वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 53
From जैनकोष
संकल्पात्कृतकारित-मननाद्योगत्रयस्य चरसत्वान् ।
न हिनस्ति यत्तदाहु:, स्थूलवधाद्विरमणं निपुणा: ।। 53 ।।
संकल्पपूर्वक मन, वचन, काय के करने से, कराने से, अनुमोदना से त्रस जीवों का घात न होना सो यह अहिंसाणुव्रत है । स्थूल हिंसा से विरक्त होना अहिंसाणुव्रत कहलाता है । न तो खुद करता है हिंसा, न दूसरों से कराता है और न करते हुए की अनुमोदना करता है । मान लो कहीं कोई सांप निकला उसको किसीने मार डाला तो वहाँ तमाशा देखने वालों की भीड़ लग जाती है । अनेक लोग उस मारने वाले को शाबाशी भी देते है । तो देखो ऐसे लोगों ने हिंसा का पाप बांध लिया । करना, कराना और अनुमोदना करना इनमें पाप लगता है । तो मन से, वचन से, काय से और कृतकारित अनुमोदना से, नवकोटि से हिंसा का त्याग गृहस्थ के होता है । जो पुरुष सम्यग्दर्शन से युक्त है, ज्ञानी है, दयावान है, हिंसा से भयभीत है । हिंसा के त्याग के सम्मुख हैं । ऐसे ज्ञानी गृहस्थ के चूँकि गृहस्थी में रह रहा है सो एकेंद्रिय जीव की हिंसा तो उनसे टल नहीं पाती । अनेकों बार खान से मिट्टी लानी पड़ती है । पहले जमाने में चौका पोतने के लिए लोग सफेद मिट्टी लाकर चौका पोता करते थे । आजकल तो कलई चल गई । तो सभी को खान से मिट्टी खोदकर लाना पड़ता था । तो वह पृथ्वीकाय की हिंसा ही तो हुई । ऊपर की पड़ी हुई धूल मिट्टी तो अजीव है और खोदकर जो मिट्टी निकाली जाती है वहाँ पृथ्वीकाय का जीव है एकेंद्रिय में । उस हिंसा को गृहस्थ कैसे टालेगा? अग्नि भी जलायगा, हवा भी करता है, और फल साग वगैरह भी बिनारेगा । तो उसके एकेंद्रिय की हिंसा नहीं टल पाती । इसलिए बताया है त्रसहिंसा को त्याग, वृथा थावर न संघारे । त्रस जीवों की हिंसा का त्याग करके स्थावर जीवों का भी संहार न करे, यह सद्गृहस्थ का अहिंसाणुव्रत है । तो छहकाय के जीवों की हिंसा गृहत्यागी मुनिवरों के पलती है, क्योंकि वहाँ प्रत्याख्यानावरण कषाय भी न रही इसलिए सबसे ममता छूट गई । गृहस्थ के नहीं छूट पाती । उनके प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय चल रहा है । तो गृहस्थ के त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा का त्याग रहता है । दयालु होता है गृहस्थ । जीव दया गृहस्थ का मूल गुण बताया गया है सो वह गृहस्थ अपने परिणाम से मारने का संकल्प नहीं करता और संकल्प से त्रस जीवों का घात न करता है, न कराता है, उन उसकी प्रशंसा करता है । ऐसा उसका सर्व जीवों में विश्वास रूप परिणाम रहता है ।
सहज ज्ञानस्वभाव की दृष्टि की कला का प्रताप―भैया, सारी करामात है उस कला की जिस कला से भव्य आत्मा ने अपने सहज आत्मस्वरूप का अनुभव कर लिया है । अज्ञानीजनों को तो इसमें आश्चर्य होता कि कोई छोटा बालक घर त्याग दे । साधु हो जाय या कोई छोटी उम्र का युवक, वह भी सन्यास धारण करले तो लोगों को ऐसा लगता कि कहीं इसका दिमाग तो नहीं खराब हो गया । उन्हें आश्चर्य होता, किंतु जिन्होंने अपने सहज अनादि अनंत चैतन्य प्रतिभासमात्र स्वरूप को पहिचान लिया और दृढ़ता से समझ लिया कि मैं यह हूँ और इस चैतन्य की जो सहज वृत्ति है बस वही मेरा कार्य है और उस चैतन्य की सहज वृत्ति में जो सहज आनंद जगता है बस वही उसका अनुभव और भोगना है । इसके निर्णय सिवाय अन्य जगह मेरा कुछ संबंध ही नहीं है । यह बात जिसके उपयोग में दृढ़ता से बैठी हुई है उसके लिए सन्यास लेना, सर्व त्याग कर देना कोई आश्चर्य की बात ही नहीं है । ऐसा तो होता ही है तो यही बात सद्गृहस्थ ने पायी मगर कुछ विपाक ऐसा चल रहा है, पूर्वबद्ध कर्म का उदय चल रहा है कि वह गृहत्याग करने में समर्थ नहीं है । पर घर में रहने की आसक्ति भी नहीं है । वह सद्गृहस्थ त्रस जीवों की हिंसा का त्याग करता है और यही उसका अहिंसाणुव्रत है ।
सद्गृहस्थ के संकल्पी हिंसा का त्याग―सम्यग्दृष्टि गृहस्थ घर में रहता हुआ किस प्रकार के परिणाम से रहता है । अहिंसाणुव्रत के प्रसंग में इस संबंध की वार्ता चल रही है । चूँकि इस गृहस्थ ने अपने आत्मस्वरूप को पहिचाना है और ऐसा ही आत्मस्वरूप सब जीवों में होता है अत: सबके प्रति मैत्रीभाव हो जाता है । किसी भी जीव को दुःख न हो ऐसी अभिलाषा को मैत्री कहते हैं । जब मैत्रीभाव है तो किसी जीव को मारने का संकल्प कभी हो ही नहीं सकता है । अहिंसाणुव्रत का पालक यह गृहस्थ भी उसको मारने का संकल्प नहीं रखता, जो दुष्ट हो, वैर, ईर्ष्या आदिक के कारण इसको मारने वाला हो या आजीविकापन में बाधा डालता हो, ऐसे पुरुष को मारने का भी इसके भाव नहीं रहता । वह चल रही है ज्ञानी गृहस्थ की बात । हां यदि कोई प्राण लेने ही आ गया है और एकदम सारा सर्वस्व लूटने ही आ गया है तो इसके विरोधी हिंसा का त्याग नहीं है । इसके ऐसी चेष्टा हो जाती है कि शस्त्र आदिक हो तो उससे उसका मुकाबला कर उसका निवारण करता है और उस निवारण करने में यदि आक्रामक की जान भी चली जाय तो भी वहाँ संकल्पी हिंसा नहीं होती । मैं इरादा करके किसी को मारूँ, ऐसे भाव से नहीं मारा, किंतु बचाव में ऐसी चेष्टा हुई है । संकल्प से तो आक्रामक को भी मारना नहीं चाहता । यह सद्गृहस्थ कोई बहुत धन दे कि तुम इस कीड़ी को मार दो मैं तुम को इतने हजार रुपये इनाम दूंगा, तो भी उस कीड़ी को मारने का संकल्प उसके नहीं होता । उसने जाना है कि सर्व संसार असार है । यहाँ तो गुजारा ही करने के लिए गृहस्थी में रह रहे है । मुख्य उद्देश्य तो धर्मपालन है, ऐसा जिसका लक्ष्य बन गया है वह ऐसी खोटी प्रवृत्तियां नहीं कर सकता ।
कठिन परिस्थितियों में भी सद्गृहस्थ के संकल्पी हिंसा के त्याग की अविचलितता―देखिये अच्छे कुल में उत्पन्न हुए है, बड़ा अच्छा शासन भी मिला है, समागम भी ठीक है । इस भव में ऐसा दृढ़ निर्णय बना लीजिए कि मेरे परिणामों में धर्मधारण बने, इस ही में मेरा उत्थान है, कल्याण है और इस भव का प्रयोग धर्मपालन के लिए ही करें । यह वैभव नहीं रहने का । जीवन में ही भरोसा नहीं । मरने पर तो स्पष्ट जाहिर है कि कुछ साथ नहीं जाता । और जो सत् है वह कभी नष्ट होता नहीं । तो मैं रहूंगा आगे तो आगे की भी सुध लीजिए कि मेरा भविष्य कैसा रहे । उसके लिए कर्तव्य है कि अपने आप स्वरूप में अपने की रमाकर संतोष करने की कोशिश कर लीजिए अन्यथा इस भव में भी दुःखी रहेंगे और आगे भी दुःखी रहेंगे । ज्ञानी गृहस्थ जिसने अपने आत्मस्वरूप का परिचय पाया है वह किसी भी जीव को मारने का संकल्प नहीं करता । कभी ऐसी परिस्थिति आये या कोई बताये कि तुम्हारे यह कठिन रोग हो गया है तुम अमुक जीव को मारकर अपना रोग और आपत्ति दूर सकते हो? जैसे कि अनेक लोग देवी देवतावों की मनौती करके जीव हत्या करते हैं, तो इस तरह का कार्य ज्ञानी जीव नहीं करता । जो अज्ञानीजन है, जिन्हें वस्तुस्वरूप का कुछ पता ही नहीं है वे ही ऐसे हिंसात्मक कार्य करते है ।
