वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 42
From जैनकोष
मुक्तिस्त्रीवक्त्रशीतांशु दृष्टुमत्कंठिताशयै:।
मुनिभिर्मथ्यते साक्षाद्विज्ञानमकरालय:।।42।।
ज्ञानसागर का मंथन―मुक्तिरमणी के मुखचंद्र को देखने के उत्सुक हुए मुनिजन साक्षात् विज्ञानरूपी समुद्र का मंथन करते हैं। लोक रूढ़ि में कुछ ऐसी किंवदंती चली आई है कि प्रभु ने समुद्र को मथा, उससे चंद्रमा निकला है। यह एक किंवदंती चली आई है।सो यहाँ अलंकारिक रीति से कहा है कि मुनिजन मुक्तिरमणी चंद्रमा को देखना चाहते हैं। इस कारण वे ज्ञानरूपी समुद्र का मंथन करते हैं, अर्थात् ज्ञान के ध्यान से मोक्ष की प्राप्ति होती है। आत्मा सबसे न्यारा अपने स्वरूपमात्र तो है ही। ऐसा ही रह जाने का नाम मुक्ति है, और ऐसे ही निजस्वरूप का ध्यान करने से व्यक्त रूप में मुक्ति प्राप्त हो जाती है। मुक्ति के अर्थ मुनिजन इस निज सहज अंतस्तत्त्व की उपासना करते हैं।