योगसार - चूलिका-अधिकार गाथा 512
From जैनकोष
जीव कषायादिरूप नहीं होता -
यथा कुम्भमयो जातु कुम्भकारो न जायते ।
सहकारितया कुम्भं कुर्वाणोsपि कथंचन ।।५१३।।
कषायादिमयो जीवो जायते न कदाचन ।
कुर्वाणोsपि कषायादीन् सहकारितया तथा ।।५१४।।
अन्वय : - यथा सहकारितया कुम्भं कुर्वाण: अपि कुम्भकार: कथंचन कुम्भमय: जातु न जायते; तथा सहकारितया कषायादीन् कुर्वाण: अपि जीव: कदाचन कषायादिमय: न जायते ।
सरलार्थ :- जिसप्रकार सहकारिता के रूप में अर्थात् निमित्त की अपेक्षा से कुंभ को करता हुआ कुंभकार कभी कुंभरूप नहीं होता, कुंभकार ही रहता है । उसीप्रकार सहकारिता के रूप में अर्थात् निमित्त की अपेक्षा से क्रोधादि कषायें करता हुआ भी यह जीव कभी क्रोधादि कषायरूप नहीं होता, जीव ही रहता है ।