ज्ञानार्णव - श्लोक 3: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
भवज्वलनसंभ्रांतसत्त्वशांतिसुधार्णव:।
देवश्चंद्रप्रभ: पुष्यात् ज्ञानरत्नाकरश्रियम्।।3।।
चंद्रप्रभदेव को नमस्कार― प्रथम श्लोक में परमात्मतत्त्व को नमस्कार किया है। द्वितीय श्लोक में ऋषभदेव भगवान को नमस्कार किया। अब इस तृतीय श्लोक में जैसे कि लोकरुचि में भी जनता की अभिरुचि है अथवा एक प्रमत्तविरत अवस्था में ही तो यह ग्रंथ रचा जा रहा है। ध्यानावस्था में पड़े हुए मुनि तो ग्रंथ नहीं रच पाते। सो एक विशिष्ट अंत:प्रभाव से अथवा आर्चायदेव का नाम शुभचंद्र है तो एक चंद्रप्रभ का स्मरण हुआ, यों कवि के अलंकार में समझकर चंद्रप्रभ का स्मरण अवतरित होता है याने इस तृतीय श्लोक में चंद्रप्रभदेव को नमस्कार किया है।
संतापहारी― ये चंद्रप्रभदेव भव की अग्नि से संक्रांत हुए प्राणियों को शांतिरूपी सुधा के समुद्र हैं। जैसे चंद्रमा समुद्र की वृद्धि करने वाला होता है। शुक्लपक्ष में जैसे चंद्रमा अपने पूर्ण विकास के साथ उदित होता है, पूर्णचंद्र होता है तो उस काल में समुद्र का पानी बढने लगता है। नदियां नहीं मिलतीं, फिर भी ऐसा योग है कि उन किरणों का सन्निधान पाकर जल में उछाल वृद्धि होने लगती है। ऐसे ही निरखिये ये चंद्रप्रभ भगवान भव के ज्वलन से संतप्त हुए प्राणियों के लिये एक शांत सुधार्णव हैं, शांति के समुद्र हैं अथवा इन प्राणियों को शांतिसुधा की वृद्धि करने वाले हैं। कोई जीव अग्नि में ज्वलित हो रहा हो और उसको एकाएक सुधार्णव मिल जाए, अमृतजल की वर्षा उस पर हो जाए तो वह कितना सुखी होता है― ऐसे ही संसार के प्राणी इस भवभ्रमण की ज्वाला में जल रहे हैं, भ्रम रहे हैं। इन प्राणियों की शांति के लिये ये चंद्रप्रभ भगवान सुधार्णव की तरह हैं।
अभीष्टप्रार्थना― चंद्रप्रभदेव ज्ञानरूपी रत्नाकर की श्री को पुष्ट करें। जैसे चंद्र समुद्र के जल में वृद्धि करता है― ऐसे ही चंद्रप्रभ भगवान से अपने ज्ञानवृद्धि के लिये प्रार्थना की गई है। चंद्रप्रभ ज्ञानरत्नाकर की शोभा को पुष्ट करें। रत्नाकर नाम अर्णव का है, समुद्र का है। जो रत्नों का आकार हो सो रत्नाकार । जैसे रत्नाकार में अनेक रत्न भरे पड़े हुए हैं, ऐसे हीइस ग्रंथ में अनेक प्रकार से संबोधन किया जायगा और जिस संबोधन में ज्ञानरत्न ज्ञानकिरण प्राप्त होगी। ये चंद्रप्रभु भगवान मेरे ज्ञान की वृद्धि करें अर्थात् उनके ध्यान के प्रताप से हम विकारों से हटकर निर्विकार चित्स्वरूप का आलंबन लें। मोह में प्राणी जिन परतत्त्वों का आलंबन कर लेते हैं वे सब परतत्त्व इनके दु:ख के कारण बनते हैं। चाहे वह चेतन परपदार्थ हों, चाहे अचेतन परपदार्थ हों इन परपदार्थोंके आलंबन से आत्मा को शांति नहीं मिलती। एक निजआत्मतत्त्व के आलंबन में ही शांति है। वह ज्ञान मेरे प्रकट हो। जो ज्ञानविकारों को न ग्रहण करे, किसी परतत्त्व का आलंबन न करे, केवलज्ञान के स्वरूप का ज्ञान करता रहे― ऐसा ज्ञान हमारे में पुष्ट होवे।
