वर्णीजी-प्रवचन:चारित्रपाहुड - गाथा 33
From जैनकोष
कोह भयहासलोहामोहाविपरीय भावणा चेव ।
विदियस्स भावणाए ए पंचेव य तहा होंति ।।33।।
(84) सत्यमहाव्रत की प्रथम भावना क्रोधप्रत्याख्यान―अब सत्य महाव्रत की 5 भावनायें बता रहे हैं । क्रोध का त्याग, भय का त्याग, हास्य का त्याग, लोभ का त्याग और मोह का त्याग होना, होने की भावना रहना ये सत्यमहाव्रत की भावनायें हैं । जो मनुष्य क्रोधी होता है तो क्रोध में वह वचनालाप अधिक क्रिया करना है और कुछ सुध नहीं रहती है कि हम क्या बोल रहे हैं । जिसमें दूसरों का अपमान हो, विघात हो, कष्ट पहुंचे ऐसे वचनों की प्रवृत्ति होती है क्रोध में और इसके साथ अपने आप में अहंबुद्धि रहती है कि इनमें मैं अधिक समझदार हूँ, महान हूँ और ये लोग हम से छोटे हैं और इनका हमारे प्रति ऐसा व्यवहार हो आदिक कल्पनायें करके यह जीव क्रोध करता है और क्रोध के ही साथ ये अनेक वचन बोलते जिनमें असत्य वचन बोलने की बहुत संभावना रहती है । उसका अपराध न दिखा सके तो कोई झूठ बात ही कह देंगे, तो यों क्रोध में बहुत से असत्य प्रलाप संभव है, इस कारण जिनका सत्य महाव्रत निर्दोष पलता है उनको क्रोध का परित्याग करना चाहिए । क्रोध से सत्यमहाव्रत की हानि तो है ही, पर अहिंसा महाव्रत की भी हानि है । मूल बात यह है कि जो 25 भावनायें कही हैं 25 जनों की तो ये पच्चीसों ही भावनायें अहिंसा महाव्रत को पुष्ट करती है, क्यों कि पाप एक ही है―हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये चार पाप हिंसा को ही पुष्ट करते हैं, इनमें भी हिंसा बनी हुई है । अपने प्राणों का घात होना, दूसरे के प्राणों का घात होना वह सब हिंसा है । अपने ज्ञान गुण का आवरण होना, विनाश होना यह भी हिंसा है, तो सभी प्रवृत्तियों में हिंसा नामक एक पाप है, तो उसकी निवृत्ति में जो-जो कुछ भी भावनायें वगैरह हैं वे सब अहिंसा ही हैं । तो क्रोध करते समय यह जीव अपने आपके आत्मा में क्षोभ उत्पन्न करता है, खुद आत्मा बड़ा हैरान हो जाता है और तब उसके जो वचन निकलते हैं वे स्पष्ट वचन नहीं निकलते । क्रोध में ओठ आदिक की क्रिया विडरूप हो जाने से कुछ ढीली हो जाने से उसके वचन अशोभनीय निकलते हैं । तो क्रोध करने में असत्यप्रलाप की संभावना विशेष है, इस कारण क्रोध के परित्याग की भावना और परित्याग होना यह सत्य महाव्रत की प्रथम भावना है ।
(85) सत्यमहाव्रत की द्वितीय भावना भयप्रत्याख्यान―सत्य महाव्रत की द्वितीय भावना है भय परित्याग । यदि किसी वजह से भय चित्त में रहेगा तो भयशील पुरुष असत्य ही बोलेगा, क्योंकि उसकी अपनी रक्षा की विशेष बात चित्त में पड़ी हुई है, और जिस तरफ रक्षा हो सके उस तरफ ही भयभीत पुरुष प्रवृत्ति करता है । तो भय में आकर वह असत्य बोल सकता है । इस कारण भय के त्याग बिना सत्यमहाव्रत नहीं हो सकता । भय स्वार्थसाधन के विकार की संभावना पर रहता है । मेरे स्पर्शनइंद्रिय के विषय के साधनों का विकार न हो जाये । यदि कोई उस पर बाधक होता है तो उस पर क्रोध भी आता है और उस समय में भय भी होता है । कहीं यह मेरा बिगाड़ न कर दै । क्रोध, भय आदि ये सब क्षण-क्षण में परिवर्तित हो रहे हैं, तो अपने विषय के साधनों के वियोग का भय असत्य वचन बोलने का साधन मेरे खूब बना रहे