वस्तु स्वरूप का ज्ञान होने पर हिंसा परिहार का सुगम निर्वाह―प्रत्येक वस्तु स्वतंत्र सत् है, जब हर एक का अस्तित्व उस ही में है, प्रत्येक में वस्तुत्व है, प्रत्येक-पदार्थ अपने ही रूप से रहते हैं दूसरे रूप से नहीं, अपने में ही परिणमते हैं दूसरे रूप से नहीं जब ऐसा अस्तित्व सबका परस्पर भिन्न-भिन्न ही है तो एक दूसरे का क्या रहेगा? रही अपने आपके आत्मा की बात, तो जैसे यह भाव करता है वैसा कर्मबंध होता है, वैसा ही उदय होगा, वैसी ही घटना बनेगी । तो हमारा सब कुछ हमारे भावों पर निर्भर है, दूसरों पर निर्भर नहीं है । सत्यस्वरूप जानकर अपने आत्मा की करुणा की जाय तो इसमें कल्याण है अन्यथा जीवन तो सबका ही चलता है । जैसे पशुपक्षी जी रहे वैसे ही ये मनुष्य भी जी रहे । आज जो लोक में अपनी प्रशंसा और नामवरी की बात सोची जा रही है वहतो सब मायारूप है और सब स्वार्थवश है, ये सब मिट जाने वाले हैं, इनमें चित्त न दीजिए । चित्त दीजिए धर्मपालन में । और चूँकि गृहस्थी आजीविका बिना नहीं चलती तो यथोचित न्यायनीति से आजीविका करें, फिर जो कुछ होगा, प्रशंसा हो, नाम हो, जो कुछ भी हो, होता रहे, उससे आत्मा का कुछ उत्थान नहीं । यह निर्णय बनाये रहे । भले ढंग से चलेंगे तो आप ही का भला है, बुरे ढंग से चलेंगे तो खुद का ही बुरा है । तो यह ज्ञानी गृहस्थ किसी भी स्थिति में लोभवश किसी भी त्रस जीव का घात नहीं करता । देखिये―ज्ञानी गृहस्थ का परिणाम, घर में रह रहा है तो आरंभ सब करना ही पड़ता है, आरंभ किए बिना गुजारा तो नहीं चलने का । मगर उस आरंभ में भी जीव दया के भाव से सही प्रवृत्ति रखता है और किसी भी प्रसंग में आकर जीवघात नहीं करता ।
सद्गृहस्थ का यत्नाचार पूर्वक आरंभादिक में प्रवर्तन―देखिये घर में आरंभ रोज करना पड़ता है, चूल्हा जलाना, चक्की पीसना, झाडूगोहारी करना, पानी भरना आदि तो वहाँ भी जीवदया का भाव विशेष रहता है और दयापूर्वक प्रवृत्ति होती है । नौकर रखकर घर में आरंभ के काम करना यह भी प्रमाद है । अगर वे काम खुद करें तो जीवदया पालते हुए तो करेंगे, अन्यथा क्या भरोसा? कितना ही समझा दिया जाय किसी को, पर उसके भावों में दया नहीं है तो वह नौकर घर में आरंभ कार्य करता हुआ क्या जीव दया पालते हुए काम करेगा? अरे उसे तो जल्दी-जल्दी पड़ेगी । तो जहाँ तक हो सके घर के, आरंभ के कार्यों में सेवक, नौकर न रखे जायें । जिससे जैसा बने सो करे मगर गृहस्थ के कर्त्तव्य में बताया कि इन आरंभ के कामों को खुद कर लें, नौकरों से न करायें, क्योंकि खुद करेंगे तो जीव दया पालते हुए करेंगे, और इसके अतिरिक्त घर के अंदर नौकरों के रहने से अनेक आपत्तियां भी आती हैं । कभी कुछ चोरी भी हो जाती है तो जीव दया की दृष्टि से चित्त में यह भाव रहना चाहिए कि अधिक से अधिक आवश्यक हो तो सेवक रखे जाये अन्यथा ये सब काम हमारे मिलजुलकर करने के है ताकि जीवदया पले । ये तो आजीविका से संबंधित कुछ आरंभ कार्य नित्य के है, पर बीच में अनेक आरंभ और भी आ जाते है । जैसे पुत्र अथवा पुत्री का विवाह करना, मकान बनवाना, लीपना पोतना आदिक काम भी कभी-कभी आते हैं, कभी रात को भी चलना होता है, कभी बर्तन, काठ आदिक के धरने, उठाने, सेज बिछाने आदिक के कितने ही काम और भी करने पड़ते हैं, उनमें भी अपना यत्नाचार सही रहे जीव दया का भाव रहे । जीव-जीव सब समान हैं, यह बात चित्त में आ जाय तो सब आसान है । तो जितने भी कार्य गृहस्थ के घर में रहकर करने पड़ते, कभी पंगत करना, प्रीतिभोज करना, गाड़ी पर सामान लादना, गाड़ी या घोड़े पर चढ़कर चलना, गाय भैंस आदिक रखना, कितने ही काम करने पड़ते है किंतु गृहस्थ में एक कला आयी है कि सब जीवों में चैतन्यस्वरूप को निहारता रहता है । इस नाते से उसके लिए सब जीव अपने कुटुंब के बराबर हो जाते है । कितने ही आरंभ कार्य करने होते तो त्रस हिंसा की वहाँ भी संभावना तो हो सकती मगर संकल्प में नहीं है त्रसघात । जब कोई मंदिर बनवायगा तो आखिर आरंभ तो होगा ही । अनेक चीजों के धरने उठाने में अनेक जीवों की हिंसा भी संभव है, मगर संकल्पी हिंसा का पूर्णतया त्याग है, तो वहाँ भी वह यत्नाचार करेगा, पानी छानकर इसमें काम आये, गारा बने, वहाँ पर भी वह दृष्टि रखता है, सो कहते है कि इस गृहस्थ का परिणाम जीवों को मारने का नहीं है, और जितने भी आरंभ करता है घर के, आजीविका के, धर्म साधना के उनमें जीवों के मारने का तो प्रयोजन है ही नहीं और न आलस्य है । न प्रमाद है कि किसी जीव का घात हो ।
गृहस्थधर्म की धर्मसाधना में उपयोगिता―देखिये―गृहस्थ धर्म भी एक धर्म है, जिसकी साधना में यह जीव अपना मार्ग बना लेता है । पर वे और उस धर्म का आधार है आत्मस्वरूप का अनुभव । परभाव सब उसे असार दिख रहा । कोई समागम सारभूत नहीं है सब इस भगवान आत्मा का घात करने वाले है । यहाँ जो भी इष्ट समागम मिले हैं राग की अनेक बातें मिली है । तो उनको पाकर यह जीव खुश हो रहा है, मगर वह खुशी तो एक आग की तरह है जिससे कि इस भगवान आत्मा का यह चैतन्यप्राण जल रहा है । कभी अनिष्ट समागम मिल गए तो खेद मानता है, वह तो आग जंचती ही है । बाह्य पदार्थो का लगाव इस भगवान आत्मा पर प्रहार करनेवाला है । समता परिणाम हो तो आत्मा की रक्षा है । देखिये―काम सब करने पड़ रहे है यह स्थिति होती है गृहस्थ की पर वहाँ भी अपनी सुध रहे । कोई अपनी धर्मसाधना में रहे उसके प्रति यदि कोई कहे कि आत्मा में ही रमे तो जनता का, देश का कैसे उपकार होगा । जनता का उपकार करने के लिए प्रयत्न करना ही चाहिए । सो सुनिये जब घर में, समाज में कोई रह रहा इसलिए बहुत सी बातें करने में आती ही हैं । पर एक बात यहाँ यह देखिये कि जनता का उपकार कोई कितना ही करना चाहे पर उसके चाहने से जनता का उपकार हो ही जाय सो बात नहीं, सामर्थ्य भी तो होनी चाहिए कि उसकी सहज चेष्टा से जनता का उपकार हो ही जाय । तो ऐसी सामर्थ्य उस जीव में आयगी जिसको आत्मस्वरूप का परिचय होने से धर्म की धुन लगी है और वहाँ पुण्यरस बढ़ रहा हे । उसमें ही वह बल आयगा कि जिसका सहज चेष्टा से लोगों का उपकार होगा । और फिर परख भी लो कि जनता के उपकार के लिए ही जो जीवन समझता है उसके तो मिथ्याभाव है । यह मनुष्य जीवन आत्मा के सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र के पालन के लिए है । जरा लंबे काल पर दृष्टि डालो और विस्तृत लोक पर दृष्टि डालो जीव का सब कुछ उनके कर्मानुसार होता है । पुण्य हो उसमें कुछ भी सहायक हो जाता है । अगर इस मायामयी दुनिया के ख्याल में ही रहे और आत्मा की दृष्टि भूल गए तो भविष्य में आत्मा का क्या गुजरेगा वह भी तो ध्यान में लें ।
