वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 308
From जैनकोष
जीव की कल्याणरूपता―परमार्थत: जीव स्वयं कल्याणमय है। कल्याण के लिए कल्याण के बाधकों को हटाने भर का ही काम है। कल्याण उत्पन्न नहीं करना है। कल्याणमूर्ति तो यह स्वयं है।अब उसकी दृष्टि न होने से जो विडम्बना हो रही है, मात्र दृष्टि करने से वह विडम्बना समाप्त है। इस जीव के साथ कोई परतत्त्व अवश्य लगा हुआ है जिसका निमित्त पाकर यह जीव विडरूप बना, क्योंकि कोई भी विडम्बना पर के सम्बंध बिना नहीं होती। वह परतत्त्व है कर्म। जीव के एकक्षेत्र में कर्म आते हैं। कर्म आकर वे पुण्य और पाप दोनों रूप बनते हैं। कर्मों से बन्धन होता है। जब तक यह जीव अपने को पर का कर्ता मानता है तब तक यह बँधता है। जब इसे अपने अकर्तृत्वस्वरूप का बोध होता है तो यह बंधन मिट जाता है।छुटकारा―भैया ! यहीं देख लो। जब तक किसी परपदार्थ के करने का विकल्प है तब तक बंधन है और किसी भी कारण यदि करने का विकल्प मिट गया तो बंधन मिट गया। यदि ज्ञान के कारण करने का विकल्प मिटा दिया तो सविधि और मूल से बंधन मिटता है। और किसी लड़ाई विवाद के कारण किसी संस्थानक ये धर्मायतन के, या घर के ही किसी काम के करने का विकल्प मिटा दें तो मूल से शांति नहीं होती क्योंकि उसमें करने का विकल्प किया। जब यह जीव पर का अपने को अकर्तारूप में देखता है और रागादिक विभावों का भी मैं स्वरसत: कर्ता नहीं हूँ, इस पद्धति से अपने को देखता है तब उसके संवर तत्त्व प्रकट होता है। कर्मों का आना रूक जाता है और बँधें हुए कर्मों की निर्जरा होती है। निर्जरा होती हुई चूँकि छुटकारे की बात हुई ना। अत: कभी पूर्ण छुटकारा हो जाता है। उस पूर्ण छुटकारे की बात मोक्षाधिकार में बतायी गई है।
सर्वविशुद्धता का एक दृष्टान्त―अब यहाँ सब बातें बतला कर भी जो ज्ञान की दृष्टि का विषय है, जो अपने आप में परमार्थस्वरूप है, जो स्वरूप निर्दोष होकर मोक्ष का वेष धारण करता है, अब उस सर्व विशुद्ध निज स्वरूप की चर्चा की जा रही है। जैसे एक अंगुलि के बारे में आपसे पूछें कि तुम बिल्कुल सच तो बतावो, फिर बदलना नहीं, एक बार बतावो सो बता ही दो। यह अंगुलि कैसी है ? क्या आप यह कहेंगे कि यह अंगुलि सीधी है ? देखो यह कहां रही सीधी ? तुम अब कहोगे कि टेढ़ी हो गयी। जो वास्तव में अंगुलि है, जिसको आप बदले नहीं, वैसी अंगुली को बतलावो। अंगुलि मोटी है यह भी सत्य नहीं है, पतली है यह भी सत्य नहीं है, बड़ी है यह भी सत्य नहीं है, छोटी है यह भी सत्य नहीं है। फिर वास्तव में अंगुलि कैसी है ? तो आप कहेंगे कि एक ऐसे मैटर का नाम अंगुलि है जो कभी टेढ़ी हो, कभी सीधी हो, कभी छोटी हो, कभी बड़ी हो अथवा सब परिणतियों में व्यापकर रहने वाला जो कोई यह मैटर है वह है वास्तव में अंगुलि।निज सर्वविशुद्धता―इसी प्रकार अपने जीव के बारे में पूछे कि मैं जीव कैसा हूँ ? तो कोई कहेगा कि मनुष्य है। मैं मनुष्य हूँ, यह बात सच है क्या ? झूठ है। यह मनुष्य आयु खत्म हुई फिर मैं मनुष्य कहां रहा ? मैं मनुष्य नहीं हूँ। मैं आश्रवरूप हूँ, रागादिकरूप हूँ, यह भी ठीक नहीं है। बंधरूप हूँ यह भी ठीक नहीं। संवर हूँ यह भी ठीक नहीं। निर्जरा हूँ यह भी ठीक नहीं। अजी मैं मोक्षरूप तो हूँ। इससे बढ़कर और क्या चीज है ?कैसा है उत्कृष्ट रूप ? कहते हैं कि तू मोक्षरूप भी नहीं है। इन 5 तत्वों में रहकर किसी भी रूप नहीं है। इसमें व्यापक जो एक चैतन्यस्वरूप है वह तू है। इस सर्व विशुद्ध ज्ञान का ही यह अधिकार चल रहा है।
आत्मतत्त्व की विकल्पातीतता―मैं करने वाला हूँ ? नहीं। भोगने वाला हूँ ? नहीं। राग करने वाला हूँ ? नहीं। कर्मों से लिपटा हुआ हूँ ? नहीं। कर्मों से छूटा हुआ हूँ ? नहीं। ये सबविकल्प हैं। मैं तो जो हूँ सो हूँ। बंधन, जैसे एक हल्की बात है इसी तरह मोक्ष भी व्यापक ध्रुव ज्ञायक स्वरूप की वर्णना में एक हल्की बात हैं। किसी से कह तो दो, देख तो लो कहकर कि तुम्हारा बाप जेल से मुक्त हो गया है। ऐसा कहने पर देखो फिर लड़ाई होती है कि नहीं ? अरे भाई मुक्त ही तो कहा है। मुक्त होना तो अच्छी चीज है। देखो भगवान् मुक्त हो गए हैं-तो तुम्हारा बाप भी कैद से मुक्त हो गया है। इतनी बात सुनकर क्या वह अच्छा अनुभव करेगा ? अरे वह तो लड़ेगा। इसका कारण यह है कि कैद से मुक्त हो गया है इस बात में गाली भरी हुई है कि कैद में था पहिले, अब मुक्त हुआ है। तो आत्मा का जब परमार्थ और सत्य वर्णन करने बैठते है और उस समय कहें कि आत्मा कर्मों से मुक्त है तो यह तो आत्मा के स्वरूप की गिरावट कर दी अथवा आत्मा के स्वरूप की दृष्टि ही नहीं रखी।विशुद्ध पदार्थ के स्वरूपावगम के लिये अंगुली का दृष्टांत―एक यह अनामिका अंगुली है। यह अंगुलीदेखो इस छोटी अंगुली के सामने बड़ी दिखती है, किंतु अंगुली को बड़ा कहना यह अंगुली का खास स्वरूप नहीं है। यह तो आपकी बुद्धि का उद्गम है, जो आप बड़ा कहते हैं, पर बड़ा होना क्या यह अंगुली का स्वरूप है और कभी इस अंगुली के सामने यह बड़ी अंगुली कर दें तो आप कहोगे कि यह अंगुली छोटी है। तो क्या अंगुली का छोटा अंगुलि का स्वरूप है। नहीं, जैसे रूप, रस, गंध, स्पर्श, ये अंगुली के स्वरूप हैं इस तरह छोटा बड़ा तो नहीं ना ? पर पदार्थों की दृष्टि करके जो बात समझ में आए वह स्वरूप नहीं कहलाता है। किंतु उस एक ही पदार्थ को नजर में लाकर फिर जो तुम्हें समझ में आए ऐसा समझो।
स्वरसनिर्भरता―यह मकान फलाने साहब का है, क्या यह बात सत्य है ? नहीं सत्य है, क्योंकि यह परापेक्ष बना है और यह मकान जीर्ण है, टूटा फूटा है, यह है मकान का स्वरूप, क्योंकि मकान को देखकर ही मकान की यह बात कही जाती है। परमार्थ से तो परमाणु-परद्रव्य है। मकान भी वस्तु नहीं है, इसी तरह आत्मा का स्वरूप क्या है ? अपने आप को पहिचानों तो मैं क्या हूँ ? मैं रागी नहीं, द्वेषी नहीं, मुक्त नहीं, क्रोधी नहीं, कषायवान नहीं, कषायरहित नहीं, मैं कषायसहित नहीं, मैं अच्छा नहीं, मैं बुरा नहीं। मैं जो हूँ सो हूँ, किंतु यदि तुम जबरदस्ती कहलवाना चाहते हो कि समझ में नहीं आया, इतनी बात तो तुम बतावो। तो यह कहूँगा कि मैं ज्ञानस्वरूप हूँ।
विशुद्ध पदार्थ की अनिर्वचनीयता―मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, ऐसा कहने में भी स्वरूप की गिरावट की है तुमने। शब्दों द्वारा वह कहने में नहीं आ सकता क्योंकि मैं तो ऐसा अनिर्वचनीय विलक्षण स्वरूप हूँ कि जो किसी शब्द द्वारा कहा ही न जा सके। यदि मैं अपने को ज्ञानरूप कह देता हूँ तो समझ में तो यह भी आ रहा है कि इससे भी बढ़कर इसका दर्शन स्वरूप है। तो ज्ञानस्वरूप कहने में दर्शन तो छूट गया। कहो चेतनास्वरूप है, उसमें ज्ञान भी आया, दर्शन भी आया, तो चेतनास्वरूप ही यह कहने में आनंद तो छूट गया। मैं आनन्दस्वरूप भी हूँ। आपके पास कोई शब्द ऐसे नहीं हैं जो आत्मा का पूरा स्वरूप बता सकें ?इसलिए न वह अवस्थावों से लिप्त है, न शब्दों से लिप्त है, वह तो जो है सो ही है। ऐसे ही सर्व विशुद्ध ज्ञान का अब यहां प्रवेश होता है।
