समाधितंत्र - श्लोक 90: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
यत्त्यागाय निवर्तंते भोगेभ्यो यदवात्तये ।प्रीतिं तत्रैव कुर्वंति द्वेषमन्यत्र मोहिन: ॥90॥
त्याग का प्रयोजन – पूर्व के तीन-चार श्लोक में यह बताया गया था कि जाति और लिंग, ये देह के आश्रित हैं और देह ही आत्मा का संसार है, तो देह से रुचि करने का अर्थ है संसार से रुचि करना और देहाश्रित जाति में आग्रह करने का अर्थ है संसार से रुचि करना, और भेष में भी कल्याण के आग्रह के करने का नाम भी है संसार में रुचि करना, तब कल्याण के वास्ते यह आवश्यक है कि जाति की, भेष की, और देह की ममता का परित्याग करें और एतदर्थ ही आपमें विराजमान जो परम ब्रह्मस्वरूप है उसकी प्राप्ति करें । इस भाव को लेकर ही विवेकी पुरुष भोगों का परित्याग करते हैं क्योंकि पंच इंद्रिय के भोगों में जब तक प्रवृत्ति रहती है तब तक इस ब्रह्म चैतन्यस्वरूप की प्राप्ति नहीं होती है । और, इस निज सहज स्वरूप के नाम बिना देह और देहाश्रित भेष एवं जाति की ममता नहीं छूट सकती है । इस संसार की रुचि छोड़ने के लिए यह एक उपाय है कि भोग साधनों का परित्याग कर दे । सो कुछ बिरले पुरुष भोगों से भी हट जाते हैं ।बाह्य त्याग कर चुकने पर भी मोह का आक्रमण – भैया घर छोड़ दिया, धन का त्याग कर दिया, जंगल में रहते है; यों बहुत कुछ त्याग भी कर दिया लेकिन मोह की ऐसी विचित्र लीला है कि ममता का त्याग करने के लिये भोगों का परित्याग किया गया है पर कुछ समय बाद जब मोह अपना बल दिखाता है, दबा हुआ मोह उखड़ता है तो पुन: इसी देह में, जाति में लिंग, भेष में प्रीति करने लगता है । इसमें अज्ञान अवस्थायें घटने वाली प्राकृतिक घटना भी दिखा दी गयी है । कोई पुरुष बड़े अच्छे भाव से सब कुछ परित्याग करके साधुव्रत अंगीकार करता है, पर कुछ दिन साधुव्रत में रहने के बाद अपने देह में, अपने देहाश्रित क्रिया में, अपनी जाति में, भेष में अहंकार हो जाता है । यों यह अज्ञानी देह को लक्ष्य करके यह मैं हूँ और मुझे यों करना चाहिये इस प्रकार उस देह में ही प्रीति करने लगता है जिस देह की ममता के त्याग के लिए भोगों को छोड़ा है ।धर्मवेष में ममता का ढंग – देखो भैया ! धर्मवेष में भी इस अज्ञानी के ममता का ढंग बदल गया है पर ममता नहीं मिटी । पहिले यह मोह परिवार से करता था, धन-संपदा से मोह करता था, अब बाह्य परिग्रहों का त्याग करने के बाद, साधुव्रत अंगीकार करने के बाद इसका मोह अपने भेष में बन गया तब देह को निरखकर साधुता का अहंकार करने में, विशिष्टता का भाव बनाने में कि इन लोगों में विशिष्ट हूँ, यह मोह का प्रसार चलने लगा । इस ही बात पर आचार्यदेव खेद प्रकट करते हैं कि देखो तो मोह की लीला कि जिस ममता के त्याग के लिये सब कुछ परित्याग किया गया है, भोगों के साधन भी छोड़े गए हैं, ठंड-गरमी भी सहन करते हैं और फिर भी उस देह में ही प्रीति को करते हैं । पहिले तो मैं गृहस्थ हूँ, धनिक हूँ, ऐसे भाव करके अच्छे शौक से रहना इस प्रकार की मोह की प्रवृत्ति चलती थी । अब हम साधु हैं, हमको इस तरह से बैठना, यों उठना, देह को निरखकर साधुता का गर्व आना; अन्य पक्षों को देखकर, भक्तों को देखकर ऐसा निर्णय करे कि ठीक है ऐसा ही होना चाहिये, मैं साधु हूँ, अपनी पोजीशन का भाव आना ये सब देह की ही ममता है । अब इस रूपमें देह में प्रीति की जाने लगी है । राग का विषय अब मोह में इस प्रकार बदल गया है, अब धर्म क्षेत्र में, साधुव्रत में आने पर कुछ समय तो ज्ञान की बात सुहाती रही पर जिसके मोह की प्रबलता हो जाती है तो कुछ समय बाद सामायिक में अथवा धार्मिेक क्रियाओं में, ज्ञानाभ्यास में रागद्वेष न करके समता परिणाम बनाये रहने की वृत्ति मेंश् इन सब बातों में द्वेष होने लगता है, उपेक्षा होने लगती है । अब समय हो गया है सामायिक का, ध्यान का, करना चाहिये, करना पड़ता है तो प्रीति नहीं रही ।भ्रामक मोहलीला – मोह की लीला यहाँ दिखाई जा रही है कि यह मोह कहाँ तक इस जीव को परेशान किया करता है । इसने भोगों को छोड़ा था तो शरीर से ममता हटाने के लिये ही तो छोड़ा था । साज-श्रृंगार का साधन, अच्छे घर का रहना, अच्छे कपड़े पहिनाना, मनमाना अच्छा बनवाकर खाना ये सारी चीजें छोड़ी गयी थी वे देह के ममता का त्याग करने के लिए ही तो छोड़ी गयी थी । ये संयम इस देह की ममता के त्याग के लिए ही तो है लेकिन यह जीव फिर इसी देह में प्रीति करने लगता है या यों समझिये कि भावुकता जब प्रथम आती है तो बड़े परिषह सहना, बड़े मच्छर काट रहे हैं तो भी हिम्मत बनाकर अडिग बैठे रहना, बड़ी-बड़ी साधनाओं के लिये दिल लगता था, दिल चाहता था, पठन होता था पर उस साधना का नियम लिए कुछ दिन मास गुजर गये तो फिर ढिलाई आने लगती है । यह देह की ममता का ही तो कार्य है । अब दूसरी ओर देखिये, सर्व कुछ इसने त्याग किया तो किस लिए ? कि वीतरागभाव की प्राप्ति हो, उसके लिए ही संयम का आश्रय लिया । अब कुछ समय बाद वीतरागता की जो पद्धति है, स्थितियाँ हैं, विधियाँ हैं उनसे उपेक्षा होने लगती है अथवा द्वेष होने लगता है ।आत्मसावधानी की आवश्यकता – भैया ! ऐसी हालत में मोहभाव पर विजय प्राप्त करने के लिए बड़ी सावधानी रखनी पड़ती है, और यह सावधानी तब ही बन सकती है जब कि इस साधक की दृष्टि शुद्ध हो ? जैसे नींव पक्की गहरी पुष्ट भर दी जाय तो उस पर मकान कई मंजिल का बना लो तो धोखा नहीं होता है और बिना नीव ही भरे सीधा जमीन पर कुछ उठा दिया जाय तो उसके ढहने का धोखा होता है । ऐसे ही भेदज्ञान का अभ्यास हुए बिना, आत्मतत्त्व का अनुभव किए बिना, मोक्षमार्ग क्या है इसका विशद प्रतिभास हुए बिना, भावुकता में आकर अथवा किन्हीं स्वार्थभावों को लेकर जो संयम ग्रहण किया जाता है वह कुछ दिनों तक तो बाह्यरूप में ढंग से निभता है, पश्चात फिर वह सब एक बोझसा लगने लगता है और उन वृत्तियों में द्वेष होने लगता है; और जिनकी दृष्टि शुद्ध बन गई हो, जिसकी नींव पक्की हो गयी हो ऐसा अभ्यस्त ज्ञानी पुरुष अपने ज्ञान और वैराग्य के अनुसार वृत्ति रक्खेगा सो उसकी वृत्ति में फिर धोखा नहीं रह सकता है ।