सहज परमात्मतत्त्व के दर्शन में ही शांति की संभवता―भैया ! खूब निर्णय कर लें, शांति कहां मिलेगी? धन खूब बढ़ जाय तो शांति मिल जायगी क्या? इसको धनिक लोग खुद अनुभव कर रहे होंगे । धन जितना-जितना बढ़ा, उतना-उतना शांति से हाथ धोया । दुनिया में नाम कीर्ति बढ़ जायगी तो शांति मिल जायगी क्या? अरे आज के जो नेता लोग हैं वे ही जानते होंगे कि शांति मिलनी तो दूर रही, बल्कि अशांति और भी बढ़ गई । जगत का कौनसा समागम ऐसा है जिसमें आत्मा को शांति मिल सकती हो? खूब सोचिये कि आत्मा का परिचय हो गया, समस्त जगत से निराला, समस्त परभावों से निराला अपने आत्मा का परिचय मिल गया, अनुभव बना है ज्ञानानुभव हुआ है, एक आत्मीय सहज आनंद जगा है तो उसके लिए यदि धनी की स्थिति मिलती है तो वहाँ भी शांति, निर्धन की स्थिति मिलती है तो वहाँ भी शांति । बड़ा नाम फैल रहा है उस स्थिति में भी शांति अथवा कोई नहीं पूछ रहा है तो वहाँ भी शांति । तो शांति का आधार और कोई बाहरी बात नहीं है, किंतु स्वच्छ चेतनामात्र भगवत्स्वरूप सर्व ऋद्धि का स्थान परमपवित्र निज में बसे हुए सहज परमात्मा का दर्शन है । यह बात जिसे मिली वह सब स्थितियों में खुश रहता है । और आत्मस्वरूप का अनुभव जिसे नहीं हो पाया वह चाहे राजा बने, धनी बने, बड़ा यशस्वी बने, कैसी भी स्थिति पाये, पर उसको शांति नहीं है ।
पारमार्थिक आनंद पाने के उपाय के प्रयोग की आवश्यकता―भैया, एक वर्तमान का ही आनंद ले लो । यदि भविष्य के बारे में क्या होगा क्या न होगा ऐसा विकल्प चलता है तो बतलावो वर्तमान में आप आनंद चाहते हैं या नहीं । यदि चाहते है तो फिर वर्तमान का ही आनंद लूट लो । अब यथार्थ पहिचान कर लीजिए कि वर्तमान का आनंद हमें कैसे मिलेगा? जो कार्य लोग करते हैं विषय सेवन के, कषायों के या और-और भी आरंभ की अनेक बातें तो उन सबके करते हुए उनको आनंद मिला है क्या? मात्र मोहियों ने माना है कि आनंद, पर वास्तविक आनंद तो वह है कि जिसकी बदल न हो, और जिसके बाद फिर कष्ट न हो । यहाँ दो बातें समझ लीजिए संसार के सुख दुःख की बदली चला करती है । किसी को सुख मिला है तो सुख ही सुख रहेगा सो बात नहीं, अथवा दुख ही दुःख मिला है सो वह वैसा ही रहे सो बात नहीं । दुःख की बात तो बराबर है संसार में । वास्तव में तो आनंद नहीं है इन सब लगावो में और फिर जो कल्पित सुख मिला है वह विनश्वर है । प्रयोग कर के देख लीजिए । बाहरी पदार्थो में राग करके, प्रेम करके, आग्रह करके हम आनंद पाते हैं या बाहर की दुनिया को भूलकर केवल अपने में ज्ञानमात्र अमूर्त एक प्रकाशमान अपने आपको अनुभवने में आनंद मिलता है । प्रयोग कर के देख लीजिए―ऐसे बाहर में प्रयोग करते कि अमुक चीज के खाने में सुख है या इसके खाने में सुख है? दोनों का स्वाद लेकर जाना जाता है कि अधिक स्वाद इसमें है । ऐसे ही प्रयोग करके तो देखो अगर दो मिनट को समस्त जगत के विकल्प छोड़कर और एक अपने आत्मा में बस गए तो आपका यह घर न मिट जायगा, यह गिर न पड़ेगा, कुटुंब के लोग कहीं भाग न जायेंगे । आपकी यह जायदाद कहीं खिसक न जायगी । वह सब आपको मिलेगा, उसमें घबड़ाने की बात ही नही है, पर प्रयोग करके तो देखिये । बाहरी पदार्थों के लगाव का प्रयोग अनादि से हम करते आये हैं । एक ऐसा भी तो दिल बनायें कि सारा जगत मायारूप है और उससे कुछ मिलता नहीं है मुझे । मरण समय तो एकदम स्पष्ट ही जान रहे हैं कि कुछ नहीं रहना है । जिनको मानते हैं कि यह मेरा पुत्र है, अमुक है, वे भी उतना ही भिन्न है जितना कि जगत के पशु पक्षी आदिक अन्य जीव भिन्न हैं । रंच संबंध नहीं है, वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है । तो जब सब मायामय है, असार है, मेरे हित का साधन नहीं है तो एक बार इन सबका विकल्प छोड़कर एक बड़े विश्राम के साथ बैठ जायें और ऐसे सत्य का आग्रह करें कि मैं तो बस सबका विकल्प छोड़कर बैठ गया । अपने आप ही सहज मुझे अपने में बसे हुए स्वरूप के भगवान के दर्शन मिलें तो मिलें, बस अन्य का विकल्प न करें । ऐसी बड़ी दृढ़ता के साथ परम विश्राम कर के तो रहें । अपने आपका भी अनुभव कर लीजिए फिर देखिये कि अपने सहज स्वरूप के अनुभव का आनंद मिलता है या नहीं । मिलेगा आनंद और इस आनंद की स्थिरता रहेगी ।
अपने स्वतंत्र अस्तित्त्व के आदर का परिणाम―देखिये जब कई चीजें मिली हुई होती है, तो बताओ उनका मिलाना सरल है कि अलग करना सरल है? लोग तो कहेंगे कि मिलाना सरल है पर परमार्थ से उत्तर यह है कि अलग होना सरल है । क्योंकि स्वरूप तो प्रत्येक पदार्थ का स्वतंत्र-स्वतंत्र है । पदार्थों में कहीं ऐसी बात नहीं पड़ी है कि चुंबक की तरह वे सबको चिपकाते फिरते हैं । सब पदार्थ अपने-अपने में ही सत् रहते है । तो प्रत्येक पदार्थ का अलग होना सरल है और मिलना-जुलना यह कठिन है । मिलने से उन्हें पराधीनता है, अनेक अपेक्षायें हैं । इसे जानें युक्ति से । जैसे हम आप सब जीव बैठे हैं तो ये शरीर, कर्म और जीव इन तीन के पिंडोला हैं, तीनों मिले जुले हैं फिर भी शरीर, कर्म और जीव इन तीनों की सत्ता तो न्यारी ही है । ये इस समय एक जगह रहकर भी अपने स्वरूप में अपना-अपना ही अस्तित्व रख रहे है । तो यह मिलन हो रहा है एक बनावट के कारण । जो भावों में बनावट चलती, राग, द्वेष, मोह, होते इस बनावट के कारण इनका मेल चल रहा है । पर यह बनावट का श्रम न किया जाय और जैसा उसका सहज स्वरूप है उसी प्रकार रहे तो वे सब बड़ी आसानी से विघट जायेंगे । मिलावट में तो एक कष्ट करना पड़ता है, इसका रागद्वेष मोह का कष्ट भोगना पड़ता है तब यह मिलावट चल रही है । तो जैसा मैं हूँ वैसा ही अपने उपयोग में रह जाऊं तो ये सब बिखर जायेंगे । तो बिखरा रहना, जुदा रहना यह वस्तु का स्वरूप है, मिलावट होना यह वस्तु का स्वरूप नहीं । प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने स्वरूप में सत्व रखे हुए है । तो यों समझिये कि जैसे किसी किवाड़ में एक स्प्रिंग लगा दी जाती कि वह अपने आप बंद है और जब तक हाथ से पकड़कर खींचे रहेंगे तब तक वह खुला है । जब तक परिश्रम कर रहे, कष्ट कर रहे तब तक वह खुला है, परिश्रम छोड़ दिया जाय तो वह बंद हो गया, ऐसे ही तब तक वह दु:ख है, कष्ट है, आकुलता है, संक्लेश है, बनावट है, विकार है जब तक यह जबरदस्ती का मिलावट है और हम शांत हो जायें, श्रम छोड़ दें, सहज ज्ञाताद्रष्टा रहें तो अलग रहना यह तो वस्तु का स्वरूप ही है, मेरा अस्तित्व मेरे में ही है । वह मैं अकेला रह जाऊंगा, तो जब मैं अकेला रह जाऊंगा उस समय निरंतर आनंद ही आनंद मेरे में चलता रहेगा । जब तक मिलावट है तब तक कष्ट चलता है और अकेला रह जाऊं तो वहाँ सहज आनंद ही जगेगा ।
