वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2043-2044
From जैनकोष
यमराध्यशिवं प्राप्ता योगिनो जन्मनिस्पृहा: ।
यं स्मरंत्यनिशं भव्या: शिवश्रीसंगमोत्सुक।: ।।2043।।
यस्य वागमृतस्यैकामासाद्य कणिकामपि ।
शाश्वते पथि तिष्ठंति प्राणिनः प्रास्तकल्मषा: ।।2044।।
देवदेव स ईशानो भव्यांभोजैकभास्कर: ।
ध्येय: सर्वात्मना वीर: निश्चलीकृत्य मानसम् ।।2045।।
प्रभु में कृतकृत्यता का महत्त्वशाली योग―वीरप्रभु का ध्यान करो, जिसकी आराधना करके योगीजन मुक्ति को प्राप्त हुए हैं । किसी भी प्रसंग में प्रश्न करते जाइये, उत्तर देते जाइये । फिर क्या होगा? तो एक समाधान रूप में उस तत्व का निर्णय कर सकते हैं । अच्छा, अब जन्म हुआ है, फिर क्या होगा? बड़े होंगे, पढ़ेंगे । फिर क्या होगा? डिग्रियां पायेंगे । फिर क्या होगा? धनार्जन करेंगे, गृहस्थी बसायेंगे । फिर क्या होगा? बूढ़े होंगे, शरीर शिथिल होगा । फिर क्या होगा? बस इसी तरह किसी दिन मरण हो जायगा । फिर क्या होगा? फिर अगले भवों में कीट, मकोड़ा, पशु पक्षी आदिक जिस किसी भी योनि में पहुंचेंगे वहाँ के दुःख भोगने होंगे । फिर क्या होगा? तो इस चर्चा का कोई अंत ही नहीं । इसका समाधान कहाँ खत्म होगा? हाँ, यदि कोई ऐसा यत्न करे-जो आत्मसाधना का, रत्नत्रय की साधना का, आत्मविश्वास, अध्यात्मयोग इनकी साधना का यत्न करे तो फिर क्या होगा? यह बात पूछ लो, चर्चा का अंत हो जायगा । अच्छा, क्या होगा? कर्म नष्ट होंगे । फिर क्या होगा? सिद्ध होंगे, फिर होगा? अनंत आनंद का अनुभव करते रहेंगे । फिर क्या होगा? बस उसी अनंत आनंद का अनुभव करते रहेंगे । अब इसके आगे प्रश्न की गुंजाइश नहीं । कृतकृत्य हो गये, फिर होगा? यह प्रश्न खड़ा ही नहीं हो सकता । तो यह संसार रमने योग्य नहीं है, इसे तजकर जिन योगियों ने प्रभुस्वरूप की आराधना की । उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया । जो भव्य जीव इस मोक्षलक्ष्मी के अभिलाषी हैं वे निरंतर जिस प्रभु का स्मरण करते हैं उस प्रभु का हे भव्यजनो ! ध्यान करो । जिसके वचनरूपी अमृत की एक कणिका को भी पा करके शाश्वत आनंदमय पद को प्राप्त किया जाता है, ऐसी वीरप्रभु का ध्यान करो ।
वीर प्रभु का आदर―इस चतुर्थ काल के अंत में 24 वे तीर्थंकर वर्द्धमान (महावीर) स्वामी हुए हैं, उनकी उपदेश परंपरा से जो आज हमें उपदेश मिला है उस उपदेश को पाकर यथार्थ निर्णय करके हम अपने को कृतार्थ समझते हैं । इस संबंध में हम कितना आभार मानें वीर प्रभु का? है तो सभी का आभार, एक उनके शासन में, उनकी वाणी की परंपरा में हमने अपने कल्याण का मार्ग जान पाया है । तो उनके वचनामृत की कणिका भी इस जीव का भला कर देगी । किसी के हृदय में कहो कोई बात ऐसी लग जाय कि वह उसके आधार पर ही सम्यक्त्व पैदा कर ले । और फिर उन वचनों की उपासना करने से जो पुण्यरस बढ़ता है, उससे लौकिक समृद्धियाँ मिलती हैं । एक भाई को जैनशासन के उपदेश से इतना विरोध था कि जब वह बाजार की गली से निकले तो अपने कानों को बंद कर के निकले इसलिए कि कहीं कोई शब्द हमारे कान में न पड़ जाय । एक बार निकल रहा था और उसी समय पैर में काँटा लग गया तो तुरंत कान खुल गये । काँटा निकालने लगा । इतने में कुछ शब्द उसके कानों में पड़ गए―देवो के छाया नहीं होती है । उनका वैक्रियक शरीर होता है और उनके शरीर की छाया भूमि पर नहीं पड़ती । इतना शब्द उसने कानों से सुन लिया और चल दिया । योग ऐसा हुआ कि उसी दिन दो तीन पुरुष भूत जैसा भेष बनाकर (जैसा कि नाटकों में चेहरा लगाकर लोग अपना भेष बदल देते हैं) उसके घर पहुंचे । वे चोर तो यह समझते थे कि घर के लोग हमें भूत समझकर डरकर भाग जायेंगे और हम लोग मनमाना धन लुट लेंगे । सो वह पुरुष पहिले तो डरा, पर बाद में देखा कि इनके शरीर की छाया तो जमीन में पड़ रही है, ये भूत नहीं हैं ये तो मनुष्य हैं, भूत का भेष बनाकर आये हैं, सो उसने डटकर उनका मुकाबला किया, वे भाग गए, सारा धन भी बच गया । तो उसने सोचा कि देखो―जैनधर्म के एक छोटे से वाक्य को सुन लिया तो उससे इतना लाभ हुआ, फिर और अगर जैन धर्म के सारे उपदेश को सुना जाय तो न जाने कितना लाभ होगा? उसे जैनधर्म से श्रद्धा हुई ।
