वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 201
From जैनकोष
न सम्यग्गदितुं शक्यं यत्स्वरूपं कुदृष्टिभि:।
हिंसाकपोषकै: शास्त्रैरतस्तैस्तन्निगद्यते।।201।।
धर्मशून्यवचनों से धर्म की अवक्तव्यता―हम आप सब जीवों के लिए एकमात्र परमशरण धर्म क्या है, इस नात को कहने के लिए वह पुरुष समर्थ नहीं हो सकता जो हिंसा और इंद्रिय के विषयों के पोषने वाले कुदृष्टिजन हैं अथवा उन शास्त्रों से भी धर्म का स्वरूप यथार्थ समझ में नहीं आ सकता जो हिंसा और इंद्रियों के विषय का ही पोषण करने वाले हैं अथवा उन गुरुओं सन्यासियों साधुओं से भी धर्म की बात समझने में नहीं आ सकती जो अपने इंद्रिय के विषयों के पोषण में ही लगे रहते हैं। धर्म की बात उन्हीं पुरुषों के द्वारा विदित हो सकती है जिनका अपना जीवन भी उस धर्म में सना हुआ बना रहता है।
मर्मशून्य वाणी में मर्म की अजानकारी―यों तो धर्म का स्वरूप जानकर पढ़कर शास्त्र से अध्ययन कर कहने की बात सभी कर सकते हैं, किंतु अपने आपमें उस धर्म के भाव बनाकर फिर धर्म के स्वरूप का वर्णन किया जाय तो उस जीवन में यथार्थ स्वरूप सत्य प्रकट होता है। यों तो लोग तोते को भी पढ़ा लेते हैं, कई-कई दोहा अथवा कई वाक्य तोते भी बोला करते हैं, पर क्या उन तोतों के चित्त में उसका कुछ अर्थ भी समाया है। जो सिखा दो सो तोता बोलने लगता है। ऐसे ही केवल अक्षर सीख लेने पर, धर्म की कुछ बातें याद कर लेने पर धर्म की बात को कहने लगें तो उनका कथन तोते की तरह है। और जैसे तोते किसी बात का उत्तर नहीं दे सकते हैं ऐसे ही केवल रटंत विद्या से जो कुछ विद्वान् बन जाता है वह विभिन्न श्रोताओं मर्मनिर्णायक उत्तर अपनी भाषा में नहीं दे सकता है।
धर्माचरण से ही धर्मप्रभावना―भैया ! धर्म की बात का प्रचार करने के लिए पहिले स्वयं को धर्ममूर्ति बनना चाहिए। किसी समाज में मान लो 100 पुरुष हैं और 100 के 100 ही पुरुष इस प्रयत्न में लग जायें कि लोगों में धर्म का प्रचार हो, लोग इस धर्म को मानने लगें, प्रशंसा करने लगें तो क्या आप यह कह सकते हैं कि वहाँ कुछ धर्म का प्रचार हुआ? जबकि 100 के 100 ही धर्म से शून्य हैं, केवल धर्म का प्रचार कर रहे हैं। यदि उनमें से एक भी कोई धर्मात्मा बन जाय तो यह कहा जा सकता है कि 100 आदमियों के समाज में एक आदमी तो धर्मात्मा निकला। धर्म एक प्रयोग और अनुभव की चीज है। दया से भरा हुआ हृदय रहे, असत्यता से अपने को दूर रखे, चोरी, कुशील, परिग्रह, तृष्णा इनसे अपने को दूर बनाये रहे, सब जीवों का भला सोचे, सब जीवों में वह स्वरूप दिखे जिस स्वरूप से हम और ये सब एकसमान हों―ऐसी आत्मा के स्वरूपमर्म की बात चित्त में बसे तो वहाँ धर्म प्रकट होता है।
यथार्थ प्रयोग के बिना विडंबना―सही प्रयोग के बिना तो ऐसी विडंबना की स्थिति बन जायेगी जैसे एक कथानक दिया गया है कि बादशाह ने पूछा अपने मंत्री से कि मंत्री यह तो बताओ कि हमारे नगर में ये प्रजा के लोग सब हमारी आज्ञा मानते है या नहीं? मंत्रि बोला, महाराज यदि मुझसे वचनमात्र से उत्तर दिलाते हो तो हम आपसे यही कहेंगे कि सब मानते हैं आपकी आज्ञा और सही बात समझना चाहो तो आपको हम कल समझा देंगे। अच्छा, तो मंत्री ने नगर में ढिंढोरा बजवाया कि कल सरकार को बहुत दूध की जरूरत है। सब लोग आज रात्रि को अपने-अपने घर से एक-एक सेर दूध लायें और महल में बड़ा हौद बनाया गया है उसमें डाल दें। सब लोग सोचते हैं अपने घर में बैठे-बैठे कि सब लोग तो दूध ले ही जायेंगे, हम अपने घर से एक सेर पानी ले जायें, रात्रि का समय है, कौन देखता है तो हम दूध देने से तो बच जायेंगे। हजार घर होंगे नगर में तो हजारों आदमियों ने यही सोच लिया, सब लोग एक-एक लोटे में पानी ले गये और उसी हौद में डाल दिया। सवेरे मंत्री ने बादशाह को दिखाया और कहा देखो महाराज आपके नगर में सब कैसे आज्ञाकारी हैं? दूध का हुक्म दिया था ना, पर इसमें एक बूँद भी दूध की है क्या? हम धर्म की आज्ञा मानते हैं, हम धर्म का बहुत बड़ा प्रचार करते हैं, पर खुद में धर्म कितना उतरा है यह भी तो निरख लो।
धर्मलाभ की पद्धति―धर्म तो धर्मात्मा बनने से होता है न, कि शब्दों से होता है। उस बोल व्यवहार का धर्म का न स्वयं पर असर होता, न कहीं अन्यत्र असर होता। वह तो एक विधि बना ली गई है। तो जो मिथ्यादृष्टि जन हैं, जिन्हें अपने इंद्रिय का विषय ही प्रिय लग रहा है, जो खुदगर्ज हैं, अपने विषयभोगों में ही आसक्त रहा करते हैं उन पुरुषों से क्या धर्म का स्वरूप सम्यक्, प्रकार से कहा जा सकता है? उनमें से जो पुस्तकें मात्र विषय से, राग से, दुनियावी प्यारों से, इन ही वर्णनों से भरी हुई हैं, क्या उन पुस्तकों से धर्म का स्वरूप प्रकट हो सकता है? धर्म का स्वरूप तो धर्म के आचरण से प्रकट होता है। मात्र कहना झूठ है, करना सच है, यह बात लोक में बहुत प्रसिद्ध है? धर्म क्या है? इस बात को इस ग्रंथ में आचार्य स्वयं बता रहे हैं और उससे पहिले धर्म की प्रशंसा में धर्म की कुछ विशेषता कह रहे हैं।