वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 135
From जैनकोष
किं बहुणा हो देविंदाहिंद णरिंइगणहरिंदे हिं।
पुज्जा परमप्पा जे तं जाण पहाव सम्मगुणं।।135।।
सम्यक्त्व गुण का प्रभाव―इस गाथा में आचार्यदेव कहते हैं कि बहुत कहने से अब क्या लाभ? जो परमात्मा देवेंद्र नागेंद्र नरेंद्र गणधरेंद्र से पूज्य हैं सो यह सब बात सम्यक्त्व गुण का प्रभाव जानो। संसार में रुलते हुए इस जीव को कौन सहाय होता है? एक सम्यग्दर्शन। पथ दिख जाय फिर जो चलते बन सकेगा और जिसकी आँखें अंधी हैं, पथ दिखता ही नहीं है उनसे तो चलना भी क्या बने? और पथ न दिखने से भीतर की उल्झन भी कैसे मिटे? तो ऐसे ही सम्यग्दर्शन से अपने आत्मस्वभाव का अनुभव कराकर पथ दिखा दिया कि हे भव्य जीव यदि शाश्वत शांति चाहते हो तो शांत स्वरूप सहज ज्ञानमात्र इस अंतस्तत्त्व में उपयोग को मग्न करो, रास्ता दिखा दिया। अब बार-बार इस ही का अभ्यास बने, तो यह चारित्र अपने आप में आ जायगा। बहुत बात कहने से फायदा क्या? एक इस सम्यक्त्व गुण का प्रताप समझिये कि परमात्मपद प्राप्त होता है। सम्यक्त्व का मूल महत्त्व व प्रभाव―जब गाड़ी कहीं रुक जाती है तो थोड़ा चलना तो चाहिए। स्टार्ट तो हो, फिर आगे बेग बन जायगा, गाड़ी अपने इष्ट स्थान पर पहुँच जायगी, तो सम्यग्दर्शन का प्रारंभ किया तो मोक्षमार्ग ने दर्शन कराया और अनुभव सहित दर्शन कराया। सम्यग्दर्शन हुए बाद कोई भी इस जीव को बहका नहीं सकता जैसे कोई स्वादिष्ट भोजन किये बाद उसको उसकी प्रतीति अनुभूति तो बनी है ऐसे ही निज सहज अविकार ज्ञानस्वरूप की अनुभूति होने पर और उस ही के कारण सहज आनंद का अनुभव होने पर फिर इसको कौन बहका सकता? एकदम स्पष्ट समझ तो लोगों के यह होती कि यह हूँ मैं ज्ञानानंद घन अंतस्तत्त्व। उस ही सम्यक्त्व गुण का प्रताप है कि इससे उत्तरोत्तर उन्नति चली संयम प्राप्त किया। मुनिव्रत वस्तुतः निभाया और घातिया कर्म मल को दूर कर यह भव्य जीव परमात्मपद प्राप्त कर लेता है। तो जिसके प्रताप से ऐसा त्रिलोक पूज्य पद प्राप्त होता है उस सम्यक्त्व का प्रभाव जानकर अपने लिए इस ही को हितकारी जानकर सम्यक्त्व का यत्न करना चाहिए। सम्यक्त्व के यत्न में अध्ययन कीजिए, चर्चा कीजिए केवल एक आत्महित की दृष्टि से और जो अपना सहज स्वरूप अनुभूत हो उसका एकाग्र ध्यान कीजिए तो सम्यक्त्व के प्रताप से जो-जो प्रभाव आवश्यक हैं वे सब मिलते बढ़ते चले जायेंगे।