समाधितंत्र - श्लोक 82: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
तथैव भावयेद्देहाद्व्यावृत्यात्मात्मानमात्मनि ।यथा न पुनरात्मानं देहे स्वप्नेऽपि योजयेत् ॥82॥
अभीक्ष्ण ज्ञानभावना का निर्देश –मोक्षार्थी भव्य पुरुष का कर्तव्य है कि वह देह से आत्मा को भिन्न अनुभव करके आत्मा में ही आत्मरूप से भावना करे । किसी भी प्रकार से फिर स्वप्न में भी शरीर में आत्मा को न लगाये । एकबार यथार्थ परिचय करने से शरीर का और आत्मा का भिन्न-भिन्न परिज्ञान हो गया । अब भविष्य में यह बात भूल कर कहीं फिर देह में आत्मतत्त्व को न मानने लगे, इसके लिए और मोक्षमार्ग अबाध चलता रहे इसके लिए आत्मा में आत्मा को आत्मारूप से निरखते रहने की वृत्ति बनाये रहना चाहिए ।स्वप्न दुर्भाव में भी दोष का अस्तित्व – यदि कोई स्वप्न में भी यह ख्याल कर ले कि मैं यह हूँ, अपने शरीर को ध्यान में लेकर उसके प्रति यह मैं हूँ ऐसी स्वप्न में भी कल्पना उठ जाय तो इसे भी दोष कहा गया है, क्योंकि स्वप्न में भी जो मिथ्यात्वरूप कल्पना हुई है, उसका कारण यह है कि पहले जगी हुई हालत में भी संस्कार रहे आये हैं तब तो स्वप्न में मिथ्याबुद्धि हुई । स्वप्न खोटा आ जाय, खोटा आचरण करने का स्वप्न आ जाय उसका भी प्रायश्चित लेना पड़ता है । वहाँ यह नहीं सोचा जाता है कि वह तो स्वप्न की बात थी । उसमें बुरा काम कहाँ किया । मैं तो सो रहा हूँ, स्वप्न में ऐसा दृश्य देखा जाता है । स्वप्न में भी मन चला खोटे काम के लिए तो आखिर वह इस प्रकार के संस्कारों की सूचना ही तो देता है । स्वप्न में भी दुराचार के भाव आयें तो वह भी दोष है और उसका प्रायश्चित लिया जाता है ।स्वप्न से संस्कार की सूचना –यहाँ पूज्यपाद आचार्य कह रहे हैं कि शरीर से आत्मा को जुदा कर दिया है, भिन्न अनुभव कर लिया है, फिर भी देह से भिन्न ज्ञानमात्र निज अंतस्तत्त्व का ध्यान बनाये रहना चाहिए ताकि भविष्य में कभी स्वप्न में भी शरीर में आत्मा की बुद्धि न हो, इस शरीर को ही आत्मा न जानता रहे । इसी बात की दृढ़ता प्रकट होने के लिए कहा करते हैं कि यह बात तो स्वप्न में भी नहीं हो सकती है । कोई कहे कि तुम हमारा विरोध करना चाहते थे क्या ? तुम हमारा कुछ काट करना चाहते थे क्या ? तो वह उत्तर देता है कि तुम्हारे विरोध की बात तो मुझसे स्वप्न में भी नहीं हो सकती । उससे हृदय की सूचना हुई । जिसको स्वप्न कुछ भले काम के आते हैं, तीर्थ यात्रा करने जा रहे हैं, भगवान के दर्शन कर रहे हैं, पूजा कर रहे हैं, किसी को आहार दे रहे हैं ऐसे किसी प्रकार के धर्म संबंधी स्वप्न आयें तो समझो कि उसकी भावना पवित्र है, तब स्वप्न में ऐसी बात जगी है ।
