वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 44
From जैनकोष
अस्मिन्ननादिनि महत्यविवेकनाट्ये, वर्णादिमान् नटति पुद्गल एव नान्य: ।
रागादिपुद्गलविकारविरुद्धशुद्ध-चैतन्यधातुमयमूर्तिरियं च जीव: ।।44।।
395―मोह का नाट्य होने के स्थल में विशुद्ध पात्र के निरखने का पौरुष―इससे पूर्व छंद में यह बात आयी थी कि ज्ञानी जीव को यह आश्चर्य और खेद होता है कि इस जीव के उपयोग में यह मोह नच क्यों रहा है? कैसे नाच रहा है? क्यों नाच जाता है? जब पुद्गल कर्म जुदा है, जीव जुदा है, पुद्गल का पुद्गल में परिणमन हो रहा है । वह हो रहा है और जीव का उपयोग स्वरूप हे तो इसकी स्वच्छता में वह कर्म का नाच दिख रहा है, अब यह क्यों माना जाता है कि मैं नाच रहा हूँ, यह मेरा नाच है, यही मैं हूँ, यह मेरा निज है, यही मैं हूँ, यही मैं हूँ, यही कर रहा हूँ । ज्ञान में, विकल्प में, पर रूप से क्यों परिणम रहा हूं? ज्ञानी को खेद और आश्चर्य था । अब यहाँ यह बात कह रहे हैं कि वह नाच रहा है तो नचो, किंतु इस महान अज्ञान के नाटक को मैं अपना कैसे मानूं? वास्तव में नाच तो रहे हैं ये वर्णादिक वाले पुद्गल । जरा इस बात को इस दृष्टांत से समझो कि एक दर्पण है, दर्पण के सामने हाथ किए हुए हैं । हाथ का हिलना हुआ है तो दर्पण में प्रतिबिंब भी हिलता हुआ झांकी में आया ना? दर्पण अजीव है, सो थोड़ा इस बात में कमी है दृष्टांत की तुलना में कि एक दर्पण के प्रतिबिंब को यह मैं हूँ ऐसा मानकर दर्पण क्षोभ नहीं कर पाता । हाँ मलिनता अवश्य आ गई । पर जानने वाला दूसरा आत्मा जान रहा है कि दर्पण में प्रतिबिंब है तो सामने आयी हुई चीज के अनुरूप प्रतिबिंब है । यह द्रव्य का स्वत: काम नहीं है । दर्पण का काम तो अपनी स्वच्छता में प्रवर्ताने का है, पर उसमें योग्यता है ऐसी, स्वच्छता है ऐसी कि निमित्तभूत पदार्थ का सन्निधान पाकर यह अपनी स्वच्छता के विकार में आ गया । यह ही बात हम आप सब जीवों के साथ चल रही है कि पहले बाँधे हुए कर्मों का उदय आया, उस उदय काल में, उस अनुभाग का रस का प्रभाव निश्चय से कर्म में पड़ा, क्योंकि कर्मों का वह अनुभाग है, पर ऐसे फूटे हुए अनुभाग का इस उपयोग में झाँकी हो, अंधेरा छाया और उस समय में अज्ञानी जन मानते हैं कि मैं यह हूँ, अपनी सुध नहीं, जिसको सुध नहीं उसकी स्थिति कर्मरूप अपने को मानने की होती ही है । तो इस पर खेद प्रकट करके यह बतला रहे हैं कि वहाँ वास्तव में नृत्य तो कर्म का हो रहा है, उस कर्म के नृत्य की यह झाँकी चल रही है, और उस झांकी के कारण इसमें भीतर में ज्ञान विकल्प जगा है तो वह जो ज्ञान का एक मिथ्यात्व रूप विकल्प है, वह विकल्प इस जीव को परेशान किए हुए है । कर्म तो परद्रव्य हैं, उसने नहीं किया इसको परेशान । यह निमित्तनैमित्तिक योग से जीव में विपरिणमन हो रहा है ।