महात्मत्व–भैया ! अध्यात्मग्रन्थ का यह बहुत महत्वशाली वर्णन चल रहा है। कहां दृष्टि देना, किसे अपना मानना-यह बड़े महत्व का निर्णय है व जिस पर भविष्य निर्भर है-ऐसा खासा प्रश्न है। ये व्यापार, धन और वैभव तो अत्यंत तुच्छ बातें है, खूब रहें तो क्या, कम रहें तो क्या, थोड़ा धन रहे तो क्या, बड़ा धन आये तो क्या? वे तो सब परवस्तु है। उससे बढ़कर न कोई राजा है, न कोई धनी है। जिसे अपना सही पता हो गया और जो इस सम्यग्ज्ञान के कारण समग्र परवस्तुवों से विश्राम पाकर अपने में मग्न हो गया, उसकी तुलना किससे कर सकें ? ये राजा, महाराजा, बड़े लोग, धनी लोग-सब दु:खी हैं। होना ही चाहिए। जिसने दु:खरहित शुद्ध निजस्वरूप का भान नहीं किया है, वे कहां संतोष पायेंगे ? मैं कर्ता हूँ, भोक्ता हूँ, मैं कर्मबंध करने वाला हूँ, मैं कर्मों को हराने वाला हूँ, आदिक सर्वभावों को प्रलीन करने यह सर्व विशुद्ध ज्ञानस्वरूप उपयोगाभ्यास में प्रकट हुआ है। किसी भी समय यदि सबसे न्यारे अपने केवल चैतन्यस्वरूप को देख लें तो उसकी मुक्ति नियम से होगी।
सकिंचनमन्यता की क्लेशरूपता―भैया ! घर परिवार सारभूत तो है नहीं, बल्कि उसके विकल्प में अपने आपका ज्ञानबल घट जाता है और कर्म बंधन किया जाता है। फिर भी मान लो कि सम्बंध हो गया है तो कहां छोड़ा जाय ? पर 24 घंटे तो अपने उपयोग में असार चीज को न धरते रहो। किसी समय अपने को अकेला अकिंचन भाररहित निज ज्ञानमात्र तो झलक में लो। अपने स्वरूप को अपने उपयोग में लिए बिना न धर्म होगा, न शांति होगी, न मोक्षमार्ग मिलेगा। इस निजस्वरूप को देखो जो बंध के आशय से भी दूर है और फिर भी बंधमोक्ष समस्त हालत में रहने वाले हैं जो समस्त अवस्थावों का स्रोतरूप है-पर किसी भी अवस्थारूप स्वरूप नहीं है। ऐसे विशुद्ध निज चैतन्यस्वभाव की दृष्टि इस अधिकार में रखी जायगी।औपाधिक भावों की समानता―भैया ! जितने भी हमारे काम हैं, सुख दु:ख की अवस्था व मनुष्य पशु-पक्षी आदि अवस्थायें हैं और सभी कल्पनाओं में जितनी भी दशायें हैं ये उपाधि का सम्बंध पाकर हैं। वे सब क्लेश स्वभाव दृष्टि द्वारा दूर हो जाते हैं। उनका अनाकुलता स्वरूप नहीं है तो इस निगाह से हमारे ये सब शुभ और अशुभ भाव और ये कल्पनायें सब एक समान भिन्न हैं। एक बुढ़िया के तीन लड़के थे बड़ा, मझला व छोटा। बुढ़िया का छोटा बच्चा भी कम से कम 18, 19 साल का तो होगा ही। तो एक बनिया को भाव हुआ कि हमें एक ब्राह्मण को जिमाना है । सो उसने हिसाब लगायाकि हमारे गांव में ऐसा कौनसा ब्राह्मण है जो कम खाता हो। उसकी समझ में आया कि फलां बुढ़िया के तीन लड़के है, उनमें से सबसे छोटे लड़के को वह निमंत्रण देने गया।बोला, बुढ़िया मां आज तुम्हारे छोटे लड़के को हमारे यहां निमंत्रण है। तो बुढ़िया कहती है कि चाहे छोटे को निमंत्रित करो, चाहे बड़े को करो, चाहे मझले को करो, हमारे तो सब लड़के तिसेरिया हैं तीन सेर खाने वाले। सो इस संसार में चाहे धनी बनकर देख लो, चाहे इस देश में बड़े नेता प्रभावशाली बनकर देखलो, चाहे महामूर्ख बनकर देख लो, सब जीवों के जिनकी परपदार्थो पर दृष्टि है, सबके एक सी दु:खों की, क्लेशों की चक्की चल रही है।पर से अशरणता―भैया ! किसी भी अन्य पदार्थ पर दृष्टि डालना शांति का कारण न होगा। मेरे ही निजी पारिणामिक स्वभाव की दृष्टि शांति की साधकतम होगी। हम रागी भी होते हैं, कोई दूसरा नहीं होता, कर्म रागी नहीं होता, शरीर रागी नहीं होता, यह जीव ही रागी बनता है। किंतु रागी होना ध्रुव तत्त्व नहीं है, औपाधिक भाव है। तो रागी होने का मेरा स्वरूप नहीं रहा। मैं विचार भी करता हूँ और बढ़ी बुद्धि की बात सोचता रहता हूँ, पर यह सोचना मेरा स्वरूप नहीं है। यह चतुराई भी मेरा स्वरूप नहीं है तो भला बतलावो जब यह स्वरूप परभाव है तो अब हम किसकी शरण जायें कि हमें परम शांति प्राप्त हो ? कहां सिर झुकायें ?
अपने प्रभु के अदर्शन से हैरानी―अरे भैया ! तेरा प्रभु तेरे ही अंतर में है। जरा गर्दन झुकाकर इन्द्रियों को संयत करो और अपने ज्ञानानंदघन स्वरूप का अनुभव कर लो कितनी सरल बात है और स्वाधीन बात है। यह तो जगत के जीवों को कठिन लग रहा है और परपदार्थो की बात जिस पर अधिकार नहीं है उनकी बोलचाल प्रेमसंचय ये सब चीजें सरल लग रही है। जिस पर रंच अधिकार नहीं, इसको पागलपन नहीं कहा जायेगा तो और क्या कहा जायेगा ? जहां सभी पागल हों वहां कौन कहे पागल ? कोई बिरला ही पुरूष सुधरे दिमाग का हो तो वह देख सकता है इस पागलपन को। ज्ञानानंदस्वरूप यह प्रभु अपने इस ज्ञानस्वरूप की दृष्टि न करके बाह्य पदार्थों में अनुराग बनाकर जो बाह्य की और दौड़ता रहता है, ऐसा पागलपन, मोह, मूढ़ता मिटाने का उपाय केवल वस्तु-विज्ञान है। उस वस्तुविज्ञान के प्रकरण में इस अधिकार में निज सहज स्वरूप का वर्णन किया जा रहा है।कारणपरमात्मतत्त्व―यह आत्मतत्त्व बंध मोक्ष की रचना से भी परे है और यह शुद्ध है, विशुद्ध है। कितना शुद्ध है ? धन वैभव आदि पर पदार्थों से शुद्ध है, याने न्यारा है। बँधे हुए कर्मों से न्यारा है, शरीर से न्यारा है रागादिक भावों से न्यारा है अपने शुद्ध अशुद्ध समस्त परिणमनों से भी न्यारे स्वरूप वाला है। ऐसा यह शुद्ध आत्मतत्त्व जिसके निज रस के विस्तार से भरी हुई पवित्र निश्चल ज्योति जिसमें विकसित हुई है, टंकोत्कीर्णवत् निश्चल है ऐसा ज्ञानपुंज अब इस अधिकार में स्फुरायमान् होगा। इस उद्यम में क्या किया जा रहा है खूब विचार लो। अंदर प्रवेश करके समस्त बाह्य विकल्पों को भूलकर अपने आपमें मग्नता की जा रही है जो समस्त सुखों का कारण है। सो यह सर्व विशुद्ध ज्ञान अब प्रकट होता है । भगवान बनता है कोई तो कुछ नई चीज नहीं बनता है। जैसे पाषाण की मूर्ति बनायी तो कारीगर ने कुछ काम नहीं किया। उस मूर्ति के आवरण करने वाले पत्थर दूर किये हैं, मूर्ति नहीं बनायी है। वह तो जो था सो ही निकल आया। इसी तरह जो मुझमें अभी है वहीं निकल आए उसी के मायने परमात्मा है। कोई परमात्मा नई चीज नहीं है, उसी तत्त्व का इसमें वर्णन है।
ज्ञानमय की ज्ञानद्वारा ग्राह्यता―आत्मा में ही जानने देखने की योग्यता है। इस आत्मा को जगत के प्राणी किस-किस रूप में ग्रहण करते है, उनका ग्रहण करना मोहरूप है। कोई अपने को मनुष्य मानता, कोई अपने को स्त्री मानता, कोई अपने को छोटा या बड़ा मानता, नाना तरह से अपने को मानते हैं किंतु परमार्थ से यह आत्मा एकस्वरूप है। उसका वह स्वरूप क्या है ? इसकी खोज में बड़े-बड़े संतों ने सकल संन्यास करके वन में रहकर साधनाएँ कीं। उस तत्त्व का इस अधिकार में वर्णन है। यह मैं आत्मा रूप, रस, गंध, स्पर्श, रूप तो हूँ नहीं। यदि होता तो पुद्गल की भांति इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण में आ सकता था। किंतु वह आत्मतत्त्व इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं है। इसका ग्रहण ज्ञान द्वारा ज्ञानरूप में हुआ करता है।