अत्यंत अकेले रहने की स्थिति का महत्त्व―अब बोलो अन्य सबसे अपना अलग हो जाना, सिद्ध भगवान हो जाना यह आपको इष्ट है या नहीं? अगर नहीं है इष्ट तो फिर मंदिर किसलिए आते? यहाँ आकर यदि यह भावना नहीं बनती कि प्रभु मुझे तो सिद्ध होना है, सिद्ध होने से पहले तो ये जगत के सारे संकट हैं । मेरे को वह दशा चाहिए कि जो मैं अपने अस्तित्व में हूँ उस ही अस्तित्वमात्र रह जाऊं । मैं तो अकेला ही रहना चाहता हूँ, और इस अकेलेपन में इस सिद्ध होने की स्थिति में बस पूर्ण पवित्रता है धर्मादिक द्रव्यों की तरह । अनंत काल के लिए यह पवित्र ही रहेगा । तो जब अनंतकाल तक मैं पवित्र ही रहूंगा, विकार से जुदा हो जाऊंगा, केवल ज्ञातादृष्टा रहूंगा तो एक दो मिनट को तो उस ध्यान और समाधि में एकाकीपन से क्यों घबड़ाये? वह अकेलापन मुझे अनंतकाल तक रहेगा और अनंतकाल तक रहूंगा, सिद्ध भगवंत होऊंगा तो फिर आज इस थोड़े से समय में अपने की अकेला अनुभव करने में क्यों घबड़ाये? अपने में अपने को बस चैतन्यस्वरूपमात्र अकेला ही अनुभव करियेगा । ऐसा जिसने अपने चैतन्यस्वरूप का परिचय पाया है वह ज्ञानी गृहस्थ परिस्थितिवश रह रहा है गृहस्थी में मगर वह किसी से मोह नहीं करता और प्रवृत्ति करनी पड़ती है । तो जीवदया से भरपूर होकर समस्त हिसाबों को टालकर अपनी चर्या बनाता है यह है सम्यग्दृष्टि गृहस्थ की चर्या ।
अहिंसा की धर्ममूर्तिता―धर्म एक अहिंसा है । अहिंसा का अर्थ है अपने परिणामों में विकार न आने देना । हिंसा का अर्थ है अपने परिणामों में विकार आ जाना । अन्यथा एक समस्या सामने आती है । इस लोक में सब जगह जीव ठसाठस भरे है । जहाँ हम जानते है कि यह पोल है कुछ नहीं दिखता वहाँ पर भी अनंतानंत सूक्ष्म जीव भरे हैं । और फिर जितने आश्रय हैं वहाँ जीव हैं । और की तो बात क्या, अपना जो एक स्वयं शरीर है जिसमें बंधे पड़े हैं, इस शरीर में ही अनेक जीव भरे पड़े हैं । मालिक तो मैं एक जीव हूँ पर इसमें कोई त्रस, कोई स्थावर आदिक अनेक जीव भरे पड़े हैं । अगर बैठें तो जीव दब जायेंगे । जो इस शरीर में पड़े है वे मर जायेंगे! तो हिंसा हो जायगी ना? तब फिर कोई मुनि हिंसा से न बच सकेगा । उपवास किया तो चूँकि पेट में बहुत कीड़े ऐसे है कि जो आहार बिना नहीं रह सकते, उनको तो तकलीफ होगी । फिर तो उपवास करने से कितने ही जीवों की हिंसा हो जायगी । फिर कहां पली अहिंसा? तो ऐसी शंका करने वालों के लिए उसका उत्तर एक ही है । अपने चित्त में विकार आयें तब तो हिंसा है । जैसे मुनि महाराज चार हाथ आगे जमीन देखकर ईर्या समिति से विहार करते हैं और बड़े यत्न सहित विहार करते हुए भी कोई छोटा जीव पैर तले आ गया । मर गया तो उससे हिंसा तो नहीं बतलाया मुनि को । तो क्यों नहीं बतलाया कि मुनि के हृदय में विकार न था, कोई संकल्प न था, प्रमाद न था इसलिए हिंसा न रही ।
गृहस्थ की क्रियावों की यत्नाचार सहितता―गृहस्थ भी यत्नाचार पूर्वक आरंभ का कार्य करते हैं जैसे दिन में ही झाडू बोहारी करना, बर्तन धोना, भोजन बनाना, पानी भरना आदि । तो इन सब क्रियावों को यत्नपूर्वक गृहस्थ कर रहा है और उस यत्नपूर्वक करते हुए में कोई जीव आ गया तो भी उसके संकल्पी हिंसा न रहीं । चूंकि आरंभ करना स्वयं हिंसा है तो आरंभी हिंसा का तो त्यागी नहीं होता गृहस्थ, परसंकल्पी हिंसा गृहस्थ के नहीं लगती आरंभ करने में, रोजिगार करने में । हां प्रमाद से करे और मरते हैं तो मरने दो, ऐसी भी चित्त में बात आये तो उसे हिंसा हो जायगी । गृहस्थ की सारी क्रियायें यत्नाचार सहित है । ईंधन अग्नि में डालेगा गृहस्थ तो देखभालकर, धुनी न हो । कोई जीव जंतु न हो, कितने ही लोग शोध के भ्रम में आकर लकड़ियों को धोकर जलाते, इसलिए कि हमारे शोध में फर्क न आये । यह तो उनकी एक ज्यादती है पर यह जरूर देखना चाहिए कि ईंधन धुना हुआ न हो, जीवजंतु न हो, हिंसा न हो । ओखली में कूटना पड़े तो उसे साफ करना, जो अनाज पीसना हो उसे शोधना, पीसने झाड़ने आदि के काम दिन में देखभाल कर करना । कहीं जीव की विराधना न हो जाय, यह बात उसके चित्त में बसी हुई है, इस कारण उसके संकल्पी हिंसा नहीं हैं ।
प्रत्येक ज्ञानी श्रावक की स्वयोग्य चर्या―देखिये श्रावका व्रत, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये चारों पाल सकते है । इन चारों के 5 गुणस्थान हो सकते हैं । तो ये चारों के काम जुदे हैं । जब यह वर्ण व्यवस्था हुई तो इन कायों के आधार पर हुई । आज उनके कार्य उनके पास न रहे, ब्राह्मण है तो वे भी दुकान धंधा करते हैं, वैश्य है तो वे भी उपदेश, भाषण करते, कोई सैनिक भी बन गया । क्षत्रिय भी अन्य-अन्य काम करने लगे, पर प्रारंभ में सबकी व्यवस्था यही थी कि क्षत्रिय लोग रक्षा का कार्य करें उनके हाथ में शस्त्र होते थे, दुष्टों से धर्मात्मावों को बचाया करते थे ब्राह्मण लोग शिक्षा देने, धार्मिक विधि विधान कराने, धर्मोपदेश देने आदि के कार्य करते थे । उस समय प्राय: सभी लोग जैन शासन के भक्त थे और उन्हीं जैनों के ये चार विभाग थे । वैश्य व्यापार का काम करते थे, खेती का भी और वाणिज्य का भी । और शूद्रजन शिल्पी और सेवा का कार्य करते थे । तो इन कार्यों को करते हुए सभी के सभी संकल्पी हिंसा के त्यागी थे । संक्लेशभाव करके लोभ के वश होकर पापमयी आजीविका का उस समय कोई कार्य न करते थे ।
ज्ञानी श्रावकों की आजीविका में हिंसापरिहारक प्रवृत्ति―आज भी जिनको जैन शासन का श्रद्धान है वे न्यायनीति के विरुद्ध कोई कार्य नहीं करते । जैसे क्षत्रिय कुल का धारक है तो वह दीनों की, अनाथों की रक्षा करता निर्बलों को नहीं सताता, यह बात थी और अब भी हो सकती है । जो शस्त्ररहित पुरुष है उसको क्षत्रिय नहीं मारते । युद्ध में भी जो गिर जाय उसे नहीं मारते, जो पीठ फेरकर दीन होकर प्राण बचाने के लिए भगे, क्षत्रिय उसका पीछा नहीं करता । तो ऐसे कार्य करते हुए भी जैन शासन के भक्त न्यायनीति को नहीं छोड़ते । किसी का धन लूटने के लिए शस्त्र नहीं है, अभिमान या शत्रुता से किसी को मारते न थे क्षत्रिय । देखिये जिसको ज्ञान है और श्रावक है उस क्षत्रिय की बात कही जा रही है । यदि शस्त्र संबंधी सेवा नहीं कर रहे क्षत्रिय, यदि वे प्रजा के स्वामी नहीं है तो बिना काम वे शस्त्र धारण नहीं करते । देखिये शस्त्र धारण करते ही भावों में कुछ खोटापन आ जाता है । हाथ पर बंदूक ले ली जाय तो देखो फिर उस लेने वाले की मुद्रा कैसी बन जाती है । तो जिनको कोई शस्त्र संबंधी काम नहीं सौंपा गया, जो रक्षा के स्वामी नहीं, सेना में नहीं, जो व्यवस्था के जिम्मेदार नहीं वे हाथ में शस्त्र भी न लेते । और जिनके जिम्मे व्यवस्था है वे हाथ में शस्त्र लें तो उनके भाव खोटे नहीं होते, उनके भाव होते अपना कर्त्तव्य निभाने के । तो क्षत्रिय शस्त्रधारी थे तो भी उनके संकल्पी हिंसा का भाव न था और जो वैश्य वर्ण के थे वे कोई स्याही वाला काम करते थे लिखा-पढ़ी का, मुनीमगिरी का । तो उनके छल कपट नहीं था, सही लिखते थे, मालिक को धोखा नहीं देते थे । इस प्रकार सही आजीविका करते थे, क्योंकि उनके चित्त में यह समाया था कि यह जीवन आत्मा का धर्म पालने के लिए है, बाह्य पदार्थों का संग्रह करने के लिए यह जीवन नहीं है । बाह्य पदार्थो का संग्रह करले आखिर छोड़ना तो सब पड़ेगा । इसलिए यह भाव न रहना चाहिए कि मैं इतने धन का स्वामी बन जाऊं । आखिर वह स्वामी बनने से लाभ क्या? समय आयगा, छोड़कर जाना पड़ेगा ।
