न्याय: Difference between revisions
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<p class="HindiText">तर्क व युक्ति द्वारा परोक्ष पदार्थों की सिद्धि व निर्णय के अर्थ न्यायशास्त्र का उद्गम हुआ। यद्यपि न्यायशास्त्र का मूल आधार नैयायिक दर्शन है, जिसने कि वैशेषिक मान्य तत्त्वों की युक्तिपूर्वक सिद्धि की है, परन्तु वीतरागता के उपासक जैन व बौद्ध दर्शनों को भी अपने सिद्धान्त की रक्षा के लिए न्यायशास्त्र का आश्रय लेना पड़ा। जैनाचार्यों में स्वामी समन्तभद्र ( | <p class="HindiText">तर्क व युक्ति द्वारा परोक्ष पदार्थों की सिद्धि व निर्णय के अर्थ न्यायशास्त्र का उद्गम हुआ। यद्यपि न्यायशास्त्र का मूल आधार नैयायिक दर्शन है, जिसने कि वैशेषिक मान्य तत्त्वों की युक्तिपूर्वक सिद्धि की है, परन्तु वीतरागता के उपासक जैन व बौद्ध दर्शनों को भी अपने सिद्धान्त की रक्षा के लिए न्यायशास्त्र का आश्रय लेना पड़ा। जैनाचार्यों में स्वामी समन्तभद्र (वि.श.2-3), अकलंक भट्ट (ई.640-680) और विद्यानन्दि (ई.775-840) को विशेषत: वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक व बौद्ध मतों से टक्कर लेनी पड़ी। तभी से जैनन्याय शास्त्र का विकास हुआ। बौद्धन्याय शास्त्र भी लगभग उसी समय प्रगट हुआ। तीनों ही न्यायशास्त्रों के तत्त्वों में अपने-अपने सिद्धान्तानुसार मतभेद पाया जाता है। जैसे कि न्याय दर्शन जहाँ वितंडा, जाति व निग्रहस्थान जैसे अनुचित हथकण्डों का प्रयोग करके भी वाद में जीत लेना न्याय मानता है, वहाँ जैन दर्शन केवल सद्हेतुओं के आधार पर अपने पक्ष की सिद्धि कर देना मात्र ही सच्ची विजय समझता है। अथवा न्यायदर्शन विस्तार रुचिवाला होने के कारण प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान व आगम इस प्रकार चार प्रमाण, 16 तत्त्व, उनके अनेकों भेद-प्रभेदों का जाल फैला देता है, जबकि जैनदर्शन संक्षेप रुचिवाला होने के कारण प्रत्यक्ष व परोक्ष दो प्रमाण तथा इनके अंगभूत नय इन दो तत्त्वों से ही अपना सारा प्रयोजन सिद्ध कर लेता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong> न्याय दर्शन निर्देश</strong><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1">न्याय दर्शन निर्देश</strong><br /> | ||
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न्या.द./भाष्य/1/1/1/पृ.3/20 <span class="SanskritText">यत्पुनरनुमानप्रत्यक्षागमविरुद्धं न्यायाभास: स इति। </span>=<span class="HindiText">जो अनुमान प्रत्यक्ष और आगम के विरुद्ध हो उसे न्यायाभास कहते हैं।<br /> | न्या.द./भाष्य/1/1/1/पृ.3/20 <span class="SanskritText">यत्पुनरनुमानप्रत्यक्षागमविरुद्धं न्यायाभास: स इति। </span>=<span class="HindiText">जो अनुमान प्रत्यक्ष और आगम के विरुद्ध हो उसे न्यायाभास कहते हैं।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3">जैन न्याय निर्देश</strong></span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/1/6,9-12,33 <span class="SanskritText"> प्रमाणनयैरधिगम:।6। मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानि ज्ञानम।9। तत्प्रमाणे।10। आद्ये परोक्षम् ।11। प्रत्यक्षमन्यत् ।12। नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढैवंभूता नया:।33।</span> =<span class="HindiText">प्रमाण और नय से पदार्थों का निश्चय होता है।6। मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय व केवल ये | तत्त्वार्थसूत्र/1/6,9-12,33 <span class="SanskritText"> प्रमाणनयैरधिगम:।6। मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानि ज्ञानम।9। तत्प्रमाणे।10। आद्ये परोक्षम् ।11। प्रत्यक्षमन्यत् ।12। नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढैवंभूता नया:।33।</span> =<span class="HindiText">प्रमाण और नय से पदार्थों का निश्चय होता है।6। मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय व केवल ये पाँच ज्ञान हैं।9। वह ज्ञान ही प्रमाण है वह प्रमाण, प्रत्यक्ष व परोक्ष के भेद से दो प्रकार का है।10। इनमें पहले दो मति व श्रुत परोक्ष प्रमाण हैं। (पाँचों इन्द्रियों व छठे मन के द्वारा होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है और अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति व आगम ये सब श्रुतज्ञान के अवयव हैं।)।11। शेष तीन अवधि, मन:पर्यय व केवलज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण हैं (इनमें भी अवधि व मन:पर्यय देश प्रत्यक्ष और केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। उपचार से इन्द्रिय ज्ञान अर्थात् मतिज्ञान को भी सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष मान लिया जाता है)।12। नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत ये सात नय हैं। (इनमें भी नैगम, संग्रह व व्यवहार द्रव्यार्थिक अर्थात् सामान्यांशग्राही हैं और शेष 4 पर्यायार्थिक अर्थात् विशेषांशग्राही हैं)।33। (विशेष देखो प्रमाण, नय, निक्षेप, अनुमान, प्रत्यक्ष, परोक्ष आदि विषय)</span><br /> | ||
परीक्षामुख/1/1 <span class="SanskritText">प्रमाणादर्थसंसिद्धिस्तदाभासाद्विपर्यय:। </span>=<span class="HindiText">प्रमाण से पदार्थों का वास्तविक ज्ञान होता है प्रमाणाभास से नहीं होता।</span><br /> | परीक्षामुख/1/1 <span class="SanskritText">प्रमाणादर्थसंसिद्धिस्तदाभासाद्विपर्यय:। </span>=<span class="HindiText">प्रमाण से पदार्थों का वास्तविक ज्ञान होता है प्रमाणाभास से नहीं होता।</span><br /> | ||