ज्ञानस्वरूप के अपरिचय के दो कारण―भैया ! इस ज्ञानस्वरूप को न जानने देने के कारण दो हैं-एक तो पर्याय बुद्धि और दूसरे पर में कर्तृत्व बुद्धि। इन दो ऐबों ने इस प्राणी को परेशान कर रखा है। यह है परेशान अपनी मिथ्या धारणा से और मानता है परेशानी दूसरे जीवों की परिणति से। पर्याय बुद्धि का अर्थ यह है कि है तो यह सनातन सहज ज्ञान स्वरूप और मानता है यह जिस पर्याय में गया उस पर्याय रूप। यह आत्मा पुरूष नहीं हैं, किंतु पर्याय बुद्धि में यह जीव अपने में पुरूषपने का अहंकार रखता है। यह जीव स्त्री नहीं है किंतु पर्याय बुद्धि में यह जीव अपने को स्त्री मानने में अहंकार रखता है। यह तो शरीर से न्यारा मात्र ज्ञानस्वरूप है सो इसे अपने स्वरूपमात्र न मानकर अन्य-अन्य पर्यायों रूप मानना, यह इसका प्रथम महाअपराध है। दूसरा अपराध है पर का अपने को कर्ता मानना। मैंने गृहस्थी चलाया, मकान बनाया, दुकान चलाया, धन कमाया, देश में नाम किया, नाना प्रकार की कर्तृत्व बुद्धि रखना इस जीव का दूसरा महान अपराध है।
आत्मा के अपरिचय का तृतीय कारण―आत्मा के अपरिचय का कारण भूत तीसरा अपराध है कि अपने को पर का भोगने वाला माना। मैं धन भोगता हूँ, मैं आराम भोगता हूँ, इज्जत भोगता हूँ, विषयों को भोगता हूँ। सो भोगने की मान्यता की-यह है तीसरा अपराध। बस इन तीन अपराधों में फंसा हुआ यह प्राणी किंकर्तव्यविमू़ढ़ होकर जगत् में भटक रहा है।जीव का अकर्तृत्व स्वभाव―इस जीव का कर्तापन स्वभाव नहीं है। जैसे कि जीव का भोक्तापन स्वभाव नहीं है। किंतु यह अज्ञान से ही कर्ता बन रहा है और जिस दिन विवेक जगेगा उस दिन कर्ता न रहेगा। जब कोई काम करते-करते भी सिद्धि नहीं होती है तब यह यों सोचकर रह जाता है कि होना न था ऐसा और अपने भावों के अनुसार कोई काम हो जाय तो उसमें यह नहीं सोचता कि ऐसा ही होना था सो हो गया है। इसमें मेरा कोई कर्तव्य नहीं है। ऐसे कर्तव्य का अभिमान भरा है और इस अभिमान के पीछे विवाद होता है, दुर्वचन बोले जाते हैं और अनेक आपत्तियाँ भोगी जाती हैं।
परसमागम की परोदयकारणता का एक दृष्टांत―एक बार किसी ने एक दानी नवाब साहब से पूछा कि तुम कितना तो दान देते हो, किंतु अपनी निगाह दान देते समय नीची कर लेते हो। पूछता है मनुष्य-‘सीखी कहां नवाब जो ऐसी देनीदेन, ज्यों-ज्यों कर ऊँचा करत त्यों-त्यों नीचे नैन।।’ तुमने ऐसा दान करना कहां सीखा है कि ज्यों-ज्यों अधिक दान करते जाते हो त्यों–त्यों तुम्हारे नेत्र नीचे होते जाते है। वह नवाब उत्तर देता है-‘‘देने वाला और है देत रहत दिन रैन, लोगों को भ्रम है मेरा तासो नीचे नैन।। ’’ मैं नहीं देता हूँ। देने वाला और है पुण्य कर्म, वह देता रहता है। उससे यह दान व्यवस्था चलती रहती है लोगों की यह भ्रम है कि मैं यह देता हूँ। सो मैं इस शर्म के मारे गड़कर अपने नेत्र नीचे रखता हूँ।
अध्रुव समागम का सदुपयोग―भैया इस जगत में जिसे जो समागम मिला है वह सदा न रह सकेगा । वह तो मिटेगा ही। अब यह मर्जी है कि उसको किस तरह मिटायें ? धन की तीन गतियां होती है―दान, भोग और नाश। दान कर लो, भोग भोग लो और ये दोनों न कर सके तो उसका नाश हो जायगा। तो यो सोच लीजिये कि तृतीय अवस्था तो जरूर होगी, अब किसी तरह हो, अपना विवेक है।
हथेली के किसी भी तरह रोम झड़ना―एक बार भरी सभा में वजीर से बादशाह ने पूछा कि वजीर !यह तो बतलाओ कि इस मेरी हथेली में रोम क्यों नहीं हैं ? बड़े लोग ऐसे हीऊटपटांग बातें पूछ देते हैं जिनके सुने में कोई तत्त्व नहीं नजर आता। किंतु वहां तत्त्व वाला उत्तर होना चाहिये। वजीर मेरे रोम क्यों नहीं हैं ? तो वजीर बोला कि तुमने इन हाथों से इतना दान दिया, तुम्हारे हाथ पर से इतना धन सरका कि धन सरकते-सरकते रोम झड़ गये। इसलिये तुम्हारी हथेली में रोम नहीं हैं, इसका बादशाह ने कहा कि वजीर तुम्हारेंभी तो हथेली में रोम नहीं हैं, इसका क्या ? तो वजीर बोला कि महाराज, तुमने अपने हाथों से हमें इतना दान दियाकि लेते-लेते मेरी हथेली के रोम झड़ गये। और दरबार में इतने सब लोग बैठे है उनके क्यों नहीं हैं ? वजीर कहता है कि महाराज ! तुमने दिया, हमने लिया और बाकी लोग हाथ मलते रह गये। सो उनके हाथ मलते-मलते रोम झड़ गये। सो रोम तो झड़ेंगे ही, देकर झड़ें लेकर झड़ें मलकर झड़ें। यह धन, यह वैभव, यह समागम चेतन और अचेतन संग सब बिछुड़ेंगे। अब मर्जी तुम्हारी है कि इन सबका उपयोग धर्म कार्य में लगाओ और अपने इस अनित्य मिले हुये समागम से अविनाशी लाभ प्राप्त करो।
आत्मा का अकर्तृव्य स्वभाव―भैया! इस जीव का करने का स्वभाव नहीं है। यह अज्ञान में अपने को करने वाला मानता है। जो अपने को करने वाला मानेगा उसे पद पद पर दु:खी होना पड़ता है। अभी यहीं देख लो, किसी ने कुछ बड़ा काम कर दिया, मंदिर बना दिया या और काम कर दिया और वह अपने मुंह से यह कहे कि मैंने समाज के उपकार के लिये यह मंदिर बनाया है, तो फिर उसकी इज्जत लोक में नहीं रहती। इतना किया भी और अपने मुंह से अपने कर्तव्य करने की बात कह देने से वह न किया सा हो गया। तो करने की बात अपने मुंह से कहने से भी जब इज्जत घटती है, शरम दिलाती है तो का अभिप्राय मन में हो तो वह कितनी बन्धन करायेगा ? यह रोग जगत के प्राणियों को लगा है और इससे वे बैचेन हो रहे हैं। मुझे करना है, यह काम पड़ा है, मैं ही करुँ तो होगा। अरे होना होगा तो तुम करो तो, न करो तो कोई निमित्त होगा तो होगा। और मानते हुये कुछ विकल्पों के अनुसार तो तुममें कौनसा लाभ लूट लिया हो गया तुम्हारे विकल्पों के अनुसार महल खड़ा या लाखों का धन जोड़ा तो इतने पर भी तुमने कौन सा लाभ लूट लिया? केवल विकल्प ही विकल्प किये जा रहे है।आत्मा का अभोक्तृत्व स्वभाव―आत्मा का कर्तापन स्वभाव नहीं है ऐसे ही इसके भोगने का स्वभाव नहीं है। यह जीव किसी भी पर पदार्थ को नहीं भोग सकता, केवल अपना विकल्प बनाया करता है, ओर परमार्थ से अपने विकल्पों को भी नहीं भोगता। कार्यों की जोराबरी से विकल्प करने पड़ते है और दु:खी होना पड़ता है। और सामान्यतया यह जानो कि हम प्राय: सदा ही अपना ही सुख भोगा करते हैं, किंतु अज्ञानी कोई मान ले कि मैंने अमुक पदार्थ का सुख भोगा तो पराधीनता उसे लग जायगी। भोगना है सदा अपना ही सुख, पर मानता है कि मुझे अमुक से सुख मिला, तो उसकी परतंत्रता हो जायगी।पर के भोगने के भ्रम का एक दृष्टांत– एक गांव में तीन भाई थे, सो आज जैसा ही समझ लो विकट समय आ गयी, और परिस्थिति भी बिगड़ गयी, निर्धन हो गये। खाने पीने का भी कुछ सिलसिला न रहा तो सोचा कि चलो मौसी के यहां चलें, 10 – 12 दिन रहें, वहां अच्छी तरह से दिन कटेंगे। तो वे तीनों भाई गये मौसी के पास। मौसी कहो या मासी कहो एक बात है। जो मां सरीखी हो मौसी होती है। मां की जो बहिन है वह मां तुल्य है। सो गये मौसी के यहां। मेल मिलाप हुआ। मौसी बोली-बेटा क्या खावोगे ? वे कहते हैं- तो मौसीजी, जो तुम बनावोगी सो खायेंगे। तो मौसी ने कहा―अच्छा जावो तुम लोग नहावों धोवो, मंदिर जावो, पूजा, ध्यान, जाप करलो, इतने में खाना तैयार मिलेगा। सो जैसी पुरानी पद्धति है कि तालाब में नहाने जायेंगे तो सब कपड़े उतार देंगे। एक धोती पहिनेंगे और एक धोती ले ली जायगी बदलने के लिये और नहा धोकर फिर सीधे मंदिर जायेंगे। सो गये वो। नहाने धोने में 1।। घंटा लग गया और मंदिर में 1।। घंटा लग गया। तीन घंटे में मौसी ने झट क्या किया कि इन तीनों भाईयों के कपड़े एक बनिये के यहां गिरवी रख दिये और 50 रुपये ले लिये। सब सामान खरीद लिया और झट हलुवा पूड़ी तैयार कर लिया।