ज्ञानी श्रावक को कृषि कार्य में भी संकल्पी हिंसा का अभाव―अनेकों बंधु भी जो माली, जाट किसान आदिक कुल में उत्पन्न हुए, जिनके और कोई आजीविका नहीं है, शिल्प नहीं जानते, सेवा की ड्यूटी नहीं कर रहे, खेती करते हैं तो भी खेती में वे जीव दया को नहीं छोड़ते । जो किसान श्रावक है वे खेत को जोतेंगे, कार्य करेंगे पर जितनी खेती का परिमाण है या जितने खेत अपने पास है उनसे अधिक और भी बढ़ाने का परिणाम श्रावक किसान के नहीं होता, और वहाँ भी जितना बन सकता वह घटाने का प्रयत्न करता । वह अपने आपकी निंदा ही करेगा कि मुझे यह कार्य परिस्थितिवश करना पड़ रहा है, इसमें अनेक जीवों का विघात हो जाता है । यद्यपि उन जीवों का घात करने का मन में रंच भी भाव नहीं है तो भी जानकारी तो है ही । तो वहाँ अपने भीतर में निंदा मानता रहता है यह श्रावक किसान खेती में कितना ही जल सींचना पड़ता नहर से, कुवें से तो क्या वह जल छानकर सींचेगा? अरे इस तरह से कहां सींच पायेगा । नहर से नाली निकली है, उससे पानी जा रहा खेतों में, मगर वह अपने पीने के लिए बिना छना एक बूंद भी इस्तेमाल नहीं करता । उस किसान का संकल्पी हिंसा का त्याग रहता है और लोभ के वश किसी ने कहा कि हम तुम को इतने रुपये देंगे तुम वृक्ष की इन डालियों को तोड़ दो तो वह नहीं तोड़ता । हां एक नौकरी हो, मजदूरी हो यह और बात है और एक अनर्थ में पाप करना यह और बात है । ऐसा वह लोभ के वश भी न रहता । तो देखिये उस श्रावक किसान की बात कि खेती करने में जीवघात होता है मगर एक भी जीव के मारने का उसके संकल्प नहीं होता, और वह भीतर तो दया से भरा हुआ है परिस्थिति ऐसी है कि पेट पालना होता है, अन्य कोई आजीविका का कार्य नहीं है तो वह करता है मगर संकल्पी हिंसा उसमें रंच भी नहीं है ।
भावों पर हिंसा अहिंसा का निर्णय―कोई एक धनिक पुरुष जो सोना चांदी की दुकान करता हो और देखने में तो यों लगेगा कि इसमें हिंसा का क्या काम, किंतु भीतर में अगर भाव यह है कि उसमें खोट अधिक मिला दें और यह ऐसा बिक जायगा तो बड़ा नफा होगा । तो देखो उसके भावों में हिंसा हो रही है । वहाँ तो हिंसा हो जायगी और संकल्पी हिंसा भी है कि दूसरे को धोखा देकर धन ऐंठ लूँ, मगर वह किसान श्रावक खेत में इतनी हिंसा होते हुए भी वहाँ संकल्पी हिंसा नहीं चल रही । तो हिंसा और अहिंसा का निर्णय अपने भावों से चलता है, और जिस भाव से चलता है उसके अनुकूल प्रवृत्ति होती है, इसलिए द्रव्य हिंसा के आधार से निर्णय दिया जाता है । जो पुरुष व्यापार का काम करता है वह न्यायपूर्वक व्यापार करता है । लोभ कषाय तो है ही मगर ऐसा तीव्र लोभ नहीं होता कि जो न्यायमार्ग को छोड़ सके । और उस व्यापार में कितनी ही चेष्टायें करे मगर वह सब जगह अपने में निंदा करता कि करना पड़ रहा है, ऐसी परिस्थिति है, पर मेरे करने का काम तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रभाव है । ज्ञानी गृहस्थ वाणिज्य का कार्य करने वाला श्रावक उस वाणिज्य में भी, व्यापार में भी उसको घटाने की बात सोचता है । बढ़ाने की बात नहीं सोचता, क्योंकि उसका चित्त अपने आपके धर्म में है । ऐसे ही जो शिल्पी अर्थात् सेवा करने वाले, शूद्र वर्ण वाले हैं वे भी सर्व कार्य करते हुए भी आरंभविषयक निंदा करते, जिसे लोक में कहते हैं कि करके भी नहीं करते । दयालु भाव में रहते है ये संकल्पी हिंसा नहीं करते । तो तात्पर्य यह है कि जिस मनुष्य को अपने आत्मा का बोध हुआ है और जान गया है कि शांति मिलेगी तो आत्मस्वरूप के अनुभव में मिलेगी, किसी बाह्यपदार्थ के लगाव में शांति न मिलेगी । ऐसे विवेकी पुरुष को जब घर में ही रहना पड़ रहा है तो घर के कामों को करते हुए भी आत्मा की ओर झुका रहता है और कभी संकल्पी हिंसा नहीं करते ।
हिंसा से हिंसक का बिगाड़―हिंसा करने से किसका बिगाड़ है? किसी जीव को मारा, पीड़ा दी, अन्याय किया, दबाव डाला तो ऐसे परिणाम से हिंसा किसकी हुई? जिसने दूसरे को घात, दूसरे को दुःख दिया, दूसरे को दबाया, अन्याय के भाव किया उसने अपने चैतन्यप्राण का घात किया, इससे पापबंध हुआ, उसके उदय में उसको दुःख भोगना पड़ेगा । संसार का सही स्वरूप जानने का यही फल है कि मेरे में दुर्भाव उत्पन्न न हो, किसी भी प्राणी का बिगाड़ करने का भाव न आये ऐसी चर्या होती है अहिंसाणुव्रत में । कषाय और योग के वश द्रव्यप्राण और भावप्राण का घात होना हिंसा है । द्रव्यप्राण तो कहलाते हैं ये ऊपर के इंद्रिय, शरीर, कान, नाक आदिक और भाव प्राण कहलाते हैं―इंद्रिय द्वारा ज्ञान कर रहे ऐसे क्षयोपशम मन, वचन, काय की चेष्टा की शक्ति । ये सब भावप्राण कहलाते हैं । तो दूसरे का भावप्राण बिगाड़ना, द्रव्यप्राण बिगाड़ना यह कषाय और योग से किया गया, तो चूँकि कषाय चित्त में आयी इस लिए हिंसा का पाप लगा । आज जो जीव यहाँ सुखी नजर आ रहे उन्होंने पूर्वभव में किसी जीव को सताया नहीं, सबके सुखी होने की भावना की । उससे जो पुण्य अर्जन हुआ, उसका फल है कि आज सुखसामग्री मिली । और जो लोग आज दुःखी नजर आ रहे हैं उन्होंने किसी अन्य जीव को बाधा दी, दुःखी किया उसका फल है कि आज ये दुःखी नजर आ रहे । किसी एक पुरुष ने हम से एक प्रश्न किया था कि महाराजजी बताओ, लोग तो कहते कि जीवों का घात करना बुरा है मगर देखा तो यह जा रहा है कि ज्यों-ज्यों जीवों का घात किया जा रहा त्यों-त्यों उनकी संख्या में वृद्धि होती जा रही । तो इसमें हम जीवघात को बुरा कैसे कहें? तो वहाँ आधुनिक ढंग का दिलचस्प उत्तर दिया कि भाई जिन्हें वह जीव बनना था वे तो बनेंगे ही, साथ ही जो उन जीवों की हत्या करने वाले हैं, उनके मांस का भक्षण करने वाले हैं, उन्हें नाजायज सताने वाले हैं वे भी मर मरकर वही जीव बन रहे इसलिए उन जीवों की वृद्धि होना स्वाभाविक ही है । उत्तर सुनकर वह चुप रह गया ।
