वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 63
From जैनकोष
घने वस्त्रे यथाऽऽत्मानं न घनं मन्यते तथा ।घने स्वदेहेऽप्यात्मानं न घनं मन्यते बुध:॥63॥
जिस जीव के शरीर और आत्मा में भेदाभ्यास दृढ़ हो जाता है, वह अंतरात्मा पुरुष शरीर की किसी भी अवस्था के होने पर उस रूप अपने को नहीं मानता है । जैसे कोई पुरुष बड़ा मोटा कपड़ा पहिन ले तो कहीं वह अपने को मोटा नहीं मान लेता है । कोई दुर्बल सूखा पुरुष रुईदार बंडी, कुर्ता, कोट पहिन ले तो कहीं वह अपने को मोटा नहीं मान लेता है ? इसी प्रकार यह देह कितना ही मोटा हो जाए, फिर भी यह ज्ञानी पुरुष अपने को मोटा नहीं मानता है । पर्यायव्यामोही पुरुष एक इस शरीर को मैं बलवान् देखूँ, सबसे ज्यादा बलवान् पुष्ट होऊँ, इस ख्याल से पहलवानी का व्यायाम करता है, श्रम करता है, पसीना चू रहा है, कितनी ही दंडबैठक हो गयी है और बीच बीच में अपने भुजा अपनी वक्ष: स्थल व अंग देखता जाता है, मैं बहुत मजबूत हूं, पुष्ट हो गया हूं, मोटा हो गया हूं । इस प्रकार ये सब व्यामोही पुरुष अपने को ही बर्हिमुख कर रहे हैं । इन व्यामोही पुरुषों को यह दृष्टि नहीं प्राप्त हुई है कि आत्मा तो ज्ञानबल से भी बलवान् है । ज्ञान बल नहीं है तो यह देह कितना भी पुष्ट हो जाए, उसे कहीं धैर्य, चैन, साहस नहीं हो जाएगा ।
अज्ञानी का श्रम – अज्ञानी पुरुष देह से मोटा, तगड़ा, पुष्ट होने से अपने को तगड़ा मानता है। शरीर धर्म के नाते स्वस्थ रहने के लिए थोड़ा श्रम करे, व्यायाम भी करे, थोड़ा काम करे, परोपकार करे, पर मैं शरीर से पुष्ट होऊं और मैं दुनिया में सबसे अच्छा कहलाऊं, इस भाव से शरीर को तगड़ा बनाने का यत्न के मायने हैं कि अपने आपको जड़ मान लिया और ऐसी ही स्थिति में व्यायाम करके तो यह पसीने से लथपथ कर देगा । श्रम करेगा और किसी दु:खी को कोई बोझा उठाकर सिर पर भी रखाना हो तो उसके लिए श्रम न होगा । अरे दुखियों का उपकार करने में दोनों बातें निभती हैं, शरीर का व्यायाम भी हो जाता है और दूसरों का दर्द मिटता है । आत्मा को बल मिलता है बुद्धि ठिकाने रहती है । यदि वह यों देखे कि उपकार करते हुए में पूरा श्रम नहीं होता तो उसकी कसर फिर खूब दंड बैठक करके निकाल लेवे, परंतु प्रवृत्ति पर के उपकार के लिए न हो, हमारे शरीर का कोई श्रम नहीं हो और शरीर की पुष्टि के ख्याल से बड़ा व्यायाम व श्रम करके अपने को पसीने से लथपथ कर लिया जाए, यह क्या है ? पर्यायव्यामोह है ।
सदृश बाह्यवृत्ति में भी आशय का अंतर – भैया ! किसी भी कार्य में आशय के भाव से अपने में बड़ा भेद हो जाता है । महलों में, घरों में जगह जगह दर्पण रखे हैं । दर्पण उठाया और देखा । यह देखना किसलिए है ? मैं खूबसूरती में ठीक हूं या नहीं, कुछ कमी तो हमारे श्रृंगार में नहीं रह गयी, इस काम के लिए वह दर्पण है । बाल बन रहे हैं, वह दर्पण लिए हैं और संतोष करते जा रहे हैं, यह ठीक श्रृंगार कर रहा है । थोड़ी भी गड़बड़ हुई तो टोक दिया जाएगा कि अरे ठीक बना । कपड़ा पहिनकर चलेंगे तो अब कोट की कालर तो दिख नहीं सकती, सो अब कोट की कालर देखने को दर्पण ही तो चाहिए । उसको दर्पण में मांग संभालनी है । टोपी ठीक है या टेढ़ी लगी है या नहीं, उसको भी दर्पण में देखा । यों मोहीजनों का दर्पण में देखना श्रृंगार के लिए होता है, किंतु किसी का दर्पण का देखना भी वैराग्य के लिए हो जाता है ।
