वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1633
From जैनकोष
जन्मन: प्रतिपक्षस्य मोक्षस्यात्यंतिकं सुखम्।
अव्याबाधं स्वभावोत्थं केनोपायेन लभ्यते।।1633।।
अपायविचय धर्मध्यान करने वाला ज्ञानी पुरुष ऐसा विचार कर रहा है कि संसार का प्रतिपक्षी जो मोक्ष है उस मोक्ष का जो अविनाशी आनंद है वह किस उपाय से प्राप्त होता है। मोक्ष और संसार ये दो ही जीव की अवस्थायें हैं, या संसार में तो क्लेश ही क्लेश है। मानने का सा मौज है और दु:ख देखो तो मौज में भी दु:ख है। इस संसार में तो दु:ख ही दु:ख है और मुक्ति में देखो तो आनंद ही आनंद है। आत्मा तो आत्मा ही है। आनंद में बाधा आ रही है कर्मों का निमित्त पाकर। अपना परिणाम सम्हले, कर्मों का निमित्त हटे तो आनंद ही आनंद है। दु:ख बनावटी है और आनंद स्वभाविक है। मुक्त अवस्था का जो स्वाभाविक आनंद है वह आनंद कैसा होता, इसका विचार कर रहा है ज्ञानी पुरुष। मुक्ति का आनंद बाधा रहित है स्वभाव से उत्पन्न है। सम्यग्दृष्टि पुरुष को इस मोक्ष के आनंद में श्रद्धा है नहीं तो मोक्षमार्ग क्या चले मोक्ष में आनंद है इस बात की जरा भी सुध न हो तो मोक्ष कैसे प्राप्त करेंगे? तो भव्य जीव के संबंध में यह भी कहा है कि जिसने रुचि से मोक्ष की कथा भी सुनी वह भव्य है, और भव्य के संबंध में निश्चित रूप से यह भी बताया है कि जिसे मोक्ष के आनंद की श्रद्धा नहीं है वह भव्य नहीं, सम्यग्दृष्टि नहीं। जिसे मुक्ति के आनंद की श्रद्धा है वह भव्य है, सम्यग्दृष्टि है, कुछ ही काल में मुक्त होगा। जहाँ तत्त्व के संबंध में उल्टी श्रद्धा का वर्णन है, जिस जीव तत्त्व के बारे में अज्ञानी उल्टा श्रद्धान रखता है कि जीव तो है अमूर्तिक, पर ऐसा न जानकर जड़ रूप मान रहा है, यह तो जीवतत्त्व के विषय में उल्टी श्रद्धा है। जीवतत्त्व के बारे में उल्टी श्रद्धा है, देह के नष्ट होने को ही अपना विनाश और देह के उत्पन्न होने को अपनी उत्पत्ति समझता है। मैं मरा, मैं जिया, इस प्रकार की उल्टी श्रद्धा रखता है। कोई श्रद्धान है तो दु:खदायी पर उसे सुखकारी मानता है। रागादिक भाव ये हैं दु:खदायी, मगर इन्हें सुख का साधन मानता है। बंध के बारे में कैसी उल्टी श्रद्धा है कि शुभ बंध हो तो उसके फल में यह चैन मानता और अशुभ बंध हो तो उसके फल में यह क्लेश मानता। बंध में इसने दो विभाव बना डाले―एक सुख मानने का और एक दु:ख मानने का। ऐसा ही उल्टा श्रद्धान सम्वर के बारे में है कि सम्वर है सुखदायी, विषयकषायों के विमुख और आत्मस्वभाव के सम्मुख जो परिणाम है वह है सुखदायी, पर उसे दु:खदायी मानता है क्योंकि विषयकषाय में इस मिथ्यादृष्टि जीव की वासना लगी है तो उससे विपरीत है यह सम्वर तत्त्व, इसमें कष्ट समझता है। जैसे बहुत से लोग आनंद में कष्ट मानते। तो वह निर्जरा में उल्टी श्रद्धा करता है। निर्जरा होती है चाह रखने से। ज्ञानी जीव तो इच्छा के निरोध में आनंद मानता है, उसे अपना परम कर्तव्य समझता है, पर अज्ञानी जीव इच्छा को नहीं रोक सकता। इच्छा के विरुद्ध कुछ बात घटे तो उसमें संक्लेश करता और इच्छा की पूर्ति के माफिक चीज के मिलने में अपना हित समझता।यह है उल्टी श्रद्धा। और मोक्ष तत्त्व में क्या उल्टी श्रद्धा है इस अज्ञानी को कि वह मोक्ष के आनंद को वास्तविक आनंद नहीं मानता, उसे तो सांसारिक चीजें ही रुचिकर लगती हैं। तो प्रकरण में यह कहा जा रहा है कि ज्ञानी जीव इस प्रकार का ध्यान करता है कि मुझे मुक्ति का आनंद कैसे प्राप्त हो? कैसे प्राप्त हो यह आचार्य संतों ने बताया है, पर उसकी प्राप्त होगी उस मार्ग पर चलने से। हमें मुक्ति के आनंद का श्रद्धान चाहिए, ज्ञान चाहिए व आचरण चाहिए। पर्यायदृष्टि से नहीं, पर्यायदृष्टि से तो जीव कर्मबंधन में पड़ता है। जो आनंद मुक्त स्वभावरूप है उसकी श्रद्धा करने रूप अपने को तका तो वह आनंद प्राप्त होगा जिसका पूर्ण विकास मोक्षअवस्था में है। तो मोक्ष का आनंद बाधारहित है, स्वभाव से उत्पन्न है ऐसा यह ज्ञानी पुरुष चिंतन करता है और यही चिंतन उसका धर्मध्यानहै।