और उसमें किसी प्रकार की हानि न हो ऐसा जब संस्कार बसा हुआ है और परिस्थिति ऐसी है कि वह विवश है, कुछ उसके पास योग नहीं है, धन आदिक नहीं है तो ऐसी स्थिति में उसे भोजन के साधनों के वियोग का भय बना रहता है, इसी तरह घ्राण, चक्षु कर्णइंद्रिय के विषय के साधनों का वियोग न हो जाये इस प्रकार का भय बना रहना है अथवा अपने प्राणों का भी भय बना रहता है । मेरे प्राण नष्ट न हो जाये, मेरा जीवन बना रहे यह भय तो बहुत बड़ा भय है । इस भय में तो असत्य वचन बोलना प्राय: बहुतों के हुआ करता है । तो किसी प्रकार का भय चित्त में आये तो उस भय के कारण यह जीव असत्य बोल सकता है । अत: सत्य महाव्रत निर्दोष पालन के इच्छुवों को भय का परित्याग करना चाहिए । भय का समूल त्याग कब होता है । जब भयरहित, विकाररहित आत्मा का सहज शुद्धस्वरूप दृष्टि में हो तो इस आत्मा पर कोई प्रहार ही नहीं कर सकता । उसमें किसी दूसरी चीज का प्रवेश हो नहीं है । मेरे को नुक्सान क्या है? पर पदार्थ रहें चाहे जाये, चाहे किसी प्रकार परिणमें उनके परिणमन से मेरे आत्मा को हानि क्या है, क्योंकि मेरा आत्मा अमूर्त ज्ञानानंदघन स्वयं परमात्मस्वरूप है । इसमें भव का कोई काम ही नहीं है । अपने स्वरूप से च्युत होता है और बाह्य पदार्थों में शरण बुद्धि लगाता है तो भय के अंकुर उत्पन्न हो जाते हैं । उसके निर्णय स्वरूप निःशंक स्वरूप, उसमें भय का क्या अवकाश? ऐसे अंतस्तत्त्व को देखने वाले साधु संत भय का परित्याग कर देते हैं । और निर्दोष सत्य महाव्रत का पालन करते हैं ।
(86) सत्य महाव्रत की तृतीय भावना हास्यप्रत्याख्यान―सत्य महाव्रत की तीसरी भावना है हास्यपरित्याग । हास्य की प्रकृति वाले के चित्त में दूसरों के प्रति तुच्छता का भाव रहता है और वह यह समझता है कि मैं बुद्धिमान हूँ और मैं इस कला में बड़ा कुशल हूँ और सब मेरी ओर ही मेरी कला देखने को ताकते रहते हैं, ऐसा दूसरे जीवों के प्रति तुच्छ भाव से निरखने का परिणाम रहता है और तब ही दूसरे का मजाक या उसको लज्जित करना, ये सब प्रयास चलते हैं । तो जिनकी हास्य करने की प्रकृति बनी हुई है उन पुरुषों को पद-पद पर असत्य बोलना होता है । गप्प करना भी इसी हास्य का ही प्रकार है । गप्प तो कभी सत्य बात में होती ही नहीं है, वहाँ तो ढूंढ़-ढूँढ़कर झूठ बातें भी बनानी होती हैं । हास्य मजाक गप्पबाजी की जिनकी प्रकृति है उनको सत्य वचन कहने का नियम निभाना बिल्कुल कठिन बल्कि असंभव है । ज्ञानी पुरुष अपने आपमें देवता हूं―कि यहाँ जो कुछ भी स्वभाव है, स्वरूप है वह सब परमार्थ सत्य है, और जो इम सत्य शिव सुंदर अंतस्तत्त्व की उपासना करते हैं उनको फिर हीनता क्या? कमी क्या है? वे स्वयं आत्मऋद्धि से संपन्न हैं । तो ऐसे सत्य स्वरूप की दृष्टि रखने वाले ज्ञानी पुरुष सत्य वचन के बाधक हास्य का परित्याग कर ही देते हैं । कभी-कभी तो हास्य में बैर बन जाता है । कवि जनों ने कहा भी तो है―“काहू को हंसिये नहीं, हंसी कलह की मूल । हांसी ही से भयो है पांडव कुल निर्मूल ।।” यह हास्यभाव अपने कल्याण का बाधक है, सत्य वचन बोल सकने का बाधक है, उसका परित्याग ही कर देना चाहिए, ऐसी भावना सत्य महाव्रत में होती है ।