स्वप्न भावना का अनुवर्तन –कोई कहे कि रात्रि को सो रहे हैं, स्वप्न आ रहा है और किसी साधु को आहार दे रहे हैं तो यह तो दोष की बात होगी । अरे, उस स्वप्न वाले को रात कहाँ पता है ? जिसको स्वप्न आ रहा हो उसे क्या यह भान है कि यह रात है ? उसको तो खूब तेज धूप दिख रही है । बड़ा दिन चढ़ा है, गरमी है, यह सब उसकी दृष्टि में है । यदि यह सोचकर आहार स्वप्न में दे कि हम रात्रि के समय आहार दें तो वह अशुभ भाव है । उसे कहाँ इसका पता है । तो जब शुभ स्वप्न आता है धार्मिकता से भरा हुआ तो जानना चाहिए कि मेरा हृदय धार्मिकता से भरा हुआ है, इसीलिए यह स्वप्न आया । कभी बुरा भला स्वप्न आया, अन्य प्रकार के खोटे आचरण दगा, छल, मायाचार, किसी को सताना, ऐेसे स्वप्न आया करें तो उसका अर्थ यह है कि इसका हृदय अपवित्र है ।प्रकृति का विशिष्ट अनुमान –जैसे किसी मनुष्य के दिल का, दिमाग का परिचय लेना हो तो वह जहाँ अपना बहुत-सा समय व्यतीत करता हो, कोई ऐसी उसके आराम की जगह हो जहाँ वह बहुत काल बैठता हो उस स्थान पर जाय और वहाँ क्या चीज रक्खी हैं उन चीजों को देखकर उसकी प्रकृति का अंदाज कर सकते हैं कि उसका हृदय कैसा है । वहाँ अच्छा साहित्य रक्खा हो, धर्म की किताबें, शास्त्र आदि रक्खे हों तो ऐसा निर्णय करना चाहिए कि यह व्यक्ति धर्मसंयुक्त रहता है । यदि गंदे उपन्यास रक्खे हों, आधुनिक उपन्यास या पुरातन उपन्यास आदि रखे हों तो मूल में समझो कि यह व्यक्ति धार्मिकता से कुछ गिरी हुई आदत का है । जैसे किसी के रहने, उठने-बैठने के स्थान पर रक्खी हुई चीजों से प्रकृति का अंदाज हो जाता है कि जैसा वह देखे उसके अनुकूल इसका भाव है यह सिद्ध हो जाता है । जो पुरुष इस ज्ञायकस्वरूप निजआत्मतत्त्व की बहुत-बहुत काल भावना बनाये रहते हैं उनको उसके विरुद्ध मिथ्या परिणामस्वरूप स्वप्न कभी नहीं आते हैं ।सम्यक्त्व के रक्षण की सावधानी –जीव एकबार सम्यक्त्व पैदा करके फिर सम्यक्त्व को नष्ट कर देता है तो अधिक से अधिक कुछ कम अर्द्धपुद्गल परिवर्तन काल तक वह संसार में भ्रमण कर सकता है । इस कारण सम्यक्त्व प्राप्त होने पर स्वच्छंद नहीं होना चाहिए । इतनी गल्ती से, इतनी स्वच्छंदता से यदि पाये हुए अमूल्य रत्न का, सम्यक्त्व का विघात हो जाय तो फिर रंक सरीखी फिर स्थिति आ जायगी । इसी कारण जो आत्मतत्त्व दिखा है, जिसका परिज्ञान हुआ है अब उस आत्मतत्त्व के उपयोग में हमें निरंतर रहना चाहिए । बारबार भावना करना इस जीव की आदत में शुमार है । कोई खोटा परिणाम हो, खोटी आदत हो तो खोटी ही भावना रात-दिन बसाये रहता है और उसमें ही कल्याण समझता है । उत्तम परिणमन हो तो उसके योग्य उत्तम भावना बनाये रहता है ।दिखावटी भावना से आत्महित की असिद्धि –भैया ! दिखावटी भावना से काम सफल नहीं होता है । वह एक विडंबना का रूप रखता है । न उससे स्वयं को लाभ है और न दूसरों को लाभ है । बात जितनी हो, वह सीधी सच्ची हो । हम भीतर में बुरे हैं तो बाहर में भले जँचने का प्रयत्न न करें । ऐसा कपट करना धोखा रहेगा । अपनी गल्ती छिपाकर लोगों की दृष्टि में धर्मात्मा बनकर रहने का परिणाम भला नहीं निकलता है । अपनी कमी, अपनी त्रुटि अपने को दिखने में आती रहे तो कभी उसका सुधार कर सकते हैं पर बनावटी ऊँची मुद्रा दिखाना उत्तम नहीं है ।