न्यायदीपिका/1/1/3/4 <span class="SanskritText">‘प्रमाणनयैरधिगम:’ इति महाशास्त्रतत्त्वार्थसूत्रम् । तत्खलु परमपुरुषार्थनि:श्रेयससाधनसम्यग्दर्शनादिविषयभूतजीवादितत्त्वाधिगमोपनयनिरूपणपरम् । प्रमाणनयाभ्यां हि विवेचिता जीवादय: सम्यगधिगम्यन्ते। तद्वयतिरेकेण जीवाद्यधिगमे प्रकारान्तरासंभवात् ।...ततस्तेषां सुखोपायेन प्रमाणनयात्मकन्यायस्वरूपप्रतिबोधकशास्त्राधिकारसंपत्तये प्रकरणमिदमारभ्यते।6-1।</span> =<span class="HindiText">’प्रमाणनयैरधिगम:’ यह उपरोक्त महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र का वाक्य है। सो परमपुरुषार्थरूप, मोक्ष के कारणभूत सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय के विषयभूत, जीवादि तत्त्वों का ज्ञान कराने वाले उपायों का प्रमाण और नय रूप से निरूपण करता है, क्योंकि प्रमाण और नय के द्वारा ही जीवादि पदार्थों का विश्लेषण पूर्वक सम्यग्ज्ञान होता है। प्रमाण और नय को छोड़कर जीवादि तत्त्वों के जानने में अन्य कोई उपाय नहीं है। इसलिए सरलता से प्रमाण और नयरूप न्याय के स्वरूप का बोध कराने वाले जो सिद्धिविनिश्चय आदि बड़े-बड़े शास्त्र हैं, उनमें प्रवेश पाने के लिए यह प्रकरण प्रारम्भ किया जाता है।<br /> | न्यायदीपिका/1/1/3/4 <span class="SanskritText">‘प्रमाणनयैरधिगम:’ इति महाशास्त्रतत्त्वार्थसूत्रम् । तत्खलु परमपुरुषार्थनि:श्रेयससाधनसम्यग्दर्शनादिविषयभूतजीवादितत्त्वाधिगमोपनयनिरूपणपरम् । प्रमाणनयाभ्यां हि विवेचिता जीवादय: सम्यगधिगम्यन्ते। तद्वयतिरेकेण जीवाद्यधिगमे प्रकारान्तरासंभवात् ।...ततस्तेषां सुखोपायेन प्रमाणनयात्मकन्यायस्वरूपप्रतिबोधकशास्त्राधिकारसंपत्तये प्रकरणमिदमारभ्यते।6-1।</span> =<span class="HindiText">’प्रमाणनयैरधिगम:’ यह उपरोक्त महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र का वाक्य है। सो परमपुरुषार्थरूप, मोक्ष के कारणभूत सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय के विषयभूत, जीवादि तत्त्वों का ज्ञान कराने वाले उपायों का प्रमाण और नय रूप से निरूपण करता है, क्योंकि प्रमाण और नय के द्वारा ही जीवादि पदार्थों का विश्लेषण पूर्वक सम्यग्ज्ञान होता है। प्रमाण और नय को छोड़कर जीवादि तत्त्वों के जानने में अन्य कोई उपाय नहीं है। इसलिए सरलता से प्रमाण और नयरूप न्याय के स्वरूप का बोध कराने वाले जो सिद्धिविनिश्चय आदि बड़े-बड़े शास्त्र हैं, उनमें प्रवेश पाने के लिए यह प्रकरण प्रारम्भ किया जाता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> जाति, </span></li> | <li><span class="HindiText"> जाति, </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> निग्रहस्थान–इन 16 पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मोक्ष होता है।1। तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञान का नाश होता है, उससे दोषों का अभाव होता है, दोष न रहने पर प्रवृत्ति की निवृत्ति होती है, फिर उससे जन्म दूर होता है, जन्म के अभाव से सब दु:खों का अभाव होता है। दु:ख के अत्यन्त नाश का ही नाम मोक्ष है।2।<br /> | <li><span class="HindiText"> निग्रहस्थान–इन 16 पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मोक्ष होता है।1। तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञान का नाश होता है, उससे दोषों का अभाव होता है, दोष न रहने पर प्रवृत्ति की निवृत्ति होती है, फिर उससे जन्म दूर होता है, जन्म के अभाव से सब दु:खों का अभाव होता है। दु:ख के अत्यन्त नाश का ही नाम मोक्ष है।2।<br /> | ||
षट् दर्शन समुच्चय/श्लो.17-33/पृ.14-31 का सार–मन व इन्द्रियों द्वारा वस्तु के यथार्थ ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। वह चार प्रकार का है (देखें [[ अगला शीर्षक ]])। प्रमाण द्वारा जिन पदार्थों का ज्ञान होता है वे प्रमेय हैं। वे 12 माने गये हैं (देखें [[ अगला शीर्षक ]])। स्थाणु में पुरुष का ज्ञान होने की | षट् दर्शन समुच्चय/श्लो.17-33/पृ.14-31 का सार–मन व इन्द्रियों द्वारा वस्तु के यथार्थ ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। वह चार प्रकार का है (देखें [[ अगला शीर्षक ]])। प्रमाण द्वारा जिन पदार्थों का ज्ञान होता है वे प्रमेय हैं। वे 12 माने गये हैं (देखें [[ अगला शीर्षक ]])। स्थाणु में पुरुष का ज्ञान होने की भाँति संशय होता है (देखें [[ संशय ]])। जिससे प्रेरित होकर लोग कार्य करते हैं वह प्रयोजन है। जिस बात में पक्ष व विपक्ष एक मत हों उसे दृष्टान्त कहते हैं (देखें [[ दृष्टान्त ]])। प्रमाण द्वारा किसी बात को स्वीकार कर लेना सिद्धान्त है। अनुमान की प्रक्रिया में प्रयुक्त वाक्यों को अवयव कहते हैं। वे पाँच हैं (देखें [[ अगला शीर्षक ]])। प्रमाण का सहायक तर्क होता है। पक्ष व विपक्ष दोनों का विचार जिस विषय पर स्थिर हो जाये उसे निर्णय कहते हैं। तत्त्व जिज्ञासा से किया गया विचार-विमर्श वाद है। स्वपक्ष का साधन और परपक्ष का खण्डन करना जल्प है। अपना कोई भी पक्ष स्थापित न करके दूसरे के पक्ष का खण्डन करना वितण्डा है। असत् हेतु को हेत्वाभास कहते हैं। वह पाँच प्रकार के हैं (देखें [[ अगल शीर्षक ]]) वक्ता के अभिप्राय को उलटकर प्रगट करना छल है। वह तीन प्रकार का है (देखें [[ शीर्षक नं#7 | शीर्षक नं - 7]])। मिथ्या उत्तर देना जाति है। वह 24 प्रकार का है। वादी व प्रतिवादी के पक्षों का स्पष्ट भाव न होना निग्रह स्थान है। वे भी 24 हैं (देखें [[ वह वह नाम ]]) नैयायिक लोग कार्य से कारण को सर्वथा भिन्न मानते हैं, इसलिए असत् कार्यवादी हैं। जो अन्यथासिद्ध न हो उसे कारण कहते हैं वह तीन प्रकार का है–समवायी, असमवायी व निमित्त। सम्बन्ध दो प्रकार का है–संयोग व समवाय।