वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 52
From जैनकोष
प्राणातिपातवितथव्यवहारस्तेयकाममूर्च्छेभ्य: ।
स्थूलेभ्य: पापेभ्यो, व्युपरमणमणुव्रतं भवति ।। 52 ।।
पांच अणुव्रतों में अहिंसाणुव्रत का निर्देशन―इस श्लोक में अणुव्रत का लक्षण कहा है । अणुव्रत पालन करो । यह सब मनुष्यों के लिए आवश्यक है अपनी शांति के लिए, देश के हित के लिए । उन व्रतों का वर्णन इस आर्या छंद में किया है । स्थूल पाप से विरक्त होना अणुव्रत है । वे कौन से पाप हैं? हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह । हिंसा के मायने है प्राणों का अतिघात । दूसरे के प्राणों का घात हो, दिल को चोट पहुँचे, दु:ख पहुंचे या मरण हो वह प्राणातिपात है । सो यह गृहस्थ श्रावक स्थूल प्राणघात से विरक्त रहता है । यह संकल्प से त्रस जीवों की हिंसा नहीं करता । त्रस और स्थावर सभी संसारी जीवों का घात रुक जाय यह बात मुनियों से संभव है । पर जिनको आजीविका लगी है अथवा नहाने धोने के आरंभ लगे हैं, घर गृहस्थी के भी कार्य लगे हैं वे विचार तो करेंगे, पर हिंसा का पूर्णतया त्याग संभव नहीं है । इसलिए मोटे पापों से, मोटी हिंसा से सद्गृहस्थ विरक्त रहा करता है । इसका विशेष वर्णन अणुव्रत का जब स्वरूप आयगा उसमें किया जायगा, पर मोटे रूप से यह जानना कि संकल्पी हिंसा का त्याग होता है गृहस्थ के । चार प्रकार की हिंसा कही गई है―(1) संकल्पी, (2) उद्यमी, (3) आरंभी और (4) विरोधी । हिंसा तो हिंसा ही है, चाहे किसी रोजिगार में हिंसा हो, या आरंभ में हिंसा हो या शत्रु अपना घात करने आया है उसका बचाव करने में हिंसा हो तो उस हिंसा का दोष गृहस्थ को नहीं लगता ऐसा नहीं है । हिंसा का दोष तो लगेगा पर उस हिंसा के दोष का त्याग गृहस्थ के नहीं है यह बात है । यदि यह हो जाय कि गृहस्थ को संकल्पी हिंसा से ही हिंसा लगती है और अन्य हिंसायें नहीं लगती है तब तो गृहस्थ रहना ही अच्छा है । मुनि बनना बेकार है वहाँ रहे और चूक गए तो हिंसा लग जायगी । गृहस्थ रहे तो हिंसा तो न लगेगी (हंसी) । सो भाई ऐसी बात नहीं है । हिंसा तो जहां है वहां ही है, पर गृहस्थ ने सबका त्याग नहीं किया है। मुनि के चार हिंसाओं का त्याग है। संकल्प से हिंसा न करेगा, इसके मायने यह है कि कोई जबरदस्ती कर रहा हो या लोभ दे रहा हो कि तू इस जीव को मार, मैं तुझ को इतना वैभव दूंगा । तो वह लोभ के वश आदिक से संकल्पत: हिंसा नहीं करता, पर कोई शत्रु, कोई डाकू एकदम ही चढ़ आया तलवार लेकर और इसके सामर्थ्य है तो यह तो अपने प्राण बचायगा और प्राण बचाने में यह भी तलवार चलायगा और उस संघर्ष में वह डाकू या शत्रु मर गया तो वह तो विरोधी हिंसा है, संकल्पी हिंसा नहीं है । और विरोधी हिंसा का त्याग गृहस्थ कर नहीं पाया । तो गृहस्थ के संकल्पी हिंसा का त्याग होने से और अन्य हिंसाओं का त्याग न हो पाने से उसके मोटी हिंसा का त्याग कहा जायगा ।