396―आत्मस्वरूप के बोध बिना उपयोग में कर्मनाट᳭य के विचित्र प्रतिफलन का प्रभाव―जिसने अपने क्षेत्र की वर्तना की बात नहीं जानी अपने आत्मा का वास्तविक निरपेक्ष स्वरूप क्या है यह नहीं समझा वह बाहरी बातों में कितनी ही चतुराई करें उस चतुराई से कुछ लाभ नहीं होने का । चतुराई किसको दिखाना? लोक में ऐसा मिथ्या अंधेरा है कि लोग यह चाहते हैं कि मैं दूसरों को जता दूं कि मैं बहुत समझदार हूँ, सुहावना हूँ, ढंग का हूं और मेरे बराबर दुनिया में बहुत कम लोग है, अपनी-अपनी हद में सब जीवों के चित्त में यह बात जग गई, क्योंकि कर्म का उदय है ना सबके, कभी अपने को हीन भी मान लिया मगर चतुराई में कोई अपने को हीन नहीं मानता । कोई एक छोटा भिखारी भी अपनी कला से जब किसी ध्वनि से दो एक कपड़े मांग ले, भोजन पा ले तो वह अपने को बड़ा चतुर समझता है । कोई भी जीव हो, चतुराई में कोई अपने को कम मानने को तैयार नहीं होता, हाँ कुछ ज्यादा अंतर हो तो भले ही चतुराई में अपने को कम माने । मगर भीतर में सब के मन में यह कला पड़ी है कि मैं समझदारी से काम करने वाला हूँ, यह सब क्या है ? यह सब कर्म का नाट्य है जीव तो स्वयं अपने आप स्वरूपत: निरपराध है, पर यह नाट्य हो रहा है जो कुछ तो इसमें वर्णादि वाला पुद्गल ही नच रहा है क्योंकि मैं तो रागादिक विकार से जो पुद्गल के विकार हैं उनसे तो मैं एक दम निराला हूँ । एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में अत्यंताभाव है और मैं तो चैतन्य धातु रूप हूँ, मेरे में से जो निकलेगी सो चेतन की बात निकलेगी, सो चेतन की बात तो निकलेगी, अब उसमें अगर पुद्गल विकार की झाँकी का संपर्क बना है तो यह प्रतिबिंब बन गया । जैसे उजेला हो गया, बल्ब जल गया । बतलाओ उस प्रकाश का रूप क्या है? हरा बल्ब लगा तो हरा प्रकाश हो गया नीला कागज या कपड़ा लगा तो नीला प्रकाश हो गया । उस प्रकाश में भेद करें क्या? प्रकाश लाल होता है या नीला होता है? अरे प्रकाश तो एक तेज है । अब उसके साथ नीले का संबंध हो गया तो क्या वहाँ जैसे भेद कर सकते हैं कि प्रकाश में नीलापन नहीं, प्रकाश में इसलिए केवल एक ज्योति है । यह नीलापन तो उपाधि से है, ऐसे ही अपने ज्ञान भेद करना कि मेरे ज्ञान में जो यह विकल्प चल रहा, यह अच्छा, यह बुरा, इसने यह बुरा काम किया, धर्म में बाधा दी, इसने धर्म की साधना की, अमुक यों अच्छा बुरा, प्रिय, अप्रिय यह जो जानने का बात अपने में चल रही तों यह तो कर्मविपाकरस की लीला से हो रहा है, पर, जो केवल मात्र जानन है सो तो ज्ञान है और बाकी यह सब रागरस है ऐसा भेद कौन कर सकता? सम्यग्दृष्टि, ज्ञानी पुरुष, जिसने कि अपने आत्मा का निरपेक्ष स्वभाव बराबर परखा है ।
397―अज्ञान भाव से हटकर ज्ञान स्वभाव में उपयुक्त होने पर ही शांति की संभवता―जो सहजसिद्ध अपने ज्ञान को नहीं समझ सकता । उसको उपमा दी है हाथी के भोजन की । हाथी के सामने हलुवा रखा है । घास भी रखी हो तो वह कहीं हलुवा को अलग से उठाकर अलग से स्वाद न लेगा, वह तो उसे घास में लपेटकर खा जायेगा इसी प्रकार की बात ज्ञानी की ज्ञानरस की बन रही है । जान रहा, प्रतिभास कर रहा है । पर उसका जो कर्मविपाकरस