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText">चार्ट <br /> | <li><span class="HindiText">चार्ट <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> प्रमेय— न्यायदर्शन सूत्र/ मू./1/1/9–22 का सारार्थ–प्रमेय 12 हैं—आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, दु:ख और अपवर्ग। | <li><span class="HindiText"> प्रमेय— न्यायदर्शन सूत्र/ मू./1/1/9–22 का सारार्थ–प्रमेय 12 हैं—आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, दु:ख और अपवर्ग। तहाँ ज्ञान, इच्छा, सुख, दु:ख आदि का आधार आत्मा है। चेष्टा, इन्द्रिय, सुख दु:ख के अनुभव का आधार शरीर है। इन्द्रिय दो प्रकार की हैं–बाह्य व अभ्यन्तर। अभ्यन्तर इन्द्रिय मन है। बाह्य इन्द्रिय दो प्रकार की है–कर्मेन्द्रिय व ज्ञानेन्द्रिय। वाक्, हस्त, पाद, जननेन्द्रिय और गुदा ये पाँच कर्मेन्द्रिय हैं। चक्षु, रसना, घ्राण, त्वक् व श्रोत्र ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। रूप, रस आदि इन पाँच इन्द्रियों के पाँच विषय अथवा सुख-दु:ख के कारण ‘अर्थ’ कहलाते हैं। उपलब्धि या ज्ञान का नाम बुद्धि है। अणु, प्रमाण, नित्य, जीवात्माओं को एक दूसरे से पृथक् करने वाला, तथा एक काल में एक ही इन्द्रिय के साथ संयुक्त होकर उनके क्रमिक ज्ञान में कारण बनने वाला मन है। मन, वचन, काय की क्रिया को प्रवृत्ति कहते हैं। राग, द्वेष व मोह ‘दोष’ कहलाते हैं। मृत्यु के पश्चात् अन्य शरीर में जीव की स्थिति का नाम प्रेत्यभाव है। सुख-दु:ख हमारी प्रवृत्ति का फल है। अनुकूल फल को सुख और प्रतिकूल फल को दु:ख कहते हैं। ध्यान-समाधि आदि के द्वारा आत्मसाक्षात्कार हो जाने पर अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष अभिनिवेश ये पाँच क्लेश नष्ट हो जाते हैं। आगे चलकर छह इन्द्रियाँ, इनके छह विषय, तथा छह प्रकार का इनका ज्ञान, सुख, दु:ख और शरीर इन 21 दोषों से आत्यन्तिकी निवृत्ति हो जाती है। वही अपवर्ग या मोक्ष है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText">3-6 न्यायदर्शन सूत्र/ मू./1/1/23-31/28-33 का सार–संशय, प्रयोजन व दृष्टान्त एक-एक प्रकार के हैं। सिद्धान्त चार प्रकार का है–सर्व शास्त्रों में अविरुद्ध अर्थ सर्वतन्त्र है, एक शास्त्र में सिद्ध और दूसरे में असिद्ध अर्थ प्रतितन्त्र है। जिस अर्थ की सिद्धि से अन्य अर्थ भी स्वत: सिद्ध हो जायें वह अधिकरण सिद्धान्त है। किसी पदार्थ को मानकर भी उसकी विशेष परीक्षा करना अभ्युपगम है।<br /> | <li><span class="HindiText">3-6 न्यायदर्शन सूत्र/ मू./1/1/23-31/28-33 का सार–संशय, प्रयोजन व दृष्टान्त एक-एक प्रकार के हैं। सिद्धान्त चार प्रकार का है–सर्व शास्त्रों में अविरुद्ध अर्थ सर्वतन्त्र है, एक शास्त्र में सिद्ध और दूसरे में असिद्ध अर्थ प्रतितन्त्र है। जिस अर्थ की सिद्धि से अन्य अर्थ भी स्वत: सिद्ध हो जायें वह अधिकरण सिद्धान्त है। किसी पदार्थ को मानकर भी उसकी विशेष परीक्षा करना अभ्युपगम है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText">7. अवयव— न्यायदर्शन सूत्र/ मू./1/1/32-39/33-39 का सार–अनुमान के अवयव | <li><span class="HindiText">7. अवयव— न्यायदर्शन सूत्र/ मू./1/1/32-39/33-39 का सार–अनुमान के अवयव पाँच हैं–प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन। साध्य का निर्देश करना प्रतिज्ञा है। साध्य धर्म का साधन हेतु कहलाता है। उसके तीन आवश्यक हैं–पक्षवृत्ति, सपक्षवृत्ति और विपक्ष व्यावृत्ति। साध्य के तुल्य धर्मवाले दृष्टान्त के वचन को उदाहरण कहते हैं। वह दो प्रकार का है अन्वय व व्यतिरेकी। साध्य के उपसंहार को उपनय और पाँच अवयवों युक्त वाक्य को दुहराना निगमन है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText">8-12. न्यायदर्शन सूत्र/1/1/40-41/39-41 तथा 1/2/1-3/40-43 का सार–तर्क;निर्णय, वाद, जल्प, व वितण्डा एक एक प्रकार के हैं। </span></li> | <li><span class="HindiText">8-12. न्यायदर्शन सूत्र/1/1/40-41/39-41 तथा 1/2/1-3/40-43 का सार–तर्क;निर्णय, वाद, जल्प, व वितण्डा एक एक प्रकार के हैं। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText">13. हेत्वाभास– न्यायदर्शन सूत्र/1/2/4-9/44-47 का सारार्थ–हेत्वाभास | <li><span class="HindiText">13. हेत्वाभास– न्यायदर्शन सूत्र/1/2/4-9/44-47 का सारार्थ–हेत्वाभास पाँच हैं–‘सव्यभिचारी, विरुद्ध, प्रकरण-सम, साध्यसम और कालातीत। पक्ष व विपक्ष दोनों को स्पर्श करने वाला सव्यभिचार है। वह तीन प्रकार है–साधारण, असाधारण व अनुपसंहारी। स्वपक्षविरुद्ध साध्य को सिद्ध करने वाला विरुद्ध है। पक्ष व विपक्ष दोनों ही के निर्णय से रहित प्रकरणसम है। केवल शब्द भेद द्वारा साध्य को ही हेतुरूप से कहना साध्यसम है। देश काल के ध्वंस से युक्त कालातीत या कालात्ययापदिष्ट है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> 14-16. न्यायदर्शन सूत्र/1/2/10-20/48-54 का सारार्थ–छल तीन प्रकार का है–वाक् छल, सामान्यछल और उपचार छल। वक्ता के वचन को घुमाकर अन्य अर्थ करना वाक्छल है। सम्भावित अर्थ को सभी में सामान्यरूप से लागू कर देना सामान्यछल है। उपचार से कही गयी बात का सत्यार्थरूप अर्थ करना उपचारछल है।<br /> | <li><span class="HindiText"> 14-16. न्यायदर्शन सूत्र/1/2/10-20/48-54 का सारार्थ–छल तीन प्रकार का है–वाक् छल, सामान्यछल और उपचार छल। वक्ता के वचन को घुमाकर अन्य अर्थ करना वाक्छल है। सम्भावित अर्थ को सभी में सामान्यरूप से लागू कर देना सामान्यछल है। उपचार से कही गयी बात का सत्यार्थरूप अर्थ करना उपचारछल है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> नैयायिकमत के प्रवर्तक व साहित्य</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> नैयायिकमत के प्रवर्तक व साहित्य</strong> <br /> | ||
