ऐलक: Difference between revisions
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<p class="SanskritText">वसुनंदि श्रावकाचार गाथा 301,311 एयारसम्मि ठाणे उक्किट्ठो सावओ हवे दुविहो वित्थेक्कधरो पढमो कोवीणपरिग्गहो विदिहो ॥301॥ एमेव होइ विदिओ णवरि विसेसो कुणिज्ज णियमेण। लोचंधरिज्ज पिच्छं भुंजिज्जो पाणिपत्तम्मि ॥311॥</p> | <p class="SanskritText">वसुनंदि श्रावकाचार गाथा 301,311 एयारसम्मि ठाणे उक्किट्ठो सावओ हवे दुविहो वित्थेक्कधरो पढमो कोवीणपरिग्गहो विदिहो ॥301॥ एमेव होइ विदिओ णवरि विसेसो कुणिज्ज णियमेण। लोचंधरिज्ज पिच्छं भुंजिज्जो पाणिपत्तम्मि ॥311॥</p> | ||
<p class="HindiText">= ग्यारहवें प्रतिमा | <p class="HindiText">= ग्यारहवें प्रतिमा स्थान में गया हुआ मनुष्य उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है। उसके दो भेद हैं-प्रथम एक वस्त्र का रखने वाला और दूसरा कोपीनमात्र परिग्रह वाला ॥301॥ प्रथम उत्कृष्ट श्रावक (क्षुल्लक) के समान हो द्वितीय उत्कृष्ट श्रावक होता है। केवल विशेष यह है कि उसे नियमसे केशों का लौंच करना चाहिए, पीछी रखना चाहिए और पाणिपात्र में खाना चाहिए ॥311॥</p> | ||
<p>( सागार धर्मामृत अधिकार 7/48-49)</p> | <p>( सागार धर्मामृत अधिकार 7/48-49)</p> | ||
<p class="SanskritText">लांटी संहिता अधिकार 7/55-62 उत्कृष्टः श्रावको द्वेधा क्षुल्लकश्चैलकस्तथा-एकादशव्रतस्थौ द्वौ स्तो द्वौ निर्जरकौं क्रमात् ॥55॥ तत्रैलकः स गृह्णाति वस्त्रं कौपीनमात्रकम्। लोचं श्मश्रुशिरोलोम्नां पिच्छिकां च कमंडलुम् ।56। पुस्तकाद्युपधिश्चैव सर्वसाधारणं यथा। सूक्ष्मं चापि न गृह्णीयादीषत्सावद्यकारणम् ।57। कौपीनोपधिमात्रत्वाद् विना वाचंयमी क्रिया। विद्यते चैलकस्यास्य दुर्धरं व्रतधारणम् ।58। तिष्ठेच्चैत्यालये संघे वने वा मुनिसंनिधौ। निरवद्ये यथास्थाने शुद्धे शून्यमठादिषु ।59। पूर्वोदितक्रमेणैव कृतकर्मावधावनात्। ईषन्मध्याह्नकाले वै भोजनार्थ मटेत्पुरे ।60। ईर्यासमितिसंशुद्धः पर्यटेद्गृहसंख्यया। द्वाभ्यां पात्रस्थानीयाभ्यां हस्ताभ्यां परमश्नुयात् ।61। दद्याद्धर्मोपदेशं च निर्व्याजं मुक्तिसाधनम्। तपो द्वादशधा कुर्यात्प्रायश्चित्तादि वाचरेत् ।62।</p> | <p class="SanskritText">लांटी संहिता अधिकार 7/55-62 उत्कृष्टः श्रावको द्वेधा क्षुल्लकश्चैलकस्तथा-एकादशव्रतस्थौ द्वौ स्तो द्वौ निर्जरकौं क्रमात् ॥55॥ तत्रैलकः स गृह्णाति वस्त्रं कौपीनमात्रकम्। लोचं श्मश्रुशिरोलोम्नां पिच्छिकां च कमंडलुम् ।56। पुस्तकाद्युपधिश्चैव सर्वसाधारणं यथा। सूक्ष्मं चापि न गृह्णीयादीषत्सावद्यकारणम् ।57। कौपीनोपधिमात्रत्वाद् विना वाचंयमी क्रिया। विद्यते चैलकस्यास्य दुर्धरं व्रतधारणम् ।58। तिष्ठेच्चैत्यालये संघे वने वा मुनिसंनिधौ। निरवद्ये यथास्थाने शुद्धे शून्यमठादिषु ।59। पूर्वोदितक्रमेणैव कृतकर्मावधावनात्। ईषन्मध्याह्नकाले वै भोजनार्थ मटेत्पुरे ।60। ईर्यासमितिसंशुद्धः पर्यटेद्गृहसंख्यया। द्वाभ्यां पात्रस्थानीयाभ्यां हस्ताभ्यां परमश्नुयात् ।61। दद्याद्धर्मोपदेशं च निर्व्याजं मुक्तिसाधनम्। तपो द्वादशधा कुर्यात्प्रायश्चित्तादि वाचरेत् ।62।</p> | ||