सुबह किसी गुरु या देव का दर्शन करे और न कर सके तो अपने ही चेहरे का दर्शन करे । क्यों करे ? यह ज्ञानी की कथा है कि चेहरे को देख लेगा तो दो बातें वह अपने से अपने हित की कहेगा । इतने दिन जीवन के बिताए, अपने भले के लिए कुछ काम कर पाया तूने या नहीं ? यह जिंदगी यों ही ढली जा रही है । जल्दी चेत, कल्याण कर, विवेकी पुरुष को आईने में अपना चेहरा देखने पर, किंतु पर्यायव्यामोही को या तो शरीर के बूढ़े होने का या कोई सौंदर्य मिटने का दु:ख होगा या खूबसूरती नजर आने से यह व्यामोही पुरुष हर्ष मानेगा। ऐसी अंतर्वृत्ति ज्ञानी और अज्ञानी में विलक्षण होती है ।
अज्ञानी और ज्ञानी का पुष्टितर्कणा – ज्ञानी इस देह की किसी अवस्था से अपने में कोई क्षोभ नहीं लाता है । वस्त्र मोटा होने पर कोई दुबला शेखी मारे तो उस शेखी से कहीं ताकत तो न आ जाएगी । भले ही मारे शेखी । यों ही देह के पुष्ट होने से अपने को पुष्ट मानने वाले अज्ञानी पुरुष के कहीं शांति तो न आ जाएगी, आत्मबल तो नहीं आ सकता है ? देह से अपने आत्मा का भेदविज्ञान करना, यह करण ज्ञानी के सुदृढ़ है । जैसे लोग बाहरी बातों में तैयारी देखकर मेरा घर अब चारों ओर से मजबूत है, मैंने देश में, समाज में सब तरह से अपनी मजबूती बना ली है । अब मुझे कुछ डर नहीं हैं । यों बहिरात्मापुरुष सोचता है तो अंतरात्मा पुरुष अपने ही आपके भीतर की तैयारी करके संतोष करता है । अब मैंने अपने आत्मस्वरूप को परख लिया है । अब मुझे अरक्षा का कोई भय नहीं है । मुझे परवस्तुकृत इस लोक में अथवा परलोक में कहीं भी विपदा की शंका नहीं है । मेरा सब कुछ मेरे में ही बसा है । मैंने अपने आपको खूब तैयार कर लिया है, अब भय नहीं है । यह ज्ञानी पुरुष अपनी आंतरिक पुष्टि से अपने को पुष्ट समझता है ।
प्रतिक्षण समाधि की आवश्यकता – लोग कहते हैं कि शास्त्रों में लिखा है कि मरण समय में यदि कोई भय कर ले, शंका कर ले, व्यामोही हो जाए तो उसकी दुर्गति होती है । मरण में भी कष्ट होता है और मरकर उत्पन्न भी दुर्गति में होता है । तब मरणसमय में समाधिभाव रहना चाहिए । मोह न हो, किसी वस्तु में राग और द्वेष न जगे―ऐसी शुद्ध वृत्ति होनी चाहिए, पर ऐसा हो जाना कोई मरण के समय ही कर ले, जीवनभर कुछ साधना न करे तो यह बहुत कठिन बात है । इसके लिए हमको जीवनभर इसकी साधना करनी चाहिए । हम आप सबका रोज रोज क्षण क्षण में मरण हो रहा है ।
मरण दो प्रकार के होते हैं – एक आवीचिमरण और दूसरा तद्भवमरण । मरण नाम इसी का तो है कि आयु का क्षय हो जाए । जिसकी आज 50 वर्ष की उमर है, इसका क्या यह अर्थ नहीं है कि 50 वर्ष की आयु का क्षय हो चुका है ? यदि 60 वर्ष की उमर है तो क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि 60 वर्ष की आयु का क्षय हो चुका ? प्रतिक्षण आयु का क्षय हो रहा है, यह है आवीचिमरण । मनुष्य आयु का जब भी कभी समग्र क्षय हो जाएगा तो उसका नाम है अपना तद्भवमरण । जैसे तद्भवमरण में समाधि की आवश्यकता है, वैसे ही आवीचिमरण में अर्थात् प्रतिक्षण की समाधि की आवश्यकता है ।
