चारित्रपाहुड - गाथा 4: Difference between revisions
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Revision as of 11:27, 7 May 2021
एए तिण्णि वि भावा हवंति जीवस्स अक्खयामेया ।
तिण्हं पि सोहणत्थे जिणभणियं दुविह चारित्तं ।।4।।
(10) अक्षय अनंत दर्शन ज्ञान चारित्र के शोधन के लिये चारित्र का प्रयोग―सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों ही भाव जीव के भाव है, अक्षय भाव हैं, अनंत भाव हैं, जीव के ही स्वरूप हैं दर्शन, ज्ञान, चारित्र । स्वरूप तो जीव का एक है और वह क्या है? उस एक को कैसे बताया जाये? तो उसमें ही आचार्यों ने भेद बनकर समझाया है कि जो श्रद्धा करे, ज्ञान करे, जो रमे वह जीव कहलाता है । बात जीव में एक समय में एक हो रही और वह क्या एक हो रही, उसको बताने के लिए शब्द नहीं हैं । वह ज्ञान में, अनुभव में तो आ जायेगा मगर किसी से यह नहीं बताया जा सकता कि आत्मा कर क्या रहा है । एक भी बात नहीं बतायी जा सकती । हो रही एक किया । एक जीव में दो परिणतियां नहीं होतीं । एक समय में एक परिणति चल रही परमार्थत:, पर उसे समझायें कैसे? तो उसके ही भेद करके समझाया जाता । किसी भी वस्तु को जो जैसा है पूरा उस एक रूप में नहीं बताया जा सकता । इसीलिए व्यवहार आवश्यक है । वह परमार्थता का प्रतिपादक हे, पर वस्तु परमार्थ स्वरूप है । व्यवहार भी गलत नहीं है, क्योंकि परमार्थ स्वरूप तक पहुंचाने वाला है । गलत रास्ता उत्कृष्ट स्थान तक नहीं पहुंचा सकता, पर रास्ता तो रास्ता ही है और स्थान स्थान है, तो परमार्थ का प्रतिपादक व्यवहार है और उस व्यवहार से ही समझाया जाता कि जो श्रद्धा करे सो आत्मा, जो ज्ञान करे सो आत्मा और जो रमण करे सो आत्मा । ये तीन गुण सर्व जीवों में पाये जाते हैं, पर जिसके मिथ्यात्व प्रकृति का उदय है वह उल्टा श्रद्धान करता है, उल्टा ज्ञान करता है और बाह्य तत्त्वों में रमता है और जिसके मिथ्यात्व प्रकृति नहीं रही, निर्मल आशय हो गया वह वस्तु का यथार्थ श्रद्धान करता है, यथार्थ ज्ञान करता है और अपने सही स्वरूप में रमता है । तो तीन भाव सब जीवों में पाये जाते, पर सम्यग्दर्शन होने पर इसकी क्रिया मोक्षमार्ग में चलाने वाली होती है । तो ये तीन प्रकार के भाव बताये गए, सो इन तीन की शुद्धि के लिए जिनेंद्रदेवने दो प्रकार का चारित्र कहा है ।