अब वे मंदिर से सीधे आये। पहुंच गये खाने। खाते जायें हलुआ पूड़ी, खीर और आपस में बातें करते जायें। (हमारे समझ से हलुवा पूड़ी कुछ अच्छी चीज नहीं हैं। मगर जिनकी जीभ लगी है स्वाद में, उनके लिए यह चीज ठीक है) खैर खाते जायें और आपस में बातें करते जायें, देखो वह कितना बढि़या भोजन मौसी ने बनाया ? और मौसी कहती जाये-बेटा खाते जाओ तुम्हारा ही तो माल है। अब वे तीनों भाई भी समझते कि खिलाने वाले तो यों कहते ही हैं। अभी तुमसे ही पूछें कि यह अमुक घर किसका है ? तो आप कहोगे कि आपका ही है और उसी समय लिखकर दस्तखत करा ले तो ? (हँसी) ऐसा ही समझा उन भाईयों ने। जब भोजन कर चुके और कपड़े पहिनने गये तो कपड़े न मिले। कहा मौसी कपड़े कहां गये ? तो मौसी बोली बेटा ! हमने कहा था कि, खाते जाओ तुम्हारा ही तो माल है। सो इसका मतलब ? बनिये के यहां गिरवी रख दिये है। उससे ही सामान मोल लाकर बनाया और खिलाया हैं।अपना ही आनंद भोगते हुए पर का भ्रम करने का फल―भैया ! अब जो जैसा बना, जो कुछ हुआ सो ठीक है, पर यहां यह बात विचारों कि जैसे वे भाई अपनी ही चीज तो खा रहे थे और भ्रम से मौसी का खा रहे हैं ऐसा जानकर मस्त हो रहे थे। सो पीछे दु:ख उन्होंने ही भोगा ? इसी तरह जगत के सब जीव भोगते तो हैं अपना आनंद स्वरूप, क्योंकि जीव का ज्ञान की तरह आनन्द स्वरूप है। किंतु अज्ञानी मानता है कि मुझे भोजन से सुख हुआ, राग करने का सुख हुआ, लोगों ने प्रशंसा की, अभिनंदन पत्र दिया, स्वागत किया, इन लोगों ने बड़ा सुख दिया, इस तरह जो परपदार्थो से सुख होना मानते हैं और उस ही सुख में मस्त होते है उनको अन्त में बुरी हार खानी पड़ती है क्योंकि सदा प्रशंसा करने वाले मिलेंगे नहीं। किसी की दसों-प्रशंसा करते हैं तो उसकी 20 निन्दा करने वाले भी होते हैं। तो निन्दा सुनकर वहां दु:ख ही होगा। प्रशंसा की बात नहीं मिलती तो निन्दा में दु:ख नहीं होता।
अज्ञान में व्यर्थ विसंवाद―जो परपदार्थो से अपना सुख मानते हैं वे दु:खी होते हैं। इस कारण अपना स्वरूप संभालिए। मैं स्वयं ज्ञानानन्दमय हूँ। जो जानन होता है वह भी मुझमें से प्रकट होता हैं । बाहर से नहीं प्रकट होता है। किंतु जैसे कुत्ता कहीं से हड्डी को खूब खुतरेगा। सो हड्डी के खुतरने में उसके मुख में से खून निकल आता है, उस खून का उसे स्वाद आता है। सो खा तो रहा है वह अपना ही खून, किंतु मान रहा है कि यह खून इस हड्डी से निकल रहा है। दूसरा कुत्ता दिख जाय तो वह ग़ुर्राता है। कहीं मेरे आनन्द की चीज यह छुड़ा न ले। इसी तरह जगत् में यह विवाद उठ रहा है। भोग तो रहे हैं सब अपना ही आनन्द, पर कल्पना में यह आ गया कि मुझे तो इस धन से आनंद आरहा है, इसमें मल से आनन्द आ रहा हैं। सो दूसरे लोग इसे न छुड़ा लें बल्कि दूसरें लोगों से हम छुड़ा लें, इस भाव से विवाद होता है, कलह होती है।
उत्कृष्ट आशय होने पर भी जघन्य परिणमन―भैया ! इस प्रसंग में आप यह प्रश्न कर सकते हैं तो फिर हम क्या करें-जायदाद न संभालें, उद्यम न करें, धन न कमायें ? भाई, ये सब बातें आपके विकल्पों से नहीं होती। ये तो पुण्योदय का और बाह्य समागमों का निमित्तनैमित्तिक योग होगा तो होता है। आपके विकल्पों से कमायी नहीं होती है। करते हुए भी यथार्थ श्रद्धा रखना है कि मैं इन सबका करने वाला नहीं हूँ, क्या ऐसा होता नहीं है कि जो कर रहे हों वैसा आशय न हो ? हम आपको दो चार दृष्टान्त दें तब आपकी समझ में आयेगा कि जो करते हैं सोही भाव हो ऐसा नहीं है। भाव में ऊँची बात हो और करना पड़ता है नीची बात।
जघन्यपरिणमन में भी ज्ञान के सत् आशय के प्रदर्शक दृष्टांत―देखो एक मोटासा दृष्टांत ले लो। विवाह होने के बाद दसों बार लड़की ससुराल हो आई, बीसों बार हो आयी, 50 वर्ष के करीब हो गई, पर जब भी ससुराल जायेगी तो रो करके जायेगी और ऐसा रोवेगी कि सुनने वाले को दया आ जाय। पर उसके मन में दु:ख है क्या ? खुशी-खुशी जा रही है और रो भी रही है, मन में आशय तो हर्ष का है। और कहो देर हो जाय, न लिवा ले जाय तो खबर पहुँचाती है अपने लड़कों को कि जल्दी आना सो लिवा ले जाना, पर जाते समय रोती जरूर है। तो भाव तो है हर्ष का और करतूत है रोने की। ऐसे ही ज्ञानी जीव के भाव तो रहता है ज्ञान का, अकर्तृत्व का कुछ कर ही नहीं सकता, ज्ञान करना, इतना ही हमारा पुरूषार्थ है, पर करना पड़ता है, मन, वचन, काय को लगाना पड़ रहा है, परंतु भावों की यथार्थ बात बसी हैं।
ज्ञानी गृहस्थ वृत्ति का दृष्टांत―मुनीम लोग सेठ की दुकान पर लोगों से खूब बातें करते हैं, कोई खाता वाला आ जाय तो उसको मुनीम कहता है देखो जी हमसे तुम इतना ले गये, हमारा तुम पर इतना बाकी है, सब बातें मुनीमजी कर रहे हैं। क्या हू-बहू ये ही बातें सत्य हैं कि मुनीमजी को ही मिलना है, मुनीमजी का ही बाकी है ? वह कहता तो सब कुछ है, पर अंतर से उसे विश्वास बना है कि आना जाना मेरा कुछ नहीं है। यह तो सब सेठजी का है। तो इसी तरह ज्ञानी गृहस्थ भी घर में रहकर सारी क्रियाएं करते हैं और अपना अपना बोलते भी हैं,पर यह व्यवहार की भाषा है।यों कहते हैं, पर आशय में बात यथार्थ बसी हुई है।
शांति यथार्थ विश्वास की अनुगामिनी―भैया ! जो जीव अपने को सबसे न्यारा समझ सकता है उसकी तो यहां विजय है और जो पर में घुलमिल कर रहना चाहता है उसको नियम से क्लेश हैं। ऐसा निर्णय करके विरक्त चित्त रहकर पर के प्रसंग में रहा करें। अपनी विवेक बुद्धि त्यागकर पर में आसक्त होने का फल आकुलता ही है। जहाँ रहते हैं ठीक है, जो आसानी से बन गया ठीक है। किंतु हठ का होना, आसक्ति का होना एक भी बात न मानना, इन सब अज्ञान की कल्पनावों से केवल क्लेश ही क्लेश रहेंगे। इसलिए एक निर्णय रखो कि जगत में मेरा एक तृण भी नहीं है, एक परमाणु भी नहीं है। गृहस्थी में रहकर सब करना पड़ता है पर विश्वास यथार्थ होगा तो शांति फिर भी साथ रहेगी और विश्वास भी गलत हो गया तो शांति साथ न रहेगी।
आत्मद्रव्य शुद्धता―जीव तो चेतना स्वरूप हैं, किंतु वर्तमान में कर्म उपाधि के सम्बंध वश संसारी पर्याय में चल रहा है। गतियों में जन्म लेता, मरता और दु:ख भोगता है। इस जीव को जब संसारी पर्याय की अपेक्षा से देखें अथवा उसके अशुद्ध उपादान की दृष्टि से देखें तो जीव कर्ता है, भोक्ता है, उसके बंध भी है और उसी पर्याय, उसी अशुद्ध उपादान अभाव का मुकाबिला करके शुद्धपरिणति को देखें तो उसका मोक्ष भी है। सो संसारी पर्याय की दृष्टि से उसके कर देने आदि की कल्पनाएं हैं, ऐसा परिणमन है किंतु केवल जीव का स्वरूप देखें तो पारिणामिक परमभाव शुद्ध उपादानरूप से शुद्ध ही है। इन सब परिणामों से रहित है।