वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1642
From जैनकोष
स्रक्शय्यासनयानवस्त्रवनितावादित्रमित्रांगजान्,कर्पूरागुरुचंद्रचंदनक्रीडाद्रिसौधध्वजां।
मातंगांश्च विहंगचामरपुरीभक्षान्नपानानि वा,छत्रादीनुपलभ्य वस्तुनिचयान्सौख्यं श्रयंतेऽंगिन:।।1642।।
इस छंद के सुख के आश्रयभूत का वर्णन है। प्राणी पुण्य मेल आफत आदिक का आश्रय पाकर सौख्यरूप परिणाम करता है। यह पुण्यकर्म का फल बताया है, पर इसमें भी यह निरखना कि पुण्य कर्म के इन फलों में भी जीव को शांति है क्या, आकुलता का अभाव है क्या? तो कहते है कि कोई बड़े सुख का अनुभव यदि कर रहा है तो उसके चित्त में आकुलताएँ मचती रहती हैं। उसे अपने आत्मा की सुध नहीं रहती। उसे उसमें चैन कहाँ है? जब उपयोग अपने आत्मतत्त्व को नहीं जान रहा तो फिर उसको चैन कहाँहोगी? कोई धन में सुख मानते, कोई अपने बड़प्पन में, कोई किसी में सुख का अनुभव करते हैं। कुछ भी चीज रखें, चटाई रखें, बहुत बढ़िया है, कीमती हो, जरा सी लपेट में आ जाय, सुंदर हो, इसकी फिकर रखें तो बहुत बढ़िया आसन बनाकर ठाठ से बैठना, मौज मानना, भूल जाना यही है पुण्य का फल। सवारी बढ़िया, घोड़ा, हाथी, अच्छी साइकिल, अच्छी मोटर, अच्छा यान, उन्हें देखकर मौज मानना, इनमें ही जीव सुख का अनुभव करते हैं। वस्त्रों की तो नाना डिजाइन हैं। जिन डिजाइनों की संख्या लाखों की होगी। जब खरीदते हैं तो अनेक डिजाइन के वस्त्रों को देखते हैं, और उनमें से मनमाफिक डिजाइन का वस्त्र खरीदकर बड़ा सुख मानते हैं। सो जरा पुण्य का उदय है, जिसके कारण आज सब कुछ मिल रहा है और बहुत-बहुत इतरा रहे हैं। ठीक है, इतरा लें, पर धर्म की ओर दृष्टि नहीं है तो फल उनको अच्छा नहीं मिलने का। नाना प्रकार के बाजे हैं―उन बाजों की गिनती करें तो वे भी हजारों तरह के हैं। कैसे-कैसे शोक हैं लोगों के? उन बाजों की डिजाइनों की गिनती करें तो वे भी हजारों तरह के हैं। मित्र अच्छा मिल जाय। मित्र को पाकर भी यह प्राणी सुख का अनुभव करता है। एक अपने में गर्व भी करता। हमारे बड़े-बड़े मित्र हैं। पुत्रादिक आज्ञाकारी मिल गए तो उनका आश्रय करके बड़ा सुख मानते हैं। लोग अपने पुत्रों को खूब सजाकर सभा सोसाइटी में ले जाते और जैसे बैठना चाहिए, जैसी विनय करना है यह सब समझा देते हैं और उन लड़कों को उस ढंग से सभा सोसाइटी में ले जाकर अपना गौरव मानते हैं। कपूर, इत्र, धूपबत्ती आदिक कितनी ही तरह सुगंधित पदार्थों का सेवन करके सुख मानते हैं। यद्यपि कहीं इन सुगंधित चीजों के सेवन से कोई स्वास्थ्य नहीं बढ़ जाता, पर दिल बहलाने के लिए नाना तरह के सुगंधित पदार्थों का सेवन करते हैं। चंद्रमा चंदन आदि जो शीतल पदार्थ है उनका आश्रय करके सुख मानते हैं। शरदकाल का चंद होता है उसमें कितना उत्सव मनायें जाते हैं। चंद्र को निरखने से लोग सुख का अनुभव करते हैं। तो ये जीव चंद्रमा चंदन आदिक शीतल पदार्थों का आश्रय पाकर सुख का अनुभव करते हैं। वनों में घूमना, नाना प्रकार की सहस्य लीलाएँ करके बड़ा मौज मानते। ये सब पुण्य के उदय के फल हैं। लोग गर्मी के दिनों में ठंडे पर्वतों पर रहकर सुख का अनुभव करते हैं। साल के 10-11 महीना तो अन्यत्र कहीं रहे और एक आध महीने को मसूरी आदिक के पर्वत पर पहुँच गए। वहाँ पर रहकर बहुत सा खर्च भी किया और उससे अपने को सुखी अनुभव किया, इस प्रकार की बातें होती हैं। बहुत से लोग बिजलियों नसेनी से बहुत ऊँचे के मकान में झट चढ जाते हैं। इसमें अपने को सुखी अनुभव करते है। ये सब पुण्य के ठाठ बताये जा रहे हैं। बहुत से लोग अपने मकान या महल में ध्वजा फहराकर सुख का अनुभव करते हैं। एक सेठजी थे तो वह करोड़पति न थे। मान लो उनके पास 99 लाख का ही धन था। और जो करोड़पति हो जाय वह अपने मकान या महल में झंडा फहरा सकता था। तो उसने अपने मकान में झंडा फहराने की बात सोची। एक लाख रुपये की सिर्फ कमी थी, तो झट उसने नौकर मुनीम वगैरह कम करके और खुराक से भी बहुत कम खाकर 1 रुपया और बढ़ाने की कोशिश करने लगा। तो पैसा हाथ में आने के लिए भी वैसा ठाठ होना चाहिए। पा नौकरों की कमी के कारण उसके कार्यों में अव्यवस्था हो गयी और काम कुछ कमजोर पड़ने लगा, आखिर हुआ क्या कि ज्यों-ज्यों वह धन बढ़ाने की सोचे त्यों-त्यों उसका धन घटता जाय। वह न एक करोड रुपया का धनी बन सका और न अपने मकान में झंडा फहरा सका। तो लोग अनेक प्रकार की चीजों का सेवन करके अपने को सुखी मानते हैं। खाने-पीने की चीजों से लोग सुख भोगते हैं। ये सब पुण्य के ठाठ हैं। ये भी संसार के बढ़ाने वाले हैं, इनमें ममता जगेगी तो संसार का परिणाम बनेगा।