योगसार - बन्ध-अधिकार गाथा 169
From जैनकोष
साधक योगी आहारादि से अबन्धक -
आहारादिभिरन्येन कारिर्तैोदितै: कृतै: ।
तदर्थं बध्यते योगी नीरागो न कदाचन ।।१६९।।
अन्वय :- नीराग: योगी तदर्थं अन्येन कृतै: कारितै: मोदितै: (च) आहारादिभि: कदाचन न बध्यते ।
सरलार्थ :- अनंतानुबंधी आदि तीन कषाय चौकडी के अभावपूर्वक व्यक्त वीतरागता सहित योगी/अर्थात् मुनिराज के लिए दूसरों से अर्थात् श्रावकों से किये, कराये तथा अनुोदित आहार, वसतिका आदि से मुनिराज कभी भी बंध को प्राप्त नहीं होते ।