ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 78
From जैनकोष
जे पावमोहियमई लिंगं घेत्तूण जिणवरिंदाणं ।
पावं कुणंति पावा ते चत्त मोक्खमग्गम्मि ॥७८॥
ये पापमेहितमतय: लिङ्गं गृहीत्वा जिनवरेन्द्राणाम् ।
पापं कुर्वन्ति पापा: ते त्यक्त्वा मोक्षमार्गे ॥७८॥
आगे कहते हैं कि जो इस काल में ध्यान का अभाव मानते हैं और मुनिलिंग पहिले ग्रहण कर लिया अब उसको गौण करके पाप में प्रवृत्ति करते हैं वे मोक्षमार्ग से च्युत हैं -
अर्थ - जिनकी बुद्धि पापकर्म से मोहित है वे जिनवरेन्द्र तीर्थंकर का लिंग ग्रहण करके भी पाप करते हैं वे पापी मोक्षमार्ग से च्युत हैं ।
भावार्थ - जिन्होंने पहले निर्ग्रन्थ लिंग धारण कर लिया और पीछे ऐसी पापबुद्धि उत्पन्न हो गई कि अभी ध्यान का काल तो है नहीं, इसलिए क्यों प्रयास करें ? ऐसा विचारकर पाप में प्रवृत्ति करने लग जाते हैं वे पापी हैं, उनको मोक्षमार्ग नहीं है ॥७२॥
इस काल में धर्मध्यान किसी को नहीं होता’ किन्तु भद्र ध्यान (व्रत, भक्ति, दान, पूजादिक के शुभभाव) होते हैं। इससे ही निर्जरा और परम्परा मोक्ष माना है और इसप्रकार सातवें गुणस्थान तक भद्र ध्यान और पश्चात् ही धर्मध्यान माननेवालों ने ही श्री देवसेनाचार्यकृत ‘आराधनासार’ नाम देकर एक जालीग्रन्थ बनाया है उसी का उत्तर केक९डी निवासी पण्डित श्री मिलापचन्दजी कटारिया ने ‘जैन निबंध रत्नमाला’ पृष्ठ ४७ से ६० में दिया है कि इस काल में धर्म ध्यान गुणस्थान ४ से ७ तक आगम में कहा है। आधार - सूत्रजी की टीकाएँ, श्री राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि आदि। ]