वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2014
From जैनकोष
अचिंत्यचरितं चारुचरित्रै: समुपासितम् ।
विचित्रनयनिर्णीतं विश्वं विश्वैकबांधवम् ।।2014।।
प्रभु की अचिंत्यचरितता―जिनका चारित्र अचिंत्य है ऐसे परमात्मा का ध्यान करो । जिनके ज्ञानज्योति प्रकट होती है उसका विचार, उसका चारित्र, उसकी वृत्ति अचिंत्य होती है अर्थात् लौकिक जनों से विलक्षण होती है । वे क्षमा व नम्रता की प्रतिमूर्ति होते हैं । जहाँ कषायों की मुद्रा नहीं होती है, माया लोभ से वे दूर रहते हैं, सर्व जीवों में जिनके हित की बुद्धि होती है उनको यह मेरा है, यह पर है, ऐसी लघु वृत्ति नहीं आती है । ऐसे महापुरुषों का चरित्र अचिंत्य होता है, और फिर जो योगीश्वर हैं, जो कर्मो का क्षय कर के परमात्मा हुए हैं उन सकलपरमात्मा का चारित्र तो अचिंत्य है । क्या करते हैं वे निरंतर? इस बात को लौकिक जन चिंतन में नहीं ला सकते हैं, ऐसा अचिंत्य चारित्र है । सो निर्दोष चारित्र वाले पुरुषों के द्वारा उनकी उपासना की गई है ।
कार्यसिद्धि में देव शास्त्र गुरु का स्थान―भैया ! किसी भी काम के लिए हमें देव, शास्त्र, गुरु चाहिए । लौकिक काम हों तो उनमें भी लौकिक देव, शास्त्र, गुरु का आश्रय चाहिए । किसी को संगीत सीखना है तो उस संगीत सीखने वाले के चित्त में कोई ऐसा प्रसिद्ध संगीतज्ञ रहेगा जो दुनिया में अतिशय कर प्रसिद्ध हो, चाहे उसे कभी देखा न हो, उससे चाहे कभी बात भी न हुई हो, पर उसके प्रति एक आदर्श भाव रहता है कि मुझे ऐसा बनना है । वह संगीत सीखने वाले का देव है, संगीत सीखने वाला उस देव को पा नहीं सकता, उससे बोलचाल नहीं है तो अपने ही गाँव में किसी उस्ताद की खोज करता है और उससे सीखता है तो वह संगीत का गुरु हुआ । साथ ही साथ संगीत की पुस्तक का आश्रय लेता है जिसमें सा रे ग म आदिक स्वरों का, आरोह अवरोहों का, मात्रावों का, ध्वनियों का अच्छा उल्लेख रहता है, जिसमें अनेक राग रागनिया सब ढंग से लिखी होती हैं, तो वह पुस्तक उस सीखने वाले के लिए शास्त्र हुई । इसी प्रकार से व्यापार, रसोई आदिक सभी कामों में कोई एक आदर्श रहेगा उपयोग में जो कि उसके लिए देव हुआ, जो उन कामों को सिखाये वह गुरु हुआ और जिन पुस्तकों का व वचनों का सहारा लेकर सीखे वह शास्त्र हुआ । यों प्रत्येक कार्य में देव, शास्त्र, गुरु का आश्रय चाहिए । कोई धर्म का काम करना चाहे, संसार के दु:खों से छूटने का उपाय बनाना चाहे तो उसे धर्म के देव, शास्त्र, गुरु का आश्रय चाहिए । उस ज्ञानी ध्यानी मुमुक्षु के चित्त में कोई आदर्श रहना चाहिए । जो निर्दोष है, विशुद्ध ज्ञानस्वरूप है, हम को वैसा ही बनना है, यह तो उसका आदर्श है, यही उसका देव है, परंतु ऐसे देव से हमारी भेंट नहीं हो रही, बोलचाल नहीं बन रही तो पास उपलभ्य किसी धर्मात्मा का शरण गहें जो कि स्वयं धर्ममार्ग में लगा है और जो हमें भी धर्ममार्ग में लगने की प्रेरणा दे, जिसका एक आत्मतत्त्व की उपासना में ही मन है, जो आरंभ परिग्रह से दूर है, वही धर्म का गुरु है, और धर्म के शास्त्र जिन में वीतराग बनने की विधि लिखी है, जिन में सम्यग्ज्ञान का निरूपण है वे शास्त्र हैं । सो धर्ममार्ग में भी तो चाहिये कोई आदर्श, वह आदर्श है सकलपरमात्मा, निर्दोष परमात्मा, जो योगी जनों द्वारा उपास्य है, योगी जन उस परमात्मा की उपासना किया करते हैं ।