मोह में संकटों का स्वागत – भैया ! मोह रागद्वेष परिणाम होने के बराबर अन्य कुछ संकट नहीं है । कौन सी वजह है कि संसार के अन्य सब अनंत जीवों को तो गैर करार किया है और घर के दो चार छ: प्राणियों को अपना कबूल किया है ? कौन सी वजह है, कौन सा संबंध है ? युक्ति पूर्वक किसी भी प्रकार बताओ तो सही । इस मायामयी दुनिया में जो कि प्रकट असार मलिन संसारी प्राणीयों का झमेला है, मोह की नींद का स्वप्न है, उस स्वप्न में किसी को अपना मान लें तो इससे क्या कोई अपना हो सकता है ? जो बात जैसी नहीं हो सकती है, उसको वैसा करने का यत्न करे कोई तो उसे मूढ़ कहा ही जाएगा । कोई कोल्हू में बालू भर भर कर बैलों को जोतकर पेले तो क्या विवेकीजन उसमें आस्था रख सकते हैं ? तालाबों में से कमल तोड़कर अथवा कमलगट्टे के बीज लेकर कोई पहाड़ों पर बिखेरे कि यहां खूब सारे कमल के फूल हो जायेंगे तो क्या कोई उसे विवेकी कहेगा ? यों ही समझो कि संसार के अनंत जीवों को गैर मानकर दो चार जीवों को श्रद्धा में अपना मान लें तो ऐसी मान्यता करने वाले को क्या बुद्धिमान कहा जाएगा ?
अतीत त्रुटियों के सुधार का यत्न – भैया ! व्यवस्था की बात अलग है और श्रद्धा की बात अलग है । व्यवस्था तो गले पड़े बजाय सरे जैसी बात है । नहीं है इतना आत्मबल कि सबकी अपेक्षा त्याग कर केवल ब्रह्मस्वरूप से ही अपना वास्ता रखें । क्या पड़ा है प्रयोजन ? अपने आपमें स्वयं ज्ञान और आनंद भरा हुआ है । स्वभावत: क्लेशों का यहां नाम नहीं है। शुद्धनय से देखो अथवा जब शुद्ध विकास हो जाता है, तब स्थिति से देखो तो यह धर्मादिक द्रव्यों की तरह अपने ही गुणों के परिणमन से शुद्ध अर्थपर्यायरूप परिणमता रहता है । इसे क्लेश कहां है ? परंतु जहां पर भी अपनी स्वभावदृष्टि को तजा और बाहर में दृष्टि लगायी कि क्लेश ही क्लेश हो जाते हैं । जो पुरुष यह विश्वास रखते हैं कि ये घर के लोग, स्त्री पुत्र मेरे हैं, वे मिथ्या आशय वाले हैं । उनके हृदय में धर्म का प्रवेश नहीं हो सकता है । अपनी व्यतीत हुई गल्तियों का बढ़ाना अच्छा नहीं है । अपनी गलतियों का सुधार करने में भला है।
ज्ञानी की श्रद्धा – यहां श्रद्धा की बात कही जा रही है । प्रत्येक पुरुष अपने चित्त मंत्री से पूछ सकता है । जान सकता है कि मैं परपदार्थ के प्रति उनको अपना मानने की श्रद्धा रख रहा हूं या नहीं ? इसका अन्य किसी से फैसला नहीं हो सकता और जो अंतरंग में परजीवों के प्रति ऐसा विश्वास बनाये रखते हैं उनको अनाकुलता की प्राप्ति नहीं हो सकती । कैसे प्राप्ति हो ? परदृष्टि का भाव ही आकुलता को लिए हुए है । ज्ञानी पुरुष ने देह में और आत्मा में ही भेदविज्ञान किया है । वह देह की स्थिति से उस प्रकार अपने को नहीं मानता है । ऐसे शुद्ध स्वच्छ आशय वाले ज्ञानस्वभाव का जिसने उपयोग द्वारा अनुभव पद्धति में दर्शन किया है वह पुरुष देह की स्थिति से अपनी स्थिति नहीं मानता है । देह हो जाय मोटा तो यह ज्ञानी अपने आपको घन अथवा मोटा नहीं मानता है ।