सत्याणुव्रत का निर्देशन―असत्य का त्याग, मोटे असत्य का त्याग । जिन वचनों से दूसरे प्राणियों का घात हो जाय ऐसे असत्य का त्याग गृहस्थ के रहता है । ज्ञानी पुरुष के ऐसा भाव रहता कि सर्वजीव सुखी हों । उसने अपने स्वरूप की तरह सबका स्वरूप निरखा । सो सबके सुखी होने की भावना रहती है उसकी । और वहाँ भी मूलत: हित की भावना है । इस जीव को अपने आपके स्वरूप की दृष्टि हो जाय तो यह संकटों से छूट जाय, ऐसी मूल में दया उत्पन्न होती है । वैसे गृहस्थ है तो और भी उपाय बनाता । भूख है तो भोजन दिया, ठंड से पीड़ित है तो कपड़ा दिया । और भी उपाय करता है मगर यह जानता है कि गृहस्थ दाता के एक भोजन मिल बान से इसका संकट हमेशा को तो चलेगा नहीं, हम को तो आत्मदृष्टि बने सो सदा के लिए संसार संकट छूट जाये ऐसी मूल में दया होती है सब जीवों की । गृहस्थ ऐसा असत्य न बोलेगा जिसमें दूसरे प्राणियों का धर्म बिगड़े, अपना धर्म बिगड़े, दूसरे का अपवाद हो । जिनसे प्रीति होती है उनके प्रति तो भावना रहती है सबकी कि कोई ऐसी बात न बोलने में आये कि इसका अपयश हो जाय । तो ज्ञानी जीव को तो समस्त जीवों में समान प्रीति है इस कारण उसके यह भावना रहती कि मेरा कोई ऐसा वचन न निकले कि जिससे दूसरे का अपवाद हो जाय । एक घटना है एक गांव की कि वहाँ एक जैन जमींदार था, वृद्ध था उसकी बहू पीढ़ा मचिया पर बैठी हुई चक्की पीस रही थी । मचिया होती है ना चार पायों वाली, बानों से बुनी हुई । तो उस समय उसको याद आया । उस बुड्ढे को ख्याल कि यह बहू शरम के मारे कहीं अपघात न कर ले, सो उसने समझदारी से काम लिया । सो क्या कहा कि―अरे बढ़ई ने पैसे तो पूरे लिये पर मचिया (पीढ़ा) ऐसी बना दी कि यह ची ची कर जाती है । बहु ने बात सुन लिया, उसके मन में यह बात आयी कि ससुर साहब जी सही बात समझ नहीं पाये । देखिये समझ सब लिया था उस वृद्ध ने मगर उसको समझाने के लिए बड़ी बुद्धिमानी से काम लिया । तो जिसको जिससे प्रीति होती है वह उसके प्रति ऐसे वचन व्यवहार करता है कि जिससे वह बात सब समझ ले और बुरा जरा भी न माने उसका अपवाद न हो । तो यही बात ज्ञानी की सर्व जीवों पर है, किसी भी जीव का मेरे वचनों से अपवाद न हो ।
सद्वचनकला की महिमा―भैया, एक गुण होना चाहिए मनुष्य में कि हमेशा दूसरों के सत्कार के वचन बोले । सभ्यतापूर्ण वचन बोलें और उसका आदर होवे ऐसे वचन बोलें । आपके वचन मात्र से यदि दूसरा कोई प्रसन्न हो जाता है तो यह आपको कितना लाभ की बात है । मनुष्य तो अपना धन भी देकर दूसरों को प्रसन्न रखना चाहते और आपके केवल बोलने भर से दूसरे खुश हो जायें तो इसमें तो आपको उमंग रहनी चाहिए । आप में अगर यह कला आ गई तो फिर कभी विवाद, झगड़ा, कलह संभव ही नहीं है । तो जो जैन है, श्रावक है वह कभी ऐसे वचन न बोलेगा कि जिससे दूसरों का अपवाद हो । जिन वचनों से कलह हो सके, दूसरों के संक्लेश हो सके, भय आदिक हो सके, ऐसे वचनों का प्रयोग जैन नहीं कर सकते, सद्गृहस्थ नहीं कर सकते । यह ही है स्थूल मृषा का त्याग ।
