहुत महिमा है । जैसे राख के बीच में दबा हुआ भी अंगार अपने आपमें चमकदार है, उष्ण है, उसका स्वरूप नहीं मिटता । इसी तरह गृहस्थी के नाना समागमों की राख के बीच में पड़े हुए ज्ञानी पुरुष के भी अंतर में चमक है, तेज है । वह जब भी अपनी इस ज्ञानचंद्रिका पर दृष्टि डालेगा तब उसके अमृत झर जायेगा । ज्ञानी को खेद नहीं होता; परमार्थत: खेद किसी को भी नहीं।
जिसका खेद है उसकी उपेक्षा कर दो तो सारे खेद मिट गये समझिये । पर यह करना बड़ा कठिन है । जैसे बच्चों की कहानी में आता है कि एक बार चूहों ने सभा की । सब बैठ गये । वे बोले कि हम लोगों पर बड़ी आपत्ति है कि बिलाव आता है तो कितनों को ही खा जाता है और उसकी आवाज से अपन सब डर के मारे यहाँ से वहाँ भागते हैं । कम से कम इतना भी पता पड़ जाये कि अब मेरा बैरी आ रहा है तो सावधान तो सब हो जाये । एक रहा यह प्रस्ताव रखता है । मैं प्रस्ताव करता हूं कि अपनी बिरादरी के हम सबके आपत्ति से बचने के लिए बिल्ली के गले में घंटी बांध दी जाये । दूसरा चूहा उठकर बोला―‘‘मैं इस प्रस्ताव का समर्थन करता हूं ।’’ तो चूहों का मुखिया बोला―तुम सब लोगों को कोई विरोध तो नहीं है? सबने कहा, विरोध नहीं है । एकमत से यह प्रस्ताव पास हो गया कि बिल्ली के गले में घंटी बाँध दी जाये । अब एक ने कहा कि यह प्रस्ताव कोरे कागज पर ही न लिखा रहना चाहिए, इसे प्रेक्टिकल करना चाहिए । यों तो बहुत से प्रस्ताव पास होते हैं । सबने कहा भाई ! प्रेक्टिकल ही होना चाहिए । सब कुछ हो गया, पर बिल्ली के गले में घंटी बांधने कौन जायेगा? वह तो बड़ा कठिन काम है । धर्म की बात भी हम लोगों को तब तक सुहाती है जब तक कि कुछ मनपसंद बात हो, अथवा कुछ दिल को प्रसन्न करने की बात मिलती रहे । चाहे पूजा का प्रकरण हो, चाहे स्वाध्याय का हों, चाहे प्रवचन का हो और चाहे समारोहों का हो, और समारोहों में तो बीच-बीच में ड्रामा होना चाहिए, चुटकुले होना चाहिए; क्योंकि मन बहलता रहे । किंतु विकल्प छोड़कर हम अपने ज्ञानस्वरूप में ! एक बार तो आ जाये । इस प्रस्ताव को प्रेक्टिकल करना बड़ा कठिन हो रहा है । जीवन में एक बार भी तो अपने स्वरूप की दृष्टि हो जाये तो निर्वाण का उसे प्रमाण पत्र मिलेगा ।
भैया ! अपने आपमें ही बसे हुए इस स्वयं परमात्मतत्व की दृष्टि न हो तो यह अपने लिए बड़े खेद की बात है । देखो ! न तुम्हारे लिए यह आगरा रहेगा न धन-वैभव रहेगा, यहाँ के गये न जाने कहां फैंके जायें? किस जगह जन्म हो, बतलाओ । कल रात्रि को ही अचानक घटना में एक सेकन्ड के ही अंतर में वे दो प्राणी मलबा से दबकर मर गये । क्या उन्हें कुछ अनुमान था हम इस मिनट के बाद में मर जायेंगे? चाहे मलबा गिरने से मृत्यु हो, चाहे हम आपकी किसी रोग से मृत्यु हो, या अन्य: कारण से मृत्यु हो; पर मरने का कोई आमंत्रण-पत्र नहीं छपाकर रखता कि फला दिन, फलां टाइम पर फलां स्थान पर मेरी मृत्यु होगी, सौ बेटी बहू जो परदेश में हों वे आ जावें । ऐसा मरण का कोई आवेदनपत्र नहीं हुआ करता है, मरण का कोई फिक्स्ड टाइम नहीं होता है । जन्म का तो अंदाज होता है महीना दो महीना के अंतर का; पर मरण का कोई फिक्स्ड टाइम नहीं होता है । और जब आपका मरण हो गया तो फिर आप कहा, कहां गये । और यहाँ के समागम फिर कुछ भी तो न रहे ।
