वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2204-2205
From जैनकोष
त्रैलोक्यतिलकीभूतं नि:शेषविषयच्युतम् ।
निर्द्वंद्वं नित्यमत्यक्षं स्वादिष्टं स्वस्वभावजम् ।।2204।।
नरौपम्यमविच्छिन्नं स देव: परमेश्वर: ।
तत्रैवास्ते स्थिरीभूत: पिबन् ज्ञानसुखामृतम् ।।2105।।
प्रभु की ज्ञानामृत से तृप्तता―वे प्रभु योगीश्वर उपमारहित, नामरहित निरंतर अनुभव में आ रहे हुए उस स्वाभाविक ज्ञानानंदामृत को पीते हुए स्थिर होकर वहीं ही ठहर जाते हैं ऐसा है वह अमृत जो तीनों लोक में अदृष्ट हैं, समस्त विषयों से परे है, अतीत है, जिसमें कि दंदफंद कलह नहीं है, निरुपम है ऐसे स्वाभाविक ज्ञानानंदामृत को पीते हुए वे प्रभु अपने स्वभाव में ही ठहर जाते हैं । यहाँ भी तो जब कोई कभी बहुत ही रुचिकर स्वादिष्ट चीज खा रहा होगा तो उस समय में यहाँ वहाँ की बातें भूलकर अपने आप में हो सिकुड़े हुए होकर, एकतान होकर उसके रस को अनुभवते हैं । तो जब कोई उच्च आनंद प्राप्त होता है तो फिर उसे छोड़कर बाहर कहाँ जाय? प्रभु को स्वाभाविक केवलज्ञान और अनंत आनंद का जो अनुभवन है उस अनुभव को भोगकर अब वह बाहर कहाँ जाय? वह निर्विकार है, अपने ही आनंद में निरंतर लुप्त रहता है ।
मोहियों की क्लेशसाधनों में रुचि―मोही जन ही यहाँ के लौकिक वैभव के कुछ घटनाओं को निरखकर मौज मानते हैं । मोहियों की ही ऐसी अवस्था है कि अपने स्वभाव से च्युत होकर बाहर में अपना उपयोग रमायें । एक जगह एक महफिल लगी हुई थी । उस महफिल में मिरदंग भी बज रहा था, मंजीरा भी बज रहे थे, और एक वेश्या गीत गा गाकर नाच रही थी । तो उस समय के दृश्य को कवि ने अपनी कविता में खींचा है । वह कविता क्या है कि मिरदंग कहे धिक है, धिक है, मंजीरा कहे किनको, किनको । तब वेश्या हाथ पसार कहे, इनको इनको इनको इनको । मिरदंग की आवाज ऐसी ही तो होती है ना―धिक् धिक्, अर्थात् धिक्कार है धिक्कार है । मंजीरे की आवाज किनको किनको कई होती है, अर्थात् मंजीरा मानो पूछ रहे हैं मिरदंग से कि किन को धिक्कार है । तब वेश्या ने हाथ पसारकर चारों दिशावों में बैठे हुए लोगों की ओर संकेत करते हुए कहा―इनको, इनको, इनको, इनको । अर्थात् इन चारों दिशावों में बैठे हुए लोगो को धिक्कार है । तो देखो―जो घटना इस प्रकार की बात बता रही है उसी घटना में लोग रति करते हैं । उसी में वे मौज मानते हैं ।
शांति के अनुभव की पात्रता―एक कहावत है कि वे पुरुष खीर को क्या जाने जो पंजीरी में ही रम रहे हैं । पंजीरी होती होगी कोई बासी बफूड़ी चीज । जो इन बासी बफूड़ी चीजों में ही रम रहे हैं वे क्या जाने खीर का स्वाद? ऐसे ही जिनको विषयों में प्रीति लगी है, बाहरी पदार्थो में राग लगा हुआ है वे पुरुष किसी भी समय अपने आत्मा में बसे हुए उस सहज कारणपरमात्मतत्त्व के दर्शन नहीं कर सकते हैं । शरण तो केवल अपने को अपने आप में ही मिलेगा, अन्यत्र न मिलेगा । यह बात बिल्कुल सत्य है, ऋषि संतों द्वारा कही हुई है । इस बात को लिखकर रख लो कि जगत में शरण अपने को अपने आप में ही मिलेगा अन्यत्र नहीं । शांति तो अपने आप में ही आकर प्राप्त हो सकती है, बाहर में शांति कभी भी नहीं पा सकते । तो वह उपाय करना होगा, अपने स्वभाव का आलंबन लेना होगा जिसके प्रसाद से संसार के संकट सदा के लिए छूट सकते हैं ।