सत्य विज्ञान― ज्ञान सच्चा वही है जो ज्ञान ज्ञानस्वरूप की उपासना करता रहे।जो ज्ञान बाह्यपदार्थों को विषय बनाकर उनमें रत रहता है, वह ज्ञान तो अज्ञान है। अज्ञान का अर्थ ज्ञान का अभाव नहीं है किंतु खोटा ज्ञान होता है। यथार्थज्ञान में निर्विकारता की प्रेरणा मिलती है। निर्विकारस्वरूप का विकास ही हम आप लोगों का सच्चा वैभव है। यह वर्तमान वैभव तो तृणवत् असार है।
बाह्य अर्थों की अनालंब्यता― जैसे स्वप्न में देखी हुई चीज का कोई आधार नहीं, स्वप्न में देखी हुई सारी चीजें मायामय हैं, यथार्थ नहीं हैं, इसी प्रकार यहाँ के ये समस्त समागम असार हैं, मायारूप हैं, स्वप्नवत् हैं, यथार्थ नहीं हैं। जैसे स्वप्न देखने वाले को यह पता स्वप्न में नहीं पड़ता है कि मैं स्वप्न देख रहा हूँ, यह सब झूठ है, ऐसे ही आँखों से यहाँ जो कुछ भी दिख रहा है, उसे यह पता नहीं पड़ता है कि ये सभी बातें निराधार हैं, ये सभी पदार्थ मेरे आलंबन करने योग्य नहीं हैं।किसमें अपना दिल रमाकर ,किसमें अपना आत्मसंतोष पाने का यत्न किया जा रहा है? बाह्य में कुछ भी ऐसा नहीं है जो हमारे हित का साधन हो और आलंबन के योग्य हो। क्यों पर के आलंबन के पीछे व्यर्थ का श्रम बनाकर कष्ट उठाया जा रहा है? कोई सा राग तक भी तो वही बनकर नहीं रह पाता है, क्षण-क्षण में बदलता रहता है। अब वर्तमान में किसी वस्तुविषयक राग जगा है तो थोड़े समय में अन्यविषयक राग हुआ, यों राग का परिवर्तन होता रहता है।
आत्महित के प्रसंगों में― भैया ! किसी भी परवस्तु के ग्रहण में हमारा हित नहीं है क्योंकि उन सब अवसरों में विकल्पों को अवसर मिलता रहता है, किंतु यह ज्ञान केवलज्ञान के स्वरूप का ज्ञान करे तो ऐसी स्थिति में अद्भुत आनंद पाने की पद्धति बन जाती है और वहाँ तृप्ति रहा करती है। ऐसा जो ज्ञानस्वरूप का ही ज्ञानी बन रहा हो वही वास्तव में ज्ञानी है, ऐसा ज्ञान हे प्रभु मेरे बने, जो ज्ञान-ज्ञान के स्वरूप का ज्ञान करता रहे और इस सत्य पुरुषार्थ में हमारा उपयोग जमा रहे― ऐसे चंद्रप्रभदेव का स्मरण करके आचार्यदेव अपने अभीष्ट प्रयोजन को भी रखने जा रहे हैं। अब इसके बाद जैसे लोकरूढ़ि है, लोगों का एक सहज झुकाव है अथवा ग्रंथ की आदि में विघ्न की शांति करने के भाव से नाम साम्य है, अत: शांतिनाथ भगवान को अब नमस्कार करेंगे।