योगसार - बन्ध-अधिकार गाथा 184
From जैनकोष
कर्म-रहित जीव अमूर्तिक -
मूर्तो भवत्यमूर्तोsपि पुण्यपापवशीकृत: ।
यदा विमुच्यते ताभ्याममूर्तोsस्ति तदा पुन: ।।१८४।।
अन्वय :- पुण्य-पाप-वशीकृत: अमूर्त: (जीव:) अपि मूर्त: भवति । यदा (स: जीव:) ताभ्यां विमुच्यते तदा पुन: अमूर्त: अस्ति ।
सरलार्थ :- पुण्य-पापरूप कर्म के वशीभूत हुआ अमूर्तिक जीव भी मूर्तिक हो जाता है और जब जीव उन पुण्य-पाप दोनों कर्मो से छूट जाता है, तब वह अमूर्तिक होता है ।