स्वरूपदृष्टि से सम्बन्धित एक दृष्टान्त―जैसे एक तोला भर कोई सोने की चीज लाये और उसमें दो आने तो खोट था और 14 आने ठीक स्वर्ण था। अब उसमें 14 आने स्वर्ण एक जगह धरा हो और दो आने खोट एक जगह रखा हो, ऐसा नहीं है। पूरा का पूरा तोला भर डेला में विस्तृत है। उस सोने को जब अशुद्ध उपादान दृष्टि से देखा तो उस सोने को निबल कहा जायेगा और ज्यादा खोटा अगर हुआ, मानो 12 आने सोना हो और चार आने खोट हो तो पारखी लोग उसे सोना ही नहीं कहते। कहते हैं कि यह सोना नहीं है, हटावो। यद्यपि वह सोना है मगर शुद्ध स्वर्ण पर उनकी दृष्टि है, इसलिए उस सोने को सोना नहीं कहा। जो शुद्ध स्वर्ण हो उसे वे सोना मानते हैं। तो उस स्वर्ण की एक तोला डली में जिसमें कि 12 आने सोना है और चार आने खोट है, उसमें भी मल पर दृष्टि न दें और केवल स्वर्ण पर दृष्टि दें तो वहां भी यह दिखता है कि इसमें 12 आने पक्का सोना है। जब भाव किया जाता है तो उस समस्त पिण्ड पर दृष्टि होने से उसे एक तोला मानकर और उसका भाव कम बोला जाता है कि भाई 110रू तोला देंगे। और जब मल की अपेक्षा नहीं रखते और उस तोले भर में बोलते है कि इसमें 12 आने स्वर्ण है सो उस 12 आने स्वर्ण के आप 140 रू॰ तोला के दाम ले सकते है। तो दृष्टि की ही तो बात है।आत्मतत्व का सामान्यदृष्टि से परिचय―इसी तरह यह जीव संसारी पर्याय में रागी है, कर्ता है, भोक्ता है, बंधा हुआ है, छूटा हुआ है, सारी बातें इसमें अशुद्ध हो रही हैं, पर इस अशुद्ध होते हुए जीव में केवल जीव का स्वभाव विचारों जैसा यह जीव दिख जाय तो वह जीव प्रभु की ही तरह शुद्ध ज्ञानस्वरूप है। जैसे उस तोला भर सोने में केवल स्वर्ण की ही दृष्टि की जाय तो जितना स्वर्ण जाना है उतना ही पूरा पक्का सही है। इसी प्रकार इस जीव स्वरूप में जो जीव जानता है चेतनमात्र ज्ञानस्वरूप, सो उसमें क्या अंतर है ? अंतर तो होता है बाहरी परिस्थितियों से। कोई प्रीतिभोज करे तो उस पंगत में जैसे मानो जैन समाज का प्रीतिभोज है, तो चाहे रईस हो, चाहे गरीब हो, जैनत्व दृष्टि से सब एक सामान्यरूप हैं। अब उसमें कोई परोसने वाला पक्ष करे कि धनियों को जरा ज्यादा ध्यान दे और ग़रीबों को यों ही छोड़ता जाय तो यह परोसने वाले की बेईमानी हुई है तो अब उसके विशेष पर दृष्टि पहुंची है तब आकुलता होती है। जब सामान्य पर दृष्टि रहती है तब आकुलता नहीं रहती है।
अज्ञान चेष्टा की एक विडम्बना-एक पंगत में परोसने वाला आदमी अपनी छोटी अंगुलि में 6-7 हजार के हीरे की जड़ित मुदरी पहिने हुये था। व्यवस्था कर रहा था, यहां परोसो, वहां परोसो। हीरा जड़ित अपनी मुदरी दिखाने के लिए इधर उधर हाथ करके कहता, इधर परोसो, उधर परोसो। सो एक वहां कोई चतुर निकल आया, वह अपने गले में एक हार हीराजडि़त पहिने हुये था, सो उसने हार को हाथ से पकड़कर कहा-चल भैया ! यहांसे, यहां कुछ न चाहिए। जो परोसने वाला था उसे लोगों ने शरमिन्दा किया। वह अपनी हीरा जड़ित मुदरी दिखाना चाहता था। उसने दिखा दिया उससे 50 गुना अपना हार। जब कोई विशेष दृष्टि होती है और किसी भी कार्य के उद्देश्य के खिलाफ दृष्टि होती है तो वहां चैन नहीं होती है।
आत्मा की मात्र निज स्वरूपमयता―इस आत्मा को यदि अपने सही रूप में देखें तो इसका क्या दिखता है ? कुछ भी नहीं । आप घर से आये है, यहां बैठे है, घर चिपक कर नहीं आया, परिवार बंधकर नहीं आया। धन वैभव लिपटकर नहीं आया। और कदाचित आया भी हो, कोई धन ले आया हो साथ में, तो भी धन में धन है, शरीर में शरीर है, आत्मा में आत्मा है। आत्मा तो शरीर से भिन्न अब भी है, तो इस आत्मा को जैसा है तैसा निहारें तो एक संकट नहीं है। संकट तो लोग कल्पना करके बनाते है अन्यथा संकट एक नहीं है। हजार से लाख हो गये तो अब लाख से भी संतोष नहीं किया जा सकता। वह सोचेगा मैं तो बहुत गरीब हूँ, इतने से तो कुछ भी नहीं होता। अरे तो जिनके पास धन बहुत गया वह कोई भगवान तो नहीं हो गया। यह तो हम आपसे भी अधिक मलिन पुरूष हो सकता है।
ज्ञान में संतोष की साधकता―भैया ! फिर समझ लीजिए कि संतोष बिना इस जीव को सुख हो ही नहीं सकता। अपने से बड़े बड़े धनिकों को देखो तो अंतर में तृष्णा उमड़ती है और अपने से गरीब की ओर दृष्टि करके देखो तो संतोष उत्पन्न होता है। और ज्ञानी पुरूष तो सबका ज्ञाता रहता है। उसे न तृष्णा उत्पन्न होती है और न उसे अपनी परिस्थिति पर संतोष होता है। वह तो यह भावना रखता है कि हे प्रभो, यह विकल्प संकट मुझसे कब दूर हों ? इस विकल्प में ही क्लेश भरे हुए हैं। और हैं क्या ?
ग्रहकाल की विपदा का एक दृष्टांत– एक बालक बचपन से ही एक संन्यासी के पास जंगल में पढ़ता था। जब 20 वर्ष का हो गया तो उस शिष्य ने कहा कि मुझे थोड़ी इजाजत दीजिए तो मैं तीर्थयात्रा कर आऊँ। संन्यासी बोला―बेटा ! कहां तीर्थयात्रा हैं ? आत्मा का जो शुद्ध स्वरूप है उसकी दृष्टि रहे वही वास्तव में तीर्थयात्रा है। कहां भटकते हो ? वहां जावोगे तो सुख दो मिनट को मिलेगा जब तीर्थ पहुंचोगे। उसके पहिले महीनों से विकल्प करना पड़ेगा। कहां जाते हो ? अपने आत्मा के पास रहो, यही वास्तविक तीर्थ है। कहा, नहीं गुरूजी, अब तो हमारा यात्रा करने का मन है ही। संन्यासी ने कहा – जावो बेटा ! यदि नहीं मानते हो तो तीर्थयात्रा कर आओ। जब वह तीर्थयात्रा करने चला तो रास्ते में एक बारात आ रही थी, वह उसे देखने लगा। वह नहीं जानता था कि यह क्या चीज है ? लोगों से पूछा-भैया ! यह क्या बात है ? इतने झमेले से तुम लोग क्यों आये ? कहा कि यह बारात है। बारात क्या चीज ? इसमें एक दूल्हा होता है, सो उसकी शादी होती है। शादी क्या चीज ? स्त्री घर में आती है। ‘सो इससे क्या मतलब ?’ बच्चे होते हैं , घर भरता है, इतनी बात सुनकर आगे वह बढ़ गया। थक गया। थक करके एक कुवें पर सो गया। कुवा कैसा था ? सपाट। जब उस पर सो गया तो उसे स्वप्न आने लगा कि हम पड़े है, हमारी स्त्री पास में है, क्योंकि सुन लिया था बारात का किस्सा। बीच में एक लड़का पड़ा है। स्त्री कहती हैं सरको जरा सा, तुम्हें दया नहीं आती, लड़का पिचा जा रहा है। सो स्वप्न ऐसा बुरा होता है कि होती तो कल्पना है और शरीर से चेष्टा करली जाती है। सो जरा सरक गया, और सरको जरा, बच्चे को तकलीफ है। दूसरी बार जब सरकने को कहा तो और सरक गया व कुवा में जाकर गिर गया अब वह कुवें में पड़ा हुआ सोच रहा है कि गुरूजी ने सच ही कहा था कि आत्मा के ही पास में रहो, इतनी थोड़ी देर में एक आया जमींदार पानी भरने। उसने लोटा डोर कुवें में लटकाया पानी भरने को। सो उसने डोर पकड़ ली । अब वह जमींदार डरने लगा कि भूत है क्या? वह बोला-भाई हम भूत नहीं हैं, हम कुवें में गिर गये है, हमें कुवें से निकाल लो। निकाल लिया जमींदार ने उससे परिचय पूछा तो गिरने वाला बोलता है कि महाशय जी आपने बड़ा उपकार किया है, इसलिए कृपा करके आप ही पहिले अपना परिचय दीजिए। जमींदार बोला कि मैं 10 गांव का जमींदार हूँ। 50 जोड़ी बैल से खेती करते हैं। 7-8 लड़के हैं, 20-25 पोते है, बड़ा मकान है, हमारा परिचय तुम क्या पूछते हो तो वह गिरने वाला शिष्य उस आदमी के कभी पैर की तरफ देखे, कभी सिर की तरफ। सो जमींदार ने पूछा कि क्यों देखते हो हमारे सारे शरीर को ? क्या मैं बीमार हूँ, जो तुम डॉक्टरी करने के लिए देख रहे हो ? वह बोला कि हम और कुछ नहीं देखते हैं―सिर्फ यह देख रहे हैं कि हमने तो केवल स्वप्न में ही जरा सी गृहस्थी पायी तो कुवें में गिर गए, और तुम सचमुच की गृहस्थी में रहते हो तब भी जिन्दा हो ?