अपने जीवन को देख भी लो । सबके जीत में दो-चार बार ऐसा अवसर आया होगा, जबकि मरण हो जानें में कोई संदेह न था । कभी हिंदू-मुस्लिम झगड़े में फंस गये तो आप सोचते होंगे कि बचना कठिन है । या किसी के कोई रोग हो गया होगा, या कोई पानी में डूबने को हो गया होगा । कोई न कोई बात सब पर ऐसी लगी होगी, जिससे बचने की कोई आशा न थी । कदाचित् उस समय मरण हो गया होता तो यह जिंदगी तो न रहती । अभी हम बचे हैं तो यह समझो कि हम धर्मसाधना के लिए बचे हैं । धर्म क्या है, सब पदार्थ न्यारे-न्यारे जंचने लगना यही धर्म है । इस धर्म की दृष्टि हमें आ जाये इसके लिए ही धर्ममय प्रभु के चरणों में हम शीश नवाते हैं । हे प्रभो हम में धर्म की श्रद्धा आ जाये । सर्व पदार्थ स्वतंत्र-स्वतंत्र जंचने लगें जिससे मोह न उत्पन्न हो कि यह मेरा है । ममत्व और अहंत्व उत्पन्न न होना ही धर्म है । मोह और क्षोभ; दोनों से रहित जो जीव का ज्ञान परिणाम है उसको धर्म कहते हैं ।
भैया ! इस लोक में हमारा आपका कोई साथी नहीं है, न था, न हो सकेगा । अकेले ही जन्मे हैं अकेले ही मरेंगे, अकेले ही सुखदुःख भोगते हैं । जब मेरा सर्वत्र अकेलापन है तो किसी बाह्य पदार्थ को मैं क्यों चाहूं? वे अचेतन हैं, मैं चेतन हूं । इतनी आशक्ति पूर्ण बुद्धि क्यों बनाई जाये कि अपनी बरबादी हो जाये । मैं अपने में लीन होऊं, ऐसा यत्न करने के लिए सर्वप्रथम आवश्यक है कि हम सर्व पदार्थो के स्वरूप को सही-सही जान लें । तो कुछ गुण ऐसे हैं जो एक जाति में पाये जाते, अन्य जाति में नहीं । जैसे चैतन्य । यह जीव में ही मिलेगा, 5 शेष जातियों में चेतनता नहीं मिलती । रूप, रस, गंध स्पर्श का होना यह पुद्गल द्रव्यों में ही मिलेगा, अन्य 5 जातियों में न मिलेगा । इसी प्रकार गतिहेतुत्व धर्म में, स्थितिहेतुत्व अधर्म में मिलेगा । आकाश में अवगाहनहेतुत्व, काल में परिणमन हेतुत्व मिलेगा; पर कुछ ऐसे गुण है कि मिल भी जाते हैं और नहीं मिलते हैं जैसे अमूर्तपना । जीव में रूप, रस, आदिक नहीं है सो अमूर्त व अन्यद्रव्यों में भी रहता है, पुद्गल में नहीं है सो कुछ में न मिल ऐसे भी गुण हैं । यों साधारण असाधारण और साधारण-साधारण ऐसे तीन प्रकार के गुण पदार्थों में होते हैं । चैतन्य अन्य पदार्थों में नहीं है, किंतु सब जीवों में समान रूप से है । तो ऐसे असाधारण गुण की दृष्टि से पदार्थों को जाना जाता है ।
यह ज्ञान हो जाये कि सर्व मुझसे न्यारे हैं, यह अंतस्तप हैं । धर्म करना एक बड़ी तपस्या है । यह अंतर की तपस्या है । भीतर में शुद्ध ज्ञान वृत्ति बनने की तपस्या है । जो इस तप में तप जाता है, जो सबसे निराले इस ज्ञानस्वरूप में आत्मत्व को देख लेते हैं वे निर्दोष हो जाया करते हैं । जिनको अपने इस तत्त्व का पता नहीं; वे दूसरों की व्यवस्था कर-करके ही श्रांत हो जायेंगे । किसी पुरुष को अपने घर का पता नहीं है । पर दूसरे के घर में जाता फिरे तो वह ललकार दिया जाता है । उसे कोई ठहरने नहीं देता है । खुद