अविकार चित्स्वभाव की दृष्टि करके कषाय से दूर होने में ही कल्याण―भाई सुख का मौलिक उपाय तो है अपने आत्मा के सहज-स्वरूप का ज्ञान, और उस ही आधार पर चूँकि सब जीवों को अपने समान समझ लिया इस कारण किसी जीव को सताने का भाव न होना यह अहिंसा है । जिसने अहिंसाणुव्रत का पालन किया वह श्रावक सद्गति को प्राप्त होता है । धर्ममार्ग को प्राप्त होता है और निकट काल में निर्ग्रंथ दिगंबर होकर वह मुक्त हो जायगा । यह संसार में रहना मौज के लिए न मानें । यहाँ की मौज में क्या रखा? एक कल्पना भर कर ली कि हम बड़े सुख में है । मान लो यह जीवन आत्मा की उपासना के लिए है । सर्व पदार्थों से निराला अमूर्त ज्ञानमात्र यह मैं आत्मा हूँ । मेरा मैं ही जिम्मेदार हूँ । मेरे भविष्य का बताने वाला मैं स्वयं हूँ । जैसे भाव करूंगा वैसा मेरा भविष्य बनेगा । तो अपने में विकारभाव न आने दें वह है अहिंसा और विकारभाव आये तो वह है हिंसा । कषाय जगी तो हिंसा हो गई । किसी के प्रति कषाय मत जगे, क्रोध मत आये, किसी को निरखकर घमंड मत करें, किसी से मायाचार छल कपट यहाँ की वहाँ भिड़ाना। ये सब बातें न करें । इसी को तो कहते हैं दोगला और चौगला । दोगला वाले के तो दो गले समझो, याने एक से कुछ कहा, दूसरे से कुछ कहा, और चौगला वाले के चार गले समझो, एक से कुछ कहा, दूसरे से कुछ कहा, तीसरे से कुछ कहा, चौथे से कुछ कहा यह चौगला कहलाया । चौगला कहो या चुगला कहो एक ही बात है । तो ऐसे चुगलखोर, मायाचारी करने वाला व्यक्ति निरंतर भयशील रहता है अपनी वृत्ति साफ होनी चाहिए । दुनिया में मेरा यश चलेगा या न चलेगा यह कल्पना तो फोकट की बात है । अरे एक अपने चैतन्यकुल को पवित्र बना लीजिए, यहाँ की बाहरी बातों में क्या रखा है? और धर्मबुद्धि से रहेंगे तो बाहरी बातें भी भली ही होंगी । और फिर कोई पाप का ही उदय ऐसा आ जाय कि धर्मभाव करते हुए भी लोक में निंदा चले, अपयश चले तो चलने दो, उसका दया भाव करना? ज्ञानी जीव अपने भावों को नहीं बिगाड़ता । मुख्य उसका यह ही लक्ष्य है ।
हिंसा और अहिंसा का मूल लक्षण―हिंसा और अहिंसा का मूल लक्षण यह है कि जहाँ रागादिक भाव उत्पन्न हों वह तो हिंसा है और रागादिक भाव न उत्पन्न हों तो वह अहिंसा है । अब हिंसा अहिंसा का आपेक्षिक वर्णन भी रागद्वेषवश ऐसी वृत्ति बने कि जीवों का प्राणघात किया तो वह तो बहुत बड़ी तीव्र हिंसा है । और किसी जीव को बचाने का भाव किया, राग हुआ, उसका बचाव बनाया तो इस क्रिया में राग तो हुआ मगर तीव्र राग न होने से वह अहिंसा है और सूक्ष्मरूप से अगर देखें तो इतना भी विकल्प हो तो उसमें अपनी हिंसा है । मगर इसे हिंसा का रूप देने से जो बड़ी हिंसा है उसका तो ख्याल भूल जाता है और स्वच्छंद बन जाता है । इस कारण जीवदया को धर्म कहा है । अगर राग रंच भी न हो, जीवदया तक का भी परिणाम न आये, विकल्प न आये, इतना वीतराग बने कोई तो वहाँ होती है पूर्ण अहिंसा । तो रागद्वेष आत्मा में प्रकट न हो, अबुद्धि पूर्वक जो चल रहे उस पर हमारा क्या वश? कर्म का उदय निरंतर चल रहा है जीव के, पर आश्रयभूत कारण बनेगा तो वह विकार प्रकट होगा और आश्रयभूत कारण न बने तो वे विकार भीतर आये, कर्म का उदय होने से । पर विकार प्रकट नहीं हो सकते । तो इतना उपाय बुद्धिपूर्वक विकार को हटाने में होता है वह अबुद्धिपूर्वक होने वाला विकार खुद हट जायगा और प्रकट हो या अप्रकट हो । सभी विकारों के हटाने का उपाय है आत्मा के सहज चैतन्यस्वरूप में यह मैं हूँ ऐसा अनुभव करना । रागद्वेष न हो ऐसा ज्ञाताद्रष्टा रहने की वृत्ति होना । मैं ज्ञानमात्र हूँ, सबसे निराला हूँ किसी अन्य से मेरा कुछ संबंध नहीं । ऐसे सबसे निराले स्वतंत्र अंतस्तत्व में जिसका उपयोग रमे उसके समाधिभाव से सारे विकार टल जाते हैं।
बुद्धिपूर्वक चेष्टा भावानुसार होने के कारण द्रव्यहिंसा में हिंसा की प्रसिद्धि तथा भाव अशुभ न होने पर अबुद्धिपूर्वक घटना में हिंसा का अप्रभाव―भैया भाव से ही हिंसा है भाव से ही अहिंसा है। इस कारण ईर्यासमिति से चलने वाले मुनि यत्नपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले भव्य के चूँकि रागादिक भावों का आवेश नहीं है इस कारण कदाचित् बाहर किसी जीव का प्राण भी चला गया तो भी उनके हिंसा नहीं होती। ऐसी बात सुनकर कोई यह सोचे कि मैं जीवघात करता रहूंगा और भाव हिंसा करने के न बनाऊंगा तो ऐसा कभी होता है क्या कि वह समझकर जीवघात करे और भावों में रागभाव न आने दे? ऐसा नहीं संभव है इसी कारण बाहरी हिंसा देखकर भावहिंसा का अनुमान बनता है मगर पाप लगा भाव हिंसा से। भाव हिंसा जो नहीं कर रहा। जीव के घात का परिणाम जो नहीं बना रहा उसका हाथ कैसे छूटेगा किसी जीव का घात करने के लिए? तो मूलभाव अंदर का है कि जीवघात करना हिंसा है और अपने ज्ञानमात्र स्वरूप में संतुष्ट रहना, लीन रहना यह अहिंसा है। तो यह सद्गृहस्थ जिसने आत्मस्वरूप का परिचय पाया है उसकी बाह्य प्रवृत्तियां यत्नाचार पूर्वक होती हैं। श्रावक अवस्था में अनेक आरंभ के कार्य करके भी गृहस्थ संकल्पी हिंसा का दोष नहीं करता और अपने हृदय को स्वच्छ रखता। सर्व जीवों के प्रति सुखी होने की भावना निरंतर बनाये रहता। ऐसे सद्गृहस्थ श्रावक के अहिंसाणुव्रत का पालन होता है।
विकार की निवृत्ति में अहिंसाधर्म का पालन―श्रावक के बारह व्रतों में अहिंसाणुव्रत का कथन चल रहा है। अहिंसा नाम है विकार के न होने का। जीव में रागद्वेष काम आदिक कोई विकार हुआ कि वहां हिंसा हो गयी। किसकी हिंसा हो गई? खुद की। तो यदि कोई जीव रागादिक के वश है। प्रमाद सहित प्रवृत्ति करता है। उसका चलना, उठना, बैठना, सोना, उसकी इस प्रवृत्ति में चाहे कोई जीव न भी रहे तो भी उसकी निश्चित हिंसा ही है, क्योंकि परिणामों में विकार है। आत्मा की सुध नहीं, शरीर में ममत्व है इसलिए अयत्नाचार है, उस जीव के हिंसा का बंध आगे-आगे चल रहा है अर्थात् हो रहा है। जो जीव कषाय सहित होगा, विकारभाव करेगा, किसी को मारने का परिणाम करेगा तो पहले तो उसने अपने आपको ही मार लिया, पापबंध किया, अपनी सुध छोड़ी, आकुल व्याकुल हुआ, पश्चात् उस पर जीव की द्रव्य हिंसा हो या न हो, यह तो उसके कर्म के आधीन है, पर बुरा विचारने वाले ने अपने आपकी हिंसा कर ही ली। इससे अपने आप पर एक दया रखें कि किसी जीव के प्रति दुर्भाव न आये। सब जीव सुखी हों, किसी का बुरा न हो, ऐसा परिणाम रखिये अपनी रक्षा है इस परिणाम में। तो यह हिंसा त्यागने योग्य ही है। जैसे अहिंसाणुव्रत में बताया है कि त्रस की हिंसा का तो त्याग करना ही और बिना प्रयोजन स्थावर की हिंसा का भी त्याग करना। यह प्रवृत्ति प्रत्येक गृहस्थ को चाहिए ही। यदि कोई हिंसा का तो त्याग नहीं करता और चाहे कि हमसे हिंसा न हो तो भी उसके भाव में त्याग न होने से निरंतर हिंसा ही चल रही है, क्योंकि कषायभाव बना है और इसी कारण उसके संस्कार में बसा हुआ है। कोईसा भी मौका आ गया तो हिंसा कर सकता है। या न भी करे तो यह दृढ़ता चित्त में क्यों नहीं आती कि जीवों की हिंसा करना खोटी बात है उसका त्याग, नियम, प्रतिज्ञा होनी ही चाहिए। तो संकल्पी हिंसा के त्याग में आपको जीवन में क्या कष्ट पड़ेगा? किसी भी समय कोई दु:ख आ ही नहीं सकता है। तो प्रत्येक गृहस्थ को संकल्पी हिंसा का तो नियम से त्याग करना ही चाहिए । नहीं तो हिंसक की भांति उसके हिंसा का पाप लगता ही रहेगा।
