मोक्षपाहुड गाथा 90
From जैनकोष
आगे शिष्य पूछता है कि सम्यक्त्व कैसा है ? इसका समाधान करने के लिए इस सम्यक्त्व के बाह्य चिह्न बताते हैं -
हिंसारहिए धम्मे अट्ठारहदोसवज्जिए देवे ।
णिग्गंथे पव्वयणे सद्दहणं होइ सम्मत्तं ।।९०।।
हिंसारहिते धर्मे अष्टादशदोषवर्जिते देवे ।
निर्ग्रंथे प्रवचने श्रद्धानं भवति सम्यक्त्वम् ।।९०।।
सब दोष विरहित देव अर हिंसारहित जिनधर्म में ।
निर्ग्रन्थ गुरु के वचन में श्रद्धान ही सम्यक्त्व है ।।९०।।
अर्थ - हिंसारहित धर्म, अठारह दोषरहित देव, निर्ग्रन्थ प्रवचन अर्थात् मोक्ष का मार्ग तथा गुरु इनमें श्रद्धान होने पर सम्यक्त्व होता है ।
भावार्थ - लौकिकजन तथा अन्य मतवाले जीवों की हिंसा से धर्म मानते हैं और जिनमत में अहिंसा धर्म कहा है उसी का श्रद्धान करे, अन्य का श्रद्धान न करे वह सम्यग्दृष्टि है । लौकिक अन्य मतवाले जिन्हें देव मानते हैं वे सब देव क्षुधादि तथा रागद्वेषादि दोषों से संयुक्त हैं, इसलिए वीतराग सर्वज्ञ अरहंतदेव सब दोषों से रहित हैं उनको देव माने, श्रद्धान करे वही सम्यग्दृष्टि है । यहाँ अठारह दोष कहे वे प्रधानता की अपेक्षा कहे हैं इनको उपलक्षणरूप जानना, इनके समान अन्य भी जान लेना । निर्ग्रन्थ प्रवचन अर्थात् मोक्षमार्ग वही मोक्षमार्ग है, अन्यलिंग से अन्य मतवाले श्वेताम्बरादिक जैनाभास मोक्ष मानते हैं, वह मोक्षमार्ग नहीं है । ऐसा श्रद्धान करे वह सम्यग्दृष्टि है, ऐसा जानना ।।९०।।