<p class="HindiText">= उत्कृष्ट श्रावक दो | <p class="HindiText">= उत्कृष्ट श्रावक दो प्रकार का होता है-एक क्षुल्लक और दूसरा ऐलक। इन दोनों के कर्म की निर्जरा उत्तरोत्तर अधिक अधिक होती रहती है ।55। ऐलक केवल कौपीनमात्र वस्त्र को धारण करता है। दाढ़ी, मूँछ और मस्तक के बालों का लोंच करता है और पीछी कमंडलु धारण करता है ।56। इसके सिवाय सर्व साधारण पुस्तक आदि धर्मोपकरणों को भी धारण करता है। परंतु ईषत् सावद्य के भी कारणभूत पदार्थों को लेशमात्र भी अपने पास नहीं रखता है ।57। कौपीन मात्र उपधि के अतिरिक्त उसकी समस्त क्रियाएँ मुनियों के समान होती हैं तथा मुनियों के समान ही वह अत्यंत कठिन-कठिन व्रतों को पालन करता है ।58। यह या तो किसी चैत्यालय में रहता है, या मुनियों के संघ में रहता है अथवा किसी मुनिराज के समीप बन में रहता है अथवा किसी भी सूने मठमें वा अन्य किसी भी निर्दोष और शुद्ध-स्थान में रहता है ।59। पूर्वोक्त क्रमसे समस्त क्रियाएँ करता है तथा दोपहर से कुछ समय पहले सावधान होकर नगर में जाता है ।60। ईर्यासमिति से जाता है तथा घरों की संख्या का नियम भी लेकर जाता है। पात्रस्थानीय अपने हाथों में ही आहार लेता है ।61। बिना किसी छल-कपट के मोक्ष का कारणभूत धर्मोपदेश देता है। तथा बारह प्रकार का तपश्चरण पालन करता है। कदाचित् व्रतादि में दोष लग जाने पर प्रायश्चित्त लेता है ।62।</p> | ||
<p>2. ऐलक पद व | <p>2. ऐलक पद व शब्द का इतिहास</p> | ||
<p> वसुनंदि श्रावकाचार गाथा प्र. 63/18/H. L. Jain इस `ऐलक' पदके मूल | <p> वसुनंदि श्रावकाचार गाथा प्र. 63/18/H. L. Jain इस `ऐलक' पदके मूल रूप की ओर गंभीर दृष्टिपात करने पर यह भ. महावीर से भी प्राचीन प्रतीत होता है। भगवती आराधना, मूलाचार आदि सभी प्राचीन ग्रंथों में दिगंबर साधुओंके लिए अचेलक पदका व्यवहार हुआ है। पर भगवान् महावीर के समय से अचेलक साधुओं के लिए नग्न, निर्ग्रंथ और दिगंबर शब्दों का प्रयोग बहुलता से होने लगा। स्वयं बौद्ध-ग्रंथों में जैन-साधुओंके लिए `निग्गंठ' या `णिगंठ' नामका प्रयोग किया गया है, जिसका कि अर्थ निर्ग्रंथ है। अभीतक नञ् समास का अर्थ प्रतिषेधपरक अर्थात् `न+चेलकः= अचेलकः' अर्थ लिया जाता था। पर जब नग्न साधुओं को स्पष्ट रूपसे दिगंबर व निर्ग्रंथ आदि रूपसे व्यवहार होने लगा तब नञ् समासके ईषत् अर्थका आश्रय लेकर `ईषत्+चेलकः= अचेलकः' का व्यवहार प्रारंभ हुआ प्रतीत होता है। जिसका कि अर्थ नाममात्रका वस्त्र धारण करनेवाला होता है। ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दीसे प्राकृतके स्थानपर अपभ्रंश भाषाका प्रचार प्रारंभ हुआ और अनेक शब्द सर्वसाधारणके व्यवहारमें कुछ भ्रष्ट रूपसे प्रचलित हुए। इसी समयके मध्य `अचेलक' का स्थान `ऐलक' पदने ले लिया। जो कि प्राकृत व्याकरणके नियमसे भी सुसंग बैठ जाता है। क्योंकि, प्राकृतमें `क,-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक्' (हैम. प्रा. 