योगसार - संवर-अधिकार गाथा 202
From जैनकोष
शरीर का उपकार और अपकार करनेवालों पर राग-द्वेष कैसे?
शत्रव: पितरौ दारा: स्वजना भ्रातरोsङ्गजा: ।
निगृह्णन्त्यनुगृह्णन्ति शरीरं चेतनं न मे ।।२०२।।
मत्तश्च तत्त्वतो भिन्नं चेतनात्तदचेतनम् ।
द्वेषरागौ तत: कर्तंु युक्तौ तेषु कथं मम ।।२०३।।
अन्वय :- मत्त: चेतनात् तत् अचेतनं शरीरं तत्त्वत: भिन्नं (अस्ति) । पितरौ दारा: स्वजना: भ्रातरा: (च) अङ्गजा: शरीरं अनुगृह्णन्ति (च) शत्रव: निगृह्णन्ति, मे चेतनं न; तत: तेषु (स्वजनेषुशत्रुषु च) मम द्वेषरागौ कर्तुं कथं युक्तौ ?
सरलार्थ :- मुझ चेतन आत्मा से जो यह अचेतन शरीर वास्तविक भिन्न है, उस शरीर पर ही ये माता-पिता, स्त्री, भाई, पुत्र, स्वजन उपकार करते हैं और शत्रु अपकार करते हैं; इस कारण स्वजनादि पर राग और शत्रुओं पर द्वेष करना कैसे उचित होगा? क्योंकि ये स्वजनादि और शत्रु मेरे चेतन आत्मा का उपकार अथवा अपकार करते ही नहीं ।