बनावटी बात से प्रयोजन केनिभाव के अभाव का एक दृष्टांत –एक कहानी है कि एक पुरुष ससुराल जा रहा था । उसको रात में न दिखता था । रात में न दिखने को कहते हैं रतौंध । सायं के समय ससुराल के गाँव के निकट पहुँचा तो रतौंध आ गयी । उसे थोड़ा-थोड़ा दिखे । सोचा, अब क्या करें । यहाँ पड़े रहना तो ठीक नहीं है रात में तकलीफ होगी पर दिखेगा नहीं तो जायेंगे कहाँ, सो वह बछड़ा चर रहा था जो बछड़ा दहेज में दिया था । सो झट समझ में आया कि पूँछ पकड़ले तो यह बछड़ा घर पहुँचा देगा । फिर सोचा कि लोग बेवकूफ कहेंगे कि इस तरह ये लाला जी आये हैं । तब एक युक्ति समझ में आ गयी । एक रटन लगाली मुझे तो बछड़े का अफसोस है । वह बछड़ा कुछ दुबला हो गया होगा । खैर किसी तरह से बछड़े की पूँछ पकड़कर ससुराल के घर पहुँच गया । लोग पूछते हैं कि लालाजी कब आये ? उत्तर में बस वही एक बात वह कहता है मुझे तो बछड़े का अफसोस । इस बात को वह छिपाना चाहता था कि रात को मुझे दिखता नहीं है । केवल इतनी बात छिपाने के लिए वह यही बात कहे कि मुझे बछड़े का अफसोस । अरे ! तो हाथ-पैर धोओ, कुल्ला करो । मुझे तो बछड़े का अफसोस । कोई कुछ कहे उसकी एक रटन । वे रात के खाने वाले होंगे, भोजन तैयार हो गया, सो कहा चलो लालाजी भोजन करने चलो । अब लालाजी उठें कैसे जब दिखता हो तब तो उठें । तो उसको पकड़कर जबरदस्ती खाने ले गए और कहा अरे ! बछड़े को खूब खिलायेंगे, फिर मोटा हो जायगा मुझे तो बछड़े का अफसोस । वह तो चाहता ही था कि कोई हाथ पकड़कर ले जाये तो भोजन कर लूँ ।बनावटी बात से अंत में भारी विडंबना –अब रतौंधिया लालाजी पहुँच गये रसोई घर में । सास ने चीजें परोस दी और सोचा कि दाल में खूब गरम घी डालना चाहिए और इतना गरम घी डाला जाय कि दाल में छुन-छुन की आवाज हो; तभी दाल बढ़िया लगती है । सो बहुत तेज गरम घी दाल में डाला―छुन छुन की आवाज हुयी सो लालाजी ने समझा कि कोई बिलैया आकर थाली में खाने लगी है सो एक थप्पड़ मारा । घी की कटोरी दूर जाकर गिरी । ऐब छिपाने के लिए कहता जाय कि मुझे तो बछड़े का अफसोस है । उसे थोड़ी देर बाद बड़ी सरम लगी कि खूब ऐब छिपाया पर खुलने ही वाला है । सो सरम के मारे घर से निकल गया और बाहर जाकर एक गड्ढे में गिर गया । दिखता तो था नहीं । अब बड़े सुबह सास पहुंची कपड़े धोने उसी नाले के घाट पर, वह कपड़े धोने लगी, वहाँ सास ने देखा कि यहाँ तो लालाजी पड़े हुए हैं, बोली कि तुम यहाँ कैसे पड़े हो – रात को यहाँ-वहाँ ढूंढते फिरे सब लोग कि लालाजी कहा गये । उसे सास ने उठाया तो वह बोला मुझे तो बछड़े का अफसोस । अरे ! बनावटी बात कहा तक छिपती । आखिर में उसे कहना ही पड़ा कि मुझे रात को दिखता नहीं है इसलिए दोष बचाने के लिए कहता रहा कि मुझे बछड़े का अफसोस ।