द्रव्य और क्षेत्र की दृष्टि से आत्मा की देह से विविक्तता – ज्ञानी को यह दृढ़तम विश्वास है कि मैं अपने द्रव्य से अपने गुणपर्यायरूप हूं । यह शरीर एक तो पुद्गलद्रव्य हैं ही नहीं, पुद्गल द्रव्य का समूहरूप एक पिंड है, जो उपचार से पुद्गल कहा जाता है । यह अनेक द्रव्यों का पिंड है और फिर यह देह, यह पुद्गल अपने द्रव्य से अपने ही गुणपर्यायरूप है । यह मैं आत्मा क्षेत्रदृष्टि से अपने ही प्रदेश में रहने वाला हूं और यह शरीर क्षेत्रदृष्टि से देह के अपने आपके ही प्रदेश में रहने वाला है, यह सब भेदविज्ञान की बात है । जिसे भेद विज्ञान हो गया है उसे थोड़ी सी ही दृष्टि में भेददर्शन की तैयारी के ही संकल्प में यह भेद दिख जाता है और जिसे इसका दर्शन नहीं हुआ है, इस देह से विविक्त शुद्ध ज्ञानस्वरूप आत्मतत्त्व के वह अगल बगल यहां वहां धर्म की खोज करता है, हैरान हो जाता है, पर धर्म की प्राप्ति नहीं होती है ।
काल और भाव की दृष्टि से आत्मा की देह से विविक्तता – यह मैं आत्मा कालदृष्टि से अपने ही पर्याय का सृजन करने वाला हू्ं, अपने ही पर्यायरूप था, अपने ही पर्यायरूप हूं, अपने ही पर्यायरूप रहूंगा । यह देह यद्यपि मेरे एक क्षेत्र में अवगाहित है । जहां मैं हूं वहीं देह है । मेरी क्रिया हो तो देह की क्रिया साथ है, देह की क्रिया हो तो मेरी क्रिया साथ है । ऐसा घनिष्ट संसर्ग होने पर भी यह मैं आत्मा अपने ही पर्यायों से परिणमता हूं और यह शरीर अपने ही पर्यायों से परिणमता है । कालदृष्टि से भी मैं इस शरीर से अत्यंत विविक्त हूं, भावदृष्टि से, गुणों की अपेक्षा से यह मैं आत्मा अपने आप में ही तन्मय शाश्वत शक्तियोंरूप हूं, चैतन्यशक्तिरूप हूं और यह देह अपने आपकी जाति का उल्लंघन न करता हुआ अपने आपकी शक्तिरूप है । यों यह मैं आत्मा इस शरीर से अत्यंत न्यारा हूं ।
आत्मपुष्टि का पुष्ट उपाय – देह से भिन्न निजस्वरूपास्तित्वमात्र ज्ञानानंदस्वरूप की जिसने प्रतीति की है, ऐसे पुरुष को आत्मतत्त्व अपने यथार्थज्ञान की खुराक से पुष्ट नजर आता है और जहां जितना कुछ ज्ञात रहता है उतना इसमें पुष्ट नजर आता है । किंतु शरीर के किसी भी प्रकार के संसर्ग से यह पुष्ट और अपुष्ट अपने को नहीं मानता है । देह कैसा ही हो, मोटा हो, पतला हो, व्याधियुक्त हो, प्रत्येक स्थिति में अपने आपके आत्मतत्त्व को इस देह से रहित निरखिये । जब देह से भी भिन्न अपने आपको मैं देखूंगा तो अन्य पदार्थों से मिला हुआ तो देख ही क्या सकूँगा, ऐसे परमविविक्त चित्स्वभावमय अपने आपको यह अंतरात्मा जानता है, वह देह में पुष्ट होने से अपने आत्मा को पुष्ट नहीं मानता है । यों यह अंतरात्मा ऐसे विशद देह से भेदाभ्यास करके अपने आपको मोक्ष मार्ग की ओर उन्मुख करता है, यह उपाय शांति का है । शांतस्वरूप अपने आत्मतत्त्व के दर्शन करना यही उत्कृष्ट पुरुषार्थ है ।