(87) सत्य महाव्रत की चतुर्थ भावना लोभपरित्याग―सत्य महाव्रत की चौथी भावना है लोभपरित्याग । लोभ में मनुष्य अधिकतर असत्य बोलते हैं । लोभी पुरुष की यह कामना रहती है कि किसी भी प्रकार हो अगर थोड़ा झूठ बोल दिया और यहाँ तक कि यदि थोड़ा अन्याय भी हो गया और द्रव्य आता है तो द्रव्य आने को वह महत्त्व देता है । तो लोभ कषाय में असत्य बोलने के बहुत प्रसंग आते हैं । व्यापारादिक में झूठ बोलने का और कारण ही क्या है? लोभ कषाय । झूठ बोलकर, दूसरों को ठगकर अपने धन का संचय बनाना यह भाव हुआ करता है लोभ का । तो जिनको लोभ कषाय को प्रकृति है उनको सत्य वचन का निभाना कठिन है, असंभव है, अतएव लोभ की प्रकृति न होनी चाहिए । लोभ से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि लोभ करके जोड़-जोड़कर रख दिया और मरण करके चल दिया तो उस जोड़े हुए धन का परिणाम क्या होता? वह सब ज्यों का त्यों पड़ा रह जाता, साथ कुछ नहीं जाता । आखिर जीवन तो किसी न किसी तरह पार होता ही है, उसके लिए लोभ क्या करना, एक धर्मभावना, ज्ञानभावना अपने आपमें वृद्धिगत होती रहे तो इसका लाभ अगले भव में प्राप्त होगा और इसी भव में मिल जाता है । परपदार्थों का संग्रह करना लाभदायक नहीं बल्कि हानिकारक है, उससे पापबंध होता है । दुर्गति में जाना होता है । ऐसी विकट कषाय करते हुए कोई सत्य वचनों पर दृढ़ रह सके यह बात कठिन है । अतएव श्रद्धा दर्शन महाव्रत पालन के इच्छुवों को लोभ का परित्याग करना चाहिए ।
(88) सत्य महाव्रत की पंचम भावना मोहपरित्याग―5वी भावना है सत्य महाव्रत की मोहपरित्याग । मोह से विपरीत सोचना । मोहवश यह जीव असत्य संभाषण करता है । मोह किसका ? शरीर का मोह, नाम का मोह, परिवार का मोह आदिक अनेक प्रकार के मोह होते हैं । मोह में स्व और पर का विवेक नहीं रहता । अपनी तो सुध रहती ही नहीं । सारा उपयोग किसी बाह्य तत्त्व में ही लग जाया करता है । तो जिसकी बुद्धि एकदम बाह्य तत्त्वों में हो आशक्त है, अपने आत्मस्वरूप को सुध नहीं है वह सत्य संभाषण पर कैसे अडिग रह सकेगा । परमार्थ सत्य का जिसको लक्ष्य नहीं है वह व्यवहार में सत्य वचन पूर्णतया कैसे निभा सकेगा? यद्यपि कुछ लोग होते हैं ऐसे कि जिनको परमार्थ सत्य की तो सुध नहीं, और सत्य वचन बोलने पर वे अडिग बने रहने को कोशिश करते हैं तो भले ही कुछ लौकिक सत्य बोलने का प्रयास बना लें, पर उन सब वचनों में मूलत: सच्चाई नहीं है, क्योंकि वह बाहर ही बाहर सब कुछ हिसाब लगाता हुआ बोल रहा है वह अपने आपमें विश्राम नहीं पाता, परमार्थ सत्य को नहीं निरखता और अपने आत्मा के विषय में जब वह सत्य तथ्य नहीं बता सकता, नहीं समझ सकता तो प्रथम असत्य व्यवहार तो उसका यह ही है । मोह से विपरीत वृत्ति होना अर्थात् निर्मोह वृत्ति जगना, यह सत्य महाव्रत की भावना है । मोह में असत्य बोला जाता है यह तो बिल्कुल ही प्रकट बात है । किसी भी जीव को कहना कि यह मेरा है, किसी भी वस्तु को मानना कि यह मेरी है, तो उसकी है नहीं पर कहे मेरी, तो यह प्रकट असत्य बात है । जब तक मोह है तब तक सत्य वचन हो ही नहीं सकते हैं । इस कारण मोह के परित्याग की भावना करना यह सत्य महाव्रत का निर्दोष पालन करने वाले को आवश्यक है । और वह मोह का त्याग करके निर्मोहता का अनुभव भी रखता है, ऐसी ये 5 सत्य महाव्रत की भावनायें हैं ।