भावपाहुड गाथा 95
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि जो परीषह सहने में दृढ़ होता है तो उपसर्ग आने पर भी दृढ़ रहता है, च्युत नहीं होता, उसका दृष्टान्त कहते हैं -
जह पत्थरो ण भिज्जइ परिटि्ठओ दीहकालमुदएण१ ।
तह साहू वि ण भिज्जइ उवसग्गपरीसहेहिंतो ।।९५।।
यथा प्रस्तर: न भिद्यते परिस्थित: दीर्घकालमुदकेन ।
तथा साधुरपि न भिद्यते उपसर्गपरीषहेभ्य: ।।९५।।
जल में रहे चिरकाल पर पत्थर कभी भिदता नहीं ।
त्यों परीषह उपसर्ग से साधु कभी भिदता नहीं ।।९५।।
अर्थ - जैसे पाषाण जल में बहुत काल तक रहने पर भी भेद को प्राप्त नहीं होता है वैसे ही साधु उपसर्ग परीषहों से नहीं भिदता है ।
भावार्थ - पाषाण ऐसा कठोर होता है कि यदि वह जल में बहुत समय तक रहे तो भी उसमें जल प्रवेश नहीं करता है, वैसे ही साधु के परिणाम भी ऐसे दृढ़ होते हैं कि उपसर्ग परीषह आने पर भी संयम के परिणाम से च्युत नहीं होता है और पहिले कहा जो संयम का घात जैसे न हो, वैसे परीषह सहे । यदि कदाचित् संयम का घात होता जाने तो जैसे घात न हो वैसे करे ।।९५।।