वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 13
From जैनकोष
पूयफलेण तिलोए सुरपुज्जो हवेइ सुद्धमणो।
दाणफलेण तिलोए सारसुहं भुँजदे णियदं।।13।।
पूजाफल में सुरपूज्यता―पूजा के फल से यह जीव पूज्य स्थिति को पाता है, यह भी स्वयं पूज्य हो जाता है। प्रभुभक्ति धनंजय कवि ने की। ऐसी भावना की थी कि उसको दूसरा कोई विकल्प नहीं आया। उसी काल उसके लड़के को साँप ने डस लिया घर पर तो स्त्री घबराई हुई मंदिर आयी और समाचार दिया कि अपने लड़के को साँप ने काट लिया, बड़ी जल्दी आइये। उस समय धनंजय सेठ कर रहे थे पूजा सो अनसुनी बात कर दी। अब देखिये पूजन जैसे धार्मिक कर्तव्य को उसने कितना महत्त्व दिया। अनसुनी कर देने पर वह स्त्री बहुत उदास होकर घर आयी, उसे कुछ गुस्सा सी भी आयी कि ऐसी पूजा कैसी कि घर में तो बच्चे को साँप ने डस लिया और वह पूजा नहीं छोड़ते। देखिये उस समय अनेकों लोगों के मन में भी यह बात आयी होगी कि शायद सेठ जी के दिमाग में कोई फितूर आ गया है अरे पूजा छोड़कर बच्चे की सम्हाल करते, पूजा तो दूसरे दिन भी हो सकती थी, मगर उस धनंजय सेठ की धुन देखिये, उसका अटल विश्वास देखिये। आखिर सेठानी को गुस्सा आया तो उस अधमरे लड़के को उठाकर मंदिर ले आयी और वहीं रख दिया और बोली―लो सेठ जी अब तुम जानो......। अब भी वह प्रभुभक्ति में लीन रहे। वह जानते थे कि मणि, मंत्र, औषधि सब कुछ प्रभुभक्ति है, उस समय उन्होंने विषापहार स्तोत्र की रचना की। वह बहुत बड़े विद्वान थे। उनका रचा हुआ एक काव्य हैं दुसंधान काव्य। उसमें श्लोक तो वह एक है पर उसी श्लोक में पांडवों की कथा भी निकलती है और श्रीराम की भी, इस ढंग से उसमें शब्द रचना हुई हैं। अब आप लोग विचार कीजिए कि यह कितनी विद्वता की बात है। वह वहाँ विषापहार स्तोत्र रचते गए और उसी बीच में जहाँ भक्ति में बोलते हैं―