योगसार - निर्जरा-अधिकार गाथा 275
From जैनकोष
मोह से जीव, कर्मो से बँधता है -
कषायोदयतो जीवो बध्यते कर्मरज्जुभि: ।
शान्त-क्षीणकषायस्य त्रुट्यन्ति रभसेन ता: ।।२७५।।
अन्वय :- कषाय-उदयत: (मूढ़:) जीव: कर्म-रज्जुभि: बध्यते । शान्त-क्षीण-कषायस्य (जीवस्य) ता: (कर्म-रज्जव:) रभसेन त्रुट्यन्ति ।
सरलार्थ :- (मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद और) कषाय के उदय से अर्थात् मोह-रागद्वेषरू प परिणामों से यह अज्ञानी जीव आठ कर्मरज्जुरूप बंधनों से बंधता है और जिनके कषायादि विभाव शांत अथवा क्षीण हो जाते हैं, उनके वे कर्म रज्जुबंधन शीघ्र टूट जाते हैं ।