के घर का पता हो तो निःशंक होकर घर में घुस सकते हैं । अच्छा, यहीं देख लो । आप किसी दूसरे के घर में जायें तो क्या नि:शंकता से पर घर में घुस सकते हैं? नहीं । भले ही वह किसी मित्र का घर हो, पर उतनी निःशंकता से न घुसोगे जितनी निःशंकता से घुसने में अपने घर में पैर चलते हैं । अपने घर में जानें से निःशंक होकर ये ही पैर चलते हैं । कुछ कल्पना ही नहीं उठती । अपना ही घर है । निःशंक होकर चले जाते हैं । यह जीव अपनी आनंदनिधि से परिपूर्ण निज घर को भूला है और शरीर होना वैभव होना, मिल होना, परिवार होना, इज्जत होना, देश होना; ये सब पर घर हैं । अर्थात् यह आत्मा का निजी स्थान और स्वरूप नहीं है । अत: इस पर घर में जो फिरेंगे उन्हें ठोकरें लगती जायेंगी ।
भैया ! लोग कहते हैं ना कभी-कभी कि मैंने इस बेटे को [बालक को] खूब तो पढ़ाया, बड़ा खर्च किया, आराम दिया और आज इसने मुझे ऐसा बोल दिया । अरे ! ठीक है । वह परघर था, परद्रव्य था । उस पर तुम्हारा अधिकार नहीं । राग किए बहुत दिन हो गये, अब ठोकर मिलेगी । राग का फल नियम से विपत्ति है । चाहे आज राग करके क्षण भर में विपत्तियां सहलो, चाहे कुछ दिन में सहलो, चाहे कुछ वर्ष में सहलो; किंतु राग है तो नियम से मार खानी पड़ेगी । खूब देख लो, इस लोक में किसी को राग करते हुए 40 वर्ष व्यतीत हो गये, कुछ भी राग में मालूम न हुआ; पर जब वियोग होगा तब 1 दिन 40 वर्ष के बराबर का लगेगा । जो राग करेगा नियम से उसे क्लेश ही मिलेंगे । सो राग की बात करना न पड़े, व्यवस्था की बात और है । बस, जैसे कोई मुनीम आपका कोई काम सम्हाले, इसी प्रकार आप अपने घर का काम सम्हालो । सेठ से भी ज्यादा मुनीम काम में लगा रहता है, बैंक का हिसाब लेन-देन की बात करना तुम पर मेरा इतना बकाया है । मुनीम का बकाया निकलता है क्या? नहीं । कहती, यों रहा है कि मेरा तुम पर इतना बाकी निकलता है; धन की रक्षा ऐसी करता है जैसी मालिक करता है । इसी तरह तिजोरी को अच्छी तरह रखेगा । ताला बंद करके, वापिस होकर फिर एक बार देख लेगा कि ताला बंद है कि नहीं, खुला तो नहीं रह गया, कसर तो नहीं रह गई । पूरी रक्षा करता है, मगर उसको विश्वास है कि यह मेरा कुछ नहीं है इस विश्वास के कारण उसके कर्मों का तीव्र बंध नहीं होता है ।
इसी प्रकार घर का मालिक क्या ऐसा सोच नहीं सकता है । जब पर वश होकर विपदा पड़ेगी तब तो सोचना ही पड़ेगा, मर स्व-वश सोच ले तो उसकी विजय है । परवश सोचे उससे फायदा नहीं है । स्वतंत्र होकर आजादी से अपने ही जीवन को अपने आप सोच लो । मेरा यहाँ पर कुछ भी नहीं है । यह तो पुण्यवान बच्चों के पुण्य के उदय के कारण इनके दास बन रहे हैं । दासता नहीं है तो और क्या है? बतलाओ । सिवाय नौकरी के और क्या है? सर्विस तो सब एक किस्म की है । कोई शानदार सर्विस है, कोई हूं हजूरी से रहने की सर्विस है, पर सेवा तो सब है । किसी को निश्चित वेतन मिलता है और किसी को अनिश्चित वेतन मिलता है । तो घर में रहने वाला जो बाप उसका अनिश्चित वेतन है; पर सेवा वैसी ही है जैसी कि निश्चित वेतन वाले की, कुछ अंतर नहीं है । निश्चित वेतन वाले की भी बुरी दशा है, और अनिश्चित वेतन वाला भी बिगड़ता है ।