हिंसायतनों से अलग रहने व स्वछंद प्रवृत्ति न करने की शिक्षा―देखिये―वास्तविकता तो यह है कि छोटी हिंसा हो या बड़ी हिंसा हो । कोई भी हिंसा परवस्तु के कारण नहीं होती । होती है अपने परिणाम से । तो भी एक द्रव्य से दूसरे द्रव्य में न भला न बुरा, कोई परिणमन नहीं पहुंचता यह वस्तु का स्वरूप है । और इसी आधार पर देखिये कि जो हिंसा होती है उसका कारण कषायभाव है, परवस्तु के कारण हिंसा नहीं है । फिर भी कोई ऐसा सोचे कि जहाँ चाहे बैठो, उठो, रहो, जब परवस्तु के कारण हिंसा नहीं है तो हथियार लिए रहो, जहाँ हिंसा होती हो ऐसे स्थानपर खड़े रहो या जहाँ चाहे रहो, सो बात न करना चाहिए, क्योंकि ये हिंसा के आयतन है । उनके प्रसंग में रहकर कभी खोटे परिणाम हो सकते है, सो यद्यपि किसी परवस्तु के कारण हिंसा नहीं होती, अपने ही भावों से, कषायों से हिंसा होती । तो भी परिणामों की निर्मलता रखने के लिए हिंसा के साधनों से अलग रहना ही चाहिए । एक बात और भी ध्यान देने लायक है कि कुछ थोड़ा बहुत पढ़ लिखकर मन चले लोग सब कहने लगते कि आत्मा तो अविकार है । वह तो अहिंसा स्वरूप ही है वह तो भगवान रूप है सो मेरे को कभी हिंसा लग ही नहीं सकती । मेरे भाव भी कषाय रहित हैं । सुन रखा है कि जीव का स्वरूप स्वभाव न प्रमत्त है न अप्रमत्त, न कषायसहित है, न कषायरहित है तो कषाय सहित तो स्वरूप है ही नहीं मेरा । मैं कषाय से रहित हूँ, कषाय से दूर हूँ इसलिए मेरे को क्या हिंसा लगेगी? ऐसा जानकर यथेष्ट अपनी प्रवृत्ति करता रहता है । जहाँ चाहे जाता है । तो वह क्या कर रहा है? निश्चय से तो जान नहीं रहा पर मन में सोच रहा कि हम निश्चय का आश्रय कर रहे । निश्चय से तो जीव का स्वभाव है विकाररहित । पर कोई अपनी हालत भी ऐसी मान ले कि मैं विकार रहित हूँ तो यह तो उसकी भूल है । वर्तमान अवस्था तो विकार सहित है मगर मेरा स्वरूप मेरा स्वभाव अविकार है, ऐसा समझना चाहिए था । मगर पर्याय रूप में भी मैं अविकार हूँ ऐसा मानकर जो स्वच्छंद प्रवृत्ति करता है वह तो अपना विनाश कर रहा । चारित्र का विनाश कर रहा तो उसके निरंतर हिंसा ही हो रही । अज्ञान मिथ्यात्व तो उसके बराबर पड़ा हुआ है । यदि परिणाम रागद्वेष रहित हो गया तो फिर अभक्ष्य अयोग्य कार्यों में क्यों लगता? धन परिग्रह आरंभ आदिक में कैसे प्रवृत्ति करता? तो जो हिंसा से विरक्त है वह हिंसा होने के कारणों को दूर से ही छोड़ेगा । तो यह ध्यान देना कि हम अपने परिणामों में हिंसा से विरक्त होना चाहते है । इस समय मैं विकाररहित नहीं हूँ स्वभाव अवश्य मेरा विकाररहित है ।
भाव के आधार पर हिंसा अहिंसा का निर्णय―हिंसा का मूल आधार ये जीव के रागादिक भाव बन रहे है तो उसकी हिंसा है और रागादिक भाव न हों तो वहाँ अहिंसा है । इसी आधार पर देखिये―जगत् में कैसी घटनायें चलती है । कोई पुरुष किसी की हिंसा नहीं कर रहा मगर हिंसा का फल भोग रहा, कर्मबंध हो रहा, इसका उदाहरण―जैसे तलवार बनाने वाले लोहार, उनका काम केवल तलवार बनाना है, वे कहीं किसी को मारने नहीं जाते मगर बनाते हुए में उसकी धार देखते है । हां इससे कट जायगा जीव, इस प्रकार के उसके संकल्प चलते है । तो इस काल आयुध बनाने वालों के निरंतर हिंसा चलती रहती है । और बाहर में किसी की हिंसा वह कर नहीं रहा । स्वयंभूरमण समुद्र में एक बहुत बड़ा मत्स्य रहता है जिसकी लंबाई एक हजार योजन, चौड़ाई 500 योजन और मोटाई 250 योजन है । चार कोश का एक योजन । ऐसी अवगाहना सुनकर अचरज न करें या शंका न रखें, कारण यह है कि आप यहीं देख लों जो छोटी-छोटी तलैया हैं उनमें मछली छोटी होती हैं, जो बड़े तालाब हैं उनमें मत्स्य बड़े मिलते हैं और आज भी जो बड़े समुद्र है उनमें सुना है कि मीलों लंबी मछलियां होती हैं । अब जो स्वयंभूरमण समुद्र इतना बड़ा है कि जितना परिमाण उसका है उतने परिमाण में असंख्यात द्वीप समुद्र आगए । तो इतने बड़े समुद्र में एक मच्छ है, दूसरे वह समूर्छनजन्म वाला है, बड़ा कूड़ा करकट पड़ा है, मिट्टी का ढेर सा लगा है या अन्य वस्तुवें मिली हैं बस वही मच्छरूप परिणम जाता है । इतनी बड़ी अवगाहना का मच्छ स्वयंभूरमण समुद्र में रहता है और वह मुँह बाये पड़ा रहता है, जिसके मुख में हजारों मछलियां आती-जाती रहती हैं किंतु उस महामत्स्य के कान में, आँख में, एक तंदुलमत्स्य रहता है और होते हैं ये सब मन वाले, तो वह विचार करता है कि यह मत्स्य बड़ा मूर्ख है, मुख बाये पड़ा रहता है, इसके मुख में हजारों मछलियां आती जाती रहती हैं तो भी उन्हें यह खाता नहीं है । इसकी जगह पर अगर मैं होता तो इनमें से एक को भी न बचने देता, ऐसा भाव बनाता है । अब देखिये हिंसा तो वह न कर सका किसी भी मछली की मगर महापाप का बंध करता है ।
भावों के आधार पर हिंसा अहिंसा का निर्णय―देखिये यह प्रकरण कई दिन से चल रहा है, इसमें ऊबने की बात यों नहीं कि समस्त धर्मपालन अहिंसा के आधार पर है और अपने को प्रेरणा मिलनी चाहिए कि जब खोटे भाव होने से ही हिंसा होती है और उन खोटे भावों से लाभ कुछ नहीं मिलता, तो उन दुर्भावों से बचना चाहिए । और भी देखिये―दयालु पुरुष अथवा डॉक्टर समझ लीजिए । दयावश होकर दूसरे का आपरेशन कर रहा है, एक जीवन बचाने के लिए सारा प्रयत्न कर रहा है और कदाचित् उसी प्रयत्न में वह रोगी मर जाय जो उस डॉक्टर को किसीने हिंसक नहीं कहा, और गृहस्थजन भी मंदिर बनवाते, अनेक धर्मायतन बनवाते तो आखिर बनवाने में किसी न किसी रूप में हिंसा तो चलती है, कहां तक जीवों को बाधा से बचायें, किंतु वहाँ परिणाम धर्म के है सो उनके करते हुए भी उनके बराबर पुण्यबंध चल रहा, क्योंकि यत्नाचारपूर्वक वे करते हैं । और भावों में केवल प्रभु की भक्ति है । तो भावों के अनुसार देखिये एक को हिंसा हो रही फिर भी हिंसा का बंध नहीं और एक को हिंसा नहीं हो रही फिर भी हिंसा है, पाप लग रहा । और भी देखिये―हिंसा तो करेगा अल्प और रागद्वेष अगर तीव्र है तो उसके उदयकाल में बड़ा फल पायगा । एक तुलना करो । राजा को किसी पर थोड़ा भी क्रोध आये तो वह जज चाहे दो चार तमाचे उसके जड़ सकता है और एक छोटा आदमी किसी कारण से राजा पर बैर बांधने लगे और इस भाव में आये कि मैं इस राजा को कभी मारूं चाहे एक दो ही थप्पड़ मारूं, तो उसको उसके मारने का उपाय बनाने में, संक्लेश करने में कई महीने निकल जाते हैं तब कहीं वह एक दो थप्पड़ मार पाता है । तो यहाँ विचार करो कि पाप का बंध अधिक किसको हुआ? एक थप्पड़ मारने वाले को या बहुत...? राजा ने मानो बहुत पीड़ा दी हो तो भी हृदय में उसके कषाय की मंदता है, उतनी तीव्रता नहीं और एक ने बड़ा तीव्र संक्लेश किया महीनों तब जाकर एक दो थप्पड़ मार सका । तो कोई अल्प हिंसा कर पाता मगर पाप अधिक बांधा । तो बाहरी हिंसा के आधार पर हिंसा का निर्णय नहीं है किंतु उस पुरुष के भावों के आधार पर हिंसा और पापबंध का निर्णय हैं ।