परमात्मस्वरूप की विचित्र नयनिर्णीतता―परमात्मस्वरूप नाना नयों से निर्णीत है । प्रभु का स्वरूप हम व्यवहारनय से भी निरखते हैं, निश्चयनय से भी निरखते हैं और उन सब नयों से हम किसी निर्णय पर पहुंचते हैं । जैसे निश्चयनय से क्या हैं प्रभु? एक विशुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप, निरंतर समीचीन ज्ञान और आनंद का परिणमन करते रहने बाले ऐसे विशुद्ध आत्मस्वरूप परमात्मा हैं और व्यवहारनय से जो जिस पर्याय में, जिस मनुष्यभव में, जिस नाम से हुए हैं―कहते हैं कि ये आदिनाथ जी हैं, ये रामचंद्र जी हैं, ये महावीर स्वामी हैं, यों जिस नाम से प्रसिद्ध वे महापुरुष सकलपरमात्मा हुए हैं उस नाम से उनके गुणो का वर्णन करते हैं, उनकी वर्तमान ऋद्धि का वर्णन करते हैं । समवशरण में विराजमान हैं, चतुर्मुख जिनका दर्शन होता है ऐसे अनेक विशेषणों कर के हम प्रभु की उपासना करते हैं, विचित्र नयों से वे निर्णीत हैं।
प्रभुभक्ति में स्वयं सुखसंपन्नता―सकलपरमात्मा समस्त विश्व के एकमात्र बंधु हैं । आत्मा का निरपेक्ष बंधु कहा है परमात्मा को । इतनी अपेक्षा तो रखते ही हैं संसार के लोग कि जैसे मेरी कषाय है, जैसा मेरा विचार है, जैसा मेरा निर्णय है उसके अनुरूप ही तो परिणति होगी । न हो तो उससे फिर लगाव नहीं रहता है, किंतु भगवान परमात्मा वे विश्व के एक निरपेक्ष बंधु हैं । जो भक्त पुरुष प्रभु के सम्मुख होकर रहते हैं उनको सर्व प्रसन्नता अपने आप प्राप्त होती है और जो प्रभु से विमुख होकर रहते हैं उनको कष्ट अपने आप प्राप्त होते हैं । प्रभु न किसी को सुख के देने वाले हैं, न दुःख देने वाले हैं, किंतु यह स्वयं भव्य जनो के उपादान की बात है । जैसे जो कोई दर्पण के सामने अपना मुख करेगा उसको अपनी मुखमुद्रा के दर्शन अवश्य होंगे और जो दर्पण से विमुख हो जायगा उसको अपनी मुखमुद्रा के दर्शन नहीं हो सकते हैं । ज्ञानी पुरुष प्रभु से किसी भी बात की अपेक्षा नहीं रखता, वह तो मात्र यह चाहता है कि जो मैं सहज हूँ, जैसा मेरा अपने आप स्वरूप है, अपने आपके सत्व के कारण जो कुछ मैं हूँ वह मात्र प्रकट हो, केवल यही अभिलाषा है ज्ञानी पुरुष के, वह अन्य कुछ नहीं चाहता है । यही निर्णय अपना होना चाहिए । वस्तु का स्वरूप क्या है? यह बात विदित होगी तो सब कुछ बात बन सकेगी, और जब तक वस्तुस्वरूप का परिचय नहीं है तब तक हम धर्म के नाम पर कुछ से कुछ करते रहेंगे, श्रम भी करेंगे, विशुद्ध भाव भी करेंगे, पुण्य परिणाम भी करेंगे, किंतु वह सार बात न मिल सकेगी । कोई गली मिलने पर जैसे एक भंवर में फंसा हुआ जहाज भंवर से निकलकर स्वतंत्र बन जाता है वैसे ही विकल्पों में फंसा हुआ आत्मा सहज जानन की गली मिलने पर विकल्पों से निकलकर स्वतंत्र बन जाता है और अपने आप में कृतकृत्यता का अनुभवन करने लगता है ।