लगा है उससे विविध हो जाने से यह अपने शुद्ध विकास को प्रकट नहीं कर पा रहा है । इस जीवन में करने का काम तो भीतर यह है, लेकिन प्रगट कुछ कर ही नहीं पाता । यह जीव राग कषाय के आवेग में बन-बनकर अपने में अभिमान रखता है कि मैं यों कर दूंगा, पर बिगाड़ सुधार तो जीवों के भाग्य के अनुसार है । यह व्यर्थ ही विकल्प करके विभाव बनाकर पाप बाँधते हैं और उनके हाथ कुछ नहीं लगता । भले नचे यह पुद्गल, नच रहा, पर उसके संबंध से जीव भी नाना रूपों में बन गया है । तब फिर यह जीव मानता है कि मैं सुखी हूँ दुःखी हूँ, चतुर हूँ, मूर्ख हूँ, नाना प्रकार की अवस्थाओं रूप यह अपने को मानता है । प्रभुदर्शन से लाभ क्या लेना चाहिए । जैसे प्रभु की मुद्रा देखी तो यह निरखो―यह एक ज्ञानपुंज बैठा है । जिसकी छटनी करनी है उस पर दृष्टि ले जाकर सोचो कि यह तो एक ज्ञानघन है । यहाँ विकार का नाम नहीं है । शुद्ध शुद्ध, ज्ञान ज्ञान मात्र, बस इसी का नाम है परमात्मा हो जाना ऐसे स्वरूप के पाने की मैं कोशिश करूं, अपने स्वरूप को देखूं, अपने स्वरूप में रत रहूँ । ये कर्म कलंक जल जायेंगे । और, मेरा भी ऐसा स्वरूप हो जायेगा । यही बात करने के लिए देवदर्शन की बात आचार्य देव ने कही है । इसलिए नहीं है कि देवदर्शन से मुझे संसार के ये सुख मिलें, अरे ये तो जीवों को मिल ही रहे हैं पुण्य पाप के अनुसार, और फिर क्या कोई यह संग नई बात है? कोई जीव को सुख देने वाली बात है क्या? जीव का हित जीव की शांति केवल एक आत्मा की उपासना में है ।
398―तृष्णावश शांतस्वभावी आत्मा को स्वयं अशांति का उपभोग―जब तृष्णा का दौड़ होता है तो यह जीव विह्वल हो जाता है । जैसे शरीर में कोई-कोई दौड़ा पड़ता है मिर्गी का, दिल का, खून का तो यह बेचैन हो जाता है, ऐसे ही जब कषायों का दौड़ा पड़ता है, कषायें तो निरंतर चल ही रहीं है, पर कभी वेग आ जाता है तो उस कषाय के वेग में यह अपने आपको अपने में नहीं रख पाता । आपे से बाहर हो जाता है और प्रदेश भी देह से बाहर फैल जाते हैं । कषायसमुद्धात होता ना, जब यह जीव कषाय करता है तो उस कषाय में जीव के प्रदेश तेज कषाय के कारण देह में रहकर भी देह से कुछ दूर फैल जाते हैं । तभी तो यह कहावत चली है कि आप तो आपे से बाहर होते चले जा रहे हैं । इस जीव में चल रही हैं कषाय और वह कषाय है कर्म का फोटो और इस जीव को संस्कार लगा है ऐसा कि उस काल में जब कि कर्मविपाकरस का फोटो यहाँ आया, झाँकी हुई, स्वच्छता में विकार हुआ तो यह जीव क्षुब्ध हो जाता है, अपनी शांति को छोड़ देता है और स्वरूप से भी च्युत हो जाता है । शांति और अशांति कहाँ है? इसका निर्णय बनाओ―मेरे से बाहर नहीं है मेरी शांति और अशांति । मेरा ही क्या, किसी भी पदार्थ की कोई बात गुण या पर्याय में उस पदार्थ के प्रदेश से बाहर नहीं है । तो यहाँ भी कहीं शांति अशांति रखी हो अन्यत्र, यह त्रिकाल असंभव है । मेरी शांति अथवा अशांति बाहर नहीं है । तो कोई कहे कि बाहर न सही, पर बाहर से अशांति तो