वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1146
From जैनकोष
साम्यवारिणि शुद्धानां सतां ज्ञानैकचक्षुषाम्।
इहैवानंतबोधादिराज्यलक्ष्मी: सखी भवेत्।।1146।।
आत्मा का चमत्कार समता परिणाम में है। रागद्वेष न करना, पदार्थों में इष्ट अनिष्ट बुद्धि न होने देना, इस भाव में वह चमत्कार है कि उससे दूसरे भी प्रभावित होते हैं, शांति के निकट पहुँचते हैंओर संयम में भी प्रभावित होते हैं, शांत स्वरूप में पहुँचते हैं। हम आप सब जो भी प्राणी दु:खी हैं समतापरिणाम न होने से दु:खी हैं। यह अटूट निर्णय रखना चाहिए। बाहर में मुझे कुछ कम मिला है अथवा परिजन कम हैं या अनुकूल नहीं हैं इस कारण से दु:ख नहीं है किंतु खुद में समतापरिणाम नहीं ठहरता इसका दु:ख है। जो पुरुष समतारूप अमृत जल में शुद्ध हो गये हैं, नहा चुके हैं, अतएव उनके ज्ञानचक्षु खुल गए हैं, उन पुरुषों को तो यह ही अनंत ज्ञानादिक राज्य की लक्ष्मी प्राप्त होती है। जैसे अनेक मनुष्यों का लक्ष्य यह बन गया है कि में लोक में राज्य में इज्जत अधिक पाऊँ, किसी का लक्ष्य यह बन गया है कि में धन वैभव अधिक जोड़ लूँ, किसी का कोई लक्ष्य बना है, किंतु यदि एक मात्र यह लक्ष्य बन जाय कि मैं अपने आपके विशुद्ध स्वरूप को निहारूँ और यह ही मैं हूँ ऐसा निर्णय रखकर अपने आपके आत्मा के निकट बसकर प्रसन्न रहूँ। यदि एक यह मूल लक्ष्य बन जाय तो उसका उद्धार हो चुका। जगत के इन पौद्गलिक ठाठ बाटों में सिर मारने से, उपयोग फँसाने से, विकल्प मचाने से कौन से तत्त्व की सिद्धि हो जाती है? खूब निहार लो, अब तक कि जो चर्चा बीती है उससे भी परख लीजिए कि हमने पाया क्या है? कौनसी ध्रुव चीज पायी जो मेरे निकट रहे और धोखा न दे और शांति बनाये? यहाँ के समागमों में मग्न होने से लाभ न मिलेगा। चाहे कितना ही बढ़िया समागम हो, घर में स्त्री, पुरुष, बच्चे, बड़े सज्जन, बड़े आज्ञाकारी सब कुछ बढ़िया हो तिस पर भी उनमें मग्न होने का कर्तव्य नहीं है क्योंकि वे समस्त पर हैंऔर अध्रुव हैं, वियोग अवश्य होगा, अथवा आज कुछ है कल क्या परिणति बन जाय? किसी ने किसी का कोई निर्णय किया है क्या? आज कुछ स्थिति है कल कुछ बन जाय। कोई आज अनुकूल हे कहो ऐसा परिवार बन जाय कि मुँह देखना भी पसंद न करें। आज कुछ वैभव हे कल क्या स्थिति बने? आज कुछ नहीं है, कल कितना ही वैभव आ सकता है। यहाँ के ठाठ-बाट मग्न होने के काबिल नहीं हैं। कुछ समतापरिणाम लाना चाहिए। तत्त्वज्ञान और विवेक की बात चित्त में लाना चाहिये। यह बात प्रयोग की है। करना किसी दूसरे को नहीं है। अपने आपमें ही अपने आप समाये-समाये गुप्त पद्धति से ही अपने आपमें यह स्वरूप दर्शन का स्वरूप मग्नता का कार्य करना है। इस कार्य में कोई बाधा नहीं है। सो कदाचित् विरुद्ध भी हों तो अधिक से अधिक कोई बाहरी उपसर्ग कर सकेगा, पर उसके परिणामों का निरोध करने में कौन कार्यकारी हो सकता है?