अभिमान न होने से ज्ञानी गृहस्थ के सत्याणुव्रत के पालन की सुगमता―दूसरों को पीड़ा देने वाले वचन तब ही बोले जाते हैं जब अंदर में क्रोध हो, अभिमान हो और लोभ हो । क्रोध भी अभिमान के कारण आया करता है, इसी कारण सीधी बात कह लीजिए कि भीतर यदि अभिमान है या लोभ है तो खोटे वचन निकलेंगे । जिनको क्रोध आता है सो यों ही बिना वजह आता है क्या? उसके मन में महत्त्व का फर्क आया ऐसा समझा तो क्रोध उमड़ता है या लोभ के विषय में कुछ फर्क आया, कोई धन घट रहा तो क्रोध आता है । तो मुख्य कारण है खोटे वचन निकलने का अभिमान और लोभ । तो जिस ज्ञानी संत ने अपना स्वरूप सहज चैतन्यमात्र जाना । यह पर्याय मैं हूँ नहीं, है जरूर पर्याय पर यह मैं नहीं । मैं तो वह हूँ जो कि अनादि अनंत समान वृत्ति वाला हूँ, चैतन्यमात्र । यह शरीर माया है, इस माया को वह आत्मस्वरूप नहीं जानता इस कारण उसे किसी घटना में अभिमान नहीं जगता । यदि कोई यह जाने कि यह भव, पर्याय, देह जो यह पिंड है सो यह मैं हूँ तो जिसको मैं समझा है उसका महत्त्व तो अवश्य चाहेगा । जिस ज्ञानी ने आत्मा के सहज चैतन्यस्वरूप को मैं समझा तो वह चैतन्यस्वरूप का महत्त्व चाहता है, इसका विकास हो । तो अज्ञानी ने इस पर्याय को इस देह को मैं समझा तो वह इसका महत्त्व चाहता । अब इसका महत्त्व हो नहीं रहा । लोग गुण गा नहीं रहे । इन लोगों के बीच मेरा बड़प्पन नहीं आ रहा, या लोग ऐसे वचन बोल रहे जिनसे हल्कापन जाहिर हो गया तो वहाँ क्रोध आ गया । तो ज्ञानी को अभिमान नहीं होता क्योंकि उसने आत्मा के सहज चैतन्य प्रकाश को आत्मा माना है । इस पर्याय को आत्मा नहीं माना । फिर अभिमान की गुंजाइश कहां ।
लोभ आसक्ति न होने से ज्ञानी गृहस्थ के सत्याणुव्रत के पालन की सुगमता―ज्ञानी के लोभ की भी गुंजाइश नहीं । चूँकि गृहस्थ है, परिस्थिति है, सब कुछ रखना पड़ता है, सम्हालना पड़ता है, अर्जन करना पड़ता है, लेकिन यदि कोई धार्मिक काम आ जाय तो उसमें फिर लोभ नहीं करता । एक घटना है ऐसी कि किसी जौहरी की लड़की एक शहर में किसी बड़े सेठ के घर ब्याही गई । घी का बड़ा व्यापार था उस घर । एक दिन वह बहू ऊपरी मंजिल पर खड़ी थी, नीचे क्या देखा कि घी के कारखाने में जहाँ घी अग्नि में तपाया जा रहा था वहीं सेठ बैठा था । अचानक ही कोई मक्खी उस घी की कड़ाही में गिर गई तो सेठ ने क्या किया कि उस मक्खी को निकालकर अलग करना चाहा । पर उसमें कुछ घी के बूंद लगे हुए थे तो उनको कड़ाही में टपकाया । एक-एक बूंद टप का लिया फिर मक्खी को बाहर फेंक दिया । इस दृश्य को देखकर सेठ की बहू को बड़ा गम हुआ, सोचा अरे कहां तो मैं जौहरी की लड़की और कहां इस मक्खीचूस के घर ब्याही गई । उसे ही तो मक्खीचूस कहते जो मक्खी को चूस-चूसकर घी निकाले । इस घटना को देखकर बहू को भारी सिरदर्द हो गया । सेठ ने उसके उपचार के लिए अनेकों वैद्य डाक्टर दिखाये पर फायदा न हुआ । एक बार पूछ बैठा वह सेठ―ए बहू, तुम सच बताओ क्या है कोई ऐसा उपाय तुम्हारा सिरदर्द ठीक हो सकता हो?... हां है पिताजी ।... कौनसा?... यही कि मेरे घर जब कभी मेरे सिरदर्द होता था तो मेरे सिर में दो मुट्ठी कीमती रत्न पीसकर उनका लेप सिर में किया जाता था तब ठीक होता था । तो वही एक उपाय मेरी समझ में आता ठीक होने का । तो वहाँ सेठ ने झट खजांची को आदेश दिया कि दो मुट्ठी कीमती रत्न लावो उन्हें पीसकर बहू के सिर में लेप किया जायगा । आखिर आ गए दो मुट्ठी कीमती रत्न शायद 1 करोड़ के तो होंगे ही उनको सेठ सिलबट्टे में पीसने ही वाला था कि झट बहू बोली―बस पिताजी रहने दो । इन्हें मत पीसो, मेरा सिरदर्द दूर हो गया ।... कैसे दूर हो गया, अभी लेप तो हुआ नहीं?... हां लेप तो