जायेगी, वह सो यह भी बात नहीं है । मेरे में अशांति बाहर से आये सो बात नहीं, क्योंकि वह कहाँ से आयेगी? कल्पना करो अजीव पदार्थ से आवेगी । तो सोचो जो अचेतन पदार्थ है उनमें न शांति है न अशांति है । और जितने भी पदार्थ देखने में आ रहे हैं वे सब हैं अजीव पुद्गल । हमें दिखते थोड़े ही हैं । यह माया दिख रही है देह की तो इसमें न शांति है न अशांति और मानो किसी जीव में शांति है तो कहीं वहाँ से निकल कर मेरे में न आयेगी । कोई शांत पुरुष ऐसा नहीं जो अपनी शांति किसी दूसरे को दे डालें और खुद अशांत हो जाये । और, फिर तीसरी परख यह बनी कि जो मुझमें नहीं है वह मुझमें आ नहीं सकता । अगर शांति का स्वरूप मुझमें नहीं है । तो कितने ही उपाय कर लो―मेरे में शांति कहीं बाहर से आ ही नहीं सकती । जैसे बालू में तेल नहीं है तो कितना ही उसे कोल्हू में पेला जाये पर उससे तेल नहीं आ सकता । शांति मेरा स्वरूप है, आनंद मेरा स्वरूप है, ज्ञान मेरा स्वरूप है, जब इस निज स्वरूप को यह जीव भूल जाता है तो बड़ी व्याकुलता छा जाती है । विपत्ति कहीं बाहर से नहीं आती, किंतु बाहर के लोगों को या अन्य जीवों को या किसी पुद्गल के ढेर को जब यह मान लेता है जीव कि यह मेरा है बस उसी समय श्रद्धा बिगड़ने के कारण व्यग्रता, व्याकुलता उत्पन्न हो जाती है ।
399―मोहोच्छेद के उपदिष्ट उपाय से लाभ लेने का अनुरोध―मोह छुड़ाने का उपाय जैन शासन में कितनी सच्ची विधि से बताया है और हम लोगों ने जैन शासन प्राप्त किया और उसका एक बाल बराबर भी उपयोग नहीं करना चाहते तो इससे भारी मूर्खता और क्या होगी । जो तीनों लोक को जाने ऐसा ज्ञान का निधान जिसमें आकुलता रंच भी नहीं है, ऐसा स्वच्छ स्वरूप जिसका सहज स्वभाव स्वरूप ऐसा यह भगवान आत्मा व्यर्थ की बातों से दुःखी हो रहा है । यह खुद-खुद पर दया क्यों नहीं करता? होनहार खोटी है तो खुद पर दया कैसे कर सकते । यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि मेरा आत्मा सहज विशुद्ध है । कोई कमी नहीं, कृतार्थ है, कष्ट का काम नहीं, ऐसा पवित्र स्वरूप है निज का । बस यहाँ की सुध छोड़ा कि सारे संकट इस पर आ गए । अपनी सुध छोड़ देने का ही नाम संकट है और अपने की सुध हो लेने का ही नाम आनंद है । बाहर में सोच तो जरूर रखा होगा कि इतना धन बढ़ जाये तो सुख होगा, ऐसा मकान बन जाये तो सुख होगा पर यह बात त्रिकाल नहीं हो सकती । शांति का आधार है आत्मा की सुध होना और अशांति का आधार है आत्मा की बेहोशी । यह तो जान लें कि कोई जीव क्या मेरे साथ मर कर जायेगा? कोई क्या कभी मेरे साथ मेरी परिणति से जन्म लेगा? कोई न लेगा । कोई भी जीव मेरे सोचने के अनुसार क्या कोई काम कर लेगा? कभी नहीं करता । वस्तु स्वरूप ही नहीं ऐसा । मुझे सुख हो तो क्या दूसरा भी उस सुख में शामिल हो जायेगा? नहीं, मुझे दुःख हो तो क्या दूसरा भी उस दुःख में शामिल हो जायेगा? नहीं, तो फिर बताओ, कोई भी जीव मेरा कैसे? स्वरूपास्तित्व जुदा । सब कुछ मेरा मुझमें ही परिणमता