ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 118 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
एदे जीवणिकाया देहप्पविचारमस्सिदा भणिदा । (118)
देहविहूणा सिद्धा भव्वा संसारिणो अभव्वा य ॥128॥
अर्थ:
ये जीव-निकाय देह प्रवीचार के आश्रित / देह का भोग-उपयोग करने-वाले कहे गए हैं । देह से रहित सिद्ध हैं । संसारी भव्य और अभव्य दो भेद-वाले हैं ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
ये जीव निकाय निश्चय से शुद्धात्म-स्वरूप के आश्रित होने पर भी व्यवहार से कर्मजनित देह सम्बन्धी प्रवीचार (भोग-उपयोग) के आश्रित कहे गए हैं; देह में प्रवीचार, वर्तना, देह प्रवीचार है । निश्चय से केवल-ज्ञान देह स्वरूप होने पर भी कर्म-जनित देह-रहित होते हैं । कर्म-जनित देह से रहित वे कौन हैं ? शुद्धात्मोपलब्धि सहित सिद्ध उस देह से रहित हैं । संसारी भव्य और अभव्य रूप हैं ।
वह इसप्रकार -- केवल ज्ञानादि गुणों की व्यक्ति रूप जो शुद्धि है, उसकी शक्ति भव्यत्व कहलाती है; उसके विपरीत अभव्यत्व है ।
प्रश्न - वे किसके समान हैं ?
उत्तर - पकने योग्य और नहीं पकने योग्य मूँग के समान अथवा सुवर्ण पाषाण और अन्य अन्ध पाषाण के समान हैं । जो शुद्धि, शक्ति है वह सम्यक्त्व ग्रहण के समय व्यक्ति को प्राप्त होती है; और जो अशुद्ध शक्ति की व्यक्ति है वह अशुद्धि रूप से पहले से ही विद्यमान है, उस कारण अनादि है, ऐसा अभिप्राय है ॥१२८॥
इसप्रकार चार गाथा पर्यंत पंचेन्द्रिय-व्याख्यान की मुख्यता से चौथा स्थल पूर्ण हुआ । यहाँ 'पंचेन्द्रिय' यह शब्द उपलक्षण है, उस कारण गौण वृत्ति से 'तिर्यंच अनेक प्रकार के हैं'... इस १२६वीं गाथा के खण्ड / अंश द्वारा एकेन्द्रिय आदि का व्याख्यान भी जानना चाहिए । उपलक्षण के विषय में दृष्टान्त कहते हैं 'काकों (कौओं) से घी की रक्षा करो' -- ऐसा कहने पर बिल्ली आदि से भी उसकी रक्षा करनी है, ऐसा अर्थ है ।