1,177) इस नियमके अनुसार `अचेलक' के चकारका लोप हो जानेसे `अ, ए, ल, क' पद अवशिष्ट रहता है। यही (अ+ए= ऐ) संधिके योगसे `ऐलक' बन गया। उक्त विवेचनसे यह बात भलीभाँति सिद्ध हो जाती है कि `ऐलक' पद भले ही अर्वाचीन हो, पर उसका मूल रूप `अचेलक' शब्द बहुत प्राचीन है। इस प्रकार ऐलक शब्दका अर्थ नाममात्रका वस्त्रधारक अचेलक होता है, और इसकी पुष्टि आ. समंतभद्रके द्वारा ग्यारहवीं प्रतिमाधारीके लिए दिये गये `चेलखंडधरः' (वस्त्रका एक खंड धारण करनेवाला) पदसे भी होती है।</p> | ||
<p>• क्षुल्लक व ऐलकमें अंतर तथा इन दोनों भेदोंका इतिहास व समन्वय-देखें [[ क्षुल्लक#2 | क्षुल्लक - 2]]।</p> | <p>• क्षुल्लक व ऐलकमें अंतर तथा इन दोनों भेदोंका इतिहास व समन्वय-देखें [[ क्षुल्लक#2 | क्षुल्लक - 2]]।</p> | ||
<p>• उद्दिष्ट त्याग संबंधी-देखें [[ उद्दिष्ट ]]।</p> | <p>• उद्दिष्ट त्याग संबंधी-देखें [[ उद्दिष्ट ]]।</p> |
Revision as of 08:58, 20 March 2022
वसुनंदि श्रावकाचार गाथा 301,311 एयारसम्मि ठाणे उक्किट्ठो सावओ हवे दुविहो वित्थेक्कधरो पढमो कोवीणपरिग्गहो विदिहो ॥301॥ एमेव होइ विदिओ णवरि विसेसो कुणिज्ज णियमेण। लोचंधरिज्ज पिच्छं भुंजिज्जो पाणिपत्तम्मि ॥311॥
= ग्यारहवें प्रतिमा स्थान में गया हुआ मनुष्य उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है। उसके दो भेद हैं-प्रथम एक वस्त्र का रखने वाला और दूसरा कोपीनमात्र परिग्रह वाला ॥301॥ प्रथम उत्कृष्ट श्रावक (क्षुल्लक) के समान हो द्वितीय उत्कृष्ट श्रावक होता है। केवल विशेष यह है कि उसे नियमसे केशों का लौंच करना चाहिए, पीछी रखना चाहिए और पाणिपात्र में खाना चाहिए ॥311॥
( सागार धर्मामृत अधिकार 7/48-49)
लांटी संहिता अधिकार 7/55-62 उत्कृष्टः श्रावको द्वेधा क्षुल्लकश्चैलकस्तथा-एकादशव्रतस्थौ द्वौ स्तो द्वौ निर्जरकौं क्रमात् ॥55॥ तत्रैलकः स गृह्णाति वस्त्रं कौपीनमात्रकम्। लोचं श्मश्रुशिरोलोम्नां पिच्छिकां च कमंडलुम् ।56। पुस्तकाद्युपधिश्चैव सर्वसाधारणं यथा। सूक्ष्मं चापि न गृह्णीयादीषत्सावद्यकारणम् ।57। कौपीनोपधिमात्रत्वाद् विना वाचंयमी क्रिया। विद्यते चैलकस्यास्य दुर्धरं व्रतधारणम् ।58। तिष्ठेच्चैत्यालये संघे वने वा मुनिसंनिधौ। निरवद्ये यथास्थाने शुद्धे शून्यमठादिषु ।59। पूर्वोदितक्रमेणैव कृतकर्मावधावनात्। ईषन्मध्याह्नकाले वै भोजनार्थ मटेत्पुरे ।60। ईर्यासमितिसंशुद्धः पर्यटेद्गृहसंख्यया। द्वाभ्यां पात्रस्थानीयाभ्यां हस्ताभ्यां परमश्नुयात् ।61। दद्याद्धर्मोपदेशं च निर्व्याजं मुक्तिसाधनम्। तपो द्वादशधा कुर्यात्प्रायश्चित्तादि वाचरेत् ।62।