इच्छा के अभाव में सुख का उद्भव―देखिये हम आप सबको जितना सुख मिल रहा है वह सब सुख किसी पर के समागम के कारण नहीं मिल रहा है किंतु उस समय किसी न किसी विषय में यह भावना बन जाती है, निर्णय हो जाता है कि अब मुझ को यह काम करने के लिए नहीं है । बस इस अवधारण का वह सुख हुआ करता है । आप बड़ी सूक्ष्मता से परीक्षण कर लीजिए । जैसे कोई मकान आपको बनवाना है तो मकान बन चुकने पर जो एक सुख का अनुभव होता है तो कहते लोग ऐसा ही है, और वह भी ऐसा ही कहता है कि मकान बन चुका, अब मुझे बड़ा सुख हुआ, पर वहाँ सूक्ष्मता से विचारें तो मकान बन चुकने पर जो उसके यह भाव बना कि मकान बनवाने का काम मुझे करने को नहीं' रहा, इस अवधारण का वह सुख है । प्रत्येक सुख में आप यही बात लगाते जाइये कि जिस चीज की इच्छा है उस चीज की प्राप्ति होने पर जो सुख होता है वह उस चीज की प्राप्ति होने से सुख नहीं होता है, किंतु उस चीज की जो अब इच्छा नहीं रही, चाह नहीं रही, इच्छा का अभाव रहा, उसके करने का अब काम नहीं है, इस अवधारण का वह सुख है ।
इच्छा के अभाव से सुख के उद्भव पर एक दृष्टांत―इच्छा के अभाव से ही सुख है इस पर एक दृष्टांत लें―आपके किसी मित्र का पत्र आया कि मैं कल के दिन की तारीख में करीब 12 बजे इस स्टेशन से आ रहा हूँ, तो आप आकुलित होने लगे कि मुझे 12 बजे वहाँ पहुंचकर मित्र से मिलना है । तो और अनेक काम जो अभी तक आप देर से करते थे उनको जल्दी-जल्दी निपटाने लगे । झट सारे काम निपटा कर आप स्टेशन पर पहुंचे, वहाँ जाकर आप पूछते हैं कि गाड़ी लेट तो नहीं है? पता लगा कि 10 मिनट लेट है, लो और आकुलता बढ़ी । जब गाड़ी प्लेटफार्म पर आ गई तो आप झट इधर उधर दौड़कर डिब्बे-डिब्बे में देखने लगे । देख लिया कि हमारा बह मित्र अमुक डिब्बे में बैठा है, वहाँ पहुंचकर मित्र से मिलकर सुख का अनुभव किया । अब आप विचार करो कि क्या वह सुख मित्र के मिल जाने से मिला है? अरे मित्र के मिलने का वह सुख नहीं है, मित्र के मिलने का अब काम नहीं रहा इसको चित्त में अवधारण किया इस बात का वह सुख है । आप प्रश्न कर सकते हैं कि हम कैसे समझे कि मित्र के मिलने का वह सुख नहीं है? तो देखिये―दो तीन मिनट मिलने के बाद ही आप खिड़की से बाहर झांकने लगे । कहीं गार्ड सीटी तो नहीं दे रहा, अथवा कहीं हरी झंडी तो नहीं दिखा रहा । अरे भाई जब मित्र के मिलने का वह सुख है तो खूब मिलते रहो उस मित्र से और सुखी होते रहो, पर आप ऐसा न करेंगे । अरे वह सुख मित्र के मिलने का नहीं है । वह सुख इस वात का है कि चित्त में ऐसा अवधारण कर लिया है कि अब मित्र से मिलने का काम बाकी नहीं रहा । यदि घर पर बैठे ही आप यह बात सोच लेते कि अरे क्या है मित्र से मिलने जाने से, हटावो अब नहीं जाना है, तो इतना आकुलित न होना पड़ता । जो सुख अब मित्र के मिल जाने पर प्राप्त हुआ है तो वह सुख पहिले से ही प्राप्त हो जाता ।
