योगसार - संवर-अधिकार गाथा 208
From जैनकोष
सम्यग्दर्शनादि पर्यायों का कोई भी कर्ता-हर्ता नहीं -
ज्ञान-दृष्टि-चरित्राणि ह्रियन्ते नाक्षगोचरै: ।
क्रियन्ते न च गुर्वाद्यै: सेव्यमानैरनारतम् ।।२०८।।
उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति जीवस्य परिणामिन: ।
तत: स्वयं स दाता न, परतो न कदाचन ।।२०९।।
अन्वय :- ज्ञान-दृष्टि-चारित्राणि अक्षगौचरै: न ह्रियन्ते च अनारतं सेव्यमानै: गुर्वाद्यै: न क्रियन्ते । परिणामिन: जीवस्य (पर्यायत:) तानि उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति । तत: स: (जीव:) कदाचन स्वयं दाता न (अस्ति)। (च) न परत: (तानि उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति च) ।
सरलार्थ :- स्पर्शनेंद्रियादि इंद्रियों के विषयों को भोगने से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्ररूप पर्यायों का हरन अर्थात् नाश नहीं होता । निरन्तर जिनकी सेवा की गई है ऐसे सच्चे गुरु भी अपने शिष्य में सम्यग्दर्शनादि पर्यायों को उत्पन्न नहीं कर सकते । परिणमनशील जीव की ये सम्यग्दर्शनादि पर्यायें स्वयं से उत्पन्न होती हैं और स्वयं विनाश को प्राप्त होती हैं । इसलिए जीव द्रव्य भी इन सम्यग्दर्शनादि पर्यायों का दाता अर्थात् कर्ता-हर्ता नहीं है और न कोई परद्रव्य इन सम्यग्दर्शनादि पर्यायों का उत्पाद तथा व्यय करता है ।