हिंसाफल भोगने की विचित्रता के परिचय से भावहिंसा में ही हिंसापने का निर्णय―ऐसी भी घटना बन जाती कि हिंसा तो कर पायेंगे बाद में और उस हिंसा का फल भोग लेगा पहले ही । जैसे एक मनुष्य किसी को जान से मारने का इरादा किए हुए है उसे महीनों गुजर गए । निरंतर संक्लेश बना हुआ है तो जब से वह हिंसा का भाव कर रहा, पाप बंध तो तब ही से चल रहा है । हिंसा कर पायगा 6 माह बाद और पापबंध किया उसने 6 माह पहले । तो उस एक बंध के थोड़े दिन बाद फल भी मिल सकेगा । तो हिंसा कर सका बाद में और उस हिंसा के भाव के कारण फल भोग लिया उसने पहले । तो भावों से ही हिंसा चली तब ही तो यह घटना बनी । कोई तुरंत उस हिंसा का फल पाता, जैसे किसी को मार रहा और वह भी उसी प्रसंग में मर गया । कोई बाद में फल पाता । किसी को मारा तो उस मारने वाले को किसी दूसरे ने मारा । पर हिंसा सबकी उस ही समय लगती है जिस समय वह खोटे परिणाम करता है । और भी देखिये हिंसा करने वाला तो एक है और फल भोगने वाले अनेक हैं, ऐसी भी घटनायें होती हैं । जैसे किसी चोर को हत्यारे को फांसी दी जा रही है तो फांसी देने वाला तो एक है―चांडाल या फांसी का हुक्म देने वाला राजा और तमाशा देखने वाले सैकड़ों हजारों लोगों की भीड़ लगी है वहाँ यदि उन सबने समर्थन कर दिया तो उन सबने पाप का बंध किया । और कहो हिंसा करने वाले अनेक हैं और फल भोगेगा एक । जैसे एक घटना लो कि राजा ने किसी बड़ी सेना को मारने का हुक्म दिया और सेना भिड़ गई है, सबका सफाया कर रही है । तो देखिये सीधे मारने वाले तो है हजारों लोग मगर उसका पाप मुख्य रूप से लगेगा राजा को, जिसकी आज्ञा से वह हिंसा हुई । यद्यपि मारने वालों के भी जितने अंश में परिणाम थे उतने अंशों में बंध उनके हुआ, पर मुख्यता देखिये―वे सेना के लोग तो अपना कर्तव्य निभा रहे हैं, पर जिसने आर्डर दिया पाप उसको लगा । तो ऐसा चूंकि भावों के आधार पर ही हिंसा है तो उस हिंसा और अहिंसा के विषय में अपेक्षा से निर्णय किया जाता है । पर जो एकांत की हठ करे कि बाहर में किसी की हिंसा हो वहाँ हिंसा है तो वह हिंसा के निर्णय को नहीं पा सकता ।
अहिंसक होने के अभिलाषियों को जीवस्थान आदि के विज्ञान की व तत्त्वज्ञान की अनिवार्य आवश्यकता―जिनको हिंसा से विरक्त होना है, अहिंसक जीवन बनाना है उनका काम है कि तत्त्वज्ञान करें, अपने आत्मा का स्वरूप पहिचाने और इसकी तरह सर्व जीवों का स्वरूप जानें । और कहां-कहां जीव हुआ करते हैं, किस-किस आधार में जीव रहा करते हैं उन जीवसमासों का भी ज्ञान होना चाहिए । कितने ही लोग ऐसा सोचने लगते हैं कि जो जान रहा है कि जीव यहाँ है और वह उसका घात करे । प्रमाद करे तभी तो हिंसा लगनी चाहिए । और जिसको पता ही नहीं है कि जल में जीव है, जल खुद जीव है और वह अनछना जल पिया करे तो उसको हिंसा न लगना चाहिए । कुछ लोग ऐसा सोचते हैं पर बात यों नहीं है । अज्ञान का बड़ा पाप होता है । मिथ्यात्व और अज्ञान ये सहयोगी चीजें है । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन 5 पापों का जो द्रव्य प्रवर्तन है अथवा उनका भाव है उससे भी अधिक मोह पाप मिथ्यात्व का होता है क्योंकि वहाँ आत्मा की सुध नहीं । जीव का ज्ञान नहीं । तो अज्ञान भाव में कोई बच सके पाप से, यह बात नहीं है, किंतु उसके तो निरंतर पाप चल रहा है । बाह्य जीवों की हिंसा करने वाला तो जब हिंसा कर रहा, भाव कर रहा तब ही पाप है, लेकिन जिसके मिथ्यात्व अज्ञान बसा, मिथ्यात्व बसा उसके तो निरंतर पाप का बंध चलता है इसलिए तत्त्वज्ञान करना, जीवों के रहने के स्थान जानना और हिंसा से विरक्त रहना । तो यहाँ यह कहा जा रहा कि त्रस जीवों की हिंसा का त्याग तो पूर्णतया किया जाय, संकल्पी हिंसा का तो पूर्णतया त्याग किया जाय और बिना प्रयोजन स्थावर की हिंसा न करें । ऐसी वृत्ति प्रत्येक गृहस्थ की होनी ही चाहिए और चलने में, उठने बैठने में, प्रवृत्ति करने में दयाभाव रखें तथा यत्नाचार किया जाय ।
साधुता की अतीव मोटी एक पहिचान―साधु लोक में अनेक तरह पाये जाते हैं । जैसे कि लोक व्यवहार में कहा जाता है सन्यासी जन कपड़ा पहिनने वाले अथवा कैसे ही हों, जिन्हें लोग साधु कहते व्यवहार में उन साधुवों की एक मोटी पहिचान बतला रहे कि इनमें थोड़ा बहुत साधुपना है या नहीं मोटी पहिचान यह है कि वे जूता पहने हुए न मिलेंगे । बहुत सीधी पहिचान बतला रहे । आप कहेंगे कि जूते में ही कौनसी बात हो गई? तो देखिये―जूता पहिनने वाले सन्यासी जन देख भालकर न चलेंगे । जीवों की रक्षा करते हुए न चलेंगे, उनके परिणाम इस ओर न आयेंगे और एक अभिमान भाव रहेगा, ऊंची दृष्टि करके चलेंगे, और आप सब जगह परख भी लीजिए, जो भी इन बाह्य भावों की ओर इतना आकर्षित है उसको आत्मा की सुध कहां है? वहाँ यत्नाचार नहीं है ।
धर्मसाधना के विचार से नंगे पैर गमन करने में भलाई―यहां धर्मसाधन के प्रसंग में जीवदया पर ध्यान दीजिए, समझ लीजिए कि मानो मंदिर पास है । रोज आप मंदिर आते हैं और जूता पहिनकर मंदिर जायें तो अपने परिणामों में दृष्टि दीजिए कि क्या आप जीव रक्षा का भाव रखते हुए चलेंगे? कम से कम मंदिर आने तक तो जीव रक्षा का परिणाम होना ही चाहिए । इतनी ही ईर्यासमिति सही, पर इसके अतिरिक्त और भी देखिये―जूता उतारकर नीचे रखकर दर्शन करने गए, अब नये जूते हैं तो बारबार उनका ख्याल बीच-बीच में आयगा । एक बार अंबाला में एक ब्राह्मण पंडित ने शास्त्रसभा में कहा कि जो लोग जूता पहिनकर मंदिर जाते हैं वे एक बार तो भगवान को नमस्कार करते है और एक बार जूतों को नमस्कार करते हैं । जैसे दर्शन करते हुए में कहते हैं ना ‘‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव । त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वमम देवदेव ।’’ हे देव तुम्हीं हमारी माता हो यह तो मानो भगवान के लिए कहा, और तुम्हीं हमारे पिता हो यह मानो जूतों के लिए हो गया । क्योंकि जूते की तरफ दृष्टि करके कहा ना । ऐसे ही भगवान के लिए तुम्हीं हमारे बंधु हो, जूतों के लिए और तुम्हीं हमारे सखा हो... मानो वह भक्त एक बार तो भगवान को नमस्कार करता और एक बार जूतों को । यह हालत होती है जूता पहिनकर मंदिर आने में । और फिर एक प्रभावना में भी कमी आयी । नंगे पैर मंदिर में आते हुये देखने वाले लोग भी बहुत प्रभावित होंगे, वे भी कहेंगे कि देखो यह इतने बड़े आदमी होकर नंगे पैर जा रहे तो मंदिर ही जा रहे होंगे । तो नंगे पैर चलना प्रभावना की दृष्टि से भी उत्तम है। तो इसका ध्यान रखना चाहिए कि कोई जूता पहिनकर मंदिर न आयें। हां किसी का मकान मान लो मंदिर से ज्यादह दूर पड़ता है, जूते पहिनने ही पड़ जायें तो उनकी बात और है। मगर मंदिर के निकट ही यदि घर है तो उन्हें अवश्य नंगे ही पैर मंदिर आना चाहिए । नंगे पैर आने से कम से कम कंकड़, पत्थर, गोबर, मिट्टी या कीड़ा मकोड़ा आदि से बचकर चलने के बहाने दृष्टि नीचे की ओर तो रहेगी । नीचे की ओर दृष्टि रहने से जीवों की देखभाल कर तो चलेंगे । वहाँ जीव रक्षा की बात बन जायगी । तो ऐसे अनेक कार्यों में यत्नाचार रहना चाहिए जिससे जीव हिंसा का बचाव हो और अपने को किसी भी प्रकार उसमें दोष न आये ।