वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 833
From जैनकोष
य: संगपंकनिर्मग्नोऽप्यपवर्गाय चेष्टते।
स मूढ. पुष्पनाराचैर्विभिंद्यात्त्रिदशाचलम्।।
संगपंकनिर्मग्न प्राणी की अपवर्ग चेष्टा की व्यर्थता- कोई पुरुष फूलों का वाण बनाकर सुमेरु पर्वत को ढाने की कोशिश करे तो उसे लोग मूर्ख कहेंगे? कोई पतले डोरे में फूल पिरोले उसे धनुष समझ ले और फूल को ही वाण समझ ले, और सुमेरु पर्वत को ढाने की चेष्टा करे तो क्या पर्वत ध्वस्त हो सकता है? नहीं। तो जैसे फूलों के वाणों से कोई सुमेरु पर्वत को ध्वस्त करना चाहे तो वह मूर्ख है इसी तरह जो प्राणी परिग्रहरूपी कीचड़ में फंसा हुआ मोक्ष प्राप्ति के लिए चेष्टा करता है वह भी मूढ़ है। परिग्रही पुरुष के मोक्ष की प्राप्ति होना अत्यंत असंभव है। गृहस्थी में भी सुख से रहना है तो उन्हें चाहिए कि इस परिग्रह का परिमाण कर लें और जो कुछ पुण्योदय से प्राप्त होता है उसमें ही संतुष्ट रहें, उसमें ही विभाग बनाकर अपना गुजारा कर लें। यह तो उनकी शांति और संतोष का साधन है, और केवल परिग्रह की धुन में ही रहे तो वह धुन इस जीव को केवल संक्लेश ही करने वाली है। तो यह परिग्रह एक कीचड़ की तरह है। कीचड़ में फंसा हुआ प्राणी जैसे विवश है, उससे निकलना कठिन है, उसी में फंसा हुआ वह प्राणी अपने प्राण गंवा देता है ऐसे ही परिग्रह में फंसा हुआ प्राणी मोक्ष की चेष्टा करे तो वह उसकी अत्यंत मूढ़ता है। परिग्रह रखकर यह मोक्ष कभी संभव नहीं हो सकता। परिग्रह है, विषयभोग है तो यह सब मूर्छा ही तो है। एक तलवार एक म्यान में समाती है, दो तलवार एक म्यान में नहीं समाती, अथवा एक सूई एक एक ही साथ एक ही समय में दो दिशावों में नहीं सिल सकती इसी तरह एक एक उपयोग एक ही समय में दो तरफ नहीं लग सकता। ऐसा नहीं हो सकता कि सांसारिक मौज भी भोगते रहे और मोक्ष मार्ग भी पलता रहे, ये दोनों बातें एक साथ संभव नहीं है। अब यह विवेक कर लो कि दो बातों में हमारे लिए हितकारी और उपयोगी कौनसी बात है? विषयकषायों में ही अपना उपयोग बसा रहे तो इससे अपना क्या हित होगा? उनसे हटकर एक इस ज्ञान मात्र निज अंतस्तत्त्व में अपना उपयोग बसा रहे तो यह हितकारी है। धर्म ही इस जीव का रक्षक है, अन्य तो सब धोखा है। यहाँ की सर्व प्राप्त सब चीजों का वियोग अवश्य होगा। तो यह सब परिग्रह का संपर्क इस जीव को क्लेश का ही कारण बनता है।