नैयायिक लोग यौग व शैष नाम से भी पुकारे जाते हैं। इस दर्शन के मूल प्रवर्तक अक्षपाद गौतम ऋषि हुए हैं, जिन्होंने इसके मूल ग्रन्थ न्यायसूत्र की रचना की। इनका समय जैकोबी के अनुसार | नैयायिक लोग यौग व शैष नाम से भी पुकारे जाते हैं। इस दर्शन के मूल प्रवर्तक अक्षपाद गौतम ऋषि हुए हैं, जिन्होंने इसके मूल ग्रन्थ न्यायसूत्र की रचना की। इनका समय जैकोबी के अनुसार ई.200-450, यूई के अनुसार ई.150-250 और प्रो.ध्रुव के अनुसार ई.पू.की शताब्दी दो बताया जाता है। न्यायसूत्र पर ई.श.4 में वात्सायन ने भाष्य रचा। इस भाष्य पर उद्योत करने न्यायवार्तिक की रचना की। तथा उस पर भी ई.840 में वाचस्पति मिश्र ने तात्पर्य टीका रची। उन्होंने ही न्यायसूचिनिबन्ध व न्यायसूत्रोद्धार की रचना की। जयन्तभट्ट ने ई.880 में न्यायमञ्जरी, न्यायकलिका; उदयन ने ई.श.10 में वाचस्पतिकृत तात्पर्यटीका पर तात्पर्यटीका-परिशुद्धि तथा उदयन की रचनाओं पर गंगेश नैयायिक के पुत्र वर्द्धमान आदि ने टीकाएँ रचीं। इसके अतिरिक्त भी अनेक टीकाएँ व स्वतन्त्र ग्रन्थ प्राप्त हैं। जैसे–भासर्वज्ञकृत न्यायसार, मुक्तावली, दिनकरी, रामरुद्री नाम की भाषा परिच्छेद युक्त टीकाएँ, तर्कसंग्रह, तर्कभाषा, तार्किकरक्षा आदि। न्याय दर्शन में नव्य न्याय का जन्म ई.1200 में गंगेश ने नाम ग्रन्थ की रचना द्वारा किया, जिस पर जयदेव ने प्रत्यक्षालोक, तथा वासुदेव सार्वभौम (ई.1500) ने तत्त्वचिन्तामणि व्याख्या लिखी। वासुदेव के शिष्य रघुनाथ ने तत्त्वचिन्तामणि पर दीधिति, वैशेषिकमत का खण्डन करने के लिए पदार्थखण्डन, तथा ईश्वरसिद्धि के <br /> | ||
लिए ईश्वरानुमान नामक ग्रन्थ लिखे। ( स्याद्वादमञ्जरी/ परि-ग/पृ.408-418)।<br /> | लिए ईश्वरानुमान नामक ग्रन्थ लिखे। ( स्याद्वादमञ्जरी/ परि-ग/पृ.408-418)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">वस्तुविचार में परीक्षा का स्थान</strong></span><br> तिलोयपण्णत्ति/1/83 <span class="SanskritText">जुत्तीए अत्थपडिगहणं।</span>=<span class="HindiText">(प्रमाण, नय और निक्षेप की) युक्ति से अर्थ का परिग्रहण करना चाहिए। देखें [[ नय#I.3.7 | नय - I.3.7 ]]जो नय प्रमाण और निक्षेप से अर्थ का निरीक्षण नहीं करता है, उसको युक्त पदार्थ अयुक्त और अयुक्त पदार्थ युक्त प्रतीत होता है।</span><br> | ||
कषायपाहुड़ 1/1-1/2/7/3 <span class="PrakritText">जुत्तिविरहियगुरुवयणादो पयमाणस्स पमाणाणुसारित्तविरोहादो।</span> =<span class="HindiText">जो शिष्य युक्ति की अपेक्षा किये बिना मात्र गुरुवचन के अनुसार प्रवृत्ति करता है उसे प्रमाणानुसारी मानने में विरोध आता है। </span> न्यायदीपिका/1/2/4 <span class="SanskritText">इह हि प्रमाणनयविवेचनमुद्देशलक्षणनिर्देशपरीक्षाद्वारेण क्रियते। अनुद्दिष्टस्य लक्षणनिर्देशानुपपत्ते:। अनिर्दिष्टलक्षणस्य परीक्षितुमशक्यत्वात् । अपरीक्षितस्य विवेचनायोगात् । लोकशास्त्रयोरपि तथैव वस्तुविवेचनप्रसिद्धे:। </span>=<span class="HindiText">इस ग्रन्थ में प्रमाण और नय का व्याख्यान उद्देश्य, लक्षणनिर्देश तथा परीक्षा इन तीन द्वारा किया जाता है। क्योंकि विवेचनीय वस्तु का उद्देश्य नामोल्लेख किये बिना लक्षणकथन नहीं हो सकता। और लक्षणकथन किये बिना परीक्षा नहीं हो सकती, तथा परीक्षा हुए बिना विवेचन अर्थात् निर्णयात्मक वर्णन नहीं हो सकता। लोक व्यवहार तथा शास्त्र में भी उक्त प्रकार से ही वस्तु का निर्णय प्रसिद्ध है।</span><br>भद्रबाहु चरित्र (हरिभद्र सूरिकृत) प्रस्तावना पृ.6 पर उद्धृत–<span class="SanskritText">पक्षपातो न मे वीरे न दोष: कपिलादिषु। युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्य: परिग्रह:।</span> = <span class="HindiText">न तो मुझे वीर भगवान् में कोई पक्षपात है और न कपिल आदि अन्य मत-प्रवर्तकों में कोई द्वेष है। जिसका वचन युक्तिपूर्ण होता है उसका ग्रहण करना ही मेरे लिए प्रयोजनीय है। </span></li> | कषायपाहुड़ 1/1-1/2/7/3 <span class="PrakritText">जुत्तिविरहियगुरुवयणादो पयमाणस्स पमाणाणुसारित्तविरोहादो।</span> =<span class="HindiText">जो शिष्य युक्ति की अपेक्षा किये बिना मात्र गुरुवचन के अनुसार प्रवृत्ति करता है उसे प्रमाणानुसारी मानने में विरोध आता है। </span> न्यायदीपिका/1/2/4 <span class="SanskritText">इह हि प्रमाणनयविवेचनमुद्देशलक्षणनिर्देशपरीक्षाद्वारेण क्रियते। अनुद्दिष्टस्य लक्षणनिर्देशानुपपत्ते:। अनिर्दिष्टलक्षणस्य परीक्षितुमशक्यत्वात् । अपरीक्षितस्य विवेचनायोगात् । लोकशास्त्रयोरपि तथैव वस्तुविवेचनप्रसिद्धे:। </span>=<span class="HindiText">इस ग्रन्थ में प्रमाण और नय का व्याख्यान उद्देश्य, लक्षणनिर्देश तथा परीक्षा इन तीन द्वारा किया जाता है। क्योंकि विवेचनीय वस्तु का उद्देश्य नामोल्लेख किये बिना लक्षणकथन नहीं हो सकता। और लक्षणकथन किये बिना परीक्षा नहीं हो सकती, तथा परीक्षा हुए बिना विवेचन अर्थात् निर्णयात्मक वर्णन नहीं हो सकता। लोक व्यवहार तथा शास्त्र में भी उक्त प्रकार से ही वस्तु का निर्णय प्रसिद्ध है।