इच्छा के विनाश में पूर्ति का व्यवहार―साधु जनों में और गृहस्थ जनों में अंतर क्या है? घर में बसने वाले गृहस्थ जन जिन चीजों की इच्छा करते हैं और उस इच्छा की पूर्ति कर के सुख का अनुभव करते हैं तो साधु जन उन इच्छावों का पहिले से ही निरोध कर के सुख का अनुभव करते हैं । लोग कहते हैं कि मेरी इच्छा की पूर्ति हो गई, उसका अर्थ यह है कि इच्छा नष्ट हो गई । इच्छा के नष्ट होने का ही नाम इच्छा की पूर्ति है । कहीं इच्छा उस तरह से पूर्ण नहीं की जाती जैसे बोरों में गेहूं भरकर बोरा पूर्ण किया जाता है । इच्छा की पूर्ति होती है इच्छा के नष्ट होने पर । तो साधु जन पहिले से ही इच्छा को नष्ट कर देते हैं जिससे वे परम सुखी रहते हैं ।
प्रभुस्वरूप से शिक्षण―हमें यहाँ बात यह लेनी है कि वे प्रभु उत्कृष्ट क्यों हैं? उत्कृष्ट इसीलिए हैं कि उनके कोई प्रकार की अभिलाषा नहीं रही । उनमें कोई वांछा न होने से कोई दोष नहीं रहे, इसी कारण उनके ज्ञानादिक गुण सर्व अतिशयकर पूर्ण हो गए हैं । यह सब उनका एक माहात्म्य है । उस निर्दोषता को निरखकर अपने आपमें भी यह चिंतन करें कि मैं भी निर्दोष होऊँ । देखिये कौनसा वह क्षण होगा जिस क्षण, इन बिकल्पजालों का भार मुझ पर न रहे और उस ही सहज परमात्मतत्व का आश्रय करूँ, अपने कैवल्य स्वरूप का अनुभवन करूँ । ये सर्व समागम दुःख के ही कारण हैं । जीवों को दुःख समूह के भोगने का क्यों पात्र बनना पड़ रहा है? यों कि इन पदार्थों से संयोग है । इष्ट संयोग मिलता है तो भी क्षोभ का विकल्पजाल का दुःख मिल रहा है और इष्टवियोग होगा तो भी दुःख मिलेगा । जिसके अध्यात्मतत्त्व में बुद्धि न रहकर परपदार्थों में हित की बुद्धि लगी है वह अपने आपको शांति में नहीं बैठा सकता, क्योंकि परपदार्थ का स्वभाव ही यही है । भेदविज्ञान से यथार्थ निर्णय करके, बाह्य पदार्थों का आश्रय कर के केवल एक स्वदृष्टि में लें, उसमें ही मग्न होने का यत्न करें तो यह उपाय मेरी शांति के लिए होगा ।
निरर्थक चिंता से निवृत्त होकर स्वरूपलीनता का कर्तव्य―भैया ! परिवार जनों का जो अपने ऊपर बोझ रखा है उसे हटाने की जरूरत है । क्या उन परिजनों के साथ कर्म नहीं लगे हैं, क्या उनके साथ उनका उदय नहीं चल रहा है? जितने भी परिवार के लोग हैं सभी अपने-अपने कर्मों से पल पुष रहे हैं । बड़ी कमाई भी होती है तो क्या यह सही बात नहीं है कि घर के जितने लोग हैं बच्चों से लेकर बूढ़ों तक, जिनके कि यह कमाई हुई सारी संपदा भोगने में हो रही है, उन सबके पुण्योदय के कारण आप निमित्त बन रहे हैं और यह कार्य हो रहा है । जब सब जीवों के उदय की करतूत है तो इतनी चिंता क्यों करना? इन चिंतावों से निवृत्त होकर एक यह मुख्य ध्यान बनाना है कि मुझे तो सत्य ज्ञानार्जन कर के वस्तुस्वरूप की महिमा जानकर अपने आप में लुप्त होना है, संतुष्ट होना है । यह बात हम परमात्मा के ध्यान से सीखते हैं और इसीलिए बड़े-बड़े पुरुष भी, योगीश्वर भी, ज्ञानी भी परमात्मतत्व का ध्यान किया करते हैं । हमारे मुख्य कर्तव्य ये दो है―परमात्मस्वरूप का ध्यान कर के अपने हृदय को पवित्र बनायें और अपने आप में बसे हुए सहज शुद्ध ज्ञानस्वरूप का ध्यान करके उसके निकट बसकर निर्विकल्प होने का प्रयत्न करें, बस ये दो बातें ही हम आपको वास्तविक शरण हैं ।