नहीं हुआ पर सिरदर्द दूर हो गया ।... कैसे?... ऐसे कि मेरे सिर दर्द हुआ था इस बात से कि मैं कहां ऐसे जौहरी की लड़की और कहां ऐसे मक्खीचूस के घर ब्याही गयी । पर जब देखा कि आप मेरा सिर दर्द दूर करने के लिए करीब 1 करोड़ के रत्न पीसने जा रहे तो वहाँ मेरा वह भ्रम दूर हो गया कि सेठजी मक्खीचूस है । तो वहाँ सेठजी बोले―अरी बहू तू बड़ी भोली है । तू नहीं जानती कि धन किस तरह से कमाया जाता । जब कमाना तो इस तरह कमाना और जब खर्च करना तो दिल खोलकर इस प्रकार खर्च करना । खैर यह तो उसकी कहानी है । बात यहाँ यह कह रहे थे कि जो असत्य बोला जाता है वह लोभवश बोला जाता है । तो ऐसा लोभ नहीं होता है सद्गृहस्थ के । कोई धर्म का कार्य आये या किसी की भलाई का कार्य आये तो उसमें भी लोभ करें । ऐसा लोभ गृहस्थ के नहीं है और इसी कारण वह असत्य भी नहीं बोलता । तो ऐसा स्थूल असत्य का त्याग गृहस्थ के है ।
ज्ञानी गृहस्थ का अचौर्याणुव्रत―स्थूल चोरी का त्याग ! बिना दिए हुए दूसरे के धन को लोभ से छल कर के ग्रहण करे वह स्थूल में चोरी है । देखिये चोरी के विषय में अनेक प्रश्न चलते हैं, पर कम से कम इतना तो प्रत्येक को त्याग होना ही चाहिए कि दूसरे के धन को बिना दिए ग्रहण न करना । बिना दिए के मायने यह नहीं कि वह हाथ से दे रहा तो ग्रहण कर लिया । मन से खुश होकर दे । प्रसन्नता से न दे तो ग्रहण न करना । यों तो डाकू लोग भी बिना दिए धन नहीं लेते । वे तो घर के मालिक से कहते कि इस धन को तू अपने हाथ से निकालकर दे । उनको कहीं यह भाव नहीं होता कि यदि इसके ही हाथ से निकलवा कर धन लिया तो चोरी न कहलायगी । है तो वह चोरी ही । तो चोरी की सूक्ष्म बातें बहुत है । उनका विवेचन करने का यहाँ प्रसंग नहीं है । उनके विषय में आप सब जानते ही हैं । यहाँ चोरी के संबंध में स्थूल वार्ता कहते हैं कि इसका त्याग इतना तो अवश्य होना चाहिए कि बिना दिया दूसरे का धन ग्रहण न करें । ऐसा स्थूल चोरी का त्याग प्रत्येक सद्गृहस्थ के हुआ करता है ।
ज्ञानी गृहस्थ का ब्रह्मचर्याणुव्रत व परिग्रहपरिमाणाणुव्रत―ब्रह्मचर्याणुव्रत । जिससे विवाह हुआ उसके सिवाय शेष स्त्रीजनों में, पुरुष जनों में, काम की अभिलाषा का त्याग होना । हृदय में भावना ही न उठना, इसको कहते हैं ब्रह्मचर्याणुव्रत । कल एक चर्चा आयी थी कि पति और पत्नी का जोड़ा होता है । पति का अर्थ है मालिक और पत्नी का अर्थ हुआ मालकिन । अब आप समझो कि इन दीनों का घर में एक साथ रहकर कैसा समान व्यवहार चलना चाहिए । यों समझो कि जैसे एक गाड़ी को ले जाने वाले दो बैल । तो जैसे पुरुष के संबंध में कहा कि सद्गृहस्थ अपनी विवाहित पत्नी के सिवाय अन्य समस्त स्त्रीजनों के प्रति कामाभिलाषा नहीं रखता, ऐसे ही स्त्रियां भी अपने पति के अतिरिक्त किसी भी पर पुरुष के प्रति कामाभिलाषा न रखें, वह है उनका ब्रह्मचर्याणुव्रत । चूँकि पूरा ब्रह्मचर्य तो नहीं निभा सकते इसलिए स्वदार संतोषवृत्ति से रहना यह ब्रह्मचर्याणुव्रत है । ऐसे ही मूर्छा का स्थूल त्याग । जितना परिग्रह परिमाण बनाया उससे अधिक परिग्रह का त्याग होना यह स्कूल परिग्रह का त्याग है । ये पापकर्म के आस्रव के कारण हैं, इनका त्याग होना अणुव्रत है ।