= उत्कृष्ट श्रावक दो प्रकार का होता है-एक क्षुल्लक और दूसरा ऐलक। इन दोनों के कर्म की निर्जरा उत्तरोत्तर अधिक अधिक होती रहती है ।55। ऐलक केवल कौपीनमात्र वस्त्र को धारण करता है। दाढ़ी, मूँछ और मस्तक के बालों का लोंच करता है और पीछी कमंडलु धारण करता है ।56। इसके सिवाय सर्व साधारण पुस्तक आदि धर्मोपकरणों को भी धारण करता है। परंतु ईषत् सावद्य के भी कारणभूत पदार्थों को लेशमात्र भी अपने पास नहीं रखता है ।57। कौपीन मात्र उपधि के अतिरिक्त उसकी समस्त क्रियाएँ मुनियों के समान होती हैं तथा मुनियों के समान ही वह अत्यंत कठिन-कठिन व्रतों को पालन करता है ।58। यह या तो किसी चैत्यालय में रहता है, या मुनियों के संघ में रहता है अथवा किसी मुनिराज के समीप बन में रहता है अथवा किसी भी सूने मठमें वा अन्य किसी भी निर्दोष और शुद्ध-स्थान में रहता है ।59। पूर्वोक्त क्रमसे समस्त क्रियाएँ करता है तथा दोपहर से कुछ समय पहले सावधान होकर नगर में जाता है ।60। ईर्यासमिति से जाता है तथा घरों की संख्या का नियम भी लेकर जाता है। पात्रस्थानीय अपने हाथों में ही आहार लेता है ।61। बिना किसी छल-कपट के मोक्ष का कारणभूत धर्मोपदेश देता है। तथा बारह प्रकार का तपश्चरण पालन करता है। कदाचित् व्रतादि में दोष लग जाने पर प्रायश्चित्त लेता है ।62।
2. ऐलक पद व शब्द का इतिहास
वसुनंदि श्रावकाचार गाथा प्र. 63/18/H. L. Jain इस `ऐलक' पदके मूल रूप की ओर गंभीर दृष्टिपात करने पर यह भ. महावीर से भी प्राचीन प्रतीत होता है। भगवती आराधना, मूलाचार आदि सभी प्राचीन ग्रंथों में दिगंबर साधुओंके लिए अचेलक पदका व्यवहार हुआ है। पर भगवान् महावीर के समय से अचेलक साधुओं के लिए नग्न, निर्ग्रंथ और दिगंबर शब्दों का प्रयोग बहुलता से होने लगा। स्वयं बौद्ध-ग्रंथों में जैन-साधुओंके लिए `निग्गंठ' या `णिगंठ' नामका प्रयोग किया गया है, जिसका कि अर्थ निर्ग्रंथ है। अभीतक नञ् समास का अर्थ प्रतिषेधपरक अर्थात् `न+चेलकः= अचेलकः' अर्थ लिया जाता था। पर जब नग्न साधुओं को स्पष्ट रूपसे दिगंबर व निर्ग्रंथ आदि रूपसे व्यवहार होने लगा तब नञ् समासके ईषत् अर्थका आश्रय लेकर `ईषत्+चेलकः= अचेलकः' का व्यवहार प्रारंभ हुआ प्रतीत होता है। जिसका कि अर्थ नाममात्रका वस्त्र धारण करनेवाला होता है। ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दीसे प्राकृतके स्थानपर अपभ्रंश भाषाका प्रचार प्रारंभ हुआ और अनेक शब्द सर्वसाधारणके व्यवहारमें कुछ भ्रष्ट रूपसे प्रचलित हुए। इसी समयके मध्य `अचेलक' का स्थान `ऐलक' पदने ले लिया। जो कि प्राकृत व्याकरणके नियमसे भी सुसंग बैठ जाता है। क्योंकि, प्राकृतमें `क,-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक्' (हैम. प्रा. 1,177) इस नियमके अनुसार `अचेलक' के चकारका लोप हो जानेसे `अ, ए, ल, क' पद अवशिष्ट रहता है। यही (अ+ए= ऐ) संधिके योगसे `ऐलक' बन गया। उक्त विवेचनसे यह बात भलीभाँति सिद्ध हो जाती है कि `ऐलक' पद भले ही अर्वाचीन हो, पर उसका मूल रूप `अचेलक' शब्द बहुत प्राचीन है। इस प्रकार ऐलक शब्दका अर्थ नाममात्रका वस्त्रधारक अचेलक होता है, और इसकी पुष्टि आ. समंतभद्रके द्वारा ग्यारहवीं प्रतिमाधारीके लिए दिये गये `चेलखंडधरः' (वस्त्रका एक खंड धारण करनेवाला) पदसे भी होती है।
• क्षुल्लक व ऐलकमें अंतर तथा इन दोनों भेदोंका इतिहास व समन्वय-देखें क्षुल्लक - 2।
• उद्दिष्ट त्याग संबंधी-देखें उद्दिष्ट ।