योगसार - संवर-अधिकार गाथा 217
From जैनकोष
जीव औदयिक भावों के द्वारा कर्म का कर्ता एवं भोक्ता -
चेतन: कुरुते भुङ्क्ते भावैरौदयिकैरयम् ।
न विधत्ते न वा भुङ्क्ते किंचित्कर्म तदत्यये ।।२१७।।
अन्वय :- अयं चेतन: औदयिकै: भावै: (कर्म) कुरुते (च) भुङ्क्ते । तदत्यये (तस्य औदयिकभावस्य अत्यये) किंचित् कर्म न विधत्ते वा न भुङ्क्ते ।
सरलार्थ :- यह चेतन अर्थात् जीव औदयिक भावों के द्वारा अर्थात् कर्मो के उदय का निमित्त पाकर उत्पन्न होनेवाले परिणामों के सहयोग से कर्म करता है और उसका फल भोगता है । औदयिकभावोें का अभाव होने पर वह कोई कर्म नहीं करता और कोई फल नहीं भोगता है ।