वास्तविक जीवन―भैया ! अगर जिन्दा का अर्थ यह लगाते हो कि शांति से रहते हैं तो जिन्दा कोई है ही नहीं। तृष्णा है, कर्तृत्व बुद्धि है, आसक्ति है, अपने स्वयं की खबर नहीं रहती है तो वहां तो जीव नहीं है। तो जब यह जीव अपने स्वरूप की से चिगता है तो नाना कल्पनाएँ कर दु:खी होता है। मुझे दु:खी करने वाला अन्य कोई पुरूष नहीं है। हम ही स्वयं अपनी कल्पना से अपने को सुखी दु:खी करते है। ईश्वर का स्वरूप तो ज्ञानानंदमय है। उसमें तो विकल्पों का भी अवकाश नहीं है। फिर करेंगे क्या हमारा या किसी का। प्रभु तो समस्त ज्ञेय को जानता है और अपने आनन्दरस में लीन रहता है। ऐसा ही हम सब जीवों का स्वरूप है, निर्विकल्प केवल ज्ञानमात्र, अकर्ता। अब इस ही आत्मा के अकर्तास्वरूप को एक दृष्टांत द्वारा बतलाते है।
दवियं जं उप्पज्जइ गुणेहिं तं तेहिं जाणसु अणण्णं।जह कदयादीहिं दुपज्जएहिं कणयं अणण्णमिह।।308।।
जीवस्साजीवस्स दु जे परिणामा दु देसिदा सुत्ते।तं जीवमजीवं वा तेहिमणण्णं वियाणाहि।।309।। पदार्थों की अनंतता– इस प्रकरण को जानने से पहिले यह जान जाइए कि जगत में अनंत पदार्थ हैं। अनंत तो जीव हैं और उनसे भी अनंत गुणे पुद्गल परमाणु हैं एक धर्मद्रव्य है―एक अधर्मद्रव्य है, एक आकाश द्रव्य है और असंख्यात काल द्रव्य हैं। एक चीज उतनी कहलाती है जितने का दूसरा हिस्सा नहीं होता है। एक के दो टुकड़े नहीं हुआ करते । अगर दो टुकड़े हो जाए तो समझ लो कि वह एक नहीं था, वे अनंत परमाणु के थे सो बिखर गए। जैसे कोई कपड़ा फट गया, दो टूक हो गए, तो समझ लो कि वह एक चीज न थी, जितने धागे हैं उतनी चीजें हैं। उन धागों को न्यारा-न्यारा कर सकते हो और एक धागे को भी तोड़कर टूककर दें तो समझ सकते हो कि वह धागा भी एक चीज नहीं है। उसमें कितने ही स्कंध मिले हैं, सो उनको बिखेर दिया।
एक का परिणाम―एक चीज के दो टूक नहीं होते। जैसे एक रूपये के दो हिस्से हो जाते है, आधा रूपया इसने ले लिया, आधा रूपया तुमको दे दिया, तो वह रूपया एक चीज नहीं है। वह तो 100 पैसों का समूह है। अब एक नया पैसा से कम यदि कुछ दाम नहीं होता तो उस नया पैसा का आधा नहीं हो सकता। पर नये पैसे से नीचे भी तो कुछ दाम है। आज उनकी प्रसिद्धि हो या नहीं, उनको छदाम, दमड़ी बोला जाता था-उसे चाहे दे ले न सकें, मगर हिसाब में तो आधा नया पैसा आ सकता है। चाहे लेने देने में न आए, पर हिसाब लगा लिया जाता है कि हम तुम दोनों के बीच में 3 नये पैसे का लाभ हुआ, सो 1।। नये पैसे हमारे हुए और 1।। नये पैसे तुम्हारें हुए। तो मालूम होता है कि नये पैसे का भी हिस्सा हो सकता है। जिसका दूसरा हिस्सा न हो वह है एक यूनिट।
प्रत्येक द्रव्य की अखंडता―एक का विभाग नहीं हो सकता, यदि इस लक्षण को देखें तो जीव पूरा का पूरा द्रव्य है। जीव का कोई आधा हिस्सा नहीं होता कि आधा जीव छत पर बैठ जाय और आधा जीव यहां सुनने आ जाय, या आधा मर जाये, आधा जिंदा बना रहे। जैसे छिपकली लड़ती हैं तो उनकी पूंछ कट जाय तो कुछ देर तक पूंछ भी हिलती और दस बीस हाथ दूर पर पड़ा हुआ धड़ भी बेचैन होता रहता है। पर ऐेसा नहीं समझना कि कुछ जीव छिपकली के शरीर में रह गया आरे कुछ जीव पूंछ में रह गया। जीव अखंड है, उसके खंड खंड नहीं होते हैं। उस छिपकली के धड़ से लेकर पूंछ तक जीव फैल जाता है और जहां प्राणों का स्थान होता हैं वहां वह जीव सिकुड़ जाता है। जीव अखंड है जीव के कभी दो टूक नहीं होते। ऐसे-ऐसे जीव अनंत हैं। इसी तरह यहां जो कुछ दिखते हैं ये सब स्कंध हैं और इन स्कंधों के हजार टूक हो सकते हैं। तो यह स्कंध एक चीज नहीं है। इनमें जो अविभाज्य हो परमाणु वह एक चीज है। परमाणु के दो हिस्से नहीं किए जा सकते हैं। एकसा एक एक परमाणु एक-एक द्रव्य है। वे अनंत हैं।
परिणमनों की परिणमयिता से अभिन्नता की नजर―भैया ! इन सब द्रव्यों में प्रत्येक द्रव्य अपने अपने अनंत गुणों के पिंड हैं और प्रतिसमय कुछ न कुछ अपना परिणमन बनाए हुए हैं। यह बात सब द्रव्यों में मिलेगी। जीव अनंत गुणों का पुंज हैं और वे उन समस्त अनंत गुणों के परिणमन हैं। इस तरह प्रत्येक द्रव्य में जो अवस्था होती है उसका नाम तो पर्याय है और अवस्था होने की जो शक्ति है उसका नाम गुण है और उन सब गुणों का जो अभेदरूप एक चीज है उसका नाम द्रव्य है। यहां बतला रहे हैं कि द्रव्य जो कुछ भी उत्पन्न होता वह अपने उन गुणों से अभिन्नस्वरूपी रहता हैं, भिन्न नहीं हो जाता।
―जैसे स्वर्ण कटक आदि पर्यायों रूप से होता है तो सब पर्यायों में यह स्वर्ण और गुणों से अभिन्न ही रहता है। स्वर्ण की डली है। इस समय डली के रूप में है और उसका यदि कुंडल बना दिया, तो कुंडल के ही रूप में पूरा सोना हो गया। कुंडल अलग हो, सोना अलग हो ऐसा नहीं हो सकता। फिर भी सोना में ही सोना हैं, कुंडल में कुंडल है और अंग भी नहीं कर सकते और एक भी नहीं। जो सोना है वह कुंडल नहीं, जो कुंडल है सोई सोना नहीं, फिर भी कुंडल से अलग सोना नहीं। परखने की बात है। जो परिणमन है, जो मिट जाता है वह पर्याय है और जो समस्त पर्यायों में अन्वय रूप से व्यापक रहता है वह द्रव्य है। तो जैसे स्वर्ण कटक केसर कुंडल आदि पर्यायों से अभिन्न रहता हैं, इसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य जिन जिन पर्यायों से परिणमते हैं उन-उन सब पर्यायों में अपने-अपने गुणों से अभिन्न रहते है।
परिणमन की परिणमयिता से अभिन्नता के अवगम से पर की पर में अकर्तृता की सिद्धि―इसका अर्थ क्या निकलेगा कि जब प्रत्येक पदार्थ अपने गुणों से अभिन्न है तो हम भी अपने गुणों से अभिन्न हैं। फिर हम दूसरे का क्या करेंगे। दूसरे मेरा क्या करेंगे ? जब कोई किसी के घर गुजर जाता है ना, तो उसके घर पर रिश्तेदार लोग आते हैंशोक प्रदर्शित करने के लिए, फेरा करने के लिए। फेरा करते हैं। उस घर में जाय और फिर आ जाय, फौरन वापिस आए उसका नाम फेरी है। और समय जाकर तो कई दिनों रह भी सकता है पर मरने वाले के घर में जाय तो आना पड़ता है। तो फेरा करने जाते हैं। सो खुद रोते हैं और दूसरों को रूलाते हैं। तो वहां इस रिश्तेदार ने दूसरे को नहीं रूलाया, यह रिश्तेदार खुद अपने दु:ख की कल्पना बनाकर रोने लगा और वह अपनी कल्पना बनाकर रोने लगा। और कहो ऐसा हो जाय कि रिश्तेदार बिल्कुल ही न रोता हो, थोड़ा पानी वगैरह लगा लिया, या किसी तरह से आंसू निकल आए। न दु:खी हो। तो कोई किसी को न रुलाता हैं, न हँसाता है। मान लो कोई दूर से आए हैं तो रेल में कहो ताश खेलते आए हों और हँसते हुए ताँगे वाले से बातें करते हुए आए हों, और पड़ोस में आए तो रोना शुरू कर दिया।
वस्तुस्वातंत्र्यपरिचय से दिगवगम―भैया ! कोई किसी केदु:ख में अपना सम्वेदन कर सकता हो, यह गलत बात है। लड़के के बुखार को देखकर बाप के भी सिरदर्द हो जाय तो लड़के के बुखार के कारण सिर दर्द नहीं हुआ। बाप ने अपना नया दु:ख और बनाया। कल्पना करके वह भी दु:खी हो गया और वह भी दर्द में पड़ गया। कोई किसी के दु:ख सुख को करने में समर्थ नहीं है। तो जैसे स्वर्णकी पर्यायें स्वर्ण से अभिन्न हैं, स्वर्ण के गुण से अभिन्न हैं, इसी प्रकार प्रत्येक द्रव्यों के परिणमन उन द्रव्यों से अभिन्न है। फिर मैं किसमें क्या कर सकूँगा ? कोई मुझमें क्या कर सकता है ? हम और आप केवल कल्पना करके रह जाते हैं। इससे आगे कुछ नहीं किया करते हैं। सत्य बात तो यह है और यह किसी तरह समझ में आए तो समझो किहम सच्चे जैन हैं, भगवान के भक्त हैं।
एकत्व के परिचय से अर्थसिद्धि―जब यह ध्यान में आए कि मैं आत्मा ज्ञानानंद हूँ, केवलज्ञान विकल्प ही कर पाता हूँ। न दुकान करता हूँ, न घर चलाता हूँ, न पालन पोषण करता हूँ। ये सब स्वयं होते हैं। इन पर हमारा अधिकार नहीं है। अपने ज्ञान का परिणमन करता हूँ। ऐसे अपने अकेलेपन का निर्णय हो तो समझो कि हमने जैन उपदेश का मर्म पाया और अब हम सच्चे मायने में प्रभु के पुजारी हुए। जब हम प्रभु को पूजते हैं उस समय भी हम इस प्रभु का कुछ नहीं करते हैं। यह तो अपनी जगह में है। यह मैं आत्मा अपनी जगह से हटकर प्रभु में क्या करूँगा ? यहां भी प्रभु के गुणों का स्मरण करके अपने गुणों से मिलान करके अपने गुणों का परिणमन करके अपने को पूज रहे हैं। भगवान का हम क्या कर सकते हैं ? सर्वत्र मैं केवल अपना ही परिणमन करता हूँ, यह दृष्टि में आए तो आपने बड़ी सारभूत चीज प्राप्त की। तो इस सर्वविशुद्ध अधिकार में इस आत्मा के एकत्वस्वरूप का वर्णन चलेगा। धीरे धीरे सब विदित होगा। एक इस मर्म के जानने पर ही आप सर्व कुछ जान सकेंगे।