जगत है यह। इसमें कोई विश्वास नहीं है। कोई सुख दु:ख दाता नहीं है। सब कुछ अपने आपको ही करना होगा। करना भी क्या―केवल एक भाव निर्मल बने, समतापरिणाम जगे ऐसी दृष्टि रखना है। परिवार में रहकर व्यवस्था करने के नाते कुछ ध्यान रखना चाहिए, पर उनमें ये मेरे हैं, मैं इनका हूँ, ऐसी मान्यता अंदर से न होनी चाहिए। कदाचित् जो आज घर में पुत्र आदिक हैंउन जीवों के बजाय अन्य कोई जीव उत्पन्न हो जाते तो उन्हें अपना मान लेते। जिन्हें आज अपना माना जा रहा हैवे सब भी इन अन्य जीवों की भाँति हैं। यहाँ मग्न होने में धोखा है? ज्ञान की सम्हाल रखी जाय तो जीवन अच्छा निकलेगा और जीवन के बाद भी अच्छा समागम रहेगा, उद्धार का अवसर मिलेगा। मनुष्यभव बारबार प्राप्त नहीं होता। बड़ी कठिनाई से अनेक कुयोनियों में जन्म धारण कर करके आज मनुष्य हुए हैं। तो यह मनुष्यता ऐसे ही नहीं मिल जाती। यहाँ श्रद्धान निर्मल, ज्ञान निर्मल और चारित्र की ओर यत्न करना चाहिए। सच तो यह है कि ऐसा निर्णय बना लें कि मेरा तो मात्र में ही हूँ। सब कुछ सुख दु:ख आदिक का रचने वाला हूँऔर अपने ही भावों से मैं सुखी होऊँगाओर अपने ही भावों से दु:खी होता हूँ। मेरे कार्य में किसी दूसरे का हस्तक्षेप नहीं है। यह यथार्थ तात्विक बात है। न माने तो पीछे पछताना ही पड़ेगा। न समता लाये तो दु:खी होना ही पड़ेगा। भला जो मिले हुए समागम में बहुत आसक्ति रखते हैंतो आखिर उसका होगा क्या अंतिम परिणाम? वियोग होगा। उस वियोग के समय बहुत संक्लिष्ट होना पड़ेगा, कर्मबंध बनेगा, कुगतियों में उत्पन्न होनापड़ेगा। मनुष्यभव का एक-एक क्षण अमूल्य है। जो समय निकल गया वह पुन: वापिस नहीं आ सकता। जैसे पर्वत से गिरने वाली नदी पर्वत से नीचे गिरकर पुन: वापिस नहीं चढ सकती है, उसकी धार आगे ही बहेगी, इसी प्रकार जीवन के जो क्षण निकल गए वे फिर वापिस नहीं आते, जीवन तो आगे बढ़ जायगा। तो इस जीवन में कोई सत्संग उदारता का परिणाम कमा ले। सभी जीवों में समानता का व्यवहार रखें। सब कुछ अपना तन-मन-धन-वचन घरके उन चार-छ: जीवों के लिए ही है, ऐसा निर्णय न बनायें। अन्य जीवों के प्रति भी तो दया का भाव रहे। यदि अन्य जीवों के प्रति दयाहीनता का परिणाम रहा तो उसका बुरा परिणाम भोगना ही पड़ेगा। कुछ निहार तो लो सभी जीवों में वही स्वरूप है जो मेरे में है। ऐसा कोई अनुभव कर ले तो उसे एक शिवपथ बहुत निकट रहेगा। जो पुरुष समता के जल में शुद्ध हो गए हैं और इसी कारण जिनके ज्ञाननेत्र एकदम प्रकट स्पष्ट हो गए हैं उन पुरुषों को अनंत ज्ञान आदिक लक्ष्मी निकट में ही प्राप्त हो जाती है। कल्याण के लिए भावों की निर्मलता चाहिए और उसही उपाय में वह एक विशुद्ध ध्यान बनता है, अभेद ध्यान बनता है जिस ध्यान के प्रताप से आत्मा आनंदमय रहता है। अपने आपको अकेला निरखो और इसे शरण समझकर, इसे सबका जिम्मेदार समझकर, इसे ही आनंदधाम निरखकर इसके ही निकट ज्ञानोपयोग द्वारा रहा करें, यही धर्मपालन का समस्त मर्म है।