मोक्षपाहुड गाथा 96
From जैनकोष
आगे सम्यक्त्व मिथ्यात्व भाव के कथन का संकोच करते हैं -
सम्म गुण मिच्छ दोसो मणेण परिभाविऊण तं कुणसु ।
जं ते मणस्स रुच्चइ किं बहुणा पलविएण तु ।।९६।।
सम्यक्त्वे गुण मिथ्यात्वे दोष: मनसा परिभाव्य तत् कुरु ।
यत् ते मनसे रोचते किं बहुना प्रलपितेन तु ।।९६।।
जानकर सम्यक्त्व के गुण-दोष मिथ्याभाव के ।
जो रुचे वह ही करो अधिक प्रलाप से है लाभ क्या ।।९६।।
अर्थ - हे भव्य ! ऐसे पूर्वोक्त प्रकार सम्यक्त्व के गुण और मिथ्यात्वभाव के दोषों की अपने मन से भावना कर और जो अपने मन को रुचे, प्रिय लगे वह कर, बहुत प्रलापरूप कहने से क्या साध्य है ? इसप्रकार आचार्य ने उपदेश दिया है ।
भावार्थ - इसप्रकार आचार्य ने कहा है कि बहुत कहने से क्या ? सम्यक्त्व मिथ्यात्व के गुण-दोष पूर्वोक्त जानकर जो मन में रुचे, वह करो । यहाँ उपदेश का आशय ऐसा है कि मिथ्यात्व को छोड़ो, सम्यक्त्व को ग्रहण करो, इससे संसार का दु:ख मेटकर मोक्ष पाओ ।।९६।।