वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 88
From जैनकोष
एकस्य वेद्यो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।88।।
782―विकल्पच्युत स्थिति में कल्याण―हम आपको चाहिए क्या? आनंद, शांति । आनंद है निराकुलता में, जहाँ आकुलता रंच नहीं वहाँ ही तो आनंद है और निराकुलता है निर्विकल्प दशा में । जहाँ किसी भी प्रकार का विकल्प नहीं है वहाँ ही निराकुलता है । अब तक संसार में विकल्प करके ही तो जीव भटका चला आया है । विकल्प भी अलूल-जलूल । जैसे पर पदार्थों को मानना कि ये मेरे हैं । दूसरे जीवों को मानना कि ये मेरे हैं, ऐसे भद्दे-भद्दे विकल्प मिथ्या विकल्प हैं, जिन में वस्तुस्वरूप की गंध भी नहीं है, ऐसे विकल्प करता चला आ रहा है यह जीव । तो उसका फल है संसार में रुलना और दु;ख पाना । अच्छा, आत्मतत्त्व के बारे में भी विकल्प उठे जो कि उन विकल्पों से तो भले हैं, लेकिन आत्म तत्त्व के बारे में भी किसी प्रकार के विचार और विकल्प जब तक बनते हैं तब तक निर्विकल्प दशा नहीं । उन विकल्पों से भी परे होकर स्वानुभूति दशा बनती है । तो आत्मकल्याणार्थी आत्मतत्त्व का परिचय कर रहा है । अभी तक बहुत-बहुत परिचय किया । यह जीव एक है, एक नहीं है, कर्म से बद्ध है नहीं है आदिक नाना विकल्प और निर्णय किया । अब यहाँ यह पक्ष चल रहा कि एक का सिद्धांत है कि आत्मा वेद्य है याने वेदने योग्य आत्मा समझ में आने योग्य है, तो दूसरा कहता है कि आत्मा वेद्य है ऐसा नहीं । एक दो पक्ष सामने हैं, याने वेदन में आती है आत्मा यह तो हुआ व्यवहार का पक्ष और वेदने में आ रहा आत्मा ऐसा नहीं है यह है निश्चय का पक्ष । निश्चय का विषय है न इति ऐसा नहीं, यह नहीं, किसी भी वस्तु के बारे में हम पूरी बात नहीं कह सकते तब जो भी बात कहेंगे, निश्चय कहेगा ऐसा नहीं । तो आत्मा वेद्य है―अपने अनुभव में आता है ऐसा विकल्प यह व्यवहार नय का पक्ष है और वेद्य है ऐसा नहीं है, इस तरह का विकल्प निश्चयनय का पक्ष है । जो इन दोनों विकल्पों से परे होते हैं तत्त्वज्ञानी पुरुष, उनकी दृष्टि में तो आत्मा आत्मा ही है, चित् चित् ही है, उसके बारे में तो विकल्प नहीं है । यह है नय से अतिक्रांत दशा । अपने को देखो आत्मा ज्ञान रूप है, बोलने की बात नहीं कह रहे, किंतु निरखने की बात । यह एक ज्ञानस्वरूप है । अब उसके बारे में किन्हीं शब्दों से बोलते हैं तो आनंद घट जाता है, अनुभव नहीं हो पाता और अंतर्जल्प, बहिर्जल्प कोई सा भी शब्द न आये और केवल यह पूर्ण अंतस्तत्त्व जो कि ज्ञान के रूप में ही जाना जाता है, उपयोग में हो, वह तत्त्ववेदी जानता है कि यह चेतन तो चेतन ही है ।