</span><br>भद्रबाहु चरित्र (हरिभद्र सूरिकृत) प्रस्तावना पृ.6 पर उद्धृत–<span class="SanskritText">पक्षपातो न मे वीरे न दोष: कपिलादिषु। युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्य: परिग्रह:।</span> = <span class="HindiText">न तो मुझे वीर भगवान् में कोई पक्षपात है और न कपिल आदि अन्य मत-प्रवर्तकों में कोई द्वेष है। जिसका वचन युक्तिपूर्ण होता है उसका ग्रहण करना ही मेरे लिए प्रयोजनीय है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> न्याय का प्रयोग लोकव्यवहार के अनुसार ही होना चाहिए</strong></span><br> धवला 12/4,2,8,13/289/10 <span class="SanskritText">न्यायश्चर्च्यते लोकव्यवहारप्रसिद्धयर्थम्, न तद्बहिर्भूतो न्याय:, तस्य न्यायाभासत्वात् ।</span> =<span class="HindiText">न्याय की चर्चा लोकव्यवहार की प्रसिद्धि के लिए ही की जाती है। लोकव्यवहार के बहिर्गत न्याय नहीं होता है, किन्तु वह केवल न्यायाभास ही है। </span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> न्याय का प्रयोग लोकव्यवहार के अनुसार ही होना चाहिए</strong></span><br> धवला 12/4,2,8,13/289/10 <span class="SanskritText">न्यायश्चर्च्यते लोकव्यवहारप्रसिद्धयर्थम्, न तद्बहिर्भूतो न्याय:, तस्य न्यायाभासत्वात् ।</span> =<span class="HindiText">न्याय की चर्चा लोकव्यवहार की प्रसिद्धि के लिए ही की जाती है। लोकव्यवहार के बहिर्गत न्याय नहीं होता है, किन्तु वह केवल न्यायाभास ही है। </span></li> |
Revision as of 14:24, 20 July 2020
तर्क व युक्ति द्वारा परोक्ष पदार्थों की सिद्धि व निर्णय के अर्थ न्यायशास्त्र का उद्गम हुआ। यद्यपि न्यायशास्त्र का मूल आधार नैयायिक दर्शन है, जिसने कि वैशेषिक मान्य तत्त्वों की युक्तिपूर्वक सिद्धि की है, परन्तु वीतरागता के उपासक जैन व बौद्ध दर्शनों को भी अपने सिद्धान्त की रक्षा के लिए न्यायशास्त्र का आश्रय लेना पड़ा। जैनाचार्यों में स्वामी समन्तभद्र (वि.श.2-3), अकलंक भट्ट (ई.640-680) और विद्यानन्दि (ई.775-840) को विशेषत: वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक व बौद्ध मतों से टक्कर लेनी पड़ी। तभी से जैनन्याय शास्त्र का विकास हुआ। बौद्धन्याय शास्त्र भी लगभग उसी समय प्रगट हुआ। तीनों ही न्यायशास्त्रों के तत्त्वों में अपने-अपने सिद्धान्तानुसार मतभेद पाया जाता है। जैसे कि न्याय दर्शन जहाँ वितंडा, जाति व निग्रहस्थान जैसे अनुचित हथकण्डों का प्रयोग करके भी वाद में जीत लेना न्याय मानता है, वहाँ जैन दर्शन केवल सद्हेतुओं के आधार पर अपने पक्ष की सिद्धि कर देना मात्र ही सच्ची विजय समझता है। अथवा न्यायदर्शन विस्तार रुचिवाला होने के कारण प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान व आगम इस प्रकार चार प्रमाण, 16 तत्त्व, उनके अनेकों भेद-प्रभेदों का जाल फैला देता है, जबकि जैनदर्शन संक्षेप रुचिवाला होने के कारण प्रत्यक्ष व परोक्ष दो प्रमाण तथा इनके अंगभूत नय इन दो तत्त्वों से ही अपना सारा प्रयोजन सिद्ध कर लेता है।
- न्याय दर्शन निर्देश
- न्याय का लक्षण
धवला 13/5,5,50/286/9 न्यायादनपेतं न्याय्यं श्रुतज्ञानम् । अथवा, ज्ञेयानुसारित्वान्न्यायरूपत्वाद्वा न्याय: सिद्धान्त:। =न्याय से युक्त है इसलिए श्रुतज्ञान न्याय कहलाता है। अथवा ज्ञेय का अनुसरण करने वाला होने से या न्यायरूप होने से सिद्धान्त को न्याय कहते हैं।
न्यायविनिश्चय/ वृ./1/358/1 नीयतेऽनेनेति हि नीतिक्रियाकरणं न्याय उच्यते। =जिसके द्वारा निश्चय किया जाये ऐसी नीतिक्रिया का करना न्याय कहा जाता है।
न्या.द/भाष्य/1/1/1/पृ.3/18 प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय:। प्रत्यक्षागमाश्रितमनुपानं सान्वीक्षा प्रत्यक्षागमाभ्यामीक्षितस्यान्वीक्षणमन्वीक्षा तथा प्रवर्त्तत इत्यान्वीक्षिकी न्यायविद्या न्यायशास्त्रम् । =प्रमाण से वस्तु की परीक्षा करने का नाम न्याय है। प्रत्यक्ष और आगम के आश्रित अनुमान को अन्वीक्षा कहते हैं, इसी का नाम आन्वीक्षिकी या न्यायविद्या व न्यायशास्त्र है।
- न्यायाभासका लक्षण
न्या.द./भाष्य/1/1/1/पृ.3/20 यत्पुनरनुमानप्रत्यक्षागमविरुद्धं न्यायाभास: स इति। =जो अनुमान प्रत्यक्ष और आगम के विरुद्ध हो उसे न्यायाभास कहते हैं।
- जैन न्याय निर्देश
तत्त्वार्थसूत्र/1/6,9-12,33 प्रमाणनयैरधिगम:।6। मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानि ज्ञानम।9। तत्प्रमाणे।10। आद्ये परोक्षम् ।11। प्रत्यक्षमन्यत् ।12। नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढैवंभूता नया:।33। =प्रमाण और नय से पदार्थों का निश्चय होता है।6। मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय व केवल ये पाँच ज्ञान हैं।9। वह ज्ञान ही प्रमाण है वह प्रमाण, प्रत्यक्ष व परोक्ष के भेद से दो प्रकार का है।10। इनमें पहले दो मति व श्रुत परोक्ष प्रमाण हैं। (पाँचों इन्द्रियों व छठे मन के द्वारा होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है और अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति व आगम ये सब श्रुतज्ञान के अवयव हैं।)।11। शेष तीन अवधि, मन:पर्यय व केवलज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण हैं (इनमें भी अवधि व मन:पर्यय देश प्रत्यक्ष और केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। उपचार से इन्द्रिय ज्ञान अर्थात् मतिज्ञान को भी सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष मान लिया जाता है)।12। नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत ये सात नय हैं। (इनमें भी नैगम, संग्रह व व्यवहार द्रव्यार्थिक अर्थात् सामान्यांशग्राही हैं और शेष 4 पर्यायार्थिक अर्थात् विशेषांशग्राही हैं)।33। (विशेष देखो प्रमाण, नय, निक्षेप, अनुमान, प्रत्यक्ष, परोक्ष आदि विषय)
