वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1636
From जैनकोष
यावद्यावच्च संबंधो मम स्याद्वाह्यवस्तुभि:।
तावत्तावत्स्वयं स्वस्मिन्स्िथति: स्वप्नेऽपि दुर्घटा।।1636।।
ऐसा ज्ञान-ध्यान करता है यह ज्ञानी जितना-जितना भी संबंध मेरा बाह्यपदार्थों के साथ होगा उतना-उतना यह मैं स्थित हो सकता हूँ यह बात क्यों बनेगी? स्वप्न में भी संकट है। देखिये स्वप्न में जैसे बाह्यपदार्थ देखने में आते हैं जंगल देखा, तालाब देखा, रीछ आदि देखा, ये सब देखने में आते हैं तो क्या किया स्वप्न में कि हमने कुछ बाहरी पदार्थों को जाना, ऐसे ही स्वप्न में आत्मपदार्थ को भी जान सकते हैं, क्योंकि इनके जानने का काम है। और बाह्यपदार्थ हमने जान लिया तो अपने आप स्वरूप का ज्ञान ही स्वप्न में किया जा सकता है। हाँ इतनी बात है शुरूवात न होगी। स्वप्न में अपने आत्मा को जानें तो आत्मा का अनुभव स्वप्न में भी हो जाता है, मगर जो संबंध बाह्यपदार्थों से लगा हुआ है जितना-जितना संबंध लगा हुआ है उतना वह अपने में स्थित नहीं हो सकता। इसके लिए जान जानकर यह प्रयत्न करना चाहिए कि विषयकषायों के साधनभूत परद्रव्यों से हटें, और यह हटता भी है। ऐसी भावना करता हुआ यह ज्ञानी बाह्यपदार्थों से दूर हो रहा है और जितना बाह्यपदार्थों से दूर हो रहा है उतना ही वह अपने आनंद का लाभ कर रहा है।