है, मैं ही अपनी कला से अपने में उत्पाद व्यय करता रहता हूँ । व्यक्तविकार इसका नाम है कि पंचेंद्रिय के विषयों में उपयोग जुटाता हो और यह प्रकट हर्ष विषाद मानता हो, मेरा कुछ नहीं इतना भर जरा एक तगड़ी विधि से जान लें ताकि फिर इस श्रद्धा में फर्क न आये । एक भी जीव जैसे मेरा कुछ नहीं ऐसे ही घर में यह जो जीव है यह मेरा रंच मात्र भी नहीं है घर में रहना पड़ता है इसलिए रागपूर्वक व्यवहार करना पड़ता है और तभी कुछ सुविधा बनानी पड़ती है, गुजारा चलाना पड़ता है । तो गुजारे की गाड़ी चलाने के लिए एक राग व्यवहार है, एक दूसरे की हम बात पूछते हैं, परंतु वस्तुस्वरूप की दृष्टि से कोई जीव मेरा नहीं, कोई परमाणु मेरा नहीं । मैं अपने आपके अकेले सत्त्व में ही रहा करता हूँ, यह श्रद्धा रहेगी तो व्यग्रता रहेगी शांति मिलेगी, कर्म कटेंगे, और एक इस श्रद्धा को छोड़ दिया, बाह्य वस्तु में ही उपयोग जमा दिया तो इस जीव को बस संकट नजर आयेगा । संकट न होकर भी यह संकट में अपने को फंसा लेगा ।
400―कर्मरसरूप स्व को अनुभवने में संसारविडंबना―स्पष्ट भेद समझो । मैं चेतन हूँ, यह कर्मरस विपाक मैंने ही बाँधा था अज्ञान में अशक्त होकर । अपने को भूलकर वैसा ही उन कर्मों में रस पड़ गया था । वह वहाँ बैठा हुआ था । अब समय पाकर वह उदय में आया है । उनका अनुभाग फूट रहा है, बस मैं चूंकि एक विलक्षण स्वच्छ पदार्थ हूँ यह ऐसा झलकता है जैसी कि ये दुनिया की सब चीजें झलकती हैं ना याने इनका जानन हो रहा कि नहीं । तो ये बाहर ही बाहर पड़े हैं, इनका तो अनुभाग चल रहा है और जो कर्मरस सत्ता में चल रहे हैं उनका जब अनुभाग उदय होता है तो उनका कोई प्रतिफलन हो यह कैसे मान लेंगे । दर्पण में काँच में दूसरे काँच का प्रतिबिंब नहीं पड़ता । यह एक काँच है, उसके सामने दूसरा काँच रख दें तो उस दूसरे काँच का प्रतिबिंब नहीं पड़ता । बाहर कपड़ा रख दें तो प्रतिबिंब पड़ जाता, यह सब पदार्थों के प्रति अपनी-अपनी बात है । जब तक ये कर्म बंधे हुए हैं, उदय में नहीं आये, तब तक इनका प्रतिफलन नहीं, अंधेरा नहीं छा पाता । वहाँ बंध सर्वत्र है । मगर जो सत्ता में पड़े हैं उनके कारण अंधेरा नहीं । उदय आया, अंधेरा छा गया, जीव तिरस्कृत हो गया, जीव दब गया, अधीर हो गया, क्षुब्ध हो गया, बाहरी पदार्थों में लगने लगा, इसकी चक्की चलने लगी । यहाँ यह निपटारा बना लें कि मैं क्या हूँ । जो कुछ गुजर रहा है वह मैं नहीं । यह सब कर्मरस है । मैं तो एक जाननहार हूँ । मैं रागरस निर्भर नहीं हूँ ? ऐसा इन सब बाहरी पदार्थों से न्यारा अपने को देखें और यह जानें कि यह सब कर्म का ही नाच है । मैं तो एक चैतन्यरस को ही लिए हुए हूँ, पर उस कर्मरस के साथ यह जुटकर याने बाहरी पदार्थों के मध्यम से ख्याल कर अपने को पर रूप मानकर मोहममता करता रहा । जब भीतर में यह अपने को चैतन्यस्वरूप मान नहीं पाता, और और रूप मानता तो यह अशांत हो जाता है और जब कभी यह अपने को चैतन्यस्वरूप अनुभव करता है तो शांति पाता है ।