मोक्षपाहुड गाथा 9
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि मिथ्यादृष्टि अपनी देह के समान दूसरे की देह को देखकर उसको दूसरे की आत्मा मानता है -
णियदेहसरिच्छं* पिच्छिऊण परविग्गहं पयत्तेण ।
अच्चेयणं पि गहियं झाइज्जइ परमभावेण ।।९।।
निजदेहसदृशं दृष्ट्वा परविग्रहं प्रयत्नेन ।
अचेतनं अपि गृहीतं ध्यायते परमभावेन ।।९।।
निज देहसम परदेह को भी जीव जानें मूढ़जन ।
उन्हें चेतन जान सेवें यद्यपि वे अचेतन ।।९।।
अर्थ - मिथ्यादृष्टि पुरुष अपनी देह के समान दूसरे की देह को देखकर के यह देह अचेतन है तो भी मिथ्याभाव से आत्मभाव द्वारा बड़ा यत्न करके पर की आत्मा ध्याता है अर्थात् समझता है ।
भावार्थ - बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्वकर्म के उदय से (उदय के वश होने से) मिथ्याभाव है, इसलिए वह अपनी देह को आत्मा जानता है वैसे ही पर की देह अचेतन है तो भी उसको पर की आत्मा मानता है (अर्थात् पर को भी देहात्मबुद्धि से मान रहा है और ऐसे मिथ्याभाव सहित ध्यान करता है) और उसमें बड़ा यत्न करता है इसलिए ऐसे भाव को छोड़ना - यह तात्पर्य है ।।९।।