परीक्षामुख/1/1 प्रमाणादर्थसंसिद्धिस्तदाभासाद्विपर्यय:। =प्रमाण से पदार्थों का वास्तविक ज्ञान होता है प्रमाणाभास से नहीं होता।
न्यायदीपिका/1/1/3/4 ‘प्रमाणनयैरधिगम:’ इति महाशास्त्रतत्त्वार्थसूत्रम् । तत्खलु परमपुरुषार्थनि:श्रेयससाधनसम्यग्दर्शनादिविषयभूतजीवादितत्त्वाधिगमोपनयनिरूपणपरम् । प्रमाणनयाभ्यां हि विवेचिता जीवादय: सम्यगधिगम्यन्ते। तद्वयतिरेकेण जीवाद्यधिगमे प्रकारान्तरासंभवात् ।...ततस्तेषां सुखोपायेन प्रमाणनयात्मकन्यायस्वरूपप्रतिबोधकशास्त्राधिकारसंपत्तये प्रकरणमिदमारभ्यते।6-1। =’प्रमाणनयैरधिगम:’ यह उपरोक्त महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र का वाक्य है। सो परमपुरुषार्थरूप, मोक्ष के कारणभूत सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय के विषयभूत, जीवादि तत्त्वों का ज्ञान कराने वाले उपायों का प्रमाण और नय रूप से निरूपण करता है, क्योंकि प्रमाण और नय के द्वारा ही जीवादि पदार्थों का विश्लेषण पूर्वक सम्यग्ज्ञान होता है। प्रमाण और नय को छोड़कर जीवादि तत्त्वों के जानने में अन्य कोई उपाय नहीं है। इसलिए सरलता से प्रमाण और नयरूप न्याय के स्वरूप का बोध कराने वाले जो सिद्धिविनिश्चय आदि बड़े-बड़े शास्त्र हैं, उनमें प्रवेश पाने के लिए यह प्रकरण प्रारम्भ किया जाता है।
देखें नय - I.3.7 (प्रमाण, नय व निक्षेप से यदि वस्तु को न जाना जाये तो युक्त भी अयुक्त और अयुक्त भी युक्त दिखाई देता है।)
- जैन न्याय के अवयव
chart 1
- नैयायिक दर्शन निर्देश
न्यायदर्शन सूत्र/ मू./1/1/1-2 प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निश्रेयसाधिगम:।1। दु:खजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्ग:।2। =- प्रमाण,
- प्रमेय,
- संशय,
- प्रयोजन,
- दृष्टान्त,
- सिद्धान्त,
- अवयव,
- तर्क,
- निर्णय,
- वाद,
- जल्प,
- वितण्डा,
- हेत्वाभास,
- छल,
- जाति,
- निग्रहस्थान–इन 16 पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मोक्ष होता है।1। तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञान का नाश होता है, उससे दोषों का अभाव होता है, दोष न रहने पर प्रवृत्ति की निवृत्ति होती है, फिर उससे जन्म दूर होता है, जन्म के अभाव से सब दु:खों का अभाव होता है। दु:ख के अत्यन्त नाश का ही नाम मोक्ष है।2।
षट् दर्शन समुच्चय/श्लो.17-33/पृ.14-31 का सार–मन व इन्द्रियों द्वारा वस्तु के यथार्थ ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। वह चार प्रकार का है (देखें अगला शीर्षक )। प्रमाण द्वारा जिन पदार्थों का ज्ञान होता है वे प्रमेय हैं। वे 12 माने गये हैं (देखें अगला शीर्षक )। स्थाणु में पुरुष का ज्ञान होने की भाँति संशय होता है (देखें संशय )। जिससे प्रेरित होकर लोग कार्य करते हैं वह प्रयोजन है। जिस बात में पक्ष व विपक्ष एक मत हों उसे दृष्टान्त कहते हैं (देखें दृष्टान्त )। प्रमाण द्वारा किसी बात को स्वीकार कर लेना सिद्धान्त है। अनुमान की प्रक्रिया में प्रयुक्त वाक्यों को अवयव कहते हैं। वे पाँच हैं (देखें अगला शीर्षक )। प्रमाण का सहायक तर्क होता है। पक्ष व विपक्ष दोनों का विचार जिस विषय पर स्थिर हो जाये उसे निर्णय कहते हैं। तत्त्व जिज्ञासा से किया गया विचार-विमर्श वाद है। स्वपक्ष का साधन और परपक्ष का खण्डन करना जल्प है। अपना कोई भी पक्ष स्थापित न करके दूसरे के पक्ष का खण्डन करना वितण्डा है। असत् हेतु को हेत्वाभास कहते हैं। वह पाँच प्रकार के हैं (देखें अगल शीर्षक ) वक्ता के अभिप्राय को उलटकर प्रगट करना छल है। वह तीन प्रकार का है (देखें शीर्षक नं - 7)। मिथ्या उत्तर देना जाति है। वह 24 प्रकार का है। वादी व प्रतिवादी के पक्षों का स्पष्ट भाव न होना निग्रह स्थान है। वे भी 24 हैं (देखें वह वह नाम ) नैयायिक लोग कार्य से कारण को सर्वथा भिन्न मानते हैं, इसलिए असत् कार्यवादी हैं। जो अन्यथासिद्ध न हो उसे कारण कहते हैं वह तीन प्रकार का है–समवायी, असमवायी व निमित्त। सम्बन्ध दो प्रकार का है–संयोग व समवाय।
- नैयायिक दर्शन मान्य पदार्थों के भेद
- चार्ट
