योगसार - बन्ध-अधिकार गाथा 162
From जैनकोष
कर्ताबुद्धि मिथ्या है -
कोsपि कस्यापि कर्तास्ति नोपकारापकारयो:।
उपकुर्वेsपकुर्वेsहं मिथ्येति क्रियते मति: ।।१६२।।
अन्वय :- क: अपि कस्य अपि उपकार-अपकारयो: कर्ता न अस्ति । अहं (कस्यापि) उपकुर्वे, अपकुर्वे इति (या) मति: क्रियते (सा) मिथ्या (अस्ति) ।
सरलार्थ :- कोई भी द्रव्य अन्य किसी भी द्रव्य का उपकार तथा अपकार करनेवाला नहीं है । व्यावहारिक जीवन में मैं दूसरों का कल्याण/अच्छा करता हूँ अथवा मैं अकल्याण/बुरा करता हूँ; यह मान्यता मिथ्या/खोटी है ।