परमार्थ और पर्याय–जैसे सोने की जो चीज बनती है वह सोनेमय ही होती हैं। सोने की कोई सांकर है और उसे मिटाकर उसका कड़ा बना दिया तो जब वह सांकर थी तब भी स्वर्णमय थी और जब वह कड़ा बना दिया तब भी स्वर्णमय है। स्वर्ण की अवस्था स्वर्णपने को छोड़कर रह ही नहीं सकती। इसी प्रकार जीव में जो परिणाम होते हैं वे जीवनमय होते हैं और अजीव में जो परिणाम होते हैं वे जीव के नहीं होते हैं। जीव का परमार्थ स्वरूप और है और अवस्था का स्वरूप और है। जीव के स्वरूप का नाम है परमार्थ और जीव की अवस्था का नाम है माया। जिसे कहते हैं माया और ब्रह्म।
परमार्थ और पर्याय के स्वरूपावगम के लिए एक दृष्टांत―जैसे पानी गरम कर दिया गया, तो गरमी पानी से अलग नहीं है। पानी ही गरमीमय हो गया है, फिर भी गरमी का स्वरूप और है, पानी का स्वरूप और है। गरमी का स्वरूप ही यदि पानी का स्वरूप हुआ हो तो सदा पानी गरम ही रहना चाहिए। सो ऐसा होता नहीं । इस तरह गरमी तो है एक माया रूप, अब है फिर नहीं है और जल है आधारभूत । यह सर्वविशुद्ध ज्ञान की बात चल रहीं है। अपने आप में सहज अपने ही सत्व के कारण जो अपना स्वरूप है उसकी पहिचान बिना यह जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य देव, रागी द्वेषी पुरूष, इन नाना भावों में बसा हुआ है और इसे अपने उस सहज ज्ञानस्वरूप का परिचय हो जाय तो यह माया सिमिट जाता है। यह ब्रह्म अन्यत्र नहीं है। आपका जो सहज स्वरूप है वही ब्रह्मरूप है।माया का निर्गमम―माया किसे कहते हैं? माया, जो मा के योग्य है, निषेध के योग्य है मत हो, वह है मा और जो या है, वह है मत अर्थात जो यह है वह परमार्थ नहीं और जो परमार्थ है वह यह नहीं । लेकिन माया और परमार्थ जुदे जुदे घर में रहने वाले नहीं हैं। परमार्थस्वरूप में काल में माया का भेष धारण किया है और इसी तरह जब यह आत्मा माया कोई नई चीज न होगी। जैसे वस्त्र में मैल लगा है, साबुन पानी से उसे धोते हैं तो धोने पर कोई नई चीज नहीं बन गयी। जो चीज है वही मिलेगी। कोई नया वस्त्र नहीं हो जायेगा। उसमें कहीं से नई सफेदी न आ जायेगी। जो इसके अंतर में है सफेदी वह व्यक्त हो जायेगी।टंकोत्कीर्णवत् निश्चलता का दृष्टांत―जैसे एक पाषाण में मूर्ति बनाना है। बहुत बड़ा पाषाण लाये, कारीगर से कहा देखो इस प्रकार की ऋषभदेव की मूर्ति बनावो। कारीगर ने चित्र देखा दूसरी जगह जहां ऋषभदेव की मूर्ति थी दिखा आए। ऐसी बनाना है। तो उस पत्थर को देखकर कारीगर कहता हैं कि हां बन जायेगी मूर्ति। कारीगर ने उस पत्थर में अभी से मूर्ति देख रखी है। जो उस पत्थर के बहुत बीच में है। यदि कारीगर ने मूर्ति न देख रखी हो तो उसका हाथ ही न चल सके। कहां छेनी चलायेगा, बीच में ही पटक देगा तो मूर्ति तो न बन सकेगी। वह संभाल-संभाल कर अगल-बगल के मोटे पत्थर निकालने के लिए धीरे से हाथ क्यों चलाता है यों कि उस कारीगर ने उस पत्थर में वह मूर्ति देख रखी है, जो मूर्ति ओर लोगों को बड़ी मुश्किल से देखने को मिलेगी। तब फिर वह क्या करता है ? क्या कारीगर मूर्ति बनाता है ? कहीं से कोई चीज उसमें लगाता है क्या ? जोड़ता है क्या ? अरे नहीं, वह मूर्ति जो दिख चुकी है, जो उसके अंदर है रोकने वाले अगल बगल के पत्थर लगे हैं उन पत्थरों को छेनी से हटाता है।
आवरण निवारण पद्धति―भैया ?जरा छेनी से उन अवयवों को हटाने की भी पद्धति देखो। पहिेले बहुत बड़ी सावधानी नहीं रखता। कुछ तो रखता है। बड़ी छेनी बड़ा हथौड़ा मारता है। निकालता है पत्थर को। थोड़ा जब कुछ रूपकसा बन जाता है तब उसने छोटी छेनी ली, और छोटी हथौड़ी लिया और सावधानी से पत्थर को निकालता हैं। जब उस मूर्ति का रूपक सामने आ जाता है तब उसके साधारण दोष मिटाने के लिए बहुत हल्की छेनी लेते हैं और बहुत हल्की हथौड़ी लेते हैं। जैसे प्लास्टिक के फौन्टिनपैनों पर नाम खोदने वाले बहुत पतली हथौड़ी और बहुत पतली छेनी रखते हैं। काम कराने वाले हैरान हो जाते हैं। क्या किया, आज तो काम कुछ भी नहीं किया। कुछ सावधानी के साथ अत्यंत सूक्ष्म छेनी और हथौड़ी से आवरणों को हटाते हैं। हो चुके उसके तीन प्रयोग जो मूर्ति उस पत्थर में थी वह निकल आयी, प्रकट हो गई, लोगों को दिखने लगी।प्रथम विभक्तीकरण―इसी तरह हम और आप का प्रभु, ये सब मूर्तिमान प्रभु बैठे हैं। हम आप सबके अंदर वह परमात्मतत्त्व स्वयं बसा हुआ है। अपने को संतुष्टि, मुक्ति परमात्मस्वरूप पाने के लिए नया काम नहीं करना हैं, कहीं से चीज नहीं जोड़ना है। गृहस्थावस्था में ये बाह्य आलंबन किया करते हैं, पर यह आलंबन भी काम नहीं देता है। यहां कोई नई चीज नहीं जोड़ना है किंतु बना बनाया यह घट घट में बसा हुआ प्रभु जिन विषय और कषायों के परिणाम से ढका हुआ है वे विषय कषाय के परिणाम ज्ञान की छेनी से, ज्ञान की हथौड़ी से ज्ञान की चोट से, ज्ञानमय यह पुरूष जब वहां विभाग करता है तो देखो पहिले तो ये अपने बाह्य आवरणों को दूर करते हैं, धन वैभव को ही नहीं, ये जड़ पदार्थ तो अत्यंत भिन्न हैं, इनसे तो मैं न्यारा हूँ ही, और इस शरीर से भी मैं न्यारा हूँ। तो पहिली चोट तो भिन्न-भिन्न इन बाह्य पदार्थों पर यह ज्ञानी करता है, इनसे मैं न्यारा हूँ। देहात के लोगों से भी पूछ लो, वे भी बता देंगे कि शरीर से जीव न्यारा है, मर जाता हैं तो शरीर यहीं पड़ा रहता है और जीव चला जाता है। सबसे पूछ लो-सभी बतायेंगे। तो यह पहिले आवरण हटाया जिसमें अधिक सावधानी नहीं करनी पड़ी।
द्वितीय विभक्तीकरण-अब दूसरा प्रयत्न देखो जिसमें कुछ विशेष सावधानी करनी पड़ी। इस आत्मा के साथ सूक्ष्म शरीर लगा हुआ है, जो मरने पर जीव के साथ जाता है, जिसे तैजस और कार्माणशरीर कहते हैं। सर्व संसारी जीवों के यह सूक्ष्मशरीर लिपटा है। अनादि काल से ये लगे हैं, एक समय को भी अलग नहीं हो सकते। उन सूक्ष्म शरीरों से भी न्यारा हूँ ऐसे कुछ पैने ज्ञान और छोटी हथौड़ी की चोट से बाह्य आवरणों को हटाया। मैं कर्मों से भी न्यारा हूँ।तृतीय विभक्तीकरण―अब तीसरी चोट बड़ी सावधानी से ज्ञानी लगाता हैं कि मेरे में जो विचार होते हैं, रागादिक भाव होते हैं उन सबसे मैं न्यारा हूँ, एक चिन्मात्र हूँ, ऐसा जहां तीसरी बार का यत्न हुआ और यह यत्न स्थिर रह सका तो जो प्रभु मौजूद है वही का वही प्रकट हो गया। कोई नई चीज नहीं निकलती।
जीव की परभाव से विविक्तता―भैया ! जीव का परिणमन है वह सब जीवमय है और अजीव का जितना परिणमन है वह सब अजीवमय है। इस कारण जीव का अजीव कुछ नहीं करता, अजीव का जीव कुछ नहीं करता । संबंध बना हुआ है यह निमित्तनैमित्तिक भाव के कारण संबंध बना हुआ है। जो यह भ्रम है कि मैं हुक्म देता हूँ तब मेरे भाई या मेरे नौकर काम करते हैं, यह आपका सोचना बिल्कुल भ्रम है। यदि उस मित्र का, उस भाई का काम करने का परिणाम न बने तो वह नहीं कर सकता है। आप सोचते हो आपके सोचने से जैसा आप कहते है तैसा मान जाता है यह सोचना भूल है। बच्चे के मन में अपना हित न जंचे तो बाप की बात नहीं मानता है। बाप भी बच्चे का कुछ नहीं करता है बाप के आगे बच्चा थोड़ा हाथ जोड़ तो दे फिर तो उस बाप को उस बच्चे का चाकर बनकर सेवा करनी पड़ती है। कोई किसी की बात नहीं मान सकता। सब अपने-अपने सुख के लिए कषाय परिणाम रखकर अपना अपना प्रवर्तन किया करते हैं।निजभाव के अनुसार प्रवृत्तियां– प्रत्येक जीव मात्र अपनी परिणति से परिणमता है, दूसरे की परिणति से नहीं परिणमता है। इसके लिए क्या ज्यादा दृष्टांत दें। अपने जीवन में हज़ारों घटनाएं ऐसी होगी कि जिसे हम समझते हैं कि यह मेरा मित्र है, बहुत मित्र है, बहुत आज्ञाकारी है और कहो कभी उसके द्वारा बड़ा धोखा खा जायें। जिसे आप मानते हो कि यह हमारा बड़ा दुश्मन है कहो वही कभी मित्र बन जाय। तो जैसे जैसे अपना परिणाम बनता है वैसे ही वैसे अपनी प्रवृत्ति होती है।