- प्रमेय— न्यायदर्शन सूत्र/ मू./1/1/9–22 का सारार्थ–प्रमेय 12 हैं—आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, दु:ख और अपवर्ग। तहाँ ज्ञान, इच्छा, सुख, दु:ख आदि का आधार आत्मा है। चेष्टा, इन्द्रिय, सुख दु:ख के अनुभव का आधार शरीर है। इन्द्रिय दो प्रकार की हैं–बाह्य व अभ्यन्तर। अभ्यन्तर इन्द्रिय मन है। बाह्य इन्द्रिय दो प्रकार की है–कर्मेन्द्रिय व ज्ञानेन्द्रिय। वाक्, हस्त, पाद, जननेन्द्रिय और गुदा ये पाँच कर्मेन्द्रिय हैं। चक्षु, रसना, घ्राण, त्वक् व श्रोत्र ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। रूप, रस आदि इन पाँच इन्द्रियों के पाँच विषय अथवा सुख-दु:ख के कारण ‘अर्थ’ कहलाते हैं। उपलब्धि या ज्ञान का नाम बुद्धि है। अणु, प्रमाण, नित्य, जीवात्माओं को एक दूसरे से पृथक् करने वाला, तथा एक काल में एक ही इन्द्रिय के साथ संयुक्त होकर उनके क्रमिक ज्ञान में कारण बनने वाला मन है। मन, वचन, काय की क्रिया को प्रवृत्ति कहते हैं। राग, द्वेष व मोह ‘दोष’ कहलाते हैं। मृत्यु के पश्चात् अन्य शरीर में जीव की स्थिति का नाम प्रेत्यभाव है। सुख-दु:ख हमारी प्रवृत्ति का फल है। अनुकूल फल को सुख और प्रतिकूल फल को दु:ख कहते हैं। ध्यान-समाधि आदि के द्वारा आत्मसाक्षात्कार हो जाने पर अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष अभिनिवेश ये पाँच क्लेश नष्ट हो जाते हैं। आगे चलकर छह इन्द्रियाँ, इनके छह विषय, तथा छह प्रकार का इनका ज्ञान, सुख, दु:ख और शरीर इन 21 दोषों से आत्यन्तिकी निवृत्ति हो जाती है। वही अपवर्ग या मोक्ष है।
- 3-6 न्यायदर्शन सूत्र/ मू./1/1/23-31/28-33 का सार–संशय, प्रयोजन व दृष्टान्त एक-एक प्रकार के हैं। सिद्धान्त चार प्रकार का है–सर्व शास्त्रों में अविरुद्ध अर्थ सर्वतन्त्र है, एक शास्त्र में सिद्ध और दूसरे में असिद्ध अर्थ प्रतितन्त्र है। जिस अर्थ की सिद्धि से अन्य अर्थ भी स्वत: सिद्ध हो जायें वह अधिकरण सिद्धान्त है। किसी पदार्थ को मानकर भी उसकी विशेष परीक्षा करना अभ्युपगम है।
- 7. अवयव— न्यायदर्शन सूत्र/ मू./1/1/32-39/33-39 का सार–अनुमान के अवयव पाँच हैं–प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन। साध्य का निर्देश करना प्रतिज्ञा है। साध्य धर्म का साधन हेतु कहलाता है। उसके तीन आवश्यक हैं–पक्षवृत्ति, सपक्षवृत्ति और विपक्ष व्यावृत्ति। साध्य के तुल्य धर्मवाले दृष्टान्त के वचन को उदाहरण कहते हैं। वह दो प्रकार का है अन्वय व व्यतिरेकी। साध्य के उपसंहार को उपनय और पाँच अवयवों युक्त वाक्य को दुहराना निगमन है।
- 8-12. न्यायदर्शन सूत्र/1/1/40-41/39-41 तथा 1/2/1-3/40-43 का सार–तर्क;निर्णय, वाद, जल्प, व वितण्डा एक एक प्रकार के हैं।
- 13. हेत्वाभास– न्यायदर्शन सूत्र/1/2/4-9/44-47 का सारार्थ–हेत्वाभास पाँच हैं–‘सव्यभिचारी, विरुद्ध, प्रकरण-सम, साध्यसम और कालातीत। पक्ष व विपक्ष दोनों को स्पर्श करने वाला सव्यभिचार है। वह तीन प्रकार है–साधारण, असाधारण व अनुपसंहारी। स्वपक्षविरुद्ध साध्य को सिद्ध करने वाला विरुद्ध है। पक्ष व विपक्ष दोनों ही के निर्णय से रहित प्रकरणसम है। केवल शब्द भेद द्वारा साध्य को ही हेतुरूप से कहना साध्यसम है। देश काल के ध्वंस से युक्त कालातीत या कालात्ययापदिष्ट है।
- 14-16. न्यायदर्शन सूत्र/1/2/10-20/48-54 का सारार्थ–छल तीन प्रकार का है–वाक् छल, सामान्यछल और उपचार छल। वक्ता के वचन को घुमाकर अन्य अर्थ करना वाक्छल है। सम्भावित अर्थ को सभी में सामान्यरूप से लागू कर देना सामान्यछल है। उपचार से कही गयी बात का सत्यार्थरूप अर्थ करना उपचारछल है।
- चार्ट
- नैयायिकमत के प्रवर्तक व साहित्य
नैयायिक लोग यौग व शैष नाम से भी पुकारे जाते हैं। इस दर्शन के मूल प्रवर्तक अक्षपाद गौतम ऋषि हुए हैं, जिन्होंने इसके मूल ग्रन्थ न्यायसूत्र की रचना की। इनका समय जैकोबी के अनुसार ई.200-450, यूई के अनुसार ई.150-250 और प्रो.ध्रुव के अनुसार ई.पू.की शताब्दी दो बताया जाता है। न्यायसूत्र पर ई.श.4 में वात्सायन ने भाष्य रचा। इस भाष्य पर उद्योत करने न्यायवार्तिक की रचना की। तथा उस पर भी ई.840 में वाचस्पति मिश्र ने तात्पर्य टीका रची। उन्होंने ही न्यायसूचिनिबन्ध व न्यायसूत्रोद्धार की रचना की। जयन्तभट्ट ने ई.880 में न्यायमञ्जरी, न्यायकलिका; उदयन ने ई.श.10 में वाचस्पतिकृत तात्पर्यटीका पर तात्पर्यटीका-परिशुद्धि तथा उदयन की रचनाओं पर गंगेश नैयायिक के पुत्र वर्द्धमान आदि ने टीकाएँ रचीं। इसके अतिरिक्त भी अनेक टीकाएँ व स्वतन्त्र ग्रन्थ प्राप्त हैं। जैसे–भासर्वज्ञकृत न्यायसार, मुक्तावली, दिनकरी, रामरुद्री नाम की भाषा परिच्छेद युक्त टीकाएँ, तर्कसंग्रह, तर्कभाषा, तार्किकरक्षा आदि। न्याय दर्शन में नव्य न्याय का जन्म ई.1200 में गंगेश ने नाम ग्रन्थ की रचना द्वारा किया, जिस पर जयदेव ने प्रत्यक्षालोक, तथा वासुदेव सार्वभौम (ई.1500) ने तत्त्वचिन्तामणि व्याख्या लिखी। वासुदेव के शिष्य रघुनाथ ने तत्त्वचिन्तामणि पर दीधिति, वैशेषिकमत का खण्डन करने के लिए पदार्थखण्डन, तथा ईश्वरसिद्धि के
लिए ईश्वरानुमान नामक ग्रन्थ लिखे। ( स्याद्वादमञ्जरी/ परि-ग/पृ.408-418)।
- न्याय में प्रयुक्त कुछ दोषों का नाम निर्देश
श्लोकवार्तिक 4/1/33/ न्या./श्लो.457-459 सांकर्यात् प्रत्यवस्थानं यथानेकान्तसाधने। तथा वैयतिकर्येण विरोधेनानवस्थया।454। भिन्नाधारतयोभाभ्यां दोषाभ्यां संशयेन च। अप्रतीत्या तथाभावेनान्यथा वा यथेच्छया।458। वस्तुतस्तादृशैर्दोषै: साधनाप्रतिघातत:। सिद्धं मिथ्योत्तरत्वं नो निरवद्यं हि लक्षणम् ।459। =जैन के अनेकान्त सिद्धान्त पर प्रतिवादी (नैयायिक), संकर, व्यतिकर, विरोध, अनवस्था, वैयधिकरण, उभय, संशय, अप्रतिपत्ति, व अभाव करके प्रसंग या दोष उठाते हैं अथवा और भी अपनी इच्छा के अनुसार चक्रक, अन्योन्याश्रय, आत्माश्रय, व्याघात, शाल्यत्व, अतिप्रसंग आदि करके प्रतिषेध रूप उपालम्भ देते हैं। परन्तु इन दोषों द्वारा अनेकान्त सिद्धान्त का व्याघात नहीं होता है। अत: जैन सिद्धान्त द्वारा स्वीकारा गया ‘मिथ्या उत्तरपना’ ही जाति का लक्षण सिद्ध हुआ।
