योगसार - चूलिका-अधिकार गाथा 520
From जैनकोष
इंद्रिय-विषयासक्त जीव का स्वरूप -
स्वार्थ-व्यावर्तिताक्षोsपि विषयेषु दृढ-स्मृति: ।
सदास्ति दु:स्थितो दीनो लोक-द्वय-विलोपक: ।।५२१।।
अन्वय : - (य:) स्वार्थ-व्यावर्तिताक्ष: अपि विषयेषु दृढ-स्मृति: (स:) सदा दु:स्थित:, दीन: (च) लोक-द्वय-विलोपक: अस्ति ।
सरलार्थ :- जो जीव अपने स्पर्शनेंद्रियादि को उनके स्पर्शादि विषयों से (क्षेत्र की अपेक्षा से) अलग रखता है अर्थात् प्रत्यक्ष में इंद्रियों से विषयों को भोगता नहीं है; तथापि इंद्रियों के विषयों का बराबर सतत स्मरण करता रहता है, वह अज्ञानी सदा दु:खी एवं दीन रहता है और अपने इस जन्म को तथा अगले भवों को भी बिगाड़ता है ।