योगसार - संवर-अधिकार गाथा 193
From जैनकोष
भाव एवं द्रव्यकर्म के अभाव से पूर्ण शुद्धि -
कषायेभ्यो यत: कर्म कषाया: सन्ति कर्मत: ।
ततो द्वितयविच्छेदे शुद्धि: संपद्यते परा ।।१९३।।
अन्वय :- यत: कषायेभ्य: कर्म, कर्मत: कषाया: सन्ति । तत: द्वितयविच्छेदे (सति) परा शुद्धि: संपद्यते ।
सरलार्थ :- कषायादि विकारी भावों के निमित्त से द्रव्यकर्म का बन्ध और मोहनीयादि द्रव्यकर्म के उदय/निमित्त से कषायादि भावकर्म उत्पन्न होते हैं । इसलिए भाव तथा द्रव्यकर्मो के विच्छेद अर्थात् विनाश होने पर आत्मा में परम विशुद्धि/पूर्ण वीतरागता प्रगट होती है ।