और भी–जाति के 24 भेद, निग्रहस्थान के 24 भेद, लक्षणाभास के तीन भेद, हेत्वाभास के अनेकों भेद-प्रभेद, सब न्याय के प्रकरण ‘दोष’ संज्ञा द्वारा कहे जाते हैं। विशेष देखें वह वह नाम । * वैदिक दर्शनों का विकासक्रम—देखें दर्शन (षट्दर्शन)।
- न्याय का लक्षण
- वस्तु विचार व जय-पराजय व्यवस्था
- वस्तुविचार में परीक्षा का स्थान
तिलोयपण्णत्ति/1/83 जुत्तीए अत्थपडिगहणं।=(प्रमाण, नय और निक्षेप की) युक्ति से अर्थ का परिग्रहण करना चाहिए। देखें नय - I.3.7 जो नय प्रमाण और निक्षेप से अर्थ का निरीक्षण नहीं करता है, उसको युक्त पदार्थ अयुक्त और अयुक्त पदार्थ युक्त प्रतीत होता है।
कषायपाहुड़ 1/1-1/2/7/3 जुत्तिविरहियगुरुवयणादो पयमाणस्स पमाणाणुसारित्तविरोहादो। =जो शिष्य युक्ति की अपेक्षा किये बिना मात्र गुरुवचन के अनुसार प्रवृत्ति करता है उसे प्रमाणानुसारी मानने में विरोध आता है। न्यायदीपिका/1/2/4 इह हि प्रमाणनयविवेचनमुद्देशलक्षणनिर्देशपरीक्षाद्वारेण क्रियते। अनुद्दिष्टस्य लक्षणनिर्देशानुपपत्ते:। अनिर्दिष्टलक्षणस्य परीक्षितुमशक्यत्वात् । अपरीक्षितस्य विवेचनायोगात् । लोकशास्त्रयोरपि तथैव वस्तुविवेचनप्रसिद्धे:। =इस ग्रन्थ में प्रमाण और नय का व्याख्यान उद्देश्य, लक्षणनिर्देश तथा परीक्षा इन तीन द्वारा किया जाता है। क्योंकि विवेचनीय वस्तु का उद्देश्य नामोल्लेख किये बिना लक्षणकथन नहीं हो सकता। और लक्षणकथन किये बिना परीक्षा नहीं हो सकती, तथा परीक्षा हुए बिना विवेचन अर्थात् निर्णयात्मक वर्णन नहीं हो सकता। लोक व्यवहार तथा शास्त्र में भी उक्त प्रकार से ही वस्तु का निर्णय प्रसिद्ध है।
भद्रबाहु चरित्र (हरिभद्र सूरिकृत) प्रस्तावना पृ.6 पर उद्धृत–पक्षपातो न मे वीरे न दोष: कपिलादिषु। युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्य: परिग्रह:। = न तो मुझे वीर भगवान् में कोई पक्षपात है और न कपिल आदि अन्य मत-प्रवर्तकों में कोई द्वेष है। जिसका वचन युक्तिपूर्ण होता है उसका ग्रहण करना ही मेरे लिए प्रयोजनीय है। - न्याय का प्रयोग लोकव्यवहार के अनुसार ही होना चाहिए
धवला 12/4,2,8,13/289/10 न्यायश्चर्च्यते लोकव्यवहारप्रसिद्धयर्थम्, न तद्बहिर्भूतो न्याय:, तस्य न्यायाभासत्वात् । =न्याय की चर्चा लोकव्यवहार की प्रसिद्धि के लिए ही की जाती है। लोकव्यवहार के बहिर्गत न्याय नहीं होता है, किन्तु वह केवल न्यायाभास ही है। - वस्तु की सिद्धि से ही जीत है, दोषोद्भावन से नहीं
न्यायविनिश्चय/ मू./2/210/239 वादी पराजितो युक्तो वस्तुतत्त्वे व्यवस्थित:। तत्र दोषं ब्रुवाणो वा विपर्यस्त: कथं जयेत् ।210। वस्तुतत्त्व की व्यवस्था हो जाने पर तो वादी का पराजित हो जाना युक्त भी है। परन्तु केवल वादी के कथन में दोष निकालने मात्र से प्रतिवादी कैसे जीत सकता है। सिद्धि विनिश्चय/ मू. व मू.वृ./5/11/337 भूतदोषं समुद्भाव्य जितवान् पुनरन्यथा। परिसमाप्तेस्तावतैवास्य कथं वादी निगृह्यते।11। तन्न समापितम्–‘विजिगीषुणोभयं कर्त्तव्यं स्वपक्षसाधनं परपक्षदूषणं च’ इति। =प्रश्न–वादी के कथन में सद्भूत दोषों का उद्भावन करके ही प्रतिवादी जीत सकता है। बिना दोषोद्भावन किये ही वाद की परिसमाप्ति हो जाने पर वादी का निग्रह कैसे हो सकता है? उत्तर–ऐसा नहीं है; क्योंकि, वादी व प्रतिवादी दोनों ही के दो कर्तव्य हैं–स्वपक्षसाधन और परपक्षदूषण। ( सिद्धि विनिश्चय/ मू.वृ./5/2/311/17)। - निग्रहस्थानों का प्रयोग योग्य नहीं
श्लोकवार्तिक 1/1/33/ न्या./श्लो.101/344 असाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावनं द्वयो:। न युक्तं निग्रहस्थानं संधाहान्यादिवत्तत:।101। =बौद्धों के द्वारा माना गया असाधनांग वचन और अदोषोद्भावन दोनों का निग्रहस्थान कहना युक्त नहीं है। और इसी प्रकार नैयायिकों द्वारा माने गये प्रतिज्ञाहानि आदिक निग्रहस्थानों का उठाया जाना भी समुचित नहीं है।
न्यायविनिश्चय/ वृ./2/212/242/9 तत्र च्च सौगतोक्तं निग्रहस्थानम् । नापि नैयायिकपरिकल्पितं प्रतिज्ञाहान्यादिकम्; तस्यासद्दूषणत्वात् । =बौद्धों द्वारा मान्य निग्रहस्थान नहीं है। और न इसी प्रकार नैयायिकों के द्वारा कल्पित प्रतिज्ञा-हानि आदि कोई निग्रहस्थान है; क्योंकि, वे सब असत् दूषण हैं। - स्व पक्ष की सिद्धि करने पर ही स्व-परपक्ष के गुण-दोष कहना उचित है
न्यायविनिश्चय/ वृ./2/208/पृ.235 पर उद्धृत–वादिनो गुणदोषाभ्यां स्यातां जयपराजयौ। यदि साध्यप्रसिद्धौ च व्यपार्था: साधनादय:। विरुद्धं हेतुमुद्भाव्य वादिनं जयतीतर:। आभासान्तरमुद्भाव्य पक्षसिद्धिमपेक्षते। =गुण और दोष से वादी की जय और पराजय होती है। यदि साध्य की सिद्धि न हो तो साधन आदि व्यर्थ हैं। प्रतिवादी हेतु में विरुद्धता का उद्भावन करके वादी को जीत लेता है। किन्तु अन्य हेत्वाभासों का उद्भावन करके भी पक्षसिद्धि की अपेक्षा करता है। - स्वपक्ष सिद्धि ही अन्य का निग्रहस्थान है
न्यायविनिश्चय/ वृ./2/13/243 पर उद्धृत–स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोऽन्यस्य वादिन:। =एक की स्वपक्ष की सिद्धि ही अन्य वादी का निग्रहस्थान है। सिद्धि विनिश्चय/ मू./5/20/354 पक्षं साधितवन्तं चेद्दोषमुद्भावयन्नपि। वैतण्डिको निगृह्णीयाद् वादन्यायो महानयम् ।20। =यदि न्यायवादी अपने पक्ष को सिद्ध करता है और स्वपक्ष की स्थापना भी न करने वाला वितण्डवादी दोषों की उद्भावना करके उसका निग्रह करता है तो यह महान् वादन्याय है अर्थात् यह वादन्याय नहीं है वितण्डा है।
- वस्तु की सिद्धि स्याद्वाद द्वारा ही सम्भव है–देखें स्याद्वाद ।
- वस्तुविचार में परीक्षा का स्थान