अपना वैरी अपनी वैर कल्पना―एक राजा किसी शत्रु पर चढ़ाई करने जा रहा था। शत्रु भी अपनी जगह से चढ़कर आ रहा था। रास्ते में एक मुनि महाराज मिल गए, उनके दर्शन किये। दर्शन करके बैठ गया, उपदेश सुना। कानों में सेना की कुछ आवाज आई। राजा चौकन्ना होकर झट संभल कर बैठ गया। कुछ और निकट आए तो वीरासन में बैठ गया। कुछ दिखने सा लगा तो तलवार पर हाथ लगाया, कुछऔर निकट आया तो तलवार निकाली। मुनि कहते हैं कि राजन् यह क्या कर रहे हो ? तो राजा बोला महाराज शत्रुज्यों–ज्यों निकट आते हैं त्यों-त्यों मेरा क्रोध उमड़ता जा रहा हैं। मैं उसका नाश करुंगा, ऐसा संकल्प कर रहा हूँ। मुनि बोले राजन् तुम बहुत ठीक काम कर रहे हो। ऐसा ही करना चाहिये। मगर एक शत्रु तो तुम्हारे अंदर ही घुस गया, उसे जल्दी निकालो। उसका नाश करो। महाराज मेरे अंदर कौन सा शत्रु घुस गया ? महाराज बोले कि तुम्हारी जो दूसरे जीव को शत्रु मानने की कल्पना है वह कल्पना ही तुम्हारा शत्रु है और यह शत्रु तुम्हारे अंदर घुस गया है। सोचा ओह सर्व जावो का एक स्वरूप है। कोई किसी का बिगाड़ नहीं करता, कोई किसी का बैरी नहीं है। सिर्फ कल्पना में मान लिया है कि यह मेरा बैरी है। बस यह कल्पना ही मुझे दु:ख दे रही है। अब तो उसके वैराग्य बढ़ा और वहीं साधु दीक्षा ले ली। अब तो समस्त शत्रु और राजा आ गए और सब चरणों में गिरकर शीश झुकाकर चले गए।
निर्वैर और ज्ञानमय आत्मस्वरूप–भैया ! इस जीव का कोई वैरी नहीं है। कोई जीव किसी का विरोधी नहीं है। सब की अपनी-अपनी कषाय के अनुसार चेष्टा होती है। उसमें जिसे बाधक मान लिया जाता है उसको शत्रु कहते हैं। और जिसे साधक मान लिया जाता है उसे मित्र कहते हैं। पर ये जो राग द्वेष की हठें हैं वही परेशानी में डाल रहीहै। जीव कल्याणमूर्ति है, ज्ञानानंदघन है, प्रभुस्वरूप है, अत्यंत स्वच्छ है। सारे विश्व को एक साथ जान ले ऐसी शक्ति है। यह दूसरे की बात नहीं कही जा रही है, यह आपकी स्वयं की बात है। मगर समागम में आई हुई तुच्छ चीजों में आसक्ति करके, मोह करके इतने बड़े कल्याणरूप को बरबाद कर रहे हो। जैसे द्वेष में बरबादी होती है वैसे ही राग में बरबादी होती है। राग और द्वेष दोनों ही मलिन भाव हैं―और प्रभुता के नाश करने वाले भाव है।हठ से विडंबना―एक मास्टर और मास्टरनी थे। मास्टर जी कालेज में पढ़ाते थे और मास्टरनीजी किसी कन्या पाठशाला में पढ़ाती थी। दोनों पुरूष स्त्री ने छुट्टी के दिन के लिये सोचा कि कल क्या खाना चाहिए ? सो आपस में तय हुआ कि मुँग की मंगौड़ी कल बनना चाहिए। सामान जुटाया खूब मेहनत से, अब मंगौड़ी बनाया तो 21 बनी संख्या में। अब जब मास्टरजी जीमने बैठे तो 10 परोस दीं मास्टर को और 11 अपने लिए रख लिया। तो मास्टर बोला कि 11 मंगौड़ी हम खायेंगे, मास्टरनी बोली कि हम 11 मंगौड़ी खायेंगे हमने मंगौड़ी बनाने में बहुत श्रम किया है। दोनों में यह तय हुआ कि हम तुम दोनों चुपचाप हो जायें, जो पहिले बोलेगा वह तो 10 मंगौड़ी खायेंगा, और जो बाद में बोलेगा वह 11 मंगौड़ी खायेगा। अब उन दोनों में हुज्जत हो गयी। सो चुपचाप बैठे। एक दिन हो गया, दो दिन हो गए, दोनों ही भूखे बैठे रहे। दोनों ही भूख से लस्त पस्त हो गए थे। अभी एक दिन अनशन करके आप ही देख लो तो पता पड़ जायेगा कि बेहोशी सी आ जाती है कि नहीं। सो वे दोनों अधमरे से पड़े थे। मगर हठ जो लगी है उसका फल तो बुरा ही होगा। पहिले जो बोल देगा वह 10 ही मंगौड़ी पायेगा। सो दो तीन दिन के बाद वे मरे से हो गये। तो लोग लकड़ी के किवाड़ चीरकर भीतर घुसे, भीतर से जंजीर लगी थी। देखा कि मास्टर मास्टरनी दोनों मर गए।
लोगों ने सोचा कि भाई ले चलो दो अर्थी क्यों बनाए ? एक ही में दोनों को मरघट में ले चलो। वहां लकड़ी कंडा इकट्ठा किया, दोनों को लिटा दिया।आग लगाने में जरा सी देर थी । मास्टरनी सोचती है कि अब तो हम भी मरे और ये भी मरे। अब तो दोनों ही मरेंगे। हठ करने में कुछ धरा नहीं है। हठ छोड़ना चाहिए। अब भाग्य की बात है कि उस दिन 21 आदमी आए थे जलाने कि लिए गिनती के। मास्टरनी बोली-अच्छा तू ही 11 खा लेना हम 10 को खा लेवेंगी। वे 21 थे,सो सबने सोचा कि ये तो दोनों ही भूत भूतनी बन गए। भूत तो हम सबमें से 11 को खा लेगा और भूतनी 10 को खा लेगी। सो इतना सुनकर सब जान बचाकर भाग गए। फिर जब निकले तो कहा कि देखो हठ में कोई सार नहीं है। दोनों ही मर जाते तो क्या होता ?
हठ से हानियां―तो भैया ! जरा जरा सी बातों में जो इतनी हठ हो जाती है कि हम कभी दूसरे का गौरव भी नहीं कर सकते हैं―चलो दूसरा कोई अगर सुखी होता है तो होने दो, अपनी हठ छोड़ो। हठ छोड़ने में अपनी बिगाड़ कुछ नहीं है। हठ रखने की जो आदत है इस आदत से भीतर में रागद्वेष की वासना प्रबल हो जाती है। प्रथम तो यह बात हैं कि कोई जीव किसी दूसरे जीव का कोई परिणमन नहीं करता। सब केवल अपनी-अपनी सृष्टि बनाते जाने में मरते रहा करते है। संसार की ऐसी ही स्थिति है। मेरा ऐसा स्वरूप है कि किसी पर मेरा अधिकार नहींमेरा मुझ पर ही अधिकार है। अपने को सुधार लें अथवा बिगाड़ लें। हम ही अपने को कुछ भी कर सकते हैं, दूसरे का कुछ नहीं कर सकते हैं। जब कभी सच्चे ज्ञान की झलक होती है और आकिंचन जानें, और किसी क्षण यदि ऐसा भाव बनाएं कि कुछ भी चाह न आए, चाहे हज़ारों आवश्यकताएं पड़ी हुई हों, मगर किसी समय कुछ भी चाह न आए, सर्व से अत्यंत विविक्त होकर केवल ज्ञानस्वरूप मात्र पर दृष्टि जाए तो यही अपने उद्धार का उपाय है। और जो कुछ हठ करके रहेगा उसके हाथ कुछ भी न लग पायेगा।हठी के हाथ कोयला―एक नाई था। सो सेठजी की हजामत बना रहा था। जब छुरा मुंह के पास लाया तो सेठ डरने लगा। कहा, देखो अच्छी तरह हजामत बनाना, हम तुम्हें कुछ देंगे। नाई ने जब गले के छुरा फेरा तो फिर सेठ डरा। फिर कहा कि अच्छी तरह बनाना, हम तुम्हें कुछ देंगे। नाई ने सोचा कि सेठ कोई अच्छी चीज देंगे। जब हजामत बन चुकी तो 8 आने देने लगे। बोला यह नहीं लेंगे, हम तो कुछ लेंगे। 1 रूपया दिया, बोला नहीं लेंगे, पाँच रूपया दिया, बोला नहीं लेंगे। 10 रूपया दिया, नहीं लेंगे। गिन्नी देने लगा-बोला नहीं लेंगे, हम तो कुछ ही लेंगे। सेठ परेशान हो गया। कहा अच्छा भाई प्यास लगी है सो उस आले से वह गिलास उठा दो, हम दूध पी लें फिर तुम्हें कुछ देंगे। झट दौड़कर नाई गया। उठाया तो गिलास के दूध में कुछ पड़ा हुआ नजर आया। उसे देखकर उससे न रहा गया, बोला-सेठजी इसमें तो कुछ पड़ा है। क्या कुछ पड़ा है? हां। तो अपना कुछ उठा ले। अब बतलावो उसे क्या मिला ? कोयला । अब यह देखो कि सेठ असर्फी तक दे रहा था पर नहीं लिया, वह अपनी हठ पर अड़ा ही रहा सो उसे कोयला मिला। इसी तरह लाखों की चाह हो, करोड़ों की चाह हो, कितना भी वैभव मिल जाए पर शांति उससे नहीं होती है। शांति तो तभी मिल सकती है जब कि अपने को इस जगत में सबसे भिन्न जानकर रहें। इसी लक्ष्य से अपना चरम विकास है।धर्म के लिये ही जिंदगी―भैया ! मैं जी रहा हूँ तो धर्म के लिए जी रहा हूँ ऐसी भावना आनी चाहिए। यह बात सच्ची कही जा रही है। धन विघट जायेगा, परिवार विघट जायगा, शरीर विघट जायेगा, केवल एक धर्म ही साथ में रहेगा। तो यह निर्णय रखो अंतर में कि हम जीवित हैं तो धर्म के लिए जीवित है, धन के लिए नहीं, परिवार के लिए नहीं। ये सब स्वप्नवत् है, मायारूप है। इसी प्रकार इस मोह की नींद में जो कुछ दिख रहा है वह इस काल में सच मालूम हो रहा है यह सब बिल्कुल झूठ है, मायारूप है। आप हमें नहीं जानते, हम आपको नहीं जानते और फिर भी संबंध आप इतना बनाए जा रहे है। आप हमें जानते हैं क्या ? नहीं जानते और मैं आपको जानता हूँ क्या ? नहीं जानता। यदि मैं आपको जानता होता, आप मुझे जानते होते तो आप और हम स्वयं ज्ञानमय हो गये होते, फिर वहां व्यावहारिक प्रवृत्ति करने का काम ही नहीं होता। सो इस समस्त विश्व को मायारूप जानकर इसमें मोह न करना, इसमें उपेक्षा भाव रहे, आत्महित की धुनि रहें इसी में हीअपना कल्याण है।