भैया ! निश्चित वेतन वाले की तो जब ड्यूटी पर जायेगा तब की जिम्मेदारी है । ओवर टाइम में उनकी क्या जिम्मेदारी है, मगर अनिश्चित वेतन वाला नौकर तो 24 घंटे की जिम्मेदारी लिए है, क्योंकि पुण्य वाले जो बच्चे हैं उनकी सेवा करनी पड़ रही है । डेढ़ वर्ष के बच्चे को गोद लिए फिरते उसे जमीन पर नहीं रखना चाहते । इस गोद से हटे तो उस गोद में रहे । यदि गोद लेने वाले बहुत न हों तो नौकर रख लिया, पर यह गोंद में ही रहे । इसकी मुस्कान देखते ही रहें । इतनी बड़ी जिसकी सेवा कर रहे हैं वह बड़े पुण्य वाला हुआ कि जो सेवा कर रहे हैं वे बड़े पुण्य वाले हुए? पुण्य तो उसका ही बड़ा है जिसकी चिंता करते हैं । पुण्यहीन तो अपन हैं जो खुद दास बने हुए हैं ।
भैया ! सत्य सुखी होने का एक ही उपाय है । वही एक बात चाहे जब कहलवा लें । जैसे कोई दूसरा आदमी किसी प्रयोजन से आपके पास आया हो और आप जाग गये हों कि यह इस प्रयोजन से आया हैं । इसे 4 हजार रुपया उधार ऋण में चाहिए । तो आप चाहे कितनी ही दूसरी बातें करके टालें तो भी वह फेर-फेरकर उस पर ही अपनी बातें लायेगा । फिर दूसरी बातों में लगा दो तो फिर वह अपने ही मतलब की बात रखता है । हमें 4 हजार रुपया चाहिये । आपकी बातों का कोई मतलब ही वह न रहेगा । सो हम चाहे प्रवचनसार पढ़ें, चाहे परमात्मप्रकाश पढें, वहीं हम आत्मा की ही बात बोलेंगे । कुछ लोग कहते हैं कि और विषयों पर भी बोला करो, वही आत्मा की ही बातें रोज न बोला करो । तो हम तो यह कहते हैं कि ‘‘यदि अपने ज्ञानस्वरूप पर दृष्टि जाये तो सारी बातें हल हो जायेंगी ।’’ इस मनुष्यगति से देवगति भी मिलेगी । मोक्ष भी मिलेगा । तुम्हें क्या चाहिए? सब कुछ इस दृष्टि से ही मिलेगा । तो क्या चाहिए बोलो? भोजन की बढ़िया व्यवस्था रहे, यह भी इस आत्मदृष्टि से ही मिलेगा । इस ज्ञानघन आनंदमय सच्चिदानंद प्रभु की उपासना से अवशिष्ट रागवश इतना सातिशय पुण्य बनता है कि जिसके फल से सब मनोवांछित पदार्थ प्राप्त होते हैं । इसके आगे अच्छा सदाचार, नैतिकता आदि सभी इस ज्ञानदृष्टि से ही मिलेंगे । ऐसे आप कितने ही तत्त्व बताएं सब कुछ इस ज्ञानदृष्टि से ही मिल सकता है । एक ज्ञानदृष्टि छोड़कर किसी का नाम धरो, धन का, दुकान का, मिनिस्टर के पद का, किसी से भी सभी मनोवांछित चीजें नहीं मिल सकती हैं । केवल ज्ञानानंदमय प्रभु की दृष्टि ही ऐसे चमत्कार वाली वृत्ति है कि सब कुछ इसे से मिल सकता है ।
इन सब जीवों को क्या चाहिए? सुख और वह सुख कितना चाहिए? वह सुख चाहिए हमेशा रहने वाला । हम आपका उपादेयभूत तत्त्व है सुख । वह अनंत सुख किस स्थिति में रहता है ? जबकि जीव संकल्प-विकल्प को त्यागकर शुद्ध ज्ञाताद्रष्टा रूप रहता है और परम विश्राम को पाता है । उस स्थिति में सहज सुख प्राप्त होता है । उस सुख से अभिन्न हैं शुद्ध गुण पर्यायें । आत्मा के आनंद गुण की शुद्ध पर्यायों को ही अनंत आनंद कहते हैं । उसका ही वर्णन करने की मुख्यता से अब 8 दोहे आयेंगे । उनमें पहिले चार दोहों में मुझे, बाधा करने वाले कर्म है, उन्हें निराकरण के साथ कहेंगे । जैसे―