आत्मदर्शन के हित में भलाई – भैया ! परवाह किस बात की करें । हम बुरे हैं तो बाहर में बुरा दिखने दें, दोष ढांकने की कोशिश न करें, जैसी बात मन में हो वैसी ही वचन और कार्य की प्रवृत्ति होनी चाहिए । उससे अपनी भावना सरल होती है और कभी अवसर पाकर धर्म की ओर झुकाव भी हो जाता है । अच्छे विचार हैं, अच्छे परिणाम हैं इसकी पहिचान यह है कि कभी खोटा स्वप्न न आये । स्वप्न में भी शरीर में यह मैं आत्मा हूँ ऐसा ख्याल न जाय । इतनी तैयारी के लिए अंतरात्मा को चाहिए कि वह शरीर से आत्मा को अत्यंत जुदा अनुभव करके फिर आत्मा में ऐसा ही दर्शन किया करे, ऐसा ही उपयोग बनाया करे कि यह आत्मतत्त्व मेरे उपयोग में दृढ़ हो जाय तब चिरकाल से भरा हुआ अज्ञान-संस्कार आत्मा से निकल जाता है मोह दूर हो जाता है फिर इस जीव की कभी स्वप्न में भी शरीर में आत्मा की बुद्धि नहीं होती है । ऐसे संस्कार को दूर करने के लिए भेदविज्ञान की निरंतर भावना करनी चाहिये । अच्छिन्न धाराप्रवाह, न टूटे ज्ञानधारा । ऐसी रीति से सर्व पर पदार्थों से विविक्त, परभावों से पृथक्, ज्ञानानंदस्वरूपमात्र निज आत्मतत्त्व की भावना के प्रसाद से, ज्ञानमय उपयोग से यह आनंद का भाजन होगा ।निज में पर का सदा अभाव – भैया ! यह कैसा ही उपयोग करे अन्य कोई इसका कुछ बन नहीं जाता है, यह तो उपयोग मात्र ही रहता है । लाखों करोड़ों की जायदाद में अपनी बुद्धि लगाये फिरे तो ऐसा भी उपयोग देने से एक पैसा भी कभी अपना नहीं हो सकता है तो यह अन्य क्षेत्रस्थ लोक-वैभव तो अपना कैसे हो । अपना तो कुछ होता नहीं, केवल एक भावना करके अपने को कलुषित कर लेना, पापिष्ट बना लेना और उस पाप प्राप्ति के फल में आकुलता को भोगना―यह विडंबना मुफ्त खड़ी हो जाती है । यह जीव परपदार्थों को अपना माने तो वे अपने नहीं होते, न अपने मानें तो अपने नहीं होते फिर क्यों यह मोही प्राणी अपनी बरबादी के लिए पर पदार्थों को अपना मानता चला आ रहा है । जिसे मिथ्याबुद्धि उत्पन्न हुई है वे अपनी त्रुटि को त्रुटि नहीं समझ सकते हैं । वे तो उस गल्ती को अपनी चतुराई समझते हैं ।अभीक्ष्ण ज्ञानभावना की आवश्यकता – अहो, इस मिथ्यात्व परिणाम को किए हुए इस जीव को कितना समय गुजर गया ? अनंतकाल ! जिस काल का कोई अंत ही नहीं है । इतने काल का भरा हुआ अज्ञान-संस्कार मूल से मिट जाय ऐसा निर्दोष होने के लिए हमको साधारण यत्न नहीं करना होगा, निरंतर इस सदामुक्त सहजशुद्ध आत्मतत्त्व की भावना बनानी पड़ेगी तब आत्मकल्याण हो सकेगा । इस शिवमय आनंद स्थिति के लिए हमें चाहिए कि देह से भिन्न इस आत्मतत्त्व की निरंतर भावना करें । अनंतकाल का बना हुआ अज्ञान-संस्कार निरंतर ज्ञानभावना का पुरुषार्थ किए बिना समाप्त नहीं हो सकता है । अपने को यह प्रतीति तो दृढ़ करना है कि मैं ज्ञानमात्र हूँ, ज्ञान स्वभाव के अतिरिक्त अन्यरूप मैं नहीं हूँ, अथवा अन्य का भी ख्याल न करना निषेधमुख से भी, किंतु केवल जैसा स्वत:सिद्ध यह मैं हूँ वैसी निरंतर भावना करना है इस भावना के प्रसाद से सहज परम आनंद प्रकट होता है ।