रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 73: Difference between revisions
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Latest revision as of 21:30, 2 November 2022
इदानीं दिग्विरतिव्रतस्यातिचारानाह --
ऊर्ध्वाधस्तात्तिर्यग्व्यतिपाताः क्षेत्रवृद्धिरवधीनाम्
विस्मरणं दिग्विरतेरत्याशाः पञ्च मन्यन्ते ॥73॥
टीका:
दिग्विरतेरत्याशा अतीचारा: पञ्च मन्यन्तेऽ भ्युपगम्यन्ते । तथा हि । अज्ञानात् प्रमादाद्वा ऊध्र्वदिशोऽधस्ताद्दिशस्तिर्यग्दिशश्च व्यतीपाता विशेषेणातिक्रमणानि त्रय:। तथाऽज्ञानात् प्रमादाद्वा क्षेत्रवृद्धि: क्षेत्राधिक्यावधारणम् । तथाऽवधीनां दिग्विरते: कृतमर्यादानां विस्मरण मिति ॥
दिग्व्रत के अतिचार
ऊर्ध्वाधस्तात्तिर्यग्व्यतिपाताः क्षेत्रवृद्धिरवधीनाम्
विस्मरणं दिग्विरतेरत्याशाः पञ्च मन्यन्ते ॥73॥
टीकार्थ:
दिग्व्रत के पाँच अतिचार है । अज्ञान अथवा प्रमाद के ऊपर पर्वतादि पर चढ़ते समय, नीचे कुए आदि में उतरते समय और तिर्यग् अर्थात् समतल पृथ्वी पर चलते समय की हुई मर्यादा को भूलकर सीमा का उल्लंघन करना । प्रमाद अथवा अज्ञानता से किसी दिशा का क्षेत्र बढ़ा लेना और व्रत लेते समय दसों दिशाओं की जो मर्यादा की थी, उसे भूल जाना । ये पाँच अतिचार दिग्व्रत के हैं ।