अज्ञानी और ज्ञानी का परिणमन – प्रवृत्ति, वृत्ति, परिणमन तो बुद्धि अनुसार ही हो सकेंगे । अज्ञानी पुरुष की परिणति अज्ञानमय होती है और ज्ञानी पुरुष की परिणति ज्ञानमय होती है । स्वर्ण से जो कुछ भी चीज बनाई वह स्वर्णमय बनेगी और लोहे से जो कुछ चीज बनाई वह लोहामय बनेगी । अज्ञानी की चकमहाट, क्रांति, बाह्यवृत्ति धर्ममार्ग में बहुत प्रगतिशील नजर आती है, किंतु वह सब प्रगति कुछ ही समय बाद इसलिये ठंडी हो जाती है कि ज्ञान की जड़पर उसका यह व्यवहार नहीं है किंतु राग के कारण अज्ञान की जड़ पर उसकी परिणति हो रही थी, परंतु ज्ञानी जीव की परिणति धोखे रहित होती है । ज्ञानी पुरुष व्यवहारात्मक बाह्य प्रवर्तन करता उतना है जितना कि उसके पास ज्ञान और वैराग्य है वह जानता है कि किसे दिखाना, काहे की बनावट करना, वह दिखावट, बनावट, सजावट से परे रहता है । इसी कारण यह ज्ञानी जीव किन्हीं भी, परिस्थितियों में आया हुआ हो, उसके नीचे भाव नहीं उत्पन्न होते ।अज्ञानी और ज्ञानी की परिणमन पद्धति का उदाहरण पूर्वक समर्थन – भैया ! जैसे स्वर्ण कितना ही कीचड़ में पड़ा हुआ हो, पर उनमें जंग नहीं चढ़ती और लोहा थोड़ा भी सर्द पाये तो उसमें जंग चढ़ जाती है । ऐसे ही ज्ञानी जीव किसी भी परिस्थिति में हो उसके मलिन परिणाम नहीं होते; और अज्ञानी जीव कभी सामाजिक परिस्थिति के कारण या अन्य कारण कुछ धर्म का नेतृत्व भी कर लेता हो, पर वहाँ उसका आशय सत्य नहीं रहता है । अपनी इस मायामयी दुनिया में इज्जत चाहने के लिए उसकी ये धर्मक्षेत्र की वृत्तियाँ होती है, इस कारण अंतर में वास्तविक ज्ञान और वैराग्य को अपना उपकारी नहीं मान पाता जिसका अर्थ यह है कि अपकारी मानता है । ऐसा दृष्टिदोष इस अज्ञानी में पड़ा हुआ है । इसी कारण लोक में यह बात प्रसिद्ध है कि पंडित तो बैरी भी हो तब भी भला है किंतु मूर्ख मित्र भला नहीं है, क्योंकि मूर्ख अपनी योग्यता माफिक जो वृत्ति बनायेगा, चाहे वह मालिक का मित्र भी हो और भीतर में हित भी चाहता हो, तो भी उसकी परिणति मित्र के अहित में निमित्त पड़ सकती है, जब कि विवेकी, ज्ञानी, पंडित किसी कारणवश उपेक्षा करता हो, जैसे लोक कहते हैं कि बैर रखता हो, या यों कहलो कि वह बैरी भी हो तो भी वह अहित और अपकार नहीं कर सकता क्योंकि, उसका ज्ञान नीचवृत्ति नहीं करने देता है । मूर्ख पुरुष असमय में, अनवसर में मित्र की बढ़ाई कर दे तो वही बढ़ाई मित्र के अपयश के लिए हो सकती है या अन्य कुछ भी हित की चाह से मूर्ख उद्यम करे तो वह अहित का कारण बन सकता है । मूर्खता और पशुता, दोनों में कविजन अंतर नहीं मानते हैं ।
मूर्ख मित्र से अमित्र पंडित की श्रेष्ठता – एक ऐसा कथानक है कि एक पंडित कवि दरिद्रता से परेशान होकर सोचने लगा कि अब कैसे गुजारा हो कुटुंब का, सब लोग भूखे पड़े रहते हैं, चलें कहीं चोरी करें । परिस्थिति ने उस कवि को चोरी के लिए प्रेरित कर दिया । सोचा, किसकी चोरी करें, किसी गरीब की चोरी करने से तो उसका बड़ा नुकसान होगा । राजा की करें चोरी और थोड़ी करें जितनी कि जरूरत है, जितने से कुटुंब का सेवन हो । राजमहल में किसी प्रकार पहुँच गया, रात्रि का समय था । कुछ आहट मिली तो भींत में छिप गया राजा बड़े कमरे में सो रहा था । राजा के पहरे के लिए एक मूर्ख बंदर जो सिखाया हुआ था तलवार लिए हुए पहरा दे रहा था, चारों तरफ यहाँ-वहाँ देखे और राज की रक्षा करे । एक मक्खी राजा की नाक पर बैठ गयी तो बंदर ने उस मक्खी को उड़ा दिया । पर मक्खी की कुछ आदत ऐसी होती है कि यदि किसी की नाक उसे पसंद आयी तो वह बारबार उसी जगह पर बैठती है । सो कई बार बंदर ने मक्खी को उड़ाया और वह बारबार बैठे । तो बंदर को क्रोध आ गया और सोचा कि जिस नाक पर मक्खी बैठती है उसे उड़ा दिया जाय तो फिर वह मक्खी कहाँ बैठेगी । जो तलवार उठाकर नाक उड़ाने ही वाला था कि कवि पंडित ने देख लिया । वह इस अन्याय को न देख सका, सो लपककर उसने बंदर का हाथ पकड़ लिया ।
अमित्र विवेकी से अहित की असंभावना – अब तो बंदर में और उस पंडित में झपटा-झपटी होने लगी । राजा जग गया । तो राजा को उस कवि पंडित ने सब वृत्तांत बताया और कहा कि आपने अपनी रक्षा के लिये इस मूर्ख बंदर को तैनात किया, यदि मैं हाथ न पकड़ लेता तो आज आपकी मृत्यु हो जाती । राजा ने उसका बड़ा उपकार माना और जानना चाहा व पूछा कि पंडित जी महाराज ! आप यहाँ किस प्रकार पधार गये । आपका पधारना तो हमारे लिए बड़ा हितकारी हुआ । तो पंडित ने बता दिया अपनी सारी बात कि महाराज ! मैं दरिद्रता से पीड़ित था, कल के लिए खाने का सेजा न था सो मैंने आपके यहाँ ही चोरी करने की सोची थी । इसलिए आपके यहाँ ही मैं आवश्यक धन की चोरी करने आ गया पर बंदर के द्वारा किए जाने वाले अन्याय को मैं न देख सका इसी से इस बंदर से झपट हो गयी । इस कथानक से प्रयोजन इतना लेना है कि मूर्ख मित्र भी हो तो भी भला नहीं है और ज्ञानी, पंडित, विवेकी कदाचित् थोड़ा विमुख भी हो जाय तो भी वह भला है ।विवेक पोषण का अनुरोध – जिस पुरुष ने अपना विवेक पुष्ट नहीं बनाया है वह पुरुष धर्म के नाम पर कितना ही श्रम करे, साधन बनाए फिर भी अज्ञानता के कारण वहाँ धर्म नहीं टिक सकता है । यों आचार्यदेव इस बात पर खेद प्रकट करते हैं कि कोई देहममता के त्याग के ध्येय से त्याग भी करले लेकिन मोह की लीला इतनी विचित्र है कि वह फिर देह से प्रीति करने लगता है और जिस आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिये त्याग किया है उस ही आत्मकल्याण की वृत्ति से द्वेष करने लगता है । इसलिये बड़ी सावधानी की जरूरत है, और वह सावधानी है अपनी दृष्टि का निर्मल बनाना । अपनी दृष्टि को निर्मल बनाकर ही हम धर्ममार्ग में अबाधित प्रगति कर सकते हैं ।