संकटमोचक मूल उपाय―जैनधर्म में संकटमोचक का मूल उपाय बताया है वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान करना । एक-एक चीज एक-एक परमाणु प्रत्येक पदार्थ अपने आपके स्वरूप में परिपूर्ण हैं, अधूरा पदार्थ कोई नहीं है । किसी से कुछ निकलता नहीं है, सभी पदार्थ पूरे के पूरे बने हुए हैं । कभी जीव राग करता है तो, द्वेष करता है तो वह अपना पूरा का पूरा परिणमन करता है, अधूरा परिणमन नहीं करता । प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप से है पर के स्वरूप से नहीं है । इस उपदेश ने ऐसा प्रकाश दिया कि जिससे मोह नष्ट हो जाता । मोह नष्ट हो जाय यह सबसे महान वैभव है, और आनंद का घात करने वाला जो मोह था, मोह दूर हो गया तो उसे शांति ही समझिये । किसी आदमी को अपने ही घर में कुछ अंधेरे उजेले में किसी जगह पड़ी हुई रस्सी में यह भ्रम हो जाय कि यह तो साँप है तो उसे देखकर वह पुरुष बहुत घबड़ाता है, लोगों को भी बुलाता है, बड़ा बेचैन होता है । पर कुछ थोड़ी हिम्मत कर के उसके निकट जाय, देखें तो सही कि कौनसा साँप है, उसे देखकर कुछ अंदाज हुआ कि यह तो चल भी नहीं रहा है, जरासा हिलडुल भी नहीं रहा है, थोड़ासा और निकट जाकर देखा तो मासूम पड़ा कि यह साँप नहीं है । जरा और हिम्मत बनाकर पास गया तो ज्ञात हो गया―ओह ! यह तो रस्सी है । लो इतना ज्ञान होते ही उसकी सारी घबडाहट, सारी व्याकुलता, सारी विह्वलता मिट गई । अब उसे कोई कितना ही घबडवाये तो वह नहीं घबड़ा सकता । कोई कहे कि मैं इतने रुपये इनाम दूंगा, उसी तरह घबड़ाकर दिखा दो, तो वह नहीं दिखा सकता । भले ही धन के लोभ से वह कुछ बनावटी घबड़ाहट बनाये, पर वह घबड़ाहट नहीं अपने में ला सकता । तो इसी तरह समझिये कि जब चित्त में यह भली भांति निर्णय हो जाता है कि जीव सब अपने-अपने स्वरूप में पूरे हें, किसी का कुछ किसी दूसरे जीव में नहीं जाता, तब इस सत्य निर्णय के होने पर फिर मोह कहाँ ठहर सकता है? जिन में जब भी जितना मोह है उन्हें यह सोचना चाहिए कि हमारे निर्णय में कमी है, उस भेदविज्ञान को उतारने में कमी है । वस्तुस्वरूप का जिसे यथार्थ निर्णय हुआ है उसके मोह नहीं ठहर सकता है ।
ज्ञानज्योतिर्मय बीर प्रभु की उपास्यता―जिनप्रभु के उपदेश की रंच भी कणिका प्राप्त कर भव्यजन मुक्त हो जाते हैं ऐसे वे वीर प्रभु हम आप सबके ध्यान के योग्य हैं । ऐसे जगत के नाथ, भव्यरूपी कमल को प्रफुल्लित करने के लिए सूर्य के समान हैं । वे प्रभु सोमनाथ हैं, जगत के स्वामी हैं । चंद्रप्रभु कहो अथवा चंद्र की तरह अमृत बरसाने में कुशल वे नाथ हैं । किन्हीं भी शब्दों में कहो, वे प्रभु सांवरियां हैं । पार्श्वनाथ का साँवला रूप कहा ही जाता है । किन्हीं भी शब्द कहो, यदि ज्ञानपुंज रूप में उसे निहार सकते हैं तो हम प्रभु के सत्य गुण तक पहुंच सकते हैं और एक ज्ञान मूल को यदि न जाना और कुछ भी जानते रहे प्रभु के बारे में तो वहाँ तत्व नहीं प्राप्त कर सकते, जिसके ध्यान से हम प्रभु में एकरस लीन हो सकें । ऐसे ज्ञानपुंज प्रभु वीर नाथ हैं, जिनकी आराधना करके प्राणी ममत्व को दूर करके विशुद्ध निर्णय बनाने का परिणाम करते हैं, वै वीर प्रभु ऐसे ध्यान करने योग्य हैं कि जहाँ चित्त को पूर्ण स्थिर कर लिया जाय । एक मन होकर उन प्रभु का ज्ञानी सम्यग्दृष्टि पुरुष ध्यान करते हैं ।