योगसार - बन्ध-अधिकार गाथा 168
From जैनकोष
ज्ञानी/सम्यग्दृष्टि भोगों से अबन्धक -
ज्ञानी विषयसंगेsपि विषयैर्नैव लिप्यते ।
कनकं मलमध्येsपि न मलैरुपलिप्यते ।।१६८।।
अन्वय :- (यथा) मलमध्ये अपि कनकं मलै: न उपलिप्यते (तथा) विषय-संगे (सति) अपि ज्ञानी विषयै: न एव लिप्यते ।
सरलार्थ :- जैसे किसी भी प्रकार के कीचड़ादि मल में पड़ा हुआ शुद्ध सुवर्ण मल के कारण से अशुद्ध नहीं होता; वैसे ज्ञानी अर्थात् चौथे-पाँचवें गुणस्थानवर्ती श्रावक भी अनेक प्रकार के विषय- भोगों को भोगते हुए भी उन विषयों के कारण मिथ्यात्व-जन्य कर्मो से बद